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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक यावत् आहार वहरा कर इस प्रकार कहा-'हे आर्याओं ! मैं सागर के लिए अनिष्ट हूँ, यावत् अमनोज्ञ हूँ | जिसजिस को भी मैं दी गई, उसी-उसी को अनिष्ट यावत् अमनोज्ञ हुई हूँ | आर्याओ ! आप बहुत ज्ञान वाली हो । इस प्रकार पोट्टिला ने जो कहा था, वह सब जानना । आपने कोई मंत्र-तंत्र आदि प्राप्त किया है, जिससे मैं सागरदारक को इष्ट, कान्त यावत् प्रिय हो जाऊं ? आर्याओं ने उसी प्रकार-सुव्रता की आर्याओं के समान-उत्तर दिया।
तब वह श्राविका हो गई । उसने दीक्षा अंगीकार करने का विचार किया और उसी प्रकार सागरदत्त सार्थवाह से दीक्षा की आज्ञा ली । यावत् वह गोपालिका आर्या के निकट दीक्षित हुई । तत्पश्चात् वह सुकुमालिका आर्या हो गई। ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हुई और बहुत-से उपवास, बेला, तेला आदि की तपस्या करती हुई विचरने लगी । तत्पश्चात् सुकुमालिका आर्या किसी समय, एक बार गोपालिका आर्या के पास गई। जाकर उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा- हे आर्या ! मैं आपकी आज्ञा पाकर चम्पा नगरी से बाहर, सुभूमिभाग उद्यान से न बहुत दूर और न बहुत समीप के भाग में बेले-बेले का निरन्तर तप करके, सूर्य के सम्मुख आतापना लेती हुई विचरना चाहती हूँ।
तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका आर्या से इस प्रकार कहा-'हे आर्ये ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, ईर्यासमितिवाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं। अत एव हमको गाँव यावत् सन्निवेश से बाहर जाकर बेले-बेले की तपस्या करके यावत् विचरना नहीं कल्पता। किन्तु वाड़से घिरे हुए उपाश्रय अन्दर ही, संघाटीसे शरीर आच्छादित करके या साध्वीयों के परिवार के साथ रहकर, पृथ्वी पर दोनों पदतल समान रखकर आतापना लेना कल्पता है।' तब सुकुमालिका को गोपालिका आर्या की इस बात पर श्रद्धा नहीं हुई, प्रतीति नहीं हुई, रुचि नहीं हुई । वह सुभूमिभाग उद्यान से कुछ समीपमें निरन्तर बेले-बेले का तप करती हुई यावत् आतापना लेती हुई विचरने लगी। सूत्र - १६६
____ चम्पा नगरी में ललिता एक गोष्ठी निवास करती थी। राजाने उसे ईच्छानुसार विचरण करने की छूट दे रखी थी। वह टोली माता-पिता आदि स्वजनों की परवाह नहीं करती थी । वेश्या का घर ही उसका घर था । वह नाना प्रकार का अविनय करने में उद्धत थी, वह धनाढ्य लोगों की टोली थी और यावत् किसी से दबती नहीं थी। उस चम्पानगरीमें देवदत्ता गणिका रहती थी । वह सुकुमाल थी । अंडक अध्ययन अनुसार समझ लेना । एक बार उस ललिता गोष्ठी के पाँच गोष्ठिक पुरुष देवदत्ता गणिका के साथ, सुभूमिभाग उद्यान की लक्ष्मी का अनुभव कर रहे थे । उनमें से एक गोष्ठिक पुरुष ने देवदत्ता गणिका को अपनी गोद में बिठाया, एक ने पीछे से छत्र धारण किया, एक ने उसके मस्तक पर पुष्पों का शिखर रचा, एक उसके पैर रंगने लगा और एक उस पर चामर ढोने लगा
उस सुकुमालिका आर्या ने देवदत्ता गणिका को पाँच गोष्ठिक पुरुषों के साथ उच्च कोटि के मनुष्य सम्बन्धी कामभोग भोगते देखा । उसे इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ-'अहो ! यह स्त्री पूर्व में आचरण किये हुए शुभ कर्मों का फल अनुभव कर रही है । सो यदि अच्छी तरह से आचरण किये गये इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य का कुछ भी कल्याणकारी फल-विशेष हो, तो मैं भी आगामी भव में इसी प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगती हई विचरूँ । उसने इस प्रकार निदान किया । निदान करके आतापनाभूमि से वापिस लौटी। सूत्र-१६७
तत्पश्चात् सुकुमालिका आर्या शरीरबकुश हो गई, अर्थात् शरीर को साफ-सुथरा-सुशोभन रखनेमें आसक्त हो गई। वह बार-बार हाथ धोती, पैर धोती, मस्तक धोती, मुँह धोती, स्तनान्तर धोती, बगलें धोती तथा गुप्त अंग धोती । जिस स्थान पर खड़ी होती या कायोत्सर्ग करती, सोती, स्वाध्याय करती, वहाँ भी पहले ही जमीन पर जल छिड़कती थी और फिर खड़ी होती, कायोत्सर्ग करती, सोती या स्वाध्याय करती थी । तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका आर्या से कहा-हम निर्ग्रन्थ साध्वीयाँ हैं, ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हैं । हमें शरीरबकुश होना नहीं कल्पता, किन्तु हे आर्ये ! तुम शरीरबकुश हो गई हो, बार-बार हाथ धोती हो, यावत् फिर स्वाध्याय आदि करती हो । अत एव तुम बकुशचारित्र रूप स्थान की आलोचना करो, यावत् प्रायश्चित्त अंगीकार करो ।'
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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