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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक वेला में उपस्थित किया।
तत्पश्चात् जितशत्रु राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आस्वादन करता हुआ विचर रहा था । जीम चूकने के अनन्तर अत्यन्त शुचि-स्वच्छ होकर जलरत्न का पान करने से राजा को विस्मय हुआ। उसने बहुत-से राजा, ईश्वर आदि से यावत् कहा-'अहो देवानुप्रियो ! यह उदकरत्न स्वच्छ है यावत् समस्त इन्द्रियों को और गात्र को आह्लाद उत्पन्न करने वाला है ।' तब वे बहुत-से राजा, ईश्वर आदि यावत् इस प्रकार कहने लगे'स्वामिन् ! जैसा आप कहते हैं, बात ऐसी रही है । यह जलरत्न यावत् आह्लादजनक है।
तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने जलगृह के कर्मचारी को बुलवाया और बुलवाकर पूछा-'देवानुप्रिय ! तुमने यह जलरत्न कहाँ से प्राप्त किया ?' तब जलगृह के कर्मचारी ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह जलरत्न मैंने सुबुद्धि अमात्य के पास से प्राप्त किया है। तत्पश्चात राजा जितशत्र ने सुबुद्धि अमात्य को बुलाया और उससे कहा-'अहो
बद्धि ! किस कारण से तुम्हें मैं अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम हैं, जिससे तुम मेरे लिए प्रतिदिन भोजन के समय यह उदकरत्न नहीं भेजते ? देवानुप्रिय ! तुमने वह उदकरत्न कहाँ से पाया है ?' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है ।' तब जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा-किस प्रकार यह वही खाई का पानी है ?
तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! उस समय अर्थात खाई के पानी का वर्णन करते समय मैंने आपको पुद्गलों का परिणमन कहा था, परन्तु आपने उस पर श्रद्धा नहीं की थी। तब मेरे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, विचार या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-अहो ! जितशत्रु राजा सत् यावत् भावों पर श्रद्धा नहीं करते, प्रतीति नहीं करते, रुचि नहीं रखते, अत एव मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि जितशत्रु राजा को सत् यावत् सद्भूत जिनभाषित भावों को समझाकर पुद्गलों के परिणमन रूप अर्थ को अंगीकार कराऊं । विचार करके पहले कहे अनुसार पानी को सँवार कर तैयार किया । यावत् वही खाई का पानी है । तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के पूर्वोक्त अर्थ पर श्रद्धा न की, प्रतीति न की और रुचि न की । उसने अपनी अभ्यन्तर परीषद् के पुरुषों को बुलाया । उन्हें बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और खाई के जल के रास्ते वाली कुंभार की दुकान से नये घड़े तथा वस्त्र लाओ और यावत् जल को सँवारने-सुन्दर बनाने वाले द्रव्यों से उस जल को सँवारो।' उन पुरुषों ने राजा के कथनानुसार पूर्वोक्त विधि से जल को सँवारा और सँवार कर वे जितशत्रु के समीप लाए। तब जितशत्रु राजा ने उस उदकरत्न को हथेली में लेकर आस्वादन किया । उसे आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को आह्लादकारी जानकर सुबुद्धि अमात्य को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा-'सुबुद्धि ! तुमने ये सत्, तथ्य, अवितथ तथा सद्भूत भाव कहाँ से जाने ?' तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! मैंने यह सत् यावत् सद्भूत भाव जिन भगवान के वचन से जाने हैं।'
तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि से कहा-'देवानुप्रिय ! तो मैं तुमसे जिनवचन सूनना चाहता हूँ ।' तब सुबुद्धि मंत्री ने जितशत्रु राजा को केवली-भाषित चातुर्याम रूप अद्भूत धर्म कहा । जिस प्रकार जीव कर्मबंध करता है, यावत् पाँच अणुव्रत हैं, इत्यादि धर्म का कथन किया । तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से धर्म सूनकर और मन में धारण करके, हर्षित और संतुष्ट होकर सुबुद्धि अमात्य से कहा- देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। जैसा तुम कहते हो वह वैसा ही है । सौ मैं तुमसे पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को यावत् ग्रहण करके विचरने की अभिलाषा करता हूँ।' तब सुबुद्धि ने कहा-जैसे सुख उपजे वैसा करो, प्रतिबंध मत करो।
जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से पाँच अणुव्रत वाला यावत् बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया। जितशत्रु श्रावक हो गया, जीव-अजीव का ज्ञाता हो गया यावत् दान करता हुआ रहने लगा । उस काल
और उस समय में जहाँ चम्पा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ स्थविर मुनि पधारे । जितशत्रु राजा और सुबुद्धि उनको वन्दना करने के लिए नीकले । सुबुद्धि ने धर्मोपदेश सूनकर (निवेदन किया-) मैं जितशत्रु राजा से पूछ लूँउनकी आज्ञा ले लूँ, और फिर दीक्षा अंगीकार करूँगा । 'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' तत्पश्चात्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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