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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक सौ आठ सुवर्ण कलशों, इसी प्रकार एक सौ आठ चाँदी के कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-रजत के कलशों, एक सौ आठ मणिमय कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-मणि के कलशों, एक सौ आठ रजत-मणि के कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-रजत-मणि के कलशों और एक सौ आठ मिट्टी के कलशों-इस प्रकार आठ सौ चौंसठ कलशों में सब प्रकार का जल भरकर तथा सब प्रकार की मृत्तिका से, सब प्रकार के पुष्पों से सब प्रकार के गंधों से, सब प्रकार की मालाओं से, सब प्रकार की औषधियों से तथा सरसों से उन्हें परिपूर्ण करके, सर्व समृद्धि, द्युति तथा सर्व सैन्य के साथ, दुंदुभि के निर्घोष की प्रतिध्वनि के शब्दों के साथ उच्चकोटि के राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया । अभिषेक करके श्रेणिक राजा ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि घूमाकर यावत् इस प्रकार कहा
'हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो । हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो । हे जगन्नन्द ! तुम्हारा भद्र हो । तुम न जीते हुए को जीतो और जीते हुए का पालन करो । जितों-आधारवानों के मध्य में निवास करो । नहीं जीते हुए शत्रुपक्ष को जीतो । जीते हुए मित्रपक्ष का पालन करो । यावत् देवों में इन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, नागों में धरण, ताराओं में चन्द्रमा एवं मनुष्यों में भरत चक्री की भाँति राजगह नगर का तथा दूसरे बहत से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, द्रोणमुख, मडंब, पट्टन, आश्रम, निगम, संवाह और सन्निवेशों का आधिपत्य यावत् नेतृत्व आदि करते हुए विविध वाद्यों, गीत, नाटक आदि का उपयोग करते हुए विचरण करो ।' इस प्रकार कहकर श्रेणिक राजा ने जय-जयकार किया । तत्पश्चात् मेघ राजा हो गया और पर्वतों में महाहिमवन्त की तरह शोभा पाने लगा । माता-पिता ने राजा मेघ से कहा- हे पुत्र ! बताओ, तुम्हारे किस अनिष्ट को दूर करें अथवा तुम्हारे इष्ट-जनों को क्या दें ? तुम्हें क्या दें ? तुम्हारे चित्त में क्या चाह है ? ।
तब राजा मेघ ने मातापिता से इस प्रकार कहा-'हे माता-पिता ! मैं चाहता हूँ कि कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र मंगवा दीजिए और काश्यप-नापित को बुलवा दीजिए । तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलवाया । बुलवाकर इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियों ! तुम जाओ, श्रीगृह से तीन लाख स्वर्ण-मोहरें लेकर दो लाख से कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र ले आओ तथा एक लाख देकर नाई को बुला लाओ । तत्पश्चात् वे कौटुम्बिक पुरुष, राजा श्रेणिक के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट होकर श्रीगृह से तीन लाख मोहरें लेकर कुत्रिकापण से, दो लाख से रजोहरण और पात्र लाए और एक लाख मोहरें देकर उन्होंने नाई को बुलवाया।
तत्पश्चात् कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाया गया वह नाई हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय आनन्दित हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, मषी-तिलक आदि कौतुक, दहीं दूर्वा आदि मंगल एवं दुःस्वप्न का निवारण रूप प्रायश्चित्त किया, साफ और राजसभा में प्रवेश करने योग्य मांगलिक और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किए । थोड़े और बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को विभूषित किया । फिर जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ आया । आकर, दोनों हाथ जोड़कर श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय ! मुझे जो करना है, उसकी आज्ञा दीजिए ।' तब श्रेणिक राजा ने नाई से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! तुम जाओ और सुगंधित गंधोदक से अच्छी तरह हाथ पैर धो लो । फिर चार तह वाले श्वेत वस्त्र से मुँह बाँधकर मेघकुमार के बाल दीक्षा के योग्य चार अंगुल छोड़कर काट दो ।' तत्पश्चात् वह नापित श्रेणिक राजा के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दितहृदय हुआ । उसने यावत् श्रेणिक राजा का आदेश स्वीकार किया । स्वीकार करके सुगंधित गंधोदक से हाथ-पैर धोए । हाथ-पैर धोकर शुद्ध वस्त्र से मुँह बाँधा । बाँधकर बड़ी सावधानी से मेघकुमार के चार अंगुल छोड़कर दीक्षा के योग्य केश काटे ।
उस समय मेघकुमार की माताने उन केशों को बहुमूल्य और हंस के चित्र वाले उज्ज्वल वस्त्र में ग्रहण किया । ग्रहण करके उन्हें सुगंधित गंधोदक से धोया । फिर सरस गोशीर्ष चन्दन उन पर छिड़क कर उन्हें श्वेत वस्त्र में बाँधा । बाँधकर रत्न की डिबिया में रखा । रखकर उस डिबिया को मंजूषा में रखा । फिर जल की धार, निर्गुड़ी के फूल एवं टूटे हुए मोतियों के हार के समान अश्रुधार प्रवाहित करती-करती, रोती-रोती, आक्रन्दन करती-करती और विलाप करती-करती इस प्रकार कहने लगी-'मेघकुमार के केशों का यह दर्शन राज्यप्राप्ति आदि अभ्युदय के अवसर पर, उत्सव के अवसर पर, प्रसव के अवसर पर, तिथियों के अवसर पर, इन्द्रमहोत्सव आदि के अवसर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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