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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक पसीना एवं लार टपकाती हुई, हृदयमें शोक करती हुई, विलाप करती हुई मेघकुमार से इस प्रकार कहने लगीसूत्र-३२
हे पुत्र ! तू हमारा इकलौता बेटा है । तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मणाम है तथा धैर्य और विश्राम का स्थान है । कार्य करने में सम्मत है, बहुत कार्य करने में बहुत माना हुआ है और कार्य करने के पश्चात् भी अनुमत है । आभूषणों की पेटी के समान है । मनुष्यजाति में उत्तम होने के कारण रत्न है । रत्न रूप है । जीवने की उच्छ्वास के समान है । हमारे हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला है । गूलर के फूल के समान तेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की तो बात ही क्या है ? हे पुत्र ! हम क्षणभर के लिए भी तेरा वियोग सहन नहीं करना चाहते । अत एव हे पुत्र ! प्रथम तो जब तक हम जीवित हैं, तब तक मनुष्य सम्बन्धी विपुल काम-भोगों को भोग । फिर जब हम कालगत हो जाएं और तू परिपक्व उम्र का हो जाए-तेरी युवावस्था पूर्ण हो जाए, कुल-वंश रूप तंतु का कार्य वृद्धि को प्राप्त हो जाए, जब सांसारिक कार्य की अपेक्षा न रहे, उस समय तू श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्डित होकर, गृहस्थी का त्याग करके प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना।
तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर मेघकुमार ने माता-पिता से कहा-'हे माता-पिता ! आप मुझसे यह जो कहते हैं कि-हे पुत्र ! तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, इत्यादि पूर्ववत्, यावत् सांसारिक कार्य से निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान महावीर के समीप प्रव्रजित होना-सो ठीक है, परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्यभव ध्रुव नहीं है, नियत नहीं है, यह अशाश्वत है तथा सैकड़ों व्यसनों एवं उपद्रवों से व्याप्त है, बिजली की चमक के समान चंचल है, अनित्य है, जल के बुलबुले के समान है, दूब की नोंक पर लटकने वाले जलबिन्दु के समान है, सन्ध्या समय के बादलों की लालीमा के सदृश है, स्वप्नदर्शन के समान है-अभी है और अभी नहीं है, कुष्ठ आदि से सड़ने, तलवार आदि से कने और क्षीण होने के स्वभाव वाला है तथा आगे या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य है । इसके अतिरिक्त कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा और कौन पीछे जाएगा? हे माता-पिता ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके श्रमण भगवान महावीर के निकट यावत प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ।'
तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा-' हे पुत्र ! यह तुम्हारी भार्याएं समान शरीर वाली, समान त्वचा वाली, समान वय वाली, समान लावण्य, रूप, यौवन और गुणों से सम्पन्न तथा समान राजकुलों से लाई हई हैं । अत एव हे पुत्र ! इनके साथ विपुल मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगो । तदनन्तर भुक्तभोग होकर श्रमण भगवान महावीर के निकट यावत् दीक्षा ले लेना । तत्पश्चात् मेघकुमार ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं कि-'हे पुत्र ! तेरी ये भार्याएं समान शरीर वाली हैं इत्यादि, यावत् इनके साथ भोग भोगकर श्रमण भगवान महावीर के समीप दीक्षा ले लेना; सो ठीक है, किन्तु हे माता-पिता ! मनुष्यों के ये कामभोग अशाश्वत हैं, इनमें से वमन झरता है, पित्त, कफ, शुक्र तथा शोणित झरता है । ये गंदे उच्छ्वासनिःश्वास वाले हैं, खराब मूत्र, मल और पीव से परिपूर्ण है, मल, मूत्र, कफ, नासिका-मल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होने वाले हैं । यह ध्रुव नहीं, नियत नहीं, शाश्वत नहीं है, सड़ने, पड़ने और विध्वंस होने के स्वभाव वाले हैं और पहले या पीछे अवश्य ही त्याग करने योग्य है । हे माता-पिता ! कौन जानता है कि पहले कौन जाएगा और पीछे कौन जाएगा? अत एव हे माता-पिता ! मैं यावत् अभी दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ।'
तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तुम्हारे पितामह, पिता के पितामह और पिता के प्रपितामह से आया हुआ यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांसा, दूष्य-वस्त्र, मणि, मोती, शंख, सिला, मूंगा, लाल-रत्न आदि सारभूत द्रव्य विद्यमान है । यह इतना है कि सात पीढियों तक भी समाप्त न हो । इसका तम खब दान करो, स्वयं भोग करो और बाँटो । हे पुत्र ! यह जितना मनुष्यसम्बन्धी ऋद्धि-सत्कार का समुदान है, उतना सब तुम भोगो । उसके बाद अनुभूत-कल्याण होकर श्रमण भगवान महावीर के समक्ष दीक्षा ग्रहण कर लेना । तत्पश्चात् मेघकुमार ने माता-पिता से कहा-आप जो कहते हैं सो ठीक है कि-'हे पुत्र ! यह दादा, पड़दादा और पिता के पड़दादा से आया हुआ यावत् उत्तम द्रव्य है, इसे भोगो और फिर अनुभूत-कल्याण होकर दीक्षा ले लेना,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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