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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक की विकुर्वणा की । देव सम्बन्धी उत्कृष्ट गति से जाते हुए जहाँ जम्बूद्वीप था, भरतक्षेत्र था, जहाँ मिथिला राजधानी थी और जहाँ कुम्भ राजा का भवन था, वहाँ पहुँचे । कुम्भ राजा के भवन में आदि पूर्वोक्त द्रव्य सम्पत्ति पहुँचा दी। पहुँचा कर वे मुंभक देव, वैश्रमण देव के पास आए और उसकी आज्ञा वापिस लौटाई । वह वैश्रमण देव जहाँ शक्र देवेन्द्र देवराज थे, वहाँ आया । आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् उसने इन्द्र की आज्ञा वापिस सौंपी । मल्ली अरिहंत ने प्रतिदिन प्रातःकाल से प्रारम्भ करके मगध देश के प्रातराश समय तक बहुत-से सनाथों, अनाथों, पांथिको-पथिकों-करोटिक, कार्पटिक पूरी एक करोड़ और आठ लाख स्वर्णमोहरें दान में देना आरम्भ किया।
तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने भी मिथिला राजधानी में तत्र तत्र अर्थात् विभिन्न मुहल्लों या उपनगरों में, तहिं तहिं अर्थात् महामार्गों में तथा अन्य अनेक स्थानों में, देश देश अर्थात् त्रिक, चतुष्क आदि स्थानों-स्थानों में बहुत-सी भोजनशालाएं बनवाईं। उन भोजनशालाओं में बहुत-से मनुष्य, जिन्हें धन, भोजन और वेतन-मूल्य दिया जाता था, विपल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाते थे। जो लोग जैसे-जैसे आते-जाते थे जैसे किपांथिक, करोटिक, कार्पटिक, पाखण्डी अथवा गृहस्थ, उन्हें आश्वासन देकर, विश्राम देकर और सुखद आसन पर बिठला कर विपुल अशन, पान, स्वाद्य और खाद्य दिया जाता था, परोसा जाता था । वे मनुष्य जहाँ भोजन आदि देते रहते थे । तत्पश्चात् मिथिला राजधानी में शृंगाटक, त्रिक, चौक आदि मार्गों में बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! कुम्भ राजा के भवन में सर्वकामगुणित तथा ईच्छानुसार दिया जाने वाला विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बहत-से श्रमणों आदि को यावत परोसा जाता है। सूत्र - ९९
वैमानिक, भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों तथा नरेन्द्रों अर्थात् चक्रवर्ती आदि राजाओं द्वारा पूजित तीर्थंकरों की दीक्षा के अवसर पर वरवरिका की घोषणा कराई जाती है, और याचकों को यथेष्ट दान दिया जाता है। सूत्र-१००
उस समय अरिहंत मल्ली ने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख जितनी अर्थसम्पदा दान देकर मैं दीक्षा ग्रहण करूँगा' ऐसा मन में निश्चय किया। सूत्र - १०१, १०२
उस काल और उस समय में लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक नामक पाँचवे देवलोक में, अरिष्ट नामक विमान के प्रस्तट में, अपने-अपने विमान से, अपने-अपने उत्तम प्रासादों से, प्रत्येक-प्रत्येक चार-चार हजार सामानिक देवों से, तीन-तीन परिषदों से सात-सात अनीकों से, सात-सात अनीकाधिपतियों से, सोलह-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों से तथा अन्य अनेक लौकान्तिक देवों से युक्त-परिवृत्त होकर, खूब जोर से बजाये जाते हुए नृत्यों-गीतों के शब्दों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विचर रहे थे । उन लौकान्तिक देवों के नाम इस प्रकार हैं । सारस्वत वह्नि आदित्य वरुण गर्दतोय तुषित अव्याबाध आग्नेय रिष्ट । सूत्र - १०३
तत्पश्चात् उन लौकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन चलायमान हए-इत्यादि उसी प्रकार जानना दीक्षा लेने की ईच्छा करने वाले तीर्थंकरो को सम्बोधन करना हमारा आचार है; अतः हम जाएं और अरहन्त मल्ली को सम्बोधन करें, ऐसा लौकान्तिक देवों ने विचार किया । उन्होंने ईशान दिशा में जाकर वैक्रियसमुद्घात से विक्रिया की । समुद्घात करके संख्यात योजन उल्लंघन करके, मुंभक देवों की तरह जहाँ मिथिला राजधानी थी, जहाँ कुम्भ राजा का भवन था और जहाँ मल्ली नामक अर्हत् थे, वहाँ आकर के-अधर में स्थित रहकर घुघरूओं के शब्द सहित यावत् श्रेष्ठ वस्त्र धारण करके, दोनों हाथ जोड़कर, इष्ट, यावत् वाणी से बोले-'हे लोक के नाथ ! हे भगवन् ! बूझो-बोध पाओ । धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो । वह धर्मतीर्थ जीवों के लिए हितकारी, सुखकारी और निःश्रेयसकारी होगा। इस प्रकार कहकर दूसरी बार और तीसरी बार भी कहा । अरहंत मल्ली को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना और नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट गए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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