Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्मसार । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ------------------------------------------------------------ श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि ग्रंथमाळा ग्रंथांक - १११ ------ વીરાત્ ૨૪૬૪] -------- ॥ ૐ અહૈં ॥ ------- अध्यात्मसार શ્રીમદ્ યવિજયજી ઉપાસક પંડિત શ્રી વીરવિજયજીના ૮મા સહુ रचयिता પ્રગટકર્તા શ્રી અધ્યાત્મજ્ઞાનપ્રસારક મંડળ (હા. મણિલાલ મેાહનલાલ પાદરાકર ) ------l ------ પ્રત ૧૦૦૦ મૂલ્ય : ૭-૧૨-૦ ---- [વિક્રમ સ. ૧૯૯૪ ---- --------------------------------------- Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे सुख उपजे छे ते सुखनो स्वाद अध्यात्मशास्त्राना स्वादनो जे समुद्र छे तेना एक बिंदुमात्र छे " ( अ. सा. श्लो. ९) परंतु dit प्राप्ति अत्यंत मुश्केल छे. “ जेम बनने विषे घर, दरिद्रने धन, अंधारामां उद्योत, तथा मरुदेशने विषे जे पाणी, ते दुःखे पामवा योग्य छे, तेम जे धन्य प्राणी होय छे तेने ज अध्यात्मशास्त्र कलियुगने विषे प्राप्त थाय छे. " ( अ. सा. श्लो. १७ ) अध्यात्मनो आ रस अमर्यादित छे, निरवधि छे, अखुट छे, अनंत छे. “ कामनो जे रस ते भोगवतां सुधी मधुर छे. भलां भोजननो रस ते जमवाना वखत सुधी मधुरपणे वर्ते छे, पण अध्यात्मशाखनी सेवानो जे रस ते तो निरवधि छे, केमके ते प्रारंभकाळथी मांडीने सदा वधतो ज रहे छे, पण किवारे विरस न थाय. " ( अ. सा. श्लो. २१ ) 66 अध्यात्म ज्ञाननी प्राप्तिथी ज मनुष्य महान् थइ शके छे. ते विना साची महत्ता आवती नथी. " जे प्राणी निवे अध्यात्मशास्त्राने पाम्या नथी अने आचार्य पंडितपणुं इच्छे छे ते पण व्यर्थ छे. " ( अ. सा. श्लो. ११ ) ग्रंथनी भाषा संस्कृत छे, परंतु संस्कृतनो सामान्य ज्ञाता पण समजी शके एवी सरळता अने सुगमता तेमनी भाषामां छे. तेमनी काव्यशक्ति घणा उच्च प्रकारनी छे. तेमनां गुजराती काव्योमां नजरे पडती मधुरता, प्रासादिकता, शब्दलालित्य अने मनोहर उपमाओ तेमना संस्कृत काव्यमां पण नजरे पडे छे. रम्य कल्पनाओथी तेमनी काव्यपंक्तिओ दिपी ऊठे छे. अहिंसाने साचा स्वरूपमां जीवनमां उतारनार जैन भेखधारीमां जे मृदुता अने मार्दवनी आशा राखी शकाय ते मृदुता अने मार्दव तेमनी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलममांथी टपकी रहेलां आजे पण देखाय छे. भाषामां तेना लेखकना मानसनुं प्रतिबिंब पडे छे. तेमना अनेक लखाणोमांथी आपणे एक एवा यशोविजयनी कल्पनामूर्ति घडी शकीए छीए के जे तेओनी जीवंतमूर्ति सदाच अत्यंत