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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक स्वर्णमयी, मस्तक में छिद्र वाली यावत् प्रतिमा में, मस्तक में से डालती रहती थी। तत्पश्चात् उस स्वर्णमयी यावत् मस्तक में छिद्र वाली प्रतिमा में एक-एक पिण्ड डाल-डाल कर कमल का ढक्कन ढंक देती थी। इससे उसमें ऐसी दुर्गन्ध उत्पन्न होती थी जैसे सर्प के मृत कलेवर की हो, यावत् और वह भी मरने के पश्चात् सड़े-गले, दुर्वर्ण एवं दुर्गंधवाले, कीड़ों के समूह जिसमें बिलबिला रहे हों, जो अशुचिमय, विकृत तथा देखने में बीभत्स हों । क्या उस प्रतिमा में से ऐसी-मृत कलेवर की गन्ध समान दुर्गन्ध नीकलती थी ? नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं, उससे भी अधिक अनिष्ट, अधिक अकमनीय, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोरम और उससे भी अधिक अनिष्ट गन्ध उत्पन्न होती थी सूत्र - ८६
उस काल और उस समय में कौशल नामक देश था । उसमें साकेत नामक नगर था । उस नगर में ईशान दिशा में एक नागगृह था । वह प्रधान था, सत्य था, उसकी सेवा सफल होती थी और वह देवाधिष्ठित था । उस साकेत नगर में प्रतिबुद्धि नामक इक्ष्वाकुवंश का राजा निवास करता था । पद्मावती उसकी पटरानी थी, सुबुद्धि अमात्य था, जो साम, दंड, भेद और उपप्रदान नीतियों में कुशल था यावत् राज्यधुरा की चिन्ता करने वाला था, राज्य का संचालन करता था । किसी समय एक बार पद्मावती देवी की नागपूजा का उत्सव आया । तब पद्मावती देवी नागपूजा का उत्सव आया जानकर प्रतिबुद्धि राजा के पास गई। दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्र करके, मस्तक पर अंजलि करके बोली-'स्वामिन् ! कल मुझे नागपूजा करनी है । अत एव आपकी अनुमति पाकर मैं नागपूजा करने के लिए जाना चाहती हूँ। स्वामिन् ! आप भी मेरी नागपूजा में पधारो।'
तब प्रतिबुद्धि राजा ने पद्मावती देवी की यह बात स्वीकार की । पद्मावती देवी राजा की अनुमति पाकर हर्षित और सन्तुष्ट हुई । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा–'देवानुप्रियो ! कल यहाँ मेरे नागपूजा होगी, सो तुम मालाकारों को बुलाओ और उन्हें इस प्रकार कहो- निश्चय ही पद्मावती देवी के यहाँ कल नागपूजा होगी। अत एव हे देवानुप्रियो ! तुम जल और स्थल में उत्पन्न हुए पांचों रंगों के ताजा फूल नागगृह में ले जाओ और एक श्रीदामकाण्ड बना कर लाओ । तत्पश्चात् जल और स्थल में उत्पन्न होने वाले पाँच वर्गों के फूलों से विविध प्रकार की रचना करके उसे सजाओ । उस रचना में हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनशाल और कोकिला के समूह से युक्त तथा ईहामृग, वृषभ, तुरग आदि की रचना वाले चित्र बनाकर महामूल्यवान, महान् जनों के योग्य
और विस्तार वाला एक पुष्पमंडप बनाओ । उस पुष्पमंडप के मध्यभाग में एक महान जनों के योग्य और विस्तार वाला श्रीदामकण्ड उल्लोच पर लटकाओ । लटकाकर पद्मावती देवी की राह देखते-देखते ठहरो । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष इसी प्रकार कार्य करके यावत् पद्मावती की राह देखते हुए नागगृह में ठहरते हैं।
तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही साकेत नगर में भीतर और बाहर पानी सींचो, सफाई करो और लिपाई करो । यावत् वे कौटुम्बिक पुरुष उसी प्रकार कार्य करके आज्ञा वापिस लौटाते हैं । तत्पश्चात् पद्मावती देवी ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही लघुकरण से युक्त यावत् रथ को जोड़कर उपस्थित करो ।' तब वे भी उसी प्रकार रथ उपस्थित करते हैं । तत्पश्चात् पद्मावती देवी अन्तःपुर के अन्दर स्नान करके यावत् रथ पर आरूढ़ हुई । तत्पश्चात् पद्मावती देवी अपने परिवार से परिवृत्त होकर साकेत नगर के बीच में होकर नीकली । जहाँ पुष्करिणी थी वहाँ आई । पुष्करिणी में प्रवेश किया । यावत अत्यन्त शुचि होकर गीली साडी पहनकर वहाँ जो कमल आदि थे, उन्हें यावत् ग्रहण किया । जहाँ नागगृह था, वहाँ जाने के लिए प्रस्थान किया।
तत्पश्चात् पद्मावती देवी की बहुत-सी दास-चेटियाँ फूलों की छबड़ियाँ तथा धूप की कुड़छियाँ हाथ में लेकर पीछे-पीछे चलने लगीं । पद्मावती देवी सर्व ऋद्धि के साथ-पूरे ठाठ के साथ-जहाँ नागगृह था, वहाँ आई । नागगृह में प्रविष्ट हुई । रोमहस्त लेकर प्रतिमा का प्रमार्जन किया, यावत् धूप खेई । प्रतिबुद्धि राजा की प्रतीक्षा करती हुई वहीं ठहरी । प्रतिबुद्धि राजा स्नान करके श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आसीन हुआ । कोरंट के फूलों सहित अन्य पुष्पों की मालाएं जिसमें लपेटी हुई थीं, ऐसा छत्र उसके मस्तक पर धारण किया गया । यावत् उत्तम श्वेत चामर ढोरे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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