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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र - १२५
तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने लवणसमुद्र के चारों तरफ इक्कीस चक्कर लगाकर, उसमें जो कुछ भी तृण आदि कचरा था, वह सब यावत् दूर किया । दूर करके अपने उत्तम प्रासाद में आई । आकर माकन्दीपुत्रों को उत्तम प्रासाद में न देखकर पूर्व दिशा के वनखण्ड में गई । वहाँ सब जगह उसने मार्गणा की । पर उन माकन्दीपुत्रों की कहीं भी श्रुति आदि आवाज, छींक एवं प्रवृत्ति न पाती हुई उत्तर दिशा के वनखण्ड में गई । इसी प्रकार पश्चिम में गई, पर वे कहीं दिखाई न दिए । तब उसने अवधिज्ञान का प्रयोग करके उसने माकन्दीपुत्रों को शैलक के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर चले जाते देखा । वह तत्काल क्रुद्ध हुई । उसने ढाल-तलवार ली और सात-आठ ताड़ जितनी ऊंचाई पर आकाश में उड़कर उत्कृष्ट एवं शीघ्र गति करके जहाँ माकन्दीपुत्र थे वहाँ आई । आकर इस प्रकार कहने लगी-'अरे माकन्दी के पुत्रों ! अरे मौत की कामना करने वालों ! क्या तुम समझते हो कि मेरा त्याग करके, शैलकयक्ष के सात, लवणसमुद्र के मध्य में होकर तुम चले जाओगे? इतने चले जाने पर भी अगर तुम मेरी अपेक्षा रखते हो तो तुम जीवित रहोगे, अन्यथा इस नील कमल एवं भैंस के सींग जैसी काली तलवार से यावत् तुम्हारा मस्तक काट कर फैंक दूंगी।
उस समय वे माकन्दीपुत्र रत्नद्वीप की देवी के इस कथन को सूनकर और हृदय में धारण करके भयभीत नहीं हुए, त्रास को प्राप्त नहीं हुए, उद्विग्न नहीं हुए, संभ्रान्त नहीं हुए । अत एव उन्होंने रत्नद्वीप की देवी के इस अर्थ का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया, उसकी परवाह नहीं की। वे आदर न करते हुए शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर चले जाने लगे । तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जब उन माकन्दीपुत्रों को बहुतसे प्रतिकूल उपसर्गों द्वारा चलित करने, क्षुब्ध करने, पलटने और लुभाने में समर्थ न हुई, तब अपने मधुर शृंगारमय
और अनुराग-जनक अनुकूल उपसर्गों से उन पर उपसर्ग करने में प्रवृत्त हुई ।' 'हे माकन्दीपुत्रों ! हे देवानुप्रियो ! तुमने मेरे साथ हास्य किया, चौपड़ आदि खेल खेले, मनोवांछित क्रीड़ा की, झूला आदि झुले हैं, भ्रमण और रतिक्रीड़ा की है । इन सबको कुछ भी न गिनते हुए, मुझे छोड़कर तुम शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हो ?' तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने जिनरक्षित का मन अवधिज्ञान से देखा । फिर इस प्रकार कहने लगी-मैं सदैव जिनपालित के लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम थी और जिनपालित मेरे लिए, परन्तु जिनरक्षित को तो मैं सदैव इष्ट, कान्त, प्रिय आदि थी और जिनरक्षित मुझे भी, अत एव जिनपालित यदि रोती, आक्रन्दन करती, शोक करती, अनुताप करती और विलाप करती हुई मेरी परवाह नहीं करता, तो हे जिनरक्षित ! तुम भी मुझ रोती हुई की यावत् परवाह नहीं करते ?' सूत्र - १२६
तत्पश्चात्-उत्तम रत्नद्वीप की वह देवी अवधिज्ञान द्वारा जिनरक्षित का मन जानकर दोनों माकन्दीपुत्रों के प्रति, उनका वध करने के निमित्त बोली । सूत्र - १२७
द्वेष से युक्त वह देवी लीला सहित, विविध प्रकार के चूर्णवास से मिश्रित, दिव्य, नासिका और मन को तृप्ति देने वाले और सर्व ऋतुओं सम्बन्धी सुगन्धित फूलों की वृष्टि करती हुई। सूत्र - १२८
नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की घंटियों, घुघरूओं, नूपुरों और मेखला-इन सब आभूषणों के शब्दों से समस्त दिशाओं और विदिशाओं को व्याप्त करती हुई, वह पापिन देवी इस प्रकार कहने लगी। सूत्र - १२९
हे होल ! वसुल, गोल हे नाथ ! हे दयित हे प्रिय ! हे रमण ! हे कान्त ! हे स्वामिन् ! हे निर्गुण ! हे नित्थक्क ! हे कठोर हृदय ! हे दयाहीन ! हे अकृतज्ञ ! शिथिल भाव ! हे निर्लज्ज ! हे रूक्ष ! हे अकरूण ! जिनरक्षित ! हे मेरे हृदय के रक्षक ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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