निकटं साम्य धरावती होय. तेओभी संस्कृतना महा विद्वान हता. परंतु विद्वान के पंडित कहेवडाववा माटे ते जमानामां जडबातोड शब्दो, क्लिष्ट समासो अने भारेखम भाषानो उपयोग करवानी आवश्यकता रहेती हती. तेवी भाषा न लखनार पंडितोनी टीकाने पात्र थतो, पंडितोमां तेनी गणना थती नहि. श्रीमद् यशोविजयजीनामां पंडितोनी भाषा वापरवानी शक्ति हती, परंतु तेमने सामान्य जनसमूहने प्रबोधवो हतो. एवी क्लिष्ट भाषा वापरी ग्रंथने समजी न शकाय एवा कोयडारूप बनाववानी तेमनी इच्छा नहोती. पंडितोनी टीका पण कातिल हती. जनसमूहनी अने पंडितो बच्चेनी भाषानी खेचाखेंची तेमना पोताना शब्दोमां आ प्रमाणे छे. “ जे वारे पोतानी मेळे पद वांचतां अर्थ सूझे एवा अल्पार्थ ने सुगम पद जो अमे जोडीये तो खल माणस एम कहेशे जे, आ ग्रंथमां कां सार नथी, वळी जो अमे गंभीर अर्थ सहित पद बांधीए तो खल माणस कहेशे के कठण पद बांध्यां छे, एनो शुं अर्थ करीए ? ए तो मुंगानी पारसी छे. एवे ग्रंथे कोइने गुण न ( अ. सा. प्रशस्ति श्लो० ४ ) तेमनो आखो ग्रंथ अवलोकतां जणाय छे के तेओश्रीए काव्यनुं अने विषयनुं गौरव साचववा छतां भाषानी सरळता टकावी राखी छे, अने पंडितअपंडित बच्चे समाधान स्वीकारी समतुला जाळवी बनेनी commart पर थवा प्रयत्न कर्यो छे. ,, थाय. ५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ ग्रंथ उपर पंडित वीरविजयजी गणीए अर्थ भर्या छे. श्रीवीरविजयजीना परिचयनी जैन समाजने के साहित्यरसिक बाचकने भाग्येज जरूर छे. तेमनी भाषानी मीठाश अने ललित उपमाओमां तेओ बीनहरिफ छेतेमनी पूजाओथी भाग्येज जैननुं नानुं बाळक पण अजाण हशे. पर्युषणना पवित्र दिवसोमां मंदिरे मंदिरे तेमनी पूजाओना मधुर घोष कर्णपटल पर अथडाय छे. तेमना काव्योनी प्रासादिकता अने मधुरता पर मात्र जैनो नहि जैनेतरो पण मुग्ध बन्या छे ए सर्वविदित छे. तेमना जेवा समर्थ पुरुषने हाथे लखायेलो टबो बीजा कोइ लेखकना करतां वधारे प्रमाणिक होइ शके ए स्वाभाविक छे. संस्कृत नहिं जाणनार वर्ग उपर तेमनो उपकार अनहद छे. आ युगमा ज्यारे अध्यात्मज्ञान तरफ विशेष बेदरकारी बतावाती जाय छे, ज्यारे अध्यात्मशास्त्रना गहन समुद्रमा डुबकी मारवाने बदले थोडाएक आचारविचारो अने पंडिताइ पाछळ मथी धर्मना किनारा उपर घूम्या करवामां आवे छे, ज्यारे धर्म, धर्मधूरंधरो माटे, कुरुक्षेत्रनुं मेदान पूरं पाडे छे तेवा समये आश मार्गसूचक ग्रन्थनी खास जरूर छे. थोडाएक विचारवंत पुण्यात्माओ आ ग्रंथ वांची अध्यात्मज्ञानने मार्गे वळशे अने अध्यात्म रसनो यत्किचित् आस्वाद करवा पण शक्तिवान् थशे तो ग्रन्थलेखकनो श्रम सफळ थयो गणाशे. राजमहेल रोड, वडोदरा. .. नागकुमार मकाती ता. १-८-२७ बी. ए; एलएल. बी. