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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक यावत् साधुता के समस्त गुणों से उत्पन्न होकर विचरने लगा । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अरिहंत अरिष्टनेमि के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन करके बहुत से अष्टमभक्त, षष्ठभक्त यावत् चतुर्थभक्त आदि करते हुए विचरने लगे । अरिहंत अरिष्टनेमि ने थावच्चापुत्र अनगार को उनके साथ दीक्षित होने वाले इभ्य आदि एक हजार अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किए ।
तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने एक बार किसी समय अरिहंत अरिष्टनेमि की वंदना की और नमस्कार किया । वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा भगवन्! आपकी आज्ञा हो तो मैं हजार साधुओं के साथ जनपदों में विहार करना चाहता हूँ ।' भगवान ने उत्तर दिया- 'देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' भगवान की अनुमति प्राप्त करके थावच्चापुत्र एक हजार अनगारों के साथ बाहर जनपदों में विचरण करने लगे।
सूत्र - ६६
उस काल और उस समय में शैलकपुर नगर था। उसके बाहर सुभूमिभाग उद्यान था। शैलक राजा था। पद्मावती रानी थी । मंडुक कुमार था । वह युवराज था । उस शैलक राजा के पंथक आदि पाँच सौ मंत्री थे । वे ओत्पत्तिकी वैनयिकी पारिणामिकी और कार्मिकी इस प्रकार चारों तरह की बुद्धियों से सम्पन्न थे और राज्य की धुरा के चिन्तक भी थे-शासन का संचालन करते थे । थावच्चापुत्र अनगार एक हजार मुनियों के साथ जहाँ शैलकपुर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहाँ पधारे। शैलक राजा भी उन्हें वन्दना करने के लिए कला । थावच्चापुत्र ने धर्म का उपदेश दिया ।
धर्म सूनकर शैलक राजा न कहा जैसे देवानुप्रिय के समीप बहुत से उग्रकुल के, भोजकुल के तथा अन्य कुलों के पुरुषों ने हिरण्य सुवर्ण आदि का त्याग करके दीक्षा अंगीकार की है, उस प्रकार मैं दीक्षित होने में समर्थ नहीं हूँ । अत एव मैं देवानुप्रिय से पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को धारण करके श्रावक बनना चाहता हूँ ।' इस प्रकार राजा श्रमणोपासक यावत् जीव- अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता हो गया यावत् तप तथा संयम से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा। इसी प्रकार पंथक आदि पाँच सौ मंत्री भी श्रमणोपासक हो गए। थावच्चापुत्र अनगार वहाँ से विहार करके जनपदों में विचरण करने लगे।
सूत्र - ६७
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उस काल और उस समय में सौगंधिका नामक नगरी थी। (वर्णन) उस नगरी के बाहर नीलाशोक नामक उद्यान था । (वर्णन) उस सौगंधिका नगरी में सुदर्शन नामक नगर श्रेष्ठी निवास करता था। वह समृद्धिशाली था, यावत् वह किसी से पराभूत नहीं हो सकता था। उस काल और उस समय में शुक नामक एक परिव्राजक था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा षष्टितन्त्र में कुशल था। सांख्यमत के शास्त्रों के अर्थ में कुशल था । पाँच यमों और पाँच नियमों से युक्त दस प्रकार के शौचमूलक परिव्राजक धर्म का, दानधर्म का, शौचधर्म का और तीर्थस्नान का उपदेश और प्ररूपण करता था । गेरू के रंगे हुए श्रेष्ठ वस्त्र धारण करता था । त्रिदंड, कुण्डिकाकमंडलु, मयूरपिच्छ का छत्र, छन्नालिक, अंकुश पवित्री और केसरी यह सात उपकरण उसके हाथ में रहते थे । एक हजार परिव्राजकों से परिवृत्त वह शुक परिव्राजक जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजक का आवसथ था, वहाँ आया। आकर परिव्राजकों के उस मठ में उसने अपने उपकरण रखे और सांख्यमत के अनुसार अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा ।
तब उस सौगंधिक नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर चतुर्मुख, महापथ, पथों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर परस्पर ऐसा कहने लगे निश्चय ही शुक परिव्राजक यहाँ आए हैं यावत् आत्मा को भावित करते हुए 'विचरते हैं। तात्पर्य यह कि शुक परिव्राजक के आगमन की गली गली और चौराहों में चर्चा होने लगी । उपदेश-श्रवण के लिए परीषद् नीकली । सुदर्शन भी नीकला । तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने उस परीषद् को, सुदर्शन को तथा अन्य बहुत-से श्रोताओं को सांख्यमत का उपदेश दिया । यथा - हे सुदर्शन ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है। यह शौच दो प्रकार का है- द्रव्यशौच और भावशीच द्रव्यशीच जल से और मिट्टी से होता है ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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