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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक नहस होकर सरसराट करके धरती पर आ पड़े। तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा अमरकंका राजधानी को पूर्वोक्त प्रकार से बूरी तरह भग्न हई जानकर भयभीत होकर द्रौपदी देवी की शरण में गया । तब द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ राजा से कहा-देवानुप्रिय ! क्या तुम नहीं जानते कि पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करते हुए तुम मुझे यहाँ लाए हो ? किन्तु जो हुआ सो हुआ । अब देवानुप्रिय ! तुम जाओ, स्नान करो । पहनने और ओढ़ने के वस्त्र धारण करो । पहने हुए वस्त्र का छोर नीचा रखो । अन्तःपुर की रानियों आदि परिवार को साथ में ले लो । प्रधान और श्रेष्ठ रत्न भेंट के लिए लो । मुझे आगे कर लो । इस प्रकार चलकर कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथ जोड़कर उनके पैरों में गिरो और उनकी शरण ग्रहण करो । उत्तम पुरुष प्रणिपतित होते हैंउस समय पद्मनाभ ने द्रौपदी देवी के इस अर्थ को अंगीकार किया । द्रौपदी देवी के कथनानुसार स्नान
ण वासदेव की शरण में गया। दोनों हाथ जोडकर इस प्रकार कहने लगा- मैंने आप देवानप्रिय की ऋद्धि देख ली, पराक्रम देख लिया । हे देवानुप्रिय ! मैं क्षमा की प्रार्थना करता हूँ, आप यावत् क्षमा करें । यावत् मैं पुनः ऐसा नहीं करूँगा।' इस प्रकार कहकर उसने हाथ जोड़े। पैरों में गिरा । उसने अपने हाथों द्रौपदी देवी सौंपी। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-'अरे पद्मनाभ ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले ! क्या तू नहीं जानता था कि तू मेरी भगिनी द्रौपदी देवी को जल्दी से यहाँ ले आया है ? ऐसा होने पर भी, अब तुझे मुझसे भय नहीं है!' इस प्रकार कहकर पद्मनाभ को छुट्टी दी । द्रौपदी को ग्रहण किया और रथ पर आरूढ़ हए । पाँचों पाण्डवों के समीप आए । द्रौपदी देवी को हाथों-हाथ पाँचों पाण्डवों को सौंप दिया । तत्पश्चात् पाँचों पाण्डवों के साथ, छठे आप स्वयं कृष्ण वासुदेव छह रथों में बैठकर, लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जिधर जम्बूद्वीप था और जिधर भारतवर्ष था उधर जाने को उद्यत हुए। सूत्र - १७७
उस काल उस समयमें, धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्वार्ध भाग के भरतक्षेत्रमें, चम्पा नामक नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था । उसमें कपिल वासुदेव राजा था । वह महान हिमवान पर्वत समान महान था । उस काल और उस समय में मुनिसुव्रत अरिहंत चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में पधारे । कपिल वासुदेव ने उनसे धर्मोपदेश श्रवण किया । उसी समय मुनिसुव्रत से धर्म श्रवण करते-करते कपिल वासुदेवने कृष्ण वासुदेव के पाँचजन्य शंख का शब्द सूना । तब कपिल वासुदेव के चित्त में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ- क्या धातकीखण्ड द्वीप में भारत वर्ष में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है ? जिसके शंख का शब्द ऐसा फैल रहा है, जैसे मेरे मुख की वायु से पूरित हुआ हो
कपिल वासुदेव' इस प्रकार से सम्बोधित करके मुनिसुव्रत अरिहंत ने कपिल वासुदेव से कहा-मेरे धर्म श्रवण करते हुए तुम्हें यह विचार आया है कि-'क्या इस भरतक्षेत्र में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है, जिसके शंक का यह शब्द फैल रहा है आदि; हे कपिल वासुदेव ! मेरा यह अर्थ सत्य है ? 'हाँ, सत्य है !' मुनिसुव्रत अरिहंत ने पुनः कहा-'कपिल वासुदेव ! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि एक क्षेत्र में एक ही युग में और एक ही समय में दो तीर्थंकर, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव अथवा दो वासुदेव उत्पन्न हुए हों, उत्पन्न होते हों या उत्पन्न होंगे । हे वासुदेव ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भरतक्षेत्र से, हस्तिनापुर नगर से पाण्डु राजा की पुत्रवधू और पाँच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा का पहले का साथी देव हरण करके ले आया था । तब कृष्ण वासुदेव पाँच पाण्डवों समेत आप स्वयं छठे द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए शीघ्र आए हैं । वह पद्मनाभ राजा के साथ संग्राम कर रहे हैं । अतः कृष्ण वासुदेव के शंख का यह शब्द है, जो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे मुख की वायु से पूरित किया गया हो और जो इष्ट है, कान्त है, और यहाँ तुम्हें सुनाई दिया है।'
त कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को वन्दना की, नमस्कार किया । 'भगवन ! मैं जाऊं और पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव को देखू उनके दर्शन करूँ ।' तब मुनिसुव्रत अरिहंत ने कपिल वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! ऐसा हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि एक तीर्थंकर दूसरे तीर्थंकर को देखें, एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती को देखें, एक बलदेव दूसरे बलदेव को देखें और एक वासुदेव दूसरे वासुदेव को देखें । तब भी तुम लवण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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