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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा '
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक आहत, पृथ्वीतल को भिगोने वाली वर्षा निरन्तर बरस रही हो, जल-धारा के समूह से भूतल शीतल हो गया हो,
ने घास रूपी कंचुक को धारण किया हो, वृक्षों का समूह पल्लवों से सुशोभित हो गया हो, बेलों के समूह विस्तार को प्राप्त हुए हों, उन्नत भू-प्रदेश सौभाग्य को प्राप्त हुए हों, अथवा पर्वत और कुण्ड सौभाग्य को प्राप्त हुए हों, वैभारगिरि के प्रपात तट और कटक से निर्झर नीकल कर बह रहे हों, पर्वतीय नदियों में तेज बहाव के कारण उत्पन्न हुए फेनों से युक्त जल बह रहा हो, उद्यान सर्ज, अर्जुन, नीप और कुटज नामक वृक्षों के अंकुरों से
और छत्राकार से युक्त हो गया हो, मेघ की गर्जना के कारण हृष्ट-तुष्ट होकर नाचने की चेष्टा करने वाले मयूर हर्ष के कारण मुक्त कंठ से केकारव कर रहे हों, और वर्षा ऋतु के कारण उत्पन्न हुए मद से तरुण मयूरियाँ नृत्य कर रही हों, उपवन शिलिंघ्र, कुटज, कंदल और कदम्ब वृक्षों के पुष्पों की नवीन और सौरभयुक्त गंध की तृप्ति धारण कर रहे हो, नगर के बाहर के उद्यान कोकिलाओं के स्वरघोलना वाले शब्दों से व्याप्त हों और रक्तवर्ण इन्द्रगोप नामक कीडों से शोभायमान हो रहे हों, उनमें चातक करुण स्वर से बोल रहे हों, वे नमे हए तणों से सुशोभित हों, उनमें मेंढ़क उच्च स्वर से आवाज कर रहे हों, मदोन्मत भ्रमरों और भ्रमरियों के समूह एकत्र हो रहे हों, तथा उन उद्यानप्रदेशों में पुष्प-रस के लोलुप एवं मधुर गुंजार करने वाले मदोन्मत भ्रमर लीन हो रहे हों, आकाशतल में चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहों का समूह मेघों से आच्छादित होने के कारण श्यामवर्ण का दृष्टिगोचर हो रहा हो, इन्द्रधनुष रूपी ध्वजपट फरफरा रहा हो, और उसमें रहा हुआ मेघसमूह बगुलों की कतारों से शोभित हो रहा हो, इस भाँति कारंडक, चक्रवाक और राजहंस पक्षियों को मानस-सरोवर की ओर जाने के लिए उत्सुक बनाने वाला वर्षाऋतु का समय हो । ऐसे वर्षाकाल में जो माताएं स्नान करके, बलिकर्म करके, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त करके (वैभार-गिरि के प्रदेशों में अपने पति के साथ विहार करती हैं, वे धन्य हैं ।)
वे माताएं धन्य हैं जो पैरों में उत्तम नूपुर धारण करती हैं, कमर में करधनी पहनती हैं, वक्षःस्थल पर हार पहनती हैं, हाथों में कड़े तथा उंगलियों में अंगूठियाँ पहनती हैं, अपने बाहुओं को विचित्र और श्रेष्ठ बाजूबन्दों से स्तंभित करती हैं, जिनका अंग रत्नों से भूषित हो, जिन्होंने ऐसा वस्त्र पहना हो जो नासिका के निःश्वास की वायु से भी उड़ जाए अर्थात् अत्यन्त बारीक हो, नेत्रों को हरण करने वाला हो, उत्तम वर्ण और स्पर्श वाला हो, घोड़े के मख से नीकलने वाले फेन से भी कोमल और हल्का हो. उज्ज्वल हो, जिसकी निकारियाँ सवर्ण के तारों के बनी गई हों, श्वेत होने के कारण जो आकाश एवं स्फटिक के समान शुभ्र कान्ति वाला हो और श्रेष्ठ हों। जिन माताओं
पुष्पों और फुसमालाओं से सुशोभित हो, जो कालागुरु आदि की उत्तम धूप से धूपित हों और जो लक्ष्मी के समान वेष वाली हों । इस प्रकार सजधज करके जो सेचनक नामक गंधहस्ती पर आरूढ़ होकर, कोरंट-पुष्पों की माला से सुशोभित छत्र को धारण करती हैं । चन्द्रप्रभा, वज्र और वैडूर्य रत्न के निर्मल दंड़ वाले एवं शंख, कुन्दपुष्प, जलकण और अमृत का मंथन करने से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान उज्ज्वल, श्वेत चार चमर जिनके ऊपर ढोरे जा रहे हैं, जो हस्ती-रत्न के स्कंध पर राजा श्रेणिक के साथ बैठी हों। उनके पीछे-पीछे चतुरंगिणी सेना चल रही हो, छत्र आदि राजचिह्नों रूप समस्त ऋद्धि के साथ, आभूषणों की कान्ति के साथ, यावत् वाद्यों के निर्घोष-शब्द के साथ, राजगृह नगर के शृंगाटक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ तथा सामान्य मार्द में गंधोदरक एक बार छिड़का हो, अनेक बार छिड़का हो, शृंगाटक आदि को शुचि किया हो, झाडा हो, गोबर आदि से लीपा हो, काले अगर, श्रेष्ठ कुंदरु, लोबान तथा धूप को जलाने से फैली हई सुगंध से मघमघा रहा हो, उत्तम चूर्ण के गंध से सुगंधित किया हो और मानों गंधद्रव्यों की गुटिका ही हो, ऐसे राजगृह नगर को देखती जा रही हों । नागरिक जन अभिवन्दन कर रहे हों । गुच्छों, लताओं, वृक्षों, गुल्मों एवं वेलों के समूहों से व्याप्त, मनोहर वैभारपर्वत के नीचले भागों के समीप, चारों और सर्वत्र भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं (वे माताएं धन्य हैं।) तो मैं भी इस प्रकार मेघों का उदय आदि होने पर अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ। सूत्र - १९
तत्पश्चात् वह धारिणी देवी उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण, दोहद के सम्पन्न न होने के कारण, दोहद
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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