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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-१६- अपरकंका सूत्र - १५८
'भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने पन्द्रहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो सोलहवे ज्ञातअध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' जम्बू ! उस काल, उस समयमें चम्पा नगरी थी । उस चम्पा नगरी से बाहर ईशान दिशा भागमें सुभूमिभाग नामक उद्यान था। उस चम्पानगरीमें तीन ब्राह्मण-बन्धु निवास करते थे । सोम, सोमदत्त और सोमभूति । वे धनाढ्य थे यावत् ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा अन्य ब्राह्मणशास्त्रों में अत्यन्त प्रवीण थे । उन तीन ब्राह्मणों की तीन पत्नीयाँ थीं; नागश्री, भूतश्री और यक्षश्री । वे सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् उन ब्राह्मणों की इष्ट थीं । वे मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोग भोगती हुई रहती थीं।
किसी समय, एक बार एक साथ मिले हुए उन तीनों ब्राह्मणों में इस प्रकार का समुल्लाप हुआ-'देवानुप्रियो ! हमारे पास यह प्रभूत धन यावत् स्वापतेय-द्रव्य आदि विद्यमान है । सात पीढ़ियों तक खूब दिया जाए, खूब भोगा जाए और खूब बाँटा जाए तो भी पर्याप्त है । अत एव हे देवानुप्रियो ! हम लोगों का एक-दूसरे के घरों में प्रतिदिन बारी-बारी से विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम बनवा-बनवा कर एक साथ बैठकर भोजन करना अच्छा रहेगा। तीनों ब्राह्मणबन्धुओं ने आपस की यह बात स्वीकार की । वे प्रतिदिन एक-दूसरे के घरों में प्रचुर अशन, पान, खादिम और स्वादिम बनवा कर साथ-साथ भोजन करने लगे । तत्पश्चात् एक बार नागश्री ब्राह्मणी के यहाँ भोजन की बारी आई । तब नागश्री ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाया । सारयुक्त तूंबा बहुत-से मसाले जाल कर और तेल से व्याप्त कर तैयार किया उस शाक में से एक बूंद अपनी हथेली में लेकर चखा तो मालूम हुआ कि यह खारा, कड़वा, अखाद्य और विष जैसा है । यह जानकर वह मन ही मन कहने लगी'मुझ अधन्या, पुण्यहीना, अभागिनी, भाग्यहीन, अत्यन्त अभागिनी-निंबोली के समान अनादरणीय नागश्री को धिक्कार है, जिसने यह रसदार तूंबा बहुत-से मसालों से युक्त और तेल से छौंका हुआ तैयार किया । इसके लिए बहुत-सा द्रव्य बीगाड़ा और तेल का भी सत्यानाश किया।
सो यदि मेरी देवरानियाँ यह वृत्तान्त जानेंगी तो मेरी निन्दा करेंगी । अत एव जब तक मेरी देवरानियाँ न जान पाएं तब तक मेरे लिए यही उचित होगा कि इस बहुत मसालेदार और स्नेह से युक्त कटुक तूंबे को किसी जगह छिपा दिया जाय और दूसरा सारयुक्त मीठा तूंबा मसाले डालकर और बहुत-सा तेल से छौंक कर तैयार किया जाए । विचार करके उस कटुक शरदऋतु सम्बन्धी तूंबे को यावत् छिपा दिया और मीठा तूंबा तैयार किया। वे ब्राह्मण स्नान करके यावत् सुखासन पर बैठे । उन्हें वह प्रचुर अशन, पान, खादिम और स्वादिम परोसा गया । भोजन कर चूकने के पश्चात् आचमन करके स्वच्छ होकर और परम शुचि होकर अपने-अपने काम में संलग्न हो गए । तत्पश्चात् स्नान की हुई और विभूषित हुई उन ब्राह्मणियों ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार जीमा । जीमकर वे अपने-अपने घर चली गईं। अपने-अपने काम में लग गईं। सूत्र - १५९
उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार के साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे । साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् विचरने लगे। उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली । स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया । परीषद् वापस चली गई। धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि नामक अनगार थे । वह उदार-प्रधान अथवा उराल-उग्र तपश्चर्या करने के कारण पार्श्वस्थों के लिए अति भयानक लगते थे। वे धर्मरुचि अनगार मास-मास का तप करते हुए विचरते थे। किसी दिन धर्मरुचि अनगार के मासक्षमण के पारणा का दिन आया । उन्होंने पहली पौरुषी में स्वाध्याय किया, दूसरी में ध्यान किया इत्यादि सब गौतमस्वामी समान कहना, तीसरे प्रहर में पात्रों का प्रतिलेखन करके उन्हें ग्रहण किया । धर्मघोष स्थविर से भिक्षागोचरी लाने की आज्ञा प्राप्त की यावत् वे चम्पा नगरी में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भ्रमण करते हुए नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रविष्ट हुए ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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