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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उन्हें वन्दन करने के लिए परीषद् नीकली । मंडुक राजा भी नीकला । शैलक अनगार को सब ने वन्दन किया, नमस्कार किया । उपासना की । उस समय मंडुक राजा ने शैलक अनगार का शरीर शुष्क, निस्तेज यावत् सब प्रकार की पीड़ा से आक्रान्त और रोगयुक्त देखा । देखकर इस प्रकार कहा-'भगवन् मैं आपकी साधु के योग्य चिकित्सकों से, साधु के योग्य औषध और भेषज के द्वारा भोजन-पान द्वारा चिकित्सा कराना चाहता हूँ । भगवन्! आप मेरी यानशाला में पधारिए और प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक ग्रहण करके विचरिए।
तत्पश्चात् शैलक अनगार ने मंडुक राजा के इस अर्थ को 'ठीक है' ऐसा कहकर स्वीकार किया और राजा वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया । तत्पश्चात् वह शैलक राजर्षि कल प्रभात होने पर, सूर्योदय हो जाने के पश्चात् सहस्ररश्मि सूर्य के देदीप्यमान होने पर भंडमात्र और उपकरण लेकर पंथक प्रभृति पाँच सौ मुनियों के साथ शैलकपुर में प्रविष्ट हुए । प्रवेश करके जहाँ मंडुक राजा की यानशाला थी, उधर आए । आकर प्रासुक पीठ फलक शय्या संस्तारक ग्रहण करके विचरने लगे । तत्पश्चात् मंडुक राजा ने चिकित्सकों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार-'देवानुप्रियो ! तुम शैलक राजर्षि की प्रासक और एषणीय औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा करो ।' तब चिकित्सक मंडुक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए। उन्होंने साधु के योग्य औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा की और मद्यपान करने की सलाह दी। तत्पश्चात् साधु के योग्य औषध, भेषज, भोजन-पान से तथा मद्यपान करने से शैलक राजर्षि का रोग-आतंक शान्त हो गया । वह हृष्ट -तुष्ट यावत् बलवान् शरीर वाले हो गए । उनके रोगान्तक पूरी तरह दूर हो गए । तत्पश्चात् शैलक राजर्षि उस रोगांतक के उपशान्त हो जाने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्छित, मत्त, गृद्ध
और अत्यन्त आसक्त हो गए । वह अवसन्न-आलसी, अवसन्नविहारी इसी प्रकार पार्श्वस्थ तथा पार्श्वस्थविहारी कुशील और प्रमत्तविहारी, संसक्त तथा संसक्तविहारी हो गए । शेष काल में भी शय्या-संस्तारक के लिए पीठफलक रखने वाले प्रमादी हो गए। वह प्रासुक तथा एषणीय पीठ फलक आदि को वापस देकर और मंडुक राजा से अनुमति लेकर बाहर जनपद-विहार करने में असमर्थ हो गए। सूत्र-७०
तत्पश्चात् पंथक के सिवाय वे पाँच सौ अनगार किसी समय इकट्ठे हुए-मिले, एक साथ बैठे । तब मध्य रात्रि के समय धर्मजागरणा करते हुए उन्हें ऐसा विचार, चिन्तन, मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि-शैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए, किन्तु अब विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्च्छित हो गए हैं । वह जनपद-विहार करने में समर्थ नहीं है । हे देवानुप्रियो ! श्रमणों को प्रमादी होकर रहना नहीं कल्पता है । हमारे लिए वह श्रेयस्कर है कि कल शैलकराजर्षि से आज्ञा लेकर और पडिहारी पीठ फलग शय्या एवं संस्तारक वापिस सौंपकर, पंथक अनगार को शैलक अनगार का वैयावृत्त्यकारी स्थापित करके बाहर जनपद में अभ्युद्यत विचरण करें ।' उन मुनियों ने ऐसा विचार करके, कल शैलक राजर्षि के समीप जाकर, उनकी आज्ञा लेकर, प्रतिहारी पीठ फलक शय्या संस्तारक वापिस दे दिए | पंथक अनगार को वैयावृत्त्यकारी नियुक्त कियाउनको सेवा में रखा । रखकर बाहर देश-देशान्तर में विचरने लगे। सूत्र-७१
तब वह पंथक अनगार शैलक राजर्षि की शय्या, संस्तारक, उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, संघाण के पात्र, औषध, भेषज, आहार, पानी आदि से बिना ग्लानि, विनयपूर्वक वैयावृत्य करने लगे । उस समय पंथक मुनि ने कार्तिक की चौमासी के दिन कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण करके, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की ईच्छा से शैलक राजर्षि को खमाने के लिए अपने मस्तक से उनके चरणों को स्पर्श किया । पंथक के द्वारा मस्तक से चरणों का स्पर्श करने पर शैलक राजर्षि एकदम क्रुद्ध हए, यावत् क्रोध से मिसमिसाने लगे और उठ गए । उठकर बोले-'अरे, कौन है यह अप्रार्थित की ईच्छा रखने वाला, यावत् सर्वथा शून्य, जिसने सुखपूर्वक सोये हुए मेरे पैरों का स्पर्श किया ?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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