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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वृक्षों के मूल यावत् हरित का भक्षण करना और उनकी छाया में विश्राम लेना । इस प्रकार की आघोषणा कर दो। मेरी आज्ञा वापिस लौटा दो। कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार घोषणा करके आज्ञा वापिस लौटा दी।
इसके बाद धन्य सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए । जहाँ नन्दीफल नामक वृक्ष थे, वहाँ आ पहुँचा । उन नन्दीफल वृक्षों से न बहुत दूर न समीप में पड़ाव डाला । फिर दूसरी बार और तीसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे पड़ाव में ऊंची-ऊंची ध्वनि से पुनः पुनः घोषणा करते हुए कहा कि-'हे देवानुप्रियो ! वे नन्दीफल वृक्ष ये हैं, जो कृष्ण वर्ण वाले, मनोज्ञ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले और मनोहर छाया वाले हैं । वहाँ दूसरे वृक्षों के मूल आदि का सेवन करना और उनकी छाया में विश्राम करना ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने इसी प्रकार घोषणा करके आज्ञा वापिस सौंपी।
उनमें से किन्हीं-किन्हीं पुरुषोंने धन्य सार्थवाह की बात पर श्रद्धा की, प्रतीति की एवं रुचि की। वे धन्य सार्थवाह के कथन पर श्रद्धा करते, उन नन्दीफलों का दर ही दर से त्याग करते, दुसरे वक्षों के मूल करते थे, उन्हीं की छायामें विश्राम करते थे। उन्हें तात्कालिक भद्र तो प्राप्त न हुआ, किन्तु उसके पश्चात् ज्यों-ज्यों उनका परिणमन होता चला त्यों-त्यों वे बार-बार सुखरूप परिणत होते चले गए। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों! जो निर्ग्रन्थी यावत् पाँच इन्द्रियों के कामभोगोंमें आसक्त नहीं होता और अनुरक्त नहीं होता, वह इसी भवमें बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों, श्राविकाओं का पूजनीय होता है और परलोकमें भी दुःख नहीं पाता है, जैसे-हाथ, कान, नाक आदि का छेदन, हृदय एवं वृषभों का उत्पाटन, फाँसी आदि । उसे अनादि अनन्त संसार-अटवी में ८४ योनियोंमें भ्रमण नहीं करना पड़ता । वह अनुक्रम से संसार कान्तार पार कर जाता है-सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
उनमें से जिन कितनेक पुरुषों ने धन्य सार्थवाह की इस बात पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, वे धन्य सार्थवाह की बात पर श्रद्धा न करते हुए जहाँ नन्दीफल वृक्ष थे, वहाँ गए । जाकर उन्होंने नन्दीफल वृक्षों के मूल आदि का भक्षण किया और उनकी छायामें विश्राम किया । उन्हें तात्कालिक सुख तो प्राप्त हुआ, किन्तु बादमें उनका परिणमन होने पर उन्हें जीवन से मुक्त होना पड़ा । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु -साध्वी प्रव्रजित होकर पाँच इन्द्रियों के विषयभोगोंमें आसक्त होता है, वह उन पुरुषों की तरह यावत् हस्तच्छेदन, कर्णच्छेदन, हृदयोत्पाटननादि पूर्वोक्त दुःखों का भागी होता है, चतुर्गतिरूप संसारमें पुनः पुनः परिभ्रमण करता है।
इसके पश्चात् धन्य सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए । अहिच्छत्रा नगरी पहुँचा । अहिच्छत्रा नगरी के बाहर प्रधान उद्यानमें पड़ाव डाला, गाड़ी-गाड़े खुलवा दिए । फिर धन्य सार्थवाहने महामूल्यवान, राजा के योग्य उपहार लिया और बहत पुरुषों से परिवत्त होकर अहिच्छत्रा नगरीमें मध्यभागमें होकर प्रवेश किया। प्रवेश कर राजा के पास गया । वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके राजा का अभिनन्दन किया । अभिनन्दन करने के पश्चात् वह बहुमूल्य उपहार उसके समीप रख दिया । उपहार प्राप्त करके राजा कनककेतु हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने धन्य सार्थवाह के उस मूल्यवान् उपहार को स्वीकार किया । धन्य सार्थवाह का सत्कार-सम्मान किया । माफ कर दिया और उसे बिदा कर दिया । फिर धन्य सार्थवाह ने अपने भाण्ड का विनिमय किया । अपने माल के बदले में दूसरा माल लिया । तत्पश्चात् सुखपूर्वक लौटकर चम्पा नगरी में आ पहुँचा । आकर अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से मिला और मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगने योग्य भोग भोगता हुआ रहने लगा।
उस काल और उस समय में स्थविर भगवंत का आगमन हुआ । धन्य सार्थवाह उन्हें वन्दना करने के लिए नीकला । धर्मदेशना सूनकर और ज्येष्ठ पुत्र को अपने कुटुम्ब में स्थापित करके स्वयं दीक्षित हो गया । सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके और बहुत वर्षों तक संयम का पालन करके, एक मास की संलेखना करके, साठ भक्त का अनशन करके अन्यतर-देवलोक में देव पर्याय में उत्पन्न हुआ। देवलोक से आयु का क्षय होने पर महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा, यावत् जन्म-मरण का अन्त करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पन्द्रहवे ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है । ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-१५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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