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________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक होने पर बालक के माता-पिता को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि-क्योंकि हमारा यह बालक पाँच पाण्डवों का पुत्र है और द्रौपदी देवी का आत्मज है, अतः इस बालक का नाम 'पाण्डुसेन' होना चाहिए । तत्पश्चात् उस बालक के मात-पिता ने उसका पाण्डुसेन' नाम रखा । उस काल और उस समय में धर्मघोष स्थविर पधारे । धर्मश्रवण करने और उन्हें वन्दना के लिए परीषद् नीकली । पाण्डव भी नीकले । धर्म श्रवण करके उन्होंने स्थविर से कहा-'देवानुप्रिय ! हमें संसार से विरक्ति हुई है, अत एव हम दीक्षित होना चाहते हैं; केवल द्रौपदी देवी से अनुमति ले लें और पाण्डुसेन कुमार को राज्य पर स्थापित कर दें । तत्पश्चात् देवानुप्रिय के निकट मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे । तब स्थविर धर्मघोष ने कहा- देवानुप्रियो ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो ।' तत्पश्चात् पाँचों पाण्डव अपने भवन में आए । उन्होंने द्रौपदी देवी को बुलाया और उससे कहा-देवानुप्रिये ! हमने स्थविर मुनि से धर्म श्रवण किया है, यावत हम प्रव्रज्या ग्रहण कर रहे हैं । देवानप्रिये ! तुम्हें क्या करना है ? तब द्रौपदी देवी ने पाँचों पाण्डवों से कहा-'देवानुप्रियो ! यदि आप संसार के भय से उद्विग्न होते हो तो मेरा दूसरा कौन अवलम्बन यावत् मैं भी संसार के भय से उद्विग्न होकर देवानुप्रियों के साथ दीक्षा अंगीकार करूँगी। तत्पश्चात पाँचों पाण्डवों ने पाण्डसेन का राज्याभिषेक किया । यावत पाण्डसेन राजा हो गया, यावत राज्य का पालन करने लगा। तब किसी समय पाँचों पाण्डवों ने और द्रौपदी ने पाण्डुसेन राजा से दीक्षा की अनुमति माँगी । तब पाण्डुसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही दीक्षा-महोत्सव की तैयारी करो और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिकाएं तैयार करो । शेष वृत्तान्त पूर्ववत्, यावत् वे शिबिकाओं पर आरूढ़ होकर चले और स्थविर मुनि के स्थान के पास पहुँच कर शिबिकाओं से नीचे ऊतरे । स्थविर मुनि के निकट पहुँचे । वहाँ जाकर स्थविर से निवेदन किया-भगवन् ! यह संसार जल रहा है आदि, यावत् पाँचों पाण्डव श्रमण बन गए । चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक बेला, तेला, चोला, पंचोला तथा अर्धमास-खमण, मासखमण आदि तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। सूत्र-१८१ द्रौपदी देवी भी शिबिका से ऊतरी, यावत् दीक्षित हुई । वह सुव्रता आर्या को शिष्या के रूप में सौंप दी गई। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक वह षष्ठभक्त, अष्टभक्त, दशमभक्त और द्वादशभक्त आदि तप करती हई विचरने लगी। सूत्र - १८२ तत्पश्चात् किसी समय स्थविर भगवंत पाण्डुमथुरा नगरी के सहस्राम्रवन नामक उद्यान से नीकले । नीकल बाहर जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, वहाँ पधारे । सुराष्ट्र जनपद में संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उस समय बहत जन परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! तीर्थंकर अरिष्टनेमि सुराष्ट्र जनपद में यावत विचर रहे हैं। तब युधिष्ठिर प्रभति पाँचों अनगारों ने बहत जनों से यह वृत्तान्त सुनकर एक दूसरे को बुलाया और कहा-'देवानुप्रियो ! अरिहंत अरिष्टनेमि अनुक्रम से विचरते हए यावत सुराष्ट्र जनपद में पधारे हैं, अत एव स्थविर भगवंत से पूछ तीर्थंकर अरिष्टनेमि को वन्दना करने के लिए जाना हमारे लिए श्रेयस्कर है।' परस्पर की यह बात स्वीकार करके वे जहाँ स्थविर भगवंत थे, वहाँ गए | जाकर स्थविर भगवंत को वन्दन-नमस्कार किया । उनसे कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा पाकर हम अरिहंत अरिष्टनेमि को वन्दना करने हेतु जाने की ईच्छा करते हैं।' स्थविर ने अनुज्ञा दी'देवानुप्रियो ! जैसे सुख हो, वैसा करो।' तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पाँचों अनगारों ने स्थविर भगवान से अनुज्ञा पाकर उन्हें वन्दना-नमस्कार किया । वे स्थविर के पास से नीकले । निरन्तर मासखमण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम आते हुए, यावत् जहाँ हस्तिकल्प नगर था, वहाँ पहुँचे । पहुँचकर हस्तिकल्प नगर के बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान में ठहरे । तत्पश्चात् युधिष्ठिर के सिवाय शेष चार अनगारों ने मासखमण के पारणक के दिन पहले प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 138
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
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