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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक निर्ग्रन्थियों से क्षमायाचना करके तथारूपधारी एवं योगवहन आदि क्रियाएं जिन्होंने की है, ऐसे स्थविर साधुओं के साथ धीरे-धीरे, विपुलाचल पर आरूढ़ होकर स्वयं ही सघन मेघ के सदृश पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन करके, संलेखना स्वीकार करके, आहार-पानी का त्याग करके, पादपोपगमन अनशन धारण करके मृत्यु की भी आकांक्षा न करता हुआ विचरूँ।
मेघ मुनि ने इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन रात्रि के प्रभात रूप में परिणत होने पर यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ पहुँचे । श्रमण भगवान महावीर को तीन बार, दाहिनी
ओर से प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार करके न बहत समीप और न बहत दूर योग्य स्थान पर रहकर भगवान की सेवा करते हुए, नमस्कार करते हुए, सन्मुख विनय के साथ दोनों हाथ जोड़कर उपासन करने लगे । अर्थात् बैठ गए । 'हे मेघ !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान ने मेघ अनगार से इस भाँति कहा'निश्चय ही हे मेघ ! रात्रि में, मध्यरात्रि के समय, धर्म-जागरणा जागते हए तम्हें इस प्रकार का विचार उत्पन्न हआ है कि-इस प्रकार निश्चय ही मैं इस प्रधान तप के कारण दुर्बल हो गया हूँ, इत्यादि यावत् तुम तुरन्त मेरे निकट आए हो। हे मेघ ! क्या यह अर्थ समर्थ है ? अर्थात् यह बात सत्य है ?' मेघ मुनि बोले-'जी हाँ' जब भगवान ने कहा'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध न करो ।'
तत्पश्चात् मेघ अनगार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुए । उनके हृदय में आनन्द हुआ । वह उत्थान करके उठे और उठकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके स्वयं ही पाँच महाव्रतों का उच्चारण किया और गौतम आदि साधुओं को तथा साध्वीयों को खमाया । खमा कर तथारूप और योगवहन आदि किये हुए स्थविर संतों के सात धीरे-धीरे विपुल नामक पर्वत पर आरूढ़ हुए । आरूढ़ होकर स्वयं ही सघन मेघ के समान पृथ्वी-शिलापट्टक की प्रतिलेखना की । प्रतिलेखना करके दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आरूढ़ हो गए । पूर्व दिशा के सन्मुख पद्मासन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर और उन्हें मस्तक से स्पर्श करके इस प्रकार बोले-'अरिहंत भगवान को यावत् सिद्धि को प्राप्त सब तीर्थंकरों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य यावत् सिद्धिगति को प्राप्त करने के इच्छुक श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार हो । वहाँ स्थित भगवान को यहाँ स्थित मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान यहाँ स्थित मुझको देखें । इस प्रकार कहकर भगवान को वन्दना की; नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा
पहले भी मैंने श्रमण भगवान महावीर के निकट समस्त प्राणातिपात का त्याग किया है, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, नाम, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, धर्म में अरति, अधर्म में रति, मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य, इन सब अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान किया है । अब भी मैं उन्हीं भगवान के निकट सम्पूर्ण प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ तथा सब प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार के आहार का आजीवन प्रत्याख्यान करता हूँ। और यह शरीर जो इष्ट है, कान्त है और प्रिय है, यावत् विविध प्रकार के रोग, शुलादिक आतंक, बाईस परीषह और उपसर्ग स्पर्श न करें, ऐसे रक्षा की है, इस शरीर का भी मैं अन्तिम श्वासोच्छवास पर्यन्त परित्याग करता हूँ। इस प्रकार कहकर संलेखना को अंगीकार करके, भक्तपान का त्याग करके, पादपोपगमन समाधिमरण अंगीकार कर मृत्यु की भी कामना न करते हुए मेघ मुनि विचरने लगे । तब वे स्थविर भगवंत ग्लानिरहित होकर मेघ अनगार की वैयावृत्य करने लगे।
तत्पश्चात् वह मेघ अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के सन्निकट सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, लगभग बारह वर्ष तक चारित्र पर्याय का पालन करके, एस मास की संलेखना के द्वारा आत्मा को क्षीण करके, अनशन से साठ भक्त छेद कर, आलोचना प्रतिक्रमण करके, माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों को हटाकर समाधि को प्राप्त होकर अनुक्रम से कालधर्म को प्राप्त हुए । मेघ अनगार के साथ गये
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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