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________________ आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा' श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-१७ - अश्वज्ञान सूत्र - १८४ 'भगवन् ! यदि यावत् निर्वाण को प्राप्त जिनेन्द्रदेव श्रमण भगवान महावीर ने सोलहवें ज्ञात अध्ययन का यह पूर्वोक्त० अर्थ कहा है तो सत्रहवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' उस काल और उस समय में हस्तिशीर्ष नामक नगर था । (वर्णन) उस नगर में कनककेत नामक राजा था। (वर्णन) (समझ लेना) उस हस्तिशीर्ष नगर में बहत-से सांयात्रिक नौकावणिक रहते थे। वे धनाढ्य थे, यावत बहत लोगों से भी पराभव न पाने वाले थे । एक बार किसी समय वे सांयात्रिक नौकावणिक् आपस में मिले । उन्होंने अर्हन्नक की भाँति समुद्रयात्रा पर जाने का विचार किया, वे लवणसमुद्र में कईं सैकड़ों योजनों तक अवगाहन भी कर गए। उस समय उन वणिकों को माकन्दीपुत्रों के समान सैकड़ों उत्पात हुए, यावत् समुद्री तूफान भी आरम्भ हो गया । उस समय वह नौका उस तूफानी वायु से बार-बार काँपने लगी, चलायमान होने लगी, क्षुब्ध होने लगी और उसी जगह चक्कर खाने लगी। उस समय नौका के निर्यामक की बुद्धि मारी गई, श्रुति भी नष्ट हो गई और संज्ञा भी गायब हो गई । वह दिशाविमूढ़ हो गया । उसे यह भी ज्ञान न रहा कि पोतवाहन कौन-से प्रदेश में हैं या कौनसी दिशा अथवा विदिशा में चल रहा है ? उसके मन के संकल्प भंग हो गए । यावत् वह चिन्ता में लीन हो गया। उस समय बहुत-से कुक्षिधार, कर्णधार, गब्भिल्लक तथा सांयात्रिक नौकावणिक् निर्यामक के पास आए । आकर उससे बोले- देवानुप्रिय ! नष्ट मन के संकल्प वाले होकर एवं मुख हथेली पर रखकर चिन्ता क्यों कर रहे हो ? तब उस निर्यामक ने उन बहुत-से कुक्षिधारकों, यावत् नौकावणिकों से कहा-'देवानुप्रियो ! मेरी मति मारी गई है, यावत् पोतवाहन किस देश, दिशा या विदिशा में जा रहा है, यह भी मुझे नहीं जान पड़ता । अत एव मैं भग्नमनोरथ होकर चिन्ता कर रहा हूँ ।' तब वे कर्णधार उस निर्यामक से यह बात सुनकर और समझकर भयभीत हुए, त्रस्त हुए, उद्विग्न हुए, घबरा गए । उन्होंने स्नान किया, बलिकर्म किया और हाथ जोड़कर बहुत-से इन्द्र, स्कंद आदि देवों को 'मल्लि-अध्ययन अनुसार मस्तक पर अंजलि करके मनौती मनाने लगे। थोड़ी देर बाद वह निर्यामक लब्धमति, लब्धश्रुति, लब्धसंज्ञ और अदिङ्मूढ हो गया । शास्त्रज्ञान जाग गया, होश आ गया और दिशा का ज्ञान भी हो गया । तब उस निर्यामक ने उन बहुसंख्यक कुक्षिधारों यावत् नौकावणिकों से कहा-'देवानुप्रियो ! मुझे बुद्धि प्राप्त हो गई है, यावत् मेरी दिशा-मूढ़ता नष्ट हो गई है । देवानुप्रियो ! हम लोग कालिक-द्वीप के समीप आ पहुँचे हैं । वह कालिक-द्वीप दिखाई दे रहा है ।' उस समय वे कुक्षिधार, कर्णधार, गब्भिल्लक तथा सांयात्रिक नौकावणिक उस निर्यामक की यह बात सुनकर और समझकर हृष्ट-तुष्ट हुए । फिर दक्षिण दिशा के अनकल वाय की सहायता से वहाँ पहँचे जहाँ कालिक-द्वीप था । वहाँ पहँच कर लंगर डाला। छोटी नौकओं द्वारा कालिक-द्वीप में ऊतरे । उस कालिकद्वीप में उन्होंने बहुत-सी चाँदी की, सोने की, रत्नों की, हीरे की खाने और बहुत से अश्व देखे । वे अश्व कैसे थे? वे उत्तम जाति के थे । उनका वर्णन जातिमान् अश्वों के वर्णन के समान समझना । वे अश्व नीले वर्ण वाली रेणु के समान वर्ण वाले और श्रोणिसूत्रक वर्ण वाले थे । उन अश्वों ने उन वणिकों को देखा । उनकी गंध सूंघकर वे अश्व भयभीत हुए, त्रास को प्राप्त हुए, उद्विग्न हुए, उनके मन में उद्वेग उत्पन्न हुआ, अत एव वे कईं योजन दूर भाग गए । वहाँ उन्हें बहुत-से गोचर प्राप्त हुए । खूब घास और पानी मिलने से वे निर्भय एवं निरुद्वेग होकर सुखपूर्वक वहाँ विचरने लगे। तब उन सांयात्रिक नौकावणिकों ने आपस में इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! हमें अश्वों से क्या प्रयोजन है? यहाँ यह बहुत-सी चाँदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खाने हैं। अत एव हम लोगों को चाँदी-सोने से, रत्नों से और हीरों से जहाज भर लेना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार उन्होंने एक दूसरे की बात अंगीकार करके उन्होंने हिरण्य से-स्वर्ण से, रत्नों से, हीरों से, घास से, अन्न से, काष्ठों से और मीठे पानी से अपना जहाज भर लिया । भरकर दक्षिण दिशा की अनुकूल वायु से जहाँ गंभीर पोतवहनपट्टन था, वहाँ आए । आकर जहाज का लंगर डाला। गाड़ी-गाड़े तैयार किए। लाए हए उस हिरण्य-स्वर्ण, यावत् हीरों का छोटी नौकाओं द्वारा संचार किया। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 140
SR No.034673
Book TitleAgam 06 Gnatadharm Katha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 06, & agam_gyatadharmkatha
File Size4 MB
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