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आगम सूत्र ६, अंगसूत्र-६, 'ज्ञाताधर्मकथा'
श्रुतस्कन्ध/वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक उंगली दिखा-दिखा कर तर्जना की जाती हुई, डंडों आदि की मार से व्यथित की जाती हुई, धिक्कारी जाती हुई तथा थूकी जाती हई न कहीं भी ठहरने का ठिकाना पा सकी और न कहीं रहने का स्थान पा सकी । टुकड़े-टुकड़े साँधे हुए वस्त्र पहने, भोजन के लिए सिकोरे का टुकड़ा लिए, पानी पीने के लिए घड़े का टुकड़ा हाथ में लिए, मस्तक पर अत्यन्त बिखरे बालों को धारण किए, जिसके पीछे मक्खियों के झुंड भिन-भिना रहे थे, ऐसी वह नागश्री घर-घर देहबलि के द्वारा अपनी जीविका चलाती हुई भटकने लगी। तदनन्तर उस नागश्री ब्राह्मणी को उसी भव में सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए । वे इस प्रकार-श्वास कास योनिशूल यावत् कोढ़ । तत्पश्चात् नागश्री ब्राह्मणी
ह रोगांतकों से पीड़ित होकर अतीव दुःख के वशीभूत होकर, कालमास में काल करके छठी पृथ्वी में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुई।
तत्पश्चात् नरक से सीधी नीकल कर वह नागश्री मत्स्य योनि में उत्पन्न हुई । वहाँ वह शस्त्र से वध करने योग्य हई । अत एव दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल करके, नीचे सातवीं पथ्वी में उत्कष्ट तैंतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारक पर्याय में उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् नागश्री सातवीं पृथ्वी से नीकल कर सीधी दूसरी बार मत्स्य योनि में उत्पन्न हुई । वहाँ भी उसका शस्त्री से वध किया गया और दाह की उत्पत्ति होने से मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः नीचे सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की आयु वाले नारकों में उत्पन्न हुई । सातवीं पृथ्वी से नीकलकर तीसरी बार भी मत्स्य योनि में उत्पन्न हुई । वहाँ भी शस्त्र से वध करने के योग्य हुई । यावत् काल करके दूसरी बार छठी पृथ्वी में बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले नारकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। वहाँ से नीकलकर वह उरगयोनि में उत्पन्न हुई । इस प्रकार गोशालक समान सब वृत्तान्त समझना, यावत् रत्नप्रभा आदि सातों नरक भूमियों में उत्पन्न हुई। वहाँ से नीकलकर यावत् खेचरों की विविध योनियों में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् खर बादर पृथ्वीकाय के रूप में अनेक लाख बार उत्पन्न हुई। सूत्र-१६१
तत्पश्चात् वह पृथ्वीकाय से नीकलकर इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, चम्पा नगरी में सागरदत्त सार्थवाह की भद्रा भार्या की कुंख में बालिका के रूप में उत्पन्न हुई । तब भद्रा सार्थवाही ने नौ मास पूर्ण होने पर बालिका का प्रसव किया । वह बालिका हाथी के तालु के समान अत्यन्त सुकुमार और कोमल थी । उस बालिका के बारह दिन व्यतीत हो जाने पर माता-पिता ने उसका यह गुण वाला नाम रखा-'क्योंकि हमारी यह बालिका हाथी के ताले के समान अत्यन्त कोमल है, अत एव हमारी इस पुत्री का नाम सुकुमालिका हो। तब उसका सुकुमालिका' नाम नियत कर दिया।
तदनन्तर सुकुमालिका बालिका को पाँच धावोने ग्रहण किया अर्थात् पाँच धावे उसका पालन-पोषण करने लगीं । दूध पीलानेवाली धाव स्नान करानेवाली धाव आभूषण पहनानेवाली धाव गोदमें लेनेवाली धाव, खेलनेवाली धाव । यावत् एक गोद से दूसरी गोद में ले जाई जाती हुई वह बालिका, पर्वत की गुफा में रही हुई चंपकलता जैसे वायुविहीन प्रदेश में व्याघात रहित बढ़ती है, उसी प्रकार सुखपूर्वक बढ़ने लगी । तत्पश्चात् सुकुमालिका बाल्यावस्था से मुक्त हुई, यावत् रूप से, यौवन से और लावण्य से उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई। सूत्र - १६२
चम्पा नगरी में जिनदत्त नामक एक धनिक सार्थवाह निवास करता था । उस जिनदत्त की भद्रा नामक पत्नी थी । वह सुकुमारी थी, जिनदत्त को प्रिय थी यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आस्वादन करती हुई रहती थी । उस जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का उदरजात सागर नामक लड़का था । वह भी सुकुमार एक सुन्दर रूप में सम्पन्न था । एक बार किसी समय जिनदत्त सार्थवाह अपने घर से नीकला । नीकलकर सागरदत्त के घर के कुछ पास से जा रहा था । उधर सुकुमालिका लड़की नहा-धोकर, दासियों के समूह से घिरी हुई, भवन के ऊपर छत पर सुवर्ण की गेंद से क्रीड़ा करती-करती विचर रही थी। उस समय जिनदत्त सार्थवाह ने सुकुमालिका लड़की को देखा । सुकुमालिका लड़की के रूप पर, यौवन पर और लावण्य पर उसे आश्चर्य हुआ । उसके
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (ज्ञाताधर्मकथा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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