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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक भद्रा ने इस प्रकार विचार किया । दूसरे दिन यावत् सूर्योदय होने पर जहाँ धन्य सार्थवाह थे, वहीं आई। आकर इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! मैंने आपके साथ बहुत वर्षों तक कामभोग भोगे हैं, किन्तु एक भी पुत्र या पुत्री को जन्म नहीं दिया । अन्य स्त्रियाँ बार-बार अति मधुर वचन वाले उल्लाप देती हैं-अपने बच्चों की लोरियाँ गाती हैं, किन्तु मैं अधन्य, पुण्य-हीन और लक्षणहीन हूँ, तो हे देवानुप्रिय ! मैं चाहती हूँ कि आपकी आज्ञा पाकर विपुल अशन आदि तैयार कराकर नाग आदि की पूजा करूँ यावत् उनकी अक्षय निधि की वृद्धि करूँ, ऐसी मनौती मनाऊं । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! निश्चय ही मेरा भी यही मनोरथ है कि किसी प्रकार तुम पुत्र या पुत्री का प्रसव करो-जन्म दो।' इस प्रकार कहकर भद्रा सार्थवाही को उस अर्थ की अर्थात् नाग, भूत, यक्ष आदि की पूजा करने की अनुमति दे दी।
तत्पश्चात् वह भद्रा सार्थवाही धन्य सार्थवाह से अनुमति प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रफुल्लित हृदय होकर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराती है । तैयार कराकर बहुत-से गंध, वस्त्र, माला और
अलंकारों को ग्रहण करती हैं और फिर अपने घर से बाहर नीकलती है । राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर नीकलती है । जहाँ पुष्करिणी थी, वहीं पहुँचती है । पुष्करिणी के किनारे बहुत से पुष्प, गंध, वस्त्र, मालाएं और अलंकार रख दिए | पुष्करिणी में प्रवेश किया, जलमज्जन किया, जलक्रीया कि, स्नान किया और बलिकर्म किया। तत्पश्चात् ओढ़ने-पहनने के दोनों गीले वस्त्र धारण किए हए भद्रा सार्थवाही ने वहाँ जो उत्पल-कमल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुंडरीक, महापुंडरीक, शतपत्र और सहस्र-पत्र-कमल थे उन सबको ग्रहण किया। बाहर नीकली । नीकलकर पहले रखे हुए बहुत-से पुष्प, गंध, मारा आदि लिए और उन्हें लेकर जहाँ नागागृह था यावत् वैश्रमणगृह था, वहाँ पहुँची । उनमें स्थित नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमा पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें नमस्कार किया । जल की धार छोड़कर अभिषेक किया । रूएंदार और कोमल कषाय-रंग वाले सुगंधित वस्त्र से प्रतिमा के अंग पौंछे । बहुमूल्य वस्त्रों का आरोहण किया, पुष्पमाल पहनाई, गंध का लेपन किया, चूर्ण चढ़ाया और शोभाजनक वर्ण का स्थापन किया, यावत् धूप जलाई । घुटने और पैर टेक कर, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-'अगर मैं पुत्र या पुत्री को जन्म दूँगी तो मैं तुम्हारी याग-पूजा करूँगी, यावत् अक्षयनिधि की वृद्धि करूँगी । इस प्रकार भद्रा सार्थवाही मनौती करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई और विपुल अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम आहार का आस्वादन करती हई यावत् विचरने लगी । भोजन करने के पश्चात् शुचि होकर अपने घर आ गई। सूत्र -४७
तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा के दिन विपुल अशन, पान, खादिम और भोजन तैयार करती । बहुत से नाग यावत् वैश्रमण देवों की मनौती करती और उन्हें नमस्कार किया करती थी। वह भद्रा सार्थवाही कुछ समय व्यतीत हो जाने पर एकदा गर्भवती हो गई । भद्रा सार्थवाही को दो मास बीत गए । तीसरा मास चल रहा था, तब इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ-'वे माताएं धन्य हैं, यावत् तथा वे माताएं शुभ लक्षण वाली हैं जो विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम-यह चार प्रकार का आहार तथा बहुत-सारे पुष्प, वस्त्र, गंध औरमारा तथा अलंकार ग्रहण करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों की स्त्रियों के साथ परिवृत्त होकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर नीकलती हैं । जहाँ पुष्करिणी हैं वहाँ आती हैं, आकर
अवगाहन करती हैं, स्नान करती हैं, बलिकर्म करती हैं और सब अलंकारों से विभषित होती हैं। फिर
पान, खादिम और स्वादिम आहार का आस्वादन करती हई, विशेष आस्वादन करती हई, विभाग करती हुई तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं ।' दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर धन्य सार्थवाह के पास आई । धन्य सार्थवाह से कहा-देवानुप्रिय ! मुझे उस गर्भ के प्रभाव से ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएं धन्य हैं और सुलक्षणा हैं जो अपने दोहद को पूर्ण करती हैं, आदि । अत एव हे देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो में भी दोहद पूर्ण करना चाहती हूँ । सार्थवाह ने कहा-जैसे सुख उपजे वैसा करो । ढील मत करो।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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