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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र - ६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन / सूत्रांक फूलों, मरुवा के पत्तों, दमनक के फूलों, निर्दोष शतपत्रिका के फूलों एवं कोरंट के उत्तम पत्तों से गूंथे हुए, परमसुखदायक स्पर्श वाले, देखने में सुन्दर तथा अत्यन्त सौरभ छोड़ने वाले श्रीदामकण्ड के समूह को सूँघती हुई अपना दोहद पूर्ण करती हैं । तत्पश्चात् प्रभावती देवी को इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ देखकर जानकर समीपवर्ती वाणव्यन्तर देवों ने शीघ्र ही जल और थल में उत्पन्न हुए यावत् पाँच वर्ण वाले पुष्प, कुम्भों और भारों के प्रमाण में अर्थात् बहुत से पुष्प कुम्भ राजा के भवन में लाकर पहुँचा दिए। इसके अतिरिक्त सुखप्रद एवं सुगन्ध फैलाता हुआ एक श्रीदामकण्ड भी लाकर पहुँचा दिया।
तत्पश्चात् प्रभावती देवी ने जल और थल में उत्पन्न देदीप्यमान पंचवर्ण के फूलों की माला से अपना दोहला पूर्ण किया। तब प्रभावती देवी प्रशस्तदोहला होकर विचरने लगी । प्रभावती देवी ने नौ मास और साढ़े सात दिवस पूर्ण होने पर, हेमन्त ऋतु के प्रथम मास में, दूसरे पक्ष में अर्थात् मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में, एकादशी के दिन, मध्य रात्रि में, अश्विनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर, सभी ग्रहों के उच्च स्थान पर स्थित होने पर, ऐसे समय में, आरोग्य- आरोग्यपूर्वक उन्नीसवें तीर्थंकर को जन्म दिया।
सूत्र ८२
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उस काल और उस समय में अधोलोक में बसने वाली महत्तरिका दिशा- कुमारिकाएं आई इत्यादि जन्म का वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति अनुसार समझ लेना । विशेषता यह है कि मिथिला नगरी में, कुम्भ राजा के भवन में, प्रभावती देवों को आलापक कहना । यावत् देवों ने जन्माभिषेक करके नन्दीश्वर द्वीप में जाकर महोत्सव किया । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने एवं बहुत से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने तीर्थंकर का जन्माभिषेक किया, फिर जातकर्म आदि संस्कार किये, यावत् नामकरण किया- क्योंकि जब हमारी यह पुत्री माता के गर्भ में आई थी, तब माल्य की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हुआ था, अत एव इसका नाम मल्ली हो महाबल के वर्णन समान जानना यावत् मल्ली कुमारी क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हुई ।
सूत्र - ८३
देवलोक से च्युत हुई वह भगवती मल्ली वृद्धि को प्राप्त हुई तो अनुपम शोभा से सम्पन्न हो गई, दासियों और दासों से परिवृत्त हुई और पीठमर्दों से घिरी रहने लगी ।
सूत्र - ८४
उनके मस्तक के केश काले थे, नयन सुन्दर थे, होठ बिम्बफल के समान थे, दाँतों की कतार श्वेत थी और शरीर श्रेष्ठ कमल के गर्भ के समान गौरवर्णवाला था। उसका श्वासोच्छ्वास विकस्वर कमल के समान गंधवाला था सूत्र ८५
तत्पश्चात् विदेहराज की वह श्रेष्ठ कन्या बाल्यावस्था से मुक्त हुई यावत् तथा रूप, यौवन और लावण्य से अतीव अतीव उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। तत्पश्चात् विदेहराज की वह उत्तम कन्या मल्ली कुछ कम सौ वर्ष की हो गई, तब वह उन छहों राजाओं को अपने विपुल अवधिज्ञान से जानती देखती हुई रहने लगी । वे इस प्रकार प्रतिबुद्धि यावत् जितशत्रु को बार-बार देखती हुई रहने लगी। तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुलाकर कहा देवानुप्रियो ! जाओ और अशोकवाटिका में एक बड़ा मोहनगृह बनाओ, जो अनेक सैकड़ों खम्भों से बना हुआ हो। उस मोहनगृह के एकदम मध्य भाग में छह गर्भगृह बनाओ। उन छहों गर्भगृहों के ठीक बीच में एक जालगृह बनाओ। उस जालगृह के मध्य में एक मणिमय पीठिका बनाओ। यह सूनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार सर्व निर्माण कर आज्ञा वापिस सौंपी।
तत्पश्चात् उस मल्ली कुमारी ने मणिपीठिका के ऊपर अपने जैसी, अपने जैसी त्वचा वाली, अपनी सरीखी उम्र की दिखाई देने वाली, समान लावण्य, यौवन और गुणों से युक्त एक सुवर्ण की प्रतिमा बनवाई । उस प्रतिमा के मस्तक पर छिद्र था और उस पर कमल का ढक्कन था । इस प्रकार की प्रतिमा बनवाकर जो विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य वह खाती थी, उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में से प्रतिदिन एक-एक पिण्ड लेकर उस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा )" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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