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यशोविजयजी उपाध्यायकृत अध्यात्मसार (सार्थ) ऐंद्रश्रेणिनतः श्रीमान्नंदतान्नाभिनंदनः | उद्दधार युगादौ यो जगदज्ञान पंकतः ॥ १ ॥ श्रीशांतिस्तांतिभिभूयाद्भविनां मृगलांछन । गावः कुवलयोल्लासं कुर्वते यस्य निर्मलाः ॥ २ ॥ अर्थ — इंद्र संबंधी जे श्रेणि तेणे नत के० नमस्कार कर्यो छे जेनेवा अने अष्ट महा प्रातिहार्यरूप लक्ष्मीए करी युक्त तथा युगने आदे जगत्ने अज्ञानरूप कादवमांथी उद्धार करनार एहवा जे श्री ऋषभदेव भगवान् ते जयवंता वर्तो ! ॥ १ ॥ श्रीशांतिनाथ भगवंत ते भव्यप्राणीओ प्रति संतापना भेदनारा थाओ ! मृगनुं लांछन छे जेने एवा तथा जेम चंद्रकिरण निर्मल थकां कुमुदिनीने विकसित करे छे तेमजेनी गावः के० वाणी ते पृथ्वीने विषे उल्लास करे छे ॥ २ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 3 11 श्रीशैवेयं जिनं स्तौमि भुवनं यशसेव यः । मारुतेन मुखोच्छेन पांचजन्यमपूपुरत जीयात् फणिफणप्रांत संक्राततनुरेकदा | उद्धर्तुमिव विश्वानि श्रीपार्श्वो बहुरूपभाक् ॥ ४ ॥ अर्थ - शिवाराणीना पुत्र श्रीनेमनाथजी तेमने स्तनुं हुं. जे भगवंते पोताना यशे करीने जेम जगत्ने भयुं छे तेमज पोताना मुखथी प्रगट्यो जे वायुं तेणे करीने पांचजन्य नामे शंख ने पूरीने तेनो नाद कीधो || ३ || फणी के० शेषनाग तेनी फणना प्रांते जे मणी तेने विषे संक्रम्युं जे शरीर तेणे करीने त्रण जगत्नो उद्धारज जाणे करता होयनी एवा जे श्रीपार्श्वनाथ बहुस्वरूपना कर्त्ता ते जयवंता वर्तो ॥ ४ ॥ जगदानंदनः स्वामी जयति ज्ञातनंदनः | उपजीवंति यद्वा चामद्यापि विबुधाः सुधाम् ॥ ५ ॥ एतानन्यानपि जिनान्नमस्कृत्य गुरूनपि । अध्यात्मसारमधुना प्रकटीकर्तुमुत्सहे ॥ ६॥ अर्थ — जगतने आनंदना करनार, वली जेहनी अमृतसरखी वाणीने हजी सुधी पंडित लोको सेवे छे, अंगीकार करे छे एहवा ज्ञातनंदन जे श्री वीरजिन ते जयवंता वर्तो ॥ ५ ॥ ए पांचे परमेश्वरने तथा बीजा पण जिनोने तथा पोताना गुरुने नमस्कार करीने अध्यात्मनो सार जे रहस्य ते प्रगट करवाने हवे उत्साह करुं हुं ॥ ६ ॥ 7 शास्त्रत्परिचितां सम्यक् संप्रदायाच्च धीमतां । इहानुभवयोगाच्च प्रक्रियां कामपि ब्रुवे ॥ ७ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिनां प्रीतये पद्यमध्यात्मरसपेशलं । . भोगिनां भामिनीगीतं संगोतकमयं यथा ॥ ८॥ अर्थ-घणां शास्त्रोथी भली रीतें परिचयकरीने ने वली पंडितलोकोना संप्रदायथकी जे अध्यात्मशास्त्रने विषे अनुभव थयो तेथकी हूं कांइक संक्षेप मात्र प्रस्तावना करूं छु ।।