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________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक गति से अमरकंका राजधानी में पद्मनाभ के भवन में आ पहुँचा । पद्मनाभ के भवन में, अशोकवाटिका में, द्रौपदी देवी को रख दिया । अवस्वापिनी विद्या का संहरण किया । जहाँ पद्मनाभ था, वहाँ आकर इस प्रकार बोला'देवानुप्रिय ! मैं हस्तिनापुर से द्रौपदी देवी को शीघ्र ही यहाँ ले आया हूँ । वह तुम्हारी अशोकवाटिका में है । इससे आगे तुम जानो । इतना कहकर वह देव जिस ओर से आया था उसी ओर लौट गया। थोड़ी देर में जब द्रौपदी देवी की निद्रा भंग हुई तो वह अशोकवाटिका को पहचान न सकी । तब मन ही मन कहने लगी- यह भवन मेरा अपना नहीं है, वह अशोकवाटिका मेरी अपनी नहीं है । न जाने किस देव ने, दानव ने, किंपुरुष ने, किन्नर ने, महोरग ने, या गन्धर्व ने किसी दूसरे राजा की अशोकवाटिका में मेरा संहरण किया है।' इस प्रकार विचार करके वह भग्न-मनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी । तदनन्तर राजा पद्मनाभ स्नान करके, यावत् सब अलंकारों से विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत्त होकर, जहाँ अशोकवाटिका थी और जहाँ द्रौपदी देवी थी, वहाँ आया । उसने द्रौपदी देवी को भग्नमनोरथ एवं चिन्ता करती देखकर कहा-तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो ? देवानुप्रिये ! मेरा पूर्वसांगतिक देव जम्बूद्वीप से, भारतवर्ष से, हस्तिनापुर नगर से और युधिष्ठिर राजा के भवन से संहरण करके तुम्हें यहाँ ले आया है । अत एव तुम हतमनःसंकल्प होकर चिन्ता मत करो । तुम मेरे साथ विपुल भोग भोगती हुई रहो। तब द्रौपदी ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में द्वारवती नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव मेरे स्वामी के भ्राता रहते हैं । सो यदि छह महीनों तक वे मुझे छुड़ाने के लिए यहाँ नहीं आएंगे तो मैं, हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी आज्ञा, उपाय, वचन और निर्देश में रहूँगी ।' तब पद्मनाभ राजा ने द्रौपदी का कथन अंगीकार किया । द्रौपदी देवी को कन्याओं के अन्तःपुर में रख दिया । तत्पश्चात् द्रौपदी देवी निरन्तर षष्ठभक्त और पारणा में आयंबिल के तपःकर्म से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। सूत्र-१७६ इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात् थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे । वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे । सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा करने लगे । किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे । वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले-हे तात ! मैं आकाशतल पर सो रहा था । मेरे पास से द्रौपदीदेवी को न जाने कौन देव, दानव, किन्नर, महोरग अथवा गंधर्व हरण कर गया, ले गया या खींच गया । तो हे तात ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी की सब तरफ मार्गणा की जाए। तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर यह आदेश दिया- देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ और पथ आदि में जोर-जोर के शब्दों से घोषणा करते-करते इस प्रकार कहो-हे देवानुप्रियो ! आकाशतल पर सुख से सोये हुए युधिष्ठिर राजा के पास से द्रौपदी देवी को न जाने किस देव, दानव, किंपुरुष, किन्नर, महोरग या गंधर्व देवता ने हरण किया है, या खींच ले गया है ? तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति बताएगा, उस मनुष्य को पाण्डु राजा विपुल सम्पदा का दान देंगे-ईनाम देंगे। इस प्रकार की घोषणा करो । घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ। तब कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार घोषणा करके यावत् आज्ञा वापिस लौटाई । पूर्वोक्त घोषणा कराने के पश्चात् भी पाण्डु राजा द्रौपदी देवी की भी श्रुति यावत् समाचार न पा सके तो कुन्ती देवी को बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! तुम द्वारवती नगरी जाओ और कष्ण वासदेव को यह अर्थ निवेदन करो। कष्ण वासदेव ही द्रौपदी देवी की मार्गणा करेंगे, अन्यथा द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति अपने को ज्ञात हो, ऐसा नहीं जान पड़ता। पाण्डु राजा के द्वारका जाने के लिए कहने पर कुन्ती देवी ने उनकी बात यावत् स्वीकार की । वह नहाधोकर बलिकर्म करके, हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर नीकली । नीकलकर कुरु देश के बीचोंबीच होकर जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, जहाँ द्वारवती नगरी थी और नगर के बाहर श्रेष्ठ उद्यान था, वहाँ आई । हाथी के स्कंध से नीचे ऊतरी । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 131
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
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