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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-१४ - तेतलिपुत्र सूत्र-१४८
"भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने तेरहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो चौदहवें ज्ञातअध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' हे जम्बू ! उस काल और उस समय में तेतलिपुर नगर था । उस से बाहर ईशान-दिशा में प्रमदवन उद्यान था । उस नगर में कनकरथ राजा था । कनकरथ राजा की पद्मावती देवी थी । कथकरथ राजा का अमात्य तेतलिपुत्र था । जो साम, दाम, भेद और दण्ड-इन चारों नीति का प्रयोग करने में निष्णात था । तेतलिपुर नगर में मूषिकारदारक कलाद था । वह धनाढ्य था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । उस कलाद मूषिकारदारक की पुत्री और भद्रा की आत्मजा पोट्टिला थी। वह रूप, यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट और शरीर से भी उत्कृष्ट थी।
एक बार किसी समय पोट्टिला दारका स्नान करके और सब अलंकारों से विभूषित होकर, दासियों के समूह से परिवृत्त होकर, प्रासाद के ऊपर रही हुई अगासी की भूमि में सोने की गेंद से क्रीड़ा कर रही थी । इधर तेतलिपुत्र अमात्य स्नान करके, उत्तम अश्व के स्कंध पर आरूढ़ होकर, बहुत-से सुभटों के समूह के साथ घुड़सवारी के लिए नीकला । वह कलाद मूषिकदारक के घर के कुछ समीप होकर जा रहा था । उस समय तेतलिपुत्र ने मूषिकदारक के घर के कुछ पास से जाते हुए प्रासाद की ऊपर की भूमि पर अगासी में सोने की गेंद से क्रीड़ा करती पोट्टिला दारिका को देखा । देखकर पोट्टिला दारिका के रूप, यौवन और लावण्य में यावत् अतीव मोहीत होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे पूछा-देवानुप्रियो ! यह किसकी लड़की है ? इसका नाम क्या है ? तब कौटुम्बिक पुरुषों ने तेतलिपुत्र से कहा-'स्वामिन् ! यह कलाद मूषकारदारक की पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला नामक लड़की है । रूप, लावण्य और यौवन से उत्तम है और उत्कृष्ट शरीर वाली है।'
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र घुड़सवारी से पीछे लौटा तो उसने अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों को बुलाकर कहा‘देवानुप्रियो ! तुम जाओ और कलाद मूषिकारदारक की पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला दारिका की मेरी पत्नी के रूप में मंगनी करो । तब वे अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुष तेतलिपुत्र के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए । दसों नखों को मिलाकर, दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक पर अंजलि करके विनयपूर्वक आदेश स्वीकार किया और मूर्षिकारदारक कलाद के घर आए । मूषिकारदारक कलाद ने उन पुरुषों को आते देखा तो वह हुष्ट-तुष्ट हुआ, आसन से उठ खड़ा हुआ, सात-आठ कदम आगे गया; बैठने के लिए आमन्त्रण किया । जब वे आसन पर बैठे, स्वस्थ हुए और विश्राम ले चूके तो मूषिकारदारक ने पूछा-'देवानुप्रियो ! आज्ञा दीजिए । आपके आने का क्या प्रयोजन है ?' तब उन अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों ने कलाद मूषिकारदारक से कहा-'देवानुप्रिय ! हम तुम्हारी पुत्री, पोट्टिला दारिका की तेतलिपुत्र की पत्नी के रूप में मंगनी करते हैं । देवानुप्रिय ! अगर तुम समझते हो कि यह सम्बन्ध उचित है, प्राप्त या पात्र है, प्रशंसनीय है, दोनों का संयोग सदृश है, तो तेतलिपुत्र को पोटिला दारिका प्रदान करो । कहो, इसके बदले क्या शुल्क दिया जाए ?
तत्पश्चात् कलाद मूषिकारदारक ने उन अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों से कहा-'देवानुप्रियो ! यही मेरे लिए शुल्क है जो तेतलिपुत्र दारिका के निमित्त से मुझ पर अनुग्रह कर रहे हैं । उस प्रकार कहकर उसने उनका विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम से तथा पुष्प, वस्त्र, गंध एवं माला और अलंकार से सत्कार-सम्मान करके उन्हें बिदा किया । तत्पश्चात् वे अभ्यन्तर-स्थानीय पुरुष कलाद मूषिकारदारक के घर से नीकले । तेतलिपुत्र अमात्य के पास पहुँचे । तेतलिपुत्र को यह पूर्वोक्त अर्थ निवेदन किया । तत्पश्चात् कलाद मूषिकारदारक ने अन्यदा शुभ तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त में पोट्टिला दारिका को स्नान करा कर और समस्त अलंकारों से विभूषित करके शिबिका में आरूढ़ किया । वह मित्रों और ज्ञातिजनों से परिवृत्त होकर अपने घर से नीकलकर, पूरे ठाठ के साथ, तेतारपुर के बीचोंबीच होकर तेतलिपुत्र अमात्य के पास पहुँचा । पहुँच कर पोट्टिला दारिका को स्वयमेव तेतलिपुत्र की पत्नी के रूप में प्रदान किया।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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