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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक भूमिकाओं में विश्वासपात्र रहा है, परामर्श-विचार देने वाला विचारक है, और सब काम चलाने वाला है । अत एव हमें तेतलिपुत्र अमात्य से कुमार की याचना करनी चाहिए। तेतलिपुत्र अमात्य के पास आए । तेतलिपुत्र से कहने लगे-'देवानुप्रिय ! बात ऐसी है-कनकरथ राजा राज्य में तथा राष्ट्र में आसक्त था । अत एव उसने अपने सभी पुत्रों को विकलांग कर दिया है और हम लोग तो देवानुप्रिय ! राजा के अधीन रहने वाले यावत् राजा के अधीन रहकर कार्य करने वाले हैं । हे देवानुप्रिय ! तुम कनकरथ राजा के सभी स्थानों में विश्वासपात्र रहे हो, यावत् राज्यधूरा के चिन्तक हो । यदि कोई कुमार राजलक्षणों से युक्त और अभिषेक के योग्य हो तो हमें दो, जिससे महान-महान् राज्याभिषेक से हम उसका अभिषेक करें।
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने उन ईश्वर आदि के इस कथन को अंगीकार किया । कनकध्वज कुमार को स्नान कराया और विभूषित किया । फिर उसे उन ईश्वर आदि के पास लाया । लाकर कहा-'देवानुप्रियो ! यह कनकरथ राजा का पुत्र और पद्मावती देवी का आत्मज कनकध्वज कुमार अभिषेक के योग्य है और राजलक्षणों से सम्पन्न है। मैंने कनकरथ राजा से छिपाकर उसका संवर्धन किया है । तुम लोग महान-महान राज्याभिषेक से इसका अभिषेक करो।' इस प्रकार कहकर उसने कुमार के जन्म का और पालन-पोषण आदि का समग्र वृत्तान्त उन्हें कह सूनाया । तत्पश्चात् उन ईश्वर आदि ने कनकध्वज कुमार का महान्-महान् राज्याभिषेक किया । अब कनकध्वज कुमार राजा हो गया, महाहिमवान् और मलय पर्वत के समान इत्यादि यावत् वह राज्य का पालन करता हुआ विचरने लगा । उस समय पद्मावती देवी ने कनकध्वज राजा को बुलाया और बुलाकर कहा-पुत्र ! तुम्हारा यह राज्य यावत् अन्तःपुर तुम्हें तेतलिपुत्रकी कृपा से प्राप्त हुए हैं । यहाँ तक कि स्वयं तू भी तेतलिपुत्र के ही प्रभाव से राजा बना है। अत एव तू तेतलिपुत्र अमात्य का आदर करना, उन्हें अपना हितैषी जानना, उनका सत्कार करना, सम्मान करना, उन्हें आते देख कर खड़े होना, उनकी उपासना करना, उनके जाने पर पीछे-पीछे जाना, बोलने पर वचनों की प्रशंसा करना, उन्हें आधे आसन पर बिठाना और उनके भोद की वृद्धि करना । तत्पश्चात् कनकध्वज ने पद्मावती देवी के कथन को अंगीकार किया । यावत् वह पद्मावती के आदेशानुसार तेतलिपुत्र का सत्कार-सम्मान करने लगा । उसने उसके भोग की वृद्धि कर दी। सूत्र-१५४
उधर पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र को बार-बार केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध दिया परन्तु तेतलिपुत्र को प्रतिबोध हुआ ही नहीं । तब पोट्टिल देव को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ- कनकध्वज राजा तेतलिपुत्र का आदर करता है, यावत् उसका भोग बढ़ा दिया है, इस कारण तेतलिपुत्र बार-बार प्रतिबोध देने पर भी धर्म में प्रतिबुद्ध नहीं होता । अत एव यह उचित होगा कि कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध कर दिया जाए ।' देव ने ऐसा विचार किया और कनकध्वज को तेतलिपुत्र से विरुद्ध कर दिया । तदनन्तर तेतलिपुत्र दूसरे दिन स्नान करके, यावत् श्रेष्ठ अश्व की पीठ पर सवार होकर और बहुत-से पुरुषों से परिवृत्त होकर अपने घर से नीकला । जहाँ कनकध्वज राजा था, उसी ओर रवाना हुआ । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य को जो-जो बहुत-से राजा, ईश्वर, तलवर, आदि देखते वे इसी तरह उसका आदर करते, उसे हितकारक जानते और खड़े होते । हाथ जोड़ते और इष्ट, कान्त, यावत् वाणी से बोलते वे सब उसके आगे, पीछे और अगल-बगल में अनुसरण करके चलते थे।
वह तेतलिपुत्र जहाँ कनकध्वज राजा था, वहाँ आया । कनकध्वज ने तेतलिपुत्र को आते देखा, मगर देख कर उसका आदर नहीं किया, उसे हितैषी नहीं जाना, खड़ा नहीं हुआ, बल्कि पराङ्मुख बैठा रहा । तब तेतलिपुत्र ने कनकध्वज राजा को हाथ जोड़े । तब भी वह उसका आदर नहीं करता हुआ विमुख होकर बैठा ही रहा । तब तेतलिपुत्र कनकध्वज को अपने से विपरीत हआ जानकर भयभीत हो गया । वह बोला-'कनकध्वज राजा मुझसे रुष्ट हो गया है, मुझ पर हीन हो गया है, मेरा बूरा सोचा है । सो न मालूम यह मुझे किस बूरी मौत से मारेगा।' इस प्रकार विचार करके वह डर गया, त्रास को प्राप्त हुआ, घबराया और धीरे-धीरे वहाँ से खिसक गया । उसी अश्व की पीठ पर सवार होकर तेतलिपुत्र के मध्यभाग में होकर अपने घर की तरफ रवाना हुआ । तेतलिपुत्र को वे ईश्वर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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