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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-४ - कूर्म सूत्र - ६२
'भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात अंग के चौथे ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ?' हे जम्बू! उस काल और उस समय में वाराणसी नामक नगरी थी । उस वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नामक महानदी के ईशान कोण में मृतगंगातीर द्रह नामक एक द्रह था । उसके अनुक्रम से सुन्दर सुशोभित तट थे । जल गहरा और शीतल था । स्वच्छ एवं निर्मल जल से परिपूर्ण था । कमलिनियों के पत्तों और फूलों की पंखुड़ियों से आच्छादित था । बहुत से उत्पलों, पद्मों, कुमुदों, नलिनों तथा सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि कमलों से तथा केसरप्रधान अन्य पुष्पों से समृद्ध था । इस कारण वह आनन्दजनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था।
उस द्रह में सैकड़ों, सहस्रों और लाखों मत्सरों कच्छों, ग्राहों और सुंसुमार जाति के जलचर जीवों के समूह भय से रहित, उद्वेग से रहित, सुखपूर्वक रमते-रमते विचरण करते थे। उस मृतगंगातीर द्रह के समीप एक बड़ा मालुकाकच्छ था । (वर्णन) उस मालुकाकच्छ में दो पापी शृंगाल निवास करते थे । वे पाप का आचरण करने वाले, चंड, रौद्र, इष्ट वस्तु को प्राप्त करने में दत्तचित्त और साहसी थे । उनके हाथ पैर रक्तरंजित रहते थे । वे मांस के अर्थी, मांसाहारी, मांसप्रिय एवं मांसलोलुप थे । मांस की गवेषणा करते हुए रात्रि और सन्ध्या के समय घूमते थे
और दिन में छिपे रहते थे । तत्पश्चात् किसी समय, सूर्य के बहुत समय पहले अस्त हो जाने पर, सन्ध्याकाल व्यतीत हो जाने पर, जब कोई विरले मनुष्य ही चलते-फिरते थे और सब मनुष्य अपने-अपने घरों में विश्राम कर रहे थे, तब मृतगंगातीर द्रह में से आहार के अभिलाषी दो कछुए बाहर नीकले । वे आसपास चारों ओर फिरते हुए अपनी आजीविका करते हुए विचरण करने लगे।
आहार के अर्थी यावत् आहार की गवेषणा करते हुए वे दोनों पापी शृंगाल मालुकाकच्छ से बाहर नीकले । जहाँ मृतगंगातीर नाम द्रह था, वहाँ आए । उसी मृतगंगातीर द्रह के पास इधर-उधर चारों ओर फिरने लगे और आहार की खोज करते हुए विचरण करने लगे । उन पापी सियारों ने उन दो कछुओं को देखा । दोनों कछुए के पास आने के लिए प्रवृत्त हुए । उन कछुओं ने उन पापी सियारों को आता देखा । वे डरे, त्रास को प्राप्त हुए, भागने लगे, उद्वेग को प्राप्त हुए और बहुत भयभीत हए । उन्होंने अपने हाथ पैर और ग्रीवा को अपने शरीर में गोपित कर लिया -छिपा लिया, निश्चल, निस्पंद और मौन रह गए । वे पापी सियार, वहाँ आए । उन कछुओं को सब तरफ से फिराने-घूमाने लगे, स्थानान्तरित करने लगे, सरकाने हटाने लगे, चलाने लगे, स्पर्श करने लगे, हिलाने लगे, क्षुब्ध करने लगे, नाखूनों से फाड़ने लगे और दाँतों से चीथने लगे, किन्तु उन कछुओं के शरीर को थोड़ी बाधा, अधिक बाधा या विशेष बाता उत्पन्न करने में उनकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हो सके । उन पापी सियारों ने इस कछुओं को दूसरी बार और तीसरी बार सब ओर से घूमाया-फिराया, किन्तु यावत् वे उनकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हुए । तब वे श्रान्त हो गए-तान्त हो गए और शरीर तथा मन दोनों से थक गए तथा खेद को प्राप्त हुए। धीमे-धीमे पीछे लौट गए, एकान्त में चले गये और निश्चल, निस्पंद तथा मूक होकर ठहर गए।
उन दोनों कछुओं में से एक कछुए ने उन पापी सियारों को बहुत समय पहले और दूर गया जान कर धीरेधीरे अपना एक पैर बाहर नीकाला । उन पापी सियारों ने देखा कि उस कछुए ने धीरे-धीरे एक पैर नीकाला है । यह देखकर वे दोनों उत्कृष्ट गति से शीघ्र, चपल, त्वरित, चंड, जययुक्त और वेगयुक्त रूप से जहाँ वह कछुआ था, वहाँ गए । उसके मांस और रक्त का आहार किया । आहार करके वे कछुए को उलट-उलट कर देखने लगे, किन्तु यावत् उसकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हुए तब वे दूसरी बार हट गए । इसी प्रकार चारों पैरों के विषय में कहना यावत कछए ने ग्रीवा बाहर नीकाली । यह देखकर वे शीघ्र ही उसके समीप आए । उन्होंने नाखूनों से विदारण करके और दाँतों से तोड़ कर उसके कपाल को अलग कर दिया । अलग करके कछुए को जीवन-रहित कर दिया। जीवन-रहित करके उसके मांस और रुधिर का आहार किया।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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