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________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तत्पश्चात् पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र अमात्य से इस प्रकार कहा-'हे तेतलिपुत्र ! तुम ठीक कहते हो । मगर इस अर्थ को तुम भलीभाँति जानो, दीक्षा ग्रहण करो । इस प्रकार कहकर देव ने दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा। कहकर देव जिस दिशा से प्रकट हआ था, उसी दिशा में वापिस लौट गया। सूत्र - १५५ तत्पश्चात् तेतलिपुत्र को शुभ परिणाम उत्पन्न होने से, जातिस्मरण ज्ञान प्राप्ति हुई । तब तेतलिपुत्र के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-निश्चय ही मैं इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, महाविदेह क्षेत्र में पुश्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामक राजा था । फिर मैंने स्थविर मुनि के निकट मुण्डित होकर यावत् चौदह पूर्वो का अध्ययन करके, बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करके, अन्त में एक मास की संलेखना करके, महाशुक्र कल्प में देव रूप से जन्म लिया । तत्पश्चात् आयु का क्षय होने पर मैं उस देवलोक से यहाँ तेतलिपुर में तेतलिपुत्र अमात्य की भद्रा नामक भार्या के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । अतः मेरे लिए, पहले स्वीकार किये हुए महाव्रतों को स्वयं ही अंगीकार करके विचरना श्रेयस्कर है । विचार करके स्वयं ही महाव्रतों को अंगीकार किया । प्रमदवन उद्यान आकर श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर सुखपूर्वक बैठे हुए और विचारणा करते हुए उसे पहले अध्ययन किये हुए चौदह पूर्व स्वयं ही स्मरण हो आए । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने शुभ परिणाम से यावत् तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से, कर्मरज का नाश करने वाले अपूर्वकरण में प्रवेश करके उत्तम केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्राप्त किया। सूत्र-१५६ उस समय तेतलिपुर नगर के निकट रहते हुए वाणव्यन्तर देवों और देवियों ने देवदुंदुभियाँ बजाईं । पाँच वर्ण के फूलों की वर्षा की और दिव्य गीत-गन्धर्व का निनाद किया । तत्पश्चात् कनकध्वज राजा इस कथा का अर्थ जानता हआ बोला-निस्सन्देह मेरे द्वारा अपमानित होकर तेतलिपुत्र ने मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की है। अत एव मैं जाऊं और तेतलिपुत्र अनगार को वन्दना करूँ, नमस्कार करूँ, और इस बात के लिए विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना करूँ | विचार करके स्नान किया । फिर चतुरंगिणी सेना के साथ जहाँ प्रमदवन उद्यान था और जहाँ तेतलिपुत्र अनगार थे, वहाँ पहुँचा । वन्दन-नमस्कार किया। इस बात के लिए विनय के साथ पुनः पुनः क्षमायाचना की । न अधिक दूर और न अधिक समीप-यथायोग्य स्थान पर बैठकर धर्म श्रवण की अभिलाषा करता हुआ हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ सम्मुख होकर विनय के साथ वह उपासना करने लगा। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने कनकध्वज राजा को और उपस्थित महती परीषद् को धर्म का उपदेश दिया। उस समय कनकध्वज राजा ने तेतलिपुत्र केवली से धर्मोपदेश श्रवण कर और उसे हृदय में धारण करके पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया । श्रावकधर्म अंगीकार करके वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। तत्पश्चात तेतलिपत्र केवली बहत वर्षों तक केवलीअवस्था में रहकर यावत सिद्ध हए । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवे ज्ञात-अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है । जैसा मैंने सूना वैसा ही कहा है। अध्ययन-१४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 113
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
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