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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक गाँवों, आकरों आदि में यावत् पर्यटन करती हो और बहुत-से राजाओं एवं ईश्वरों के घरों में प्रवेश करती हो तो कहीं किसी भी राजा आदि का ऐसा अन्तःपुर तेमने कभी पहले देखा है, जैसा मेरा यह अन्तःपुर है ?'
तब चोक्खा परिव्राजिका जितशत्रु राजा के उस प्रकार कहने पर थोड़ी मुस्करा कर बोली-देवानुप्रिय ! तुम उस कूप-मंडूक के समान जान पड़ते हो ।' जितशत्रु ने पूछा-'देवानुप्रिय ! कौन-सा वह कूपमंडूक ?' चोक्खा बोली-'जितशत्रु ! एक कुएं का मेंढक था । वह मेंढक उसी कूप में उत्पन्न हुआ था, उसी में बढ़ा था । उसने दूसरा कूप, तालाब, ह्रद, सर अथवा समुद्र देखा नहीं था । अत एव वह मानता था कि यही कूप है और यही सागर है, किसी समय उस कूप में एक समुद्री मेंढक अचानक आ गया । तब कूप के मेंढक ने कहा-'देवानुप्रिय ! तुम कौन हो ? कहाँ से अचानक यहाँ आए हो ?' तब समुद्र के मेंढक ने कूप के मेंढक से कहा- देवानुप्रिय ! मैं समुद्र का मेंढक हँ । तब कपमंड्रक ने समुद्रमंडूक से कहा-'देवानुप्रिय ! वह समुद्र कितना बड़ा है कूपमडूक से कहा-'देवानुप्रिय ! समुद्र बहुत बड़ा है ।' तब कूपमंडूक ने अपने पैर से एक लकीर खींची और कहा -देवानुप्रिय ! क्या इतना बड़ा है ?' समुद्रीमंडूक ने कहा इस से भी बड़ा है, कूपमण्डूक पूर्व दिशा के किनारे से उछल कर दूर गया और फिर बोला-देवानुप्रिय ! वह समुद्र क्या इतना बड़ा है ? समुद्री मेंढक ने कहा-'यह अर्थ समर्थ नहीं । इसी प्रकार उत्तर देता गया।
इसी प्रकार हे जितशत्रु ! दूसरे बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों यावत् सार्थवाह आदि की पत्नी, भगिनी, पुत्री अथवा पुत्रवधू तुमने देखी नहीं । इसी कारण समझते हो कि जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा दूसरे का नहीं है । हे जितशत्रु ! मिथिला नगरी में कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती की आत्मजा मल्लीकुमारी रूप और यौवन में तथा लावण्य में जैसी उत्कृष्ट एवं उत्कृष्ट शरीर वाली है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या भी नहीं है । विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या के काटे हुए पैर के अंगुल के लाखवें अंश के बराबर भी तुम्हारा यह अन्तःपुर नहीं है। इस प्रकार कहकर वह परिव्राजिका जिस दिशा से प्रकट हुई थी उसी दिशा में लौट गई। परिव्राजिका के द्वारा उत्पन्न किये गये हर्ष वाले राजा जितशत्रु ने दूत को बुलाया । पहले के समान सब कहा । यावत् वह दूत मिथिला जाने के लिए रवाना हुआ। सूत्र-९३
इस प्रकार उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं के दूत, जहाँ मिथिला नगरी थी वहाँ जाने के लिए रवाना हो गए । छहों दूत जहाँ मिथिला थी, वहाँ आए । मिथिला के प्रधान उद्यान में सब ने अलग-अलग पड़ाव डाले । फिर मिथिला राजधानी में प्रवेश करके कुम्भ राजा के पास आए । प्रत्येक-प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़े और अपने-अपने राजाओं के वचन निवेदन किए । कुम्भ राजा उन दूतों से यह बात सूनकर एकदम क्रुद्ध हो गया । यावत् ललाट पर तीन सल डालकर उसने कहा- मैं तुम्हें विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली नहीं देता ।' छहों का सत्कार-सम्मान न करके उन्हें पीछे के द्वार से नीकाल दिया।
कुम्भ राजा के द्वारा असत्कारित, असम्मानित और अपद्वार से निष्कासित वे छहों राजाओं के दूत जहाँ अपने-अपने जनपद थे, जहाँ अपने-अपने नगर थे और जहाँ अपने-अपने राजा थे, वहाँ पहुँचकर हाथ जोड़कर एवं मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहने लगे-'इस प्रकार हे स्वामिन् ! हम जितशत्रु वगैरह छह राजाओं के दूत एक साथ ही जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ पहुँचे । मगर यावत् राजा कुम्भ ने सत्कार-सम्मान न करके हमें अपद्वार से नीकाल दिया । सो हे स्वामिन् ! कुम्भ राजा विदेहराजवरकन्या मल्ली आप को नहीं देता ।' दूतों ने अपने-अपने राजाओं से यह अर्थ-वृत्तान्त निवेदन किया । तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा उन दूतों से इस अर्थ को सूनकर कुपित हुए । उन्होंने एक दूसरे के पास दूत भेजे और इस प्रकार कहलवाया-'हे देवानुप्रिय ! हम छहों राजाओं के दूत एक साथ ही यावत् नीकाल दिये गए । अत एव हे देवानुप्रिय ! हम लोगों को कुम्भ राजा की
और प्रयाण करना चाहिए । इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की । स्वीकार करके स्नान किया सन्नद्ध हुए । हाथी के स्कन्ध पर आरूढ़ हुए । कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाला छत्र धारण किया । श्वेत चामर उन पर ढोरे जाने लगे । बड़े-बड़े घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं सहित चतुरंगिणी सेना से परिवृत्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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