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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पीछले छोटे द्वार से प्रविष्ट हुआ और पद्मावती देवी के पास पहुँचा । मरी लड़की पद्मावती देवी के पास रख दी और वापिस चला गया।
तत्पश्चात् पद्मावती की अंगपरिचारिकाओं ने पद्मावती देवी को और विनिघात को प्राप्त जन्मी हुई बालिका को देखा । कनकरथ राजा के पास पहुँच के दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगीं-स्वामिन् ! पद्मावती देवी ने मृत बालिका का प्रसव किया है ।' तत्पश्चात् कनकरथ राजा ने मरी हुई लड़की का नीहरण किया । बहुत-से मृतक-सम्बन्धी लौकिक कार्य किये । कुछ समय के पश्चात् राजा शोक-रहित हो गया । तत्पश्चात् दूसरे दिन तेतलिपुत्र ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चारक शोधन करो । यावत् दस दिनों की स्थितिपतिका करो-पुत्रजन्म का उत्सव करो । यह सब करके मेरी आज्ञा मुझे वापिस सौंपो । हमारा यह बालक राजा कनकरथ के राज्य में उत्पन्न हआ है, अत एव इस बालक का नाम कनकध्वज हो, धीरे-धीरे वह बालक बडा हआ, कलाओं में कशल हआ, यौवन को प्राप्त होकर भोग भोगने में समर्थ हो गया। सूत्र - १५०
किसी समय पोट्टिला, तेतलिपुत्र को अप्रिय हो गई । तेतलिपुत्र उसका नाम-गोत्र भी सूनना पसंद नहीं करता था, तो दर्शन और परिभोग की तो बात ही क्या ! तब एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में यह विचार आया- तेतलिपुत्र को मैं पहले प्रिय थी, किन्तु आजकल अप्रिय हो गई हूँ । अत एव तेतलिपुत्र मेरा नाम भी नहीं सूनना चाहते, तो यावत् परिभोग तो चाहेंगे ही क्या ?' इस प्रकार जिसके मन के संकल्प नष्ट हो गए हैं ऐसी वह पोट्टिला चिन्ता में डूब गई । तेतलिपुत्र ने भग्नमनोरथा पोट्टिला को चिन्ता में डूबी देखकर कहा-'देवानुप्रिये ! भग्नमनोरथ मत होओ। तुम मेरी भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाओ
और बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों और भिखारियों को दान देती-दिलाती हुई रहा करो । तेतलिपुत्र के ऐसा कहने पर पोट्टिला हर्षित और संतुष्ट हुई । तेतलिपुत्र के इस अर्थ को अंगीकार करके प्रतिदिन भोजनशाला में वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवा कर श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों और भिखारियों को दान देती और दिलाती रहती थी-अपना काल यापन करती थी। सूत्र - १५१
उस काल और उस समय में ईर्या-समिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक आर्या अनुक्रम से विहार करती-करती तेतलिपुर नगर में आई । आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी । तत्पश्चात् उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और दूसरे प्रहर में ध्यान किया । तीसरे प्रहर में भिक्षा के लिए यावत् अटन करती हुई वे साध्वीयाँ तेतलिपुत्र के घर में प्रविष्ट हुई । पोट्टिला उन आर्याओं को आती देखकर हृष्ट-तुष्ट हुई, अपने आसन से उठ खड़ी हुई, वन्दना की, नमस्कार किया और विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य-आहार वहराया । आहार वहरा कर उसने कहा- हे आर्याओं ! मैं पहले तेतलिपुत्र की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम-मनगमती थी, किन्तु अब अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमणाम हो गई हूँ। तेतलिपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सूनना नहीं चाहते, दर्शन और परिभोग की तो बात ही दूर ! हे आर्याओं ! तुम शिक्षित हो, बहुत जानकार हो, बहुत पढ़ी हो, बहुत-से नगरों और ग्रामों में यावत् भ्रमण करती हो, राजाओं और ईश्वरों-युवराजों आदि के घरों में प्रवेश करती हो तो हे आर्याओं! तुम्हारे पास कोई चूर्ण-योग, मंत्रयोग, कामणयोग, हृदयोड्डायन, काया का आकर्षण करने वाला, आभियोगिक, वशीकरण, कौतुककर्म, भूतिकर्म अथवा कोई सेल, कंद, छाल, बेल, शिलिका, गोली, औषध या भेषज ऐसी हैं, जो पहले जानी हो ? जिससे मैं फिर तेतलिपुत्र की इष्ट हो सकूँ ?'
पोट्टिला द्वारा इस प्रकार कहने पर उन आर्याओंने अपने दोनों कान बन्द कर लिए । उन्होंने पोट्टिला से कहा-'देवानुप्रिये ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियाँ हैं । अत एव ऐसे वचन हमें कानों से श्रवण करना भी नहीं कल्पता तो इस विषय का उपदेश देना या आचरण करना तो कल्पे ही कैसे? हाँ, देवानुप्रिये ! हम
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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