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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक जिनदत्त के पुत्र सार्थवाहदारक ने मयूर-बालक को बचपन से मुक्त यावत् केकारव करता देखकर, हृष्ट-तुष्ट होकर उन्हें जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर बिदा किया । तत्पश्चात वह मयूर-बालक जिनदत्त के पुत्र द्वारा एक चुटकी बजाने पर लांगूल के भंग के समान अपनी गर्दन टेढ़ी करता था । उसके शरीर पर पसीना आ जाता था अथवा उसके नेत्र के कोने श्वेत वर्ण के हो गए थे । वह बिखरे पिच्छों वाले दोनों पंखों को शरीर से जुदा कर लेता था । वह चन्द्रक आदि से युक्त पिच्छों के समूह को ऊंचा कर लेता था और सैकड़ों केकारव करता हुआ नृत्य करता था । तत्पश्चात् वह जिनदत्त का पुत्र उस मयूर-बालक के द्वारा चम्पानगरी के शृंगाटकों, मार्गों में सैकड़ों, हजारों और लाखों की होड़ में विजय प्राप्त करता था।
हे आयष्मन श्रमणों ! इसी प्रकार हमारा जो साध या साध्वी दीक्षित होकर पाँच महाव्रतों में, षट जीवनिकाय में तथा निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका से रहित, काँक्षा से रहित तथा विचिकित्सा से रहित होता है, वह इसी भव में बहुत से श्रमणों एवं श्रमणियों में मान-सम्मान प्राप्त करके यावत् संसार रूप अटवी को पार करेगा । हे जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तृतीय अध्ययन का अर्थ फरमाया है।
अध्ययन-३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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