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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक की, कांसा आदि बर्तनों की, दूष्य-रेशमी आदि मूल्यवान वस्त्रों की, विपुल धन, धान्य, कनक, रत्न, मणि, मुक्त, शंख, शिला, प्रवाल लाल-रत्न आदि स्वापतेय की भाण्डामारिणी नियुक्त कर दिया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! यावत् (दीक्षित होकर) जो साधु या साध्वी पाँच महाव्रतों की रक्षा करता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वीयों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का अर्चनीय होता है, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय होता है, जैसे वह रक्षिका ।
रोहिणी के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए । विशेष यह है कि जब धन्य सार्थवाह ने उनसे पाँच दाने माँगे तो उसने कहा-'तात ! आप मुझे बहत-से गाडे-गाडियाँ दो, जिससे मैं आपको वह पाँच शालि के दाने लौटाऊं।' तब रोहिणी ने धन्य सार्थवाह से कहा-'तात ! इससे पहले के पाँच वर्ष में इन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के समक्ष आपने पाँच दाने दिए थे । यावत् वे अब सैकड़ों कुम्भ प्रमाण हो गए हैं, इत्यादि पूर्वोक्त दानों की खेती करने, संभालने आदि का वृत्तान्त दोहरा लेना चाहिए । इस प्रकार हे तात ! मैं आपको वह पाँच शालि के दाने गाड़ागाड़ियों में भर कर देती हूँ।'
धन्य सार्थवाह ने रोहिणी को बहत-से छकडा-छकडी दिए । रोहिणी अपने कुलगह आई। कोठार खोला। पल्य उघाड़े, छकड़ा-छकड़ी भरे । भरकर राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना घर था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ आ पहुँची । तब राजगृह नगर में शृंगाटक आदि मार्गों में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार प्रशंसा करने लगे-धन्य सार्थवाह धन्य है, जिसकी पुत्रवधू रोहिणी है, जिसने पाँच शालि के दाने छकड़ा-छकड़ियों में भर कर लौटाए । धन्य-सार्थवाह उन पाँच शालि के दानों को छकड़ा-छकड़ियों द्वारा लौटाए देखता है । हुष्ट-तुष्ट होकर उन्हें स्वीकार करके उसने उन्हीं मित्रों एवं ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों तथा परिजनों के सामने तथा चारों पुत्रवधूओं के कुलगृह वर्ग के समक्ष रोहिणी पुत्रवधू को उस कुलगृह वर्ग के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूछने योग्य यावत् गृह का कार्य चलाने वाली और प्रमाणभूत नियुक्त किया।
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु-साध्वी आचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर, अपने पाँच महाव्रतों में वृद्धि करते हैं उन्हें उत्तरोत्तर अधिक निर्मल बनाते हैं, वे इसी भव में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं के पूज्य होकर यावत् संसार से मुक्त हो जाते हैं जैसे वह रोहिणी बहुजनों की प्रशंसापात्र
। हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवे ज्ञातअध्ययन का यह अर्थ कहा है। वही मैंने तुमसे कहा है।
अध्ययन-७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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