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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिला दारिका को भार्या के रूप में आई हुई देखी । देखकर वह पोट्टिला के साथ पट्ट पर बैठा । चाँदी-सोने के कलशों से उसने स्वयं स्नान किया। स्नान करके अग्नि में होम किया । तत्पश्चात् पोट्टिला भार्या के मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों एवं परिजनों का अशन, पान, खादिम, स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध माला और अलंकार आदि से सत्कार-सम्मान करके उन्हें बिदा किया । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य पोट्टिला भार्या में अनुरक्त होकर, अविरक्त आसक्त होकर उदार यावत् रहने लगा ।
सूत्र - १४९
कनकरथ राजा राज्य में, राष्ट्र में, बल में, वाहनों में, कोष में, कोठार में तथा अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त था, लोलुप गृद्ध और लालसामय था। अत एव वह जो-जो पुत्र उत्पन्न होते उन्हें विकलांग कर देता था। किन्हीं के हाथ की अंगुलियाँ काट देता, किन्हीं के हाथ का अंगूठा काट देता, इसी प्रकार किसी के पैर की अंगुलियाँ, पैर का अंगूठा, कर्णशष्कुली और किसी का नासिकापुट काट देता था । इस प्रकार उसने सभी पुत्रों को अवयवविकल कर दिया था । तत्पश्चात् पद्मावती देवी को एक बार मध्यरात्रि के समय इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कनकरथ राजा राज्य आदि में आसक्त होकर यावत् उनके अंग-अंग काट लेता है, तो यदि मेरे अब पुत्र उत्पन्न हो तो मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि उस पुत्र को में कनकरथ से छिपा कर पालू-पोसूँ। पद्मावती देवी ने ऐसा विचार किया और विचार करके तेतलिपुत्र अमात्य को बुलवा कर उससे कहा
'हे देवानुप्रिय ! कनकरथ राजा राज्य और राष्ट्र आदि में अत्यन्त आसक्त होकर सब पुत्रों को अपंग कर देता है, अतः मैं यदि अब पुत्र को जन्म दूँ तो कनकरथ से छिपाकर ही अनुक्रम से उसका संरक्षण, संगोपन एवं संवर्धन करना । ऐसा करने से बालक बाल्यावस्था पार करके यौवन को प्राप्त होकर तुम्हारे लिए भी और मेरे लिए भी भिक्षा का भाजन बनेगा ।' तब तेतलिपुत्र अमात्य ने पद्मावती के इस अर्थ को अंगीकार किया । वह वापिस लौट गया । तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने और पोट्टिला नामक अमात्यी ने एक ही साथ गर्भ धारण किया, एक ही साथ गर्भ वहन किया और साथ-साथ ही गर्भ की वृद्धि की। तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने नौ मास पूर्ण हो जाने पर देखने में प्रिय और सुन्दर रूप वाले पुत्र को जन्म दिया। जिस रात्रि में पद्मावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया, उसी रात्रि में पोट्टिला अमात्यपत्नी ने भी नौ मास व्यतीत होने पर मरी हुई बालिका का प्रसव किया।
उस समय पद्मावती देवी ने अपनी धायमाता को बुलाया और कहा - 'तुम तेतलिपुत्र के घर जाओ और गुप्त रूप से बुला लाओ ।' तब धायमाता ने पद्मावती का आदेश स्वीकार किया । वह अन्तःपुर के पीछले द्वार से नीकल कर तेतलिपुत्र के घर पहुँची। वहाँ पहुँचकर दोनों हाथ जोड़कर उसने यावत् कहा- हे देवानुप्रिय ! आप को पद्मावती देवी ने बुलाया है ।' तेतलिपुत्र धायमाता से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके हृदय-तुष्ट होकर धायमाता के साथ अपने घर से नीकला । अन्तःपुर के पीछले द्वार से गुप्त रूप से उसने प्रवेश किया । जहाँ पद्मावती देवी थी, वहाँ आया। दोनों हाथ जोड़कर देवानुप्रिये! मुझे जो करना है, उसके लिए आज्ञा दीजिए।'
तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने तेतलिपुत्र से इस प्रकार कहा- तुम्हें विदित ही है कि कथकरथ राजा यावत् सब पुत्रों को विकलांग कर देता है। हे देवानुप्रिय ! मैंने बालक का प्रसव किया है। अतः तुम इस बालक को ग्रहण करो - संभालो । यावत् वह बालक तुम्हारे लिए और मेरे लिए भिक्षा का भाजन सिद्ध होगा। ऐसा कहकर उसने वह बालक तेतलिपुत्र के हाथों में सौंप दिया । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पद्मावती के हाथ से उस बालक को ग्रहण किया और अपने उत्तरीय वस्त्र से ढँक लिया । ढँक कर गुप्त रूप से अन्तःपुर के पीछले द्वार से बाहर नीकला । नीकलकर जहाँ अपना घर था और पोट्टिला भार्या थी, वहाँ आया । आकर पोट्टिला से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! कनकरथ राजा राज्य आदि में यावत् अतीव आसक्त होकर अपने पुत्रों को यावत् अपंग कर देता है और यह बालक कनकरथ का पुत्र और पद्मावती का आत्मज है, अत एव देवानुप्रिय ! इस बालक का कनकरथ से गुप्त रख कर अनुक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करना । इस प्रकार कहकर उस बालक को पोट्टिला के पास रख दिया और पोट्टिला के पास से मरी हुई लड़की उठा ली । उठा कर उसे उत्तरीय वस्त्र से ढँक कर अन्तःपुर के
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद"
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