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________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक तुम जहाँ द्वारका नगरी है वहाँ जाओ, द्वारका नगरी के भीतर प्रवेश करके कृष्ण वासुदेव को दोनो हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहना-'हे स्वामिन् ! आपके पिता की बहन कुन्ती देवी हस्तिनापुर नगर से यहाँ आ पहुँची है और तुम्हारे दर्शन की ईच्छा करती है-तुमसे मिलना चाहती है ।' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् कृष्ण वासुदेव के पास जाकर कुन्ती देवी के आगमन का समाचार कहा । कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुषों के पास से कुन्ती देवी के आगमन का समाचार सूनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुए । हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ कुन्ती देवी थी, वहाँ आए, हाथी के स्कंध से नीचे ऊतरकर उन्होंने कुन्ती देवी के चरण ग्रहण किए । फिर कुन्ती देवी के साथ हाथी पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के मध्य भाग में होकर यावत् अपने महल में प्रवेश किया। कन्ती देवी जब स्नान करके, बलिकर्म करके और भोजन कर चुकने के पश्चात सुखासन पर बैठी, तब कष्ण वासदेव ने इस प्रकार कहा-'हे पितभगिनी ! कहिए, आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?' तब कन्ती देवी ने कृष्णवासुदेव से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र! हस्तिनापुर नगर में युधिष्ठिर आकाशतल पर सुख से सो रहा था। उसके पास से द्रौपदीदेवी को न जाने कौन अपहरण कर ले गया, अथवा खींच ले गया। अत एव हे पुत्र ! मैं चाहती हूँ कि द्रौपदीदेवी की मार्गणा-गवेषणा करो।' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृभगिनी कुन्ती से कहा -अगर मैं कहीं भी द्रौपदी देवी की श्रुति यावत् पाऊं, तो मैं पाताल से, भवन में से या अर्धभरत में से, सभी जगह से, हाथों-हाथ ले आऊंगा।' इस प्रकार कहकर उन्होंने कुन्ती का सत्कार किया, सम्मान किया, यावत् बिदा किया। कृष्ण वासुदेव से यह आश्वासन पाने के पश्चात् कुन्ती देवी, उनसे बिदा होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई । कुन्ती देवी के लौट जाने पर कृष्ण वासुदेव ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे कहा- 'देवानुप्रियो ! तुम द्वारका में जाओ' इत्यादि कहकर द्रौपदी के विषय में घोषणा करने का आदेश दिया । जैसे पाण्डु राजा ने घोषणा करवाई थी, उसी प्रकार कृष्ण वासुदेव ने भी करवाई । यावत् उनकी आज्ञा कौटुम्बिक पुरुषों ने वापिस की। किसी समय कृष्ण वासुदेव अन्तःपुर के अन्दर रानियों के साथ रहे हए थे। उसी समय वह कच्छुल्ल नारद यावत् आकाश से नीचे ऊतरे । यावत् कृष्ण वासुदेव के निकट जाकर पूर्वोक्त रीति से आसन पर बैठकर कृष्ण वासुदेव से कुशल वृत्तान्त पूछने लगे। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम बहुत-से ग्रामों, आकरों, नगरों आदि में प्रवेश करते हो, तो किसी जगह द्रौपदी की श्रुति आदि कुछ मिली है ? तब कच्छुल्ल नारद ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! एक बार मैं धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्व दिशा के दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकंका नामक राजधानी में गया था । वहाँ मैंने पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी जैसी देखी थी ।' तब कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा-'देवानुप्रिय ! यह तुम्हारी ही करतूत जान पड़ती है ।' कृष्ण वासुदेव के द्वारा इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद ने उत्पतनी विद्या का स्मरण किया । स्मरण करके जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में चल दिए । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाकर उससे कहा-'देवानुप्रिय ! तुम जाओ और पाण्डु राजा को यह अर्थ निवेदन करो-'हे देवानुप्रिय ! धातकीखण्ड द्वीप में पूर्वार्ध भाग में, अमरकंका राजधानी में, पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी का पता लगा है। अत एव पाँचों पाण्डव चतुरंगिणी सेना से परिवृत्त होकर रवाना हों और पूर्व दिशा के वेतालिक के किनारे मेरी प्रतीक्षा करें।' तत्पश्चात् दूत ने जाकर यावत् कृष्ण के कथनानुसार पाण्डवों से प्रतीक्षा करने को कहा । तब पाँचों पाण्डव वहाँ जाकर यावत् कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करने लगे । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और सान्नाहिक भेरी बजाओ ।' यह सूनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने सामरिक भेरी बजाई । सान्नाहिक भेरी की ध्वनि सूनकर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् छप्पन हजार बलवान् योद्धा कवच पहनकर, तैयार होकर, आयुध और प्रहरण ग्रहण करके कोई-कोई घोड़ों पर सवार होकर, कोई हाथी आदि पर सवार होकर, सुभटों के समूह के साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव की सुधर्मा सभा थी और जहाँ कृष्ण वासुदेव थे वहाँ मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 132
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
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