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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वाले और मृदुल वस्त्र में आभूषण, माल्य और अलंकार ग्रहण किये । ग्रहण करके हार, जल की धारा, निर्गुडी के पुष्प और टूटे हए मुक्तावली-हार से समान अश्रु टपकाती हई, रोती-रोती, आक्रन्दन करती-करती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी-'हे लाल ! प्राप्त चारित्रयोग में यतना करना, हे पुत्र ! अप्राप्त चारित्रयोग को प्राप्त करने का यत्न करना, हे पुत्र ! पराक्रम करना । संयम-साधना में प्रमाद न करना, 'हमारे लिए भीय ही मार्ग हो' इस प्रकार कहकर मेघकुमार के माता-पिता ने श्रमण भगवान महावीर का वन्दन नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। सूत्र-३५
मेघकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया । जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आया । भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की। फिर वन्दन-नमस्कार किया और कहा-भगवन् ! यह संसार जरा और मरण से आदीप्त है, यह संसार प्रदीप्त है । हे भगवन् ! यह संसार आदीप्त-प्रदीप्त है । जैसे कोई गाथापति अपने घर में आग लग जाने पर, उस घर में जो अल्प भारवाली और बहुमूल्य वस्तु होती है उसे ग्रहण करके स्वयं एकान्त में चला जाता है । वह सोचता है कि 'अग्नि में जलने से बचाया हुआ यह पदार्थ मेरे लिए आगे-पीछे हित के लिए, सुख के लिए, क्षमा के लिए, कल्याण के लिए और भविष्य में उपयोग के लिए होगा । इसी प्रकार मेरा भी यह एक आत्मा रूपी भांड है, जो मुझे इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और अतिशय मनोहर है । इस आत्मा को मैं नीकाल लूँगा-जरा-मरण की अग्नि में भस्म होने से बचा लूँगा, तो यह संसार का उच्छेद करने वाला होगा । अत एव मैं चाहता हूँ कि देवानुप्रिय स्वयं ही मुझे प्रव्रजित करें, स्वयं ही मुझे मुण्डित करें, स्वयं ही प्रतिलेखन आदि सिखावें, स्वयं ही सूत्र और अर्थ प्रदान करके शिक्षा दें, स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचरी, विनय, वैनयिक, चरणसत्तरी, करणसत्तरी, संयमयात्रा और मात्रा आदि स्वरूप वाले धर्म का प्ररूपण करें।
तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने मेघकुमार को स्वयं ही प्रव्रज्या प्रदान की और स्वयं ही यावत् आचारगोचर आदि धर्म की शिक्षा दी । हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार चलना इस प्रकार खड़ा होना, बैठना, शयन करना, निर्दोष आहार करना, भाषण करना । प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की रक्षा करके संयम का पालन करना चाहिए। इस विषय में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । तत्पश्चात् मेघकुमार ने श्रमण भगवान महावीर के निकट इस प्रकार का धर्म सम्बन्धी यह उपदेश सूनकर और हृदय में धारण करके सम्यक् प्रकार से उसे अंगीकार किया । वह भगवान की आज्ञा के अनुसार गमन करता, उसी प्रकार बैठता यावत् उठ-उठ कर प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की यतना करके संयम का आराधन करने लगा। सूत्र - ३६
जिस दिन मेघकुमार ने मुंडित होकर गृहवास त्याग कर चारित्र अंगिकार किया, उसी दिन के सन्ध्याकाल में रात्निक क्रम में अर्थात् दीक्षापर्याय के अनुक्रम से, श्रमण निर्ग्रन्थों के शय्या-संस्तारकों का विभाजन करते समय मेघकमार का शय्या-संस्तारक द्वार के समीप हआ। तत्पश्चात श्रमण निर्ग्रन्थ अर्थात अन्य मनि रात्रि के पहले और पीछले समय में वाचना के लिए, पृच्छना के लिए, परावर्तन के लिए, धर्म के व्याख्यान का चिन्तन करने के लिए, उच्चार के लिए एवं प्रस्रवण के लिए प्रवेश करते थे और बाहर नीकलते थे । उनमें से किसी-किसी साधु के हाथ का मेघकुमार के साथ संघट्टन हुआ, इसी प्रकार किसी के पैर की मस्तक से और किसी के पैर की पेट से टक्कर हुई । कोई-कोई मेघकुमार को लाँघ कर नीकले और किसी-किसी ने दो-तीन बार लाँघा । किसी-किसी ने अपने पैरों की रज से उसे भर दिया या पैरों के वेग से उड़ती हुई रज से वह भर गया । इस प्रकार लम्बी रात्रि में मेघकुमार क्षणभर भी आँख बन्द नहीं कर सका।
तब मेघकुमार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ–'मैं श्रेणिक राजा का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज मेघकुमार हूँ | गूलर के पुष्प के समान मेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है । जब मैं घर रहता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे, 'यह कुमार ऐसा है। इस प्रकार जानते थे, सत्कार-सन्मान करते थे, जीवादि
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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