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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक राज्यासीन करके यावत् महाबल राजा के समीप आ गए।
तब महाबल राजा ने छहों बालमित्रों को आया देखा । वह हर्षित और संतुष्ट हुआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! जाओ और बलभद्र कुमार का महान् राज्याभिषेक से अभिषेक करो ।' यह आदेश सूनकर उन्होंने उसी प्रकार किया यावत् बलभद्रकुमार का अभिषेक किया । महाबल राजा ने बलभद्र कुमार से, जो अब राजा हो गया था, दीक्षा की आज्ञा ली । फिर महाबल अचल आदि छहों बालमित्रों के साथ हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिका पर आरूढ़ होकर, वीतशोका नगरी के बीचोंबीच होकर इन्द्रकुम्भ उद्यान था और जहाँ स्थविर भगवंत थे, वहाँ आए । उन्होंने भी स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया । यावत् दीक्षित हुए। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, बहुत से उपवास, बेला, तेला आदि तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
तत्पश्चात वे महाबल आदि सातों अनगार किसी समय इकटे हए । उस समय उनमें परस्पर इस प्रकार बातचीत हुई-हे देवानुप्रियो ! हम लोगों में से एक जिस तप को अंगीकार करके विचरे हम सब को एक साथ वही तपःक्रिया ग्रहण करके विचरना उचित है । सबने यह बात अंगीकार की । अंगीकार करके अनेक चतुर्थभक्त, यावत् तपस्या करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् उन महाबल अनगार ने इस कारण से स्त्रीनामगोत्र कर्म का उपार्जन किया-यदि वे महाबल को छोड़कर शेष छह अनगार चतुर्थभक्त ग्रहण करके विचरते, तो महाबल अनगार षष्ठभक्त ग्रहण करके विचरते । अगर महाबल के सिवाय छह अनगार षष्ठभक्त अंगीकार करके विचरते तो महाबल अनगार अष्टभक्त ग्रहण करके विचरते । इस प्रकार अपने साथी मुनियों से छिपाकर-कपट करके महाबल अधिक तप करते थे। सूत्र - ७७-७९
अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी-इन सातों के प्रति वत्सलता धारण करना, बारंबार ज्ञान का उपयोग करना, तथा-दर्शन, विनय, आवश्यक शीलव्रत का निरतिचार पालन करना, क्षणलव अर्थात् ध्यान सेवन, तप करना, त्याग, तथा-नया-नया ज्ञान ग्रहण करना, समाधि, वैयावृत्य, श्रुतभक्ति और प्रवचन प्रभावना इस बीस कारणों से जीव तीर्थकरत्व की प्राप्ति करता है। सूत्र-८०
तत्पश्चात् वे महाबल आदि सातों अनगार एक मास की पहली भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे। यावत् बारहवी एकरात्रि की भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे । तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति सातों अनगार क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडित नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरने लगे । वह तप इस प्रकार किया जाता हैसर्वप्रथम एक उपवास करे, उपवास करके सर्वकामगुणित पारणा करे, पारणा करके दो उपवास करे, फिर एक उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके आठ उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके नौ उपवास करे, करके आठ उपवास करे, करके नौ उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके आठ उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके एक उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके एक उपवास करे । सब जगह पारणा के दिन सर्वकामगुणित पारणा करके उपवासों का पारणा समझना चाहिए।
कार इस क्षुल्लक सिंहनिष्क्रिडित तप की पहली परिपाटी छह मास और सात अहोरात्रों में सूत्र के अनुसार यावत् आराधित होती है । तत्पश्चात् दूसरी परिपाटी में एक उपवास करते हैं, इत्यादि विशेषता यह है कि इसमें विकृति रहित पारणा करते हैं, इसी प्रकार तीसरी परिपाटी । विशेषता यह है कि अलेपकृत से पारणा करते
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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