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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/सूत्रांक
अध्ययन-५-शैलक सूत्र - ६३
भगवन! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवे ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है? हे जम्ब ! उस काल और उस समय में दारवती नगरी थी । वह पर्व-पश्चिम में लम्बी और उत्तर-दक्षिण में चौडी थी । नौ योजन चौडी और बारह योजन लम्बी थी । वह कबेर की मति से निर्मित हई थी। सवर्ण के श्रेष्ठ प्राकार से और पंचरंगी नान मणियों के बने कंगरों से शोभित थी । अलकापरी समान सन्दर थी । उसके निवासी जन प्रमोदयक्त एवं क्रीडा करने में तत्पर रहते थे। वह साक्षात देवलोक सरीखी थी।
उस द्वारका नगरी के बाहर ईशानकोण में रैवतक नामक पर्वत था । वह बहुत ऊंचा था । उसके शिखर गगन-तल को स्पर्श करते थे । वह नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त था । हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मगनसारिका और कोयल आदि पक्षियों के झुंडों से व्याप्त था । उसमें अनेक तट
और गंडशैल थे । बहुसंख्यक गुफाएं थीं । झरने, प्रपात, प्राग्भार और शिखर थे । वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समूहों, चारण मुनियों और विद्याधरों के मिथुनों से युक्त था । उसमें दशार वंश के समुद्रविजय आदि वीर पुरुष थे, जो कि नेमिनाथ के साथ होने के कारण तीनों लोकों से भी अधिक बलवान थे, नित्य नए उत्सव होते रहते थे । वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रसन्नता प्रदान करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था। उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप एक नन्दनवन नामक उद्यान था । वह सब ऋतुओं सम्बन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध था, मनोहर था । नन्दनवन के समान आनन्दप्रद, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था । उस उद्यान के ठीक बीचोंबीच सुरप्रिय नामक दिव्य यक्षायतन था।
उस द्वारका नगरी में महाराज कृष्ण नामक वासुदेव निवास करते थे । वह वासुदेव वहाँ समुद्रविजय आदि दश दशारों, बलदेव आदि पाँच महावीरों, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं, वीरसेन आदि इक्कीस हजार पुरुषों-महान् पुरुषार्थ वाले जनों, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान पुरुषों, रुक्मिणी आदि बत्तीस हजार रानियों, अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाओं तथा अन्य बहुत-से ईश्वरों, तलवरों यावत् सार्थवाह आदि का एवं उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा अन्य तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का और द्वारका नगरी का अधिपतित्व करते हुए और पालन करते हुए विचरते थे। सूत्र - ६४
द्वारका नगरी में थावच्चा नामक एक गाथापत्नी निवास करती थी । वह समृद्धि वाली थी यावत् बहुत लोग मिलकर भी उसका पराभव नहीं कर सकते थे । उस थावच्चा गाथापत्नी का थावच्चपुत्र नामक सार्थवाह का बालक पुत्र था । उसके हाथ-पैर अत्यन्त सुकुमार थे । वह परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीर वाला, प्रमाणोपेत अंगोपांगों से सम्पन्न और चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाला था । सुन्दर रूपवान था । उस थावच्चा गाथापत्नी ने उस पुत्र को कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ जानकर शुभतिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में कलाचार्य के पास भेजा । फिर भोग भोगने में समर्थ हुआ जानकर इभ्यकुल की बत्तीस कुमारिकाओं के साथ एक ही दिन में पाणिग्रहण कराया । प्रासाद आदि बत्तीस-बत्तीस का दायजा दिया । वह इभ्यकुल की बत्तीस कुमारिकाओं के साथ विपुल शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण और गंध का भोग-उपभोग करता हआ रहने लगा।
उस काल और उस समय में अरिहंत अरिष्टनेमि पधारे । धर्म की आदि करने वाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, आदि वर्णन भगवान महावीर के समान ही समझना । विशेषता यह है कि भगवान अरिष्टनेमि दस धनुष ऊंचे थे, नीलकमल, भैंस के सींग, नील गुलिका और अलसी के फूल के समान श्याम कान्ति वाले थे । अठारह हजार साधुओ से और चालीस हजार साध्वीओं से परिवृत्त थे । वे भगवान अरिष्टनेमि अनुक्रम से विहार करते हुए सुखपूर्वक ग्रामानुग्राम पधारते हुए जहाँ द्वारका नगरी थी, जहाँ गिरनार पर्वत था, जहाँ नन्दनवन नामक उद्यान था,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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