________________
आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक आदि देखते हैं, किन्तु वे पहले की तरह उसका आदर नहीं करते, उसे नहीं जानते, सामने नहीं खड़े होते, हाथ नहीं जोड़ते और इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर वाणी से बात नहीं करते। आगे पीछे और अगल-बगल में उसके साथ नहीं चलते। तब तेतलिपत्र अपने घर आया बाहर की जो परीषद् होती है, जैसे कि दास, प्रेष्य तथा भागीदार आदि उस बाहर की परीषद् ने भी उसका आदर नहीं किया, उसे नहीं जाना और न खड़ी हुई और जो आभ्यन्तर परीषद् होती है, जैसे कि माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू आदि; उसने भी उसका आदर नहीं किया उसे नहीं जाना और न उठ कर खड़ी हुई ।
I
-
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र जहाँ उसका अपना वासगृह था और जहाँ शय्या थी, वहाँ आया। बैठकर इस प्रकार कहने लगा- 'मैं अपने घर से नीकला और राजा के पास गया । मगर राजा ने आदर-सत्कार नहीं किया । लौटते समय मार्ग में भी किसी ने आदर नहीं किया । घर आया तो बाह्य परीषद् ने भी आदर नहीं किया, यावत् आभ्यन्तर परीषद् ने भी आदर नहीं किया, मानो मुझे पहचाना ही नहीं, कोई खड़ा नहीं हुआ। ऐसी दशा में मुझे अपने को जीवन से रहित कर लेना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार तेतलिपुत्र ने विचार किया विचार करके तालपुट विष अपने मुख में डाला। परन्तु उस विष ने संक्रमण नहीं किया तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने नीलकमल के समान श्याम वर्ण की तलवार अपने कन्धे पर वहन की; मगर उसकी धार कुंठित हो गई। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अशोकवाटिका में गया । वहाँ जाकर उसने अपने गले में पाश बाँधा फिर वृक्ष पर चढ़कर वह पाश वृक्ष से बाँधा । फिर अपने शरीर को छोड़ा किन्तु रस्सी टूट गई । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने बहुत बड़ी शीला गरदन में बाँधी । अथाह और अपौरुष जल में अपना शरीर छोड़ दिया। पर वहाँ पर वह जल छिछला हो गया। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने सूखे घास के ढेर में आग लगाई और अपने शरीर को उसमें डाल दिया । मगर वह अग्नि भी बुझ गई ।
I
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र मन ही मन इस प्रकार बोला- श्रमण श्रद्धा करने योग्य वचन बोलते हैं, माहण श्रद्धा करने योग्य वचन बोलते हैं, मैं ही एक हूँ जो अश्रद्धेय वचन कहता हूँ । मैं पुत्रों सहित होने पर भी पुत्रहीन हूँ, कौन मेरे इस कथन पर श्रद्धा करेगा ? मैं मित्रों सहित होने पर भी मित्रहीन हूँ, कौन मेरी इस बात पर विश्वास करेगा ? इसी प्रकार धन, स्त्री, दास और परिवार से सहित होने पर भी मैं इनसे रहित हूँ, कौन मेरी इस बात पर श्रद्धा करेगा? इस प्रकार राजा कनकध्वज के द्वारा जिसका बूरा विचारा गया है, ऐसे तेतलिपुत्र अमात्य ने अपने मुख में विष डाला, मगर विष ने कुछ भी प्रभाव न दिखलाया, मेरे इस कथन पर कौन विश्वास करेगा ? तेतलिपुत्र ने अपने गले में नीलकमल जैसी तलवार का प्रहार किया, मगर उसकी धार कुंठित हो गई, कौन मेरी इस बात पर श्रद्धा करेगा ? तेतलिपुत्र ने अपने गले में फाँसी लगाई, मगर रस्सी टूट गई, मेरी इस बात पर कौन भरोसा करेगा ? तेतलिपुत्र ने गले में भारी शीला बाँधकर अथाह जल में अपने आपको छोड़ दिया, मगर वह पानी छिछला हो गया, मेरी यह बात कौन मानेगा ? तेतलिपुत्र सूखे घास में आग लगाकर उसमें कूद गया, मगर आग बुझ गई, कौन इस बात पर विश्वास करेगा ? इस प्रकार तेतलिपुत्र भग्नमनोरथ होकर हथेली पर मुख रखकर आर्त्तध्यान करने लगा । तब पोट्टिल देव ने पोट्टिला के रूप की विक्रिया की । विक्रिया करके तेतलिपुत्र से न बहुत दूर न बहुत पास स्थित होकर इस प्रकार कहा- हे तेतलिपुत्र ! आगे प्रपात है और पीछे हाथी का भय है। दोनों बगलों में ऐसा अंधकार है कि आँखों से दिखाई नहीं देता । मध्य भाग में बाणों की वर्षा हो रही है । गाँव में आग लगी है और वन धधक रहा है । वन में आग लगी है और गाँव धधक रहा है, तो आयुष्मन् तेतलिपुत्र ! हम कहाँ जाएं ? कहाँ शरण लें ? अभिप्राय यह है कि जिसके चारों ओर घोर भय का वायुमण्डल हो और जिसे कहीं भी क्षेम-कुशल न दिखाई दे, उसे क्या करना चाहिए ? उसके लिए हितकर मार्ग क्या है ? तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिल देव से इस प्रकार कहा-अहो ! इस प्रकार सर्वत्र भयभीत पुरुष के लिए दीक्षा ही शरणभूत है । जैसे उत्कंठित हुए पुरुष के लिए स्वदेश शरणभूत है, भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, बीमार को औषध, मायावी को गुप्तता, अभियुक्त को विश्वास उपजाना, थके-मांदे को वाहन पर चढ़कर गमन कराना, तिरने के ईच्छुक को जहाज और शत्रु का पराभव करने वाले को सहायकृत्य शरणभूत है । क्षमाशील, इन्द्रियदमन करने वाले, जितेन्द्रिय को इनमें से कोई भय नहीं होता ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद"
Page 112