७।। जे रीते भोगीपुरुषने स्त्रीनां गीतसंगीत प्रियकारी लागे छे ते रीते योगीश्वर पुरुषने प्रीतिना अर्थे अध्यात्मरसे करीने मनोहरकारी एवो आ ग्रन्थ पद्यबंधताये करुं छं ॥८॥ अथ अध्यात्ममाहात्म. कांताधरसुधास्वादा यूनां यजायते सुखं । विदुः पार्थे तदध्यात्मशास्त्रस्वादसुखोदधेः ॥९॥ अध्यात्मशास्त्रसंभूत संतोषसुखशालिनः । गणयंति न राजानं न श्रोदं नापि वासवम् ॥१०॥ ___अर्थ-स्त्रीना अधररूप अमृतना स्वादथी जुवान पुरुषने जे सुख उपजे छे ते सुखनो स्वाद अध्यात्मशास्त्रना स्वादनो जे समुद्र छे तेना एक बिंदुमात्र छे ॥९॥ जे प्राणीने अध्यात्मशास्त्रथी मनोहर संतोषरूप सुख प्राप्त थयुं ते प्राणी राजाने तथा धनदने अने इंद्र सरिखाने पण लेखामां गणतो नथी ॥ १० ॥ यः किलाशिक्षिताध्यात्मशास्त्रः पांडित्यमिच्छति। उत्क्षिपत्यंगुली पंगुः स स्वद्रुफललिप्सया ॥११॥ दंभपर्वतदंभोलिः सौहार्दा बुडिचंद्रमाः। अध्यात्मशास्त्रमुत्ताल मोहजालवनानलः ॥१२॥ अर्थ:--जेम कल्पवृक्षना फलने लेवानी इच्छाये पांगलो पुरुष आंगली ऊंची करे छे ते जेम व्यर्थ छे, तेम जे प्राणी निश्चे Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मशास्त्रने पाम्या नथी अने आचार्य-पंडितपणुं इच्छे छे ते पण व्यर्थ छे ॥११॥ कपटरूप पर्वतने भेदवाने वज्र समान, मैत्रताभावरूप समुद्रनी वृद्धि करवाने चंद्रमा समान एहवें अध्यात्मशास्त्र ते वृद्धि पामेलं एहवू जे मोहजालनुं वन तेहने बालवाने अर्थे दावानल समान छे ॥ १२॥ अध्वा धर्मस्य सुस्थः स्यात्पापचारैः पलायते । अध्यात्मशास्त्रसौराज्ये न स्यात्कश्चिदुपप्लवः॥१३॥ येषामध्यात्मशास्त्रार्थ तत्त्वं परिणतं हृति । कषायविषयावेशक्लेशस्तेषां न कर्हिचित् ॥१४॥ अर्थ-अध्यात्मशास्त्रनुं भलं राजप्रवर्तते थके कशोये उपद्रव थाय नहीं, धर्मनो मार्ग सुगम थाय अने पापरूप चोरटा नासी जाय ॥ १३ ॥ जे प्राणीना हृदयने विषे अध्यात्मशास्त्रना अर्थतत्त्वतः ज्ञान थयु छे तेने कषायरूप विषयना वेगनो क्लेश ते कदी ए न थाय ॥ १४ ॥ निर्दयः कामचंडालः पंडितानपि पीडयेत् । - यदि नाध्यात्मशास्त्रार्थबोधयोधकृपा भवेत् ॥१५॥ विषवल्लिसमां तृष्णां वर्धमानां मनोवने । __ अध्यात्मशास्त्रदात्रेण छिंदंति परमर्षयः॥१६॥ अर्थ-जो अध्यात्मशास्त्रना अर्थना बोधनी कृषा पंडित जेवाने पण न होय तो निर्दय एवो जे कामरूप चंडाल ते पंडितने पण पीडा कर्या विना रहे नही ।। १५॥ जे परमऋषीश्वर छे ते अध्यात्मशास्त्ररूप दातरडे करीने मनरूपी वनने विषे वृद्धि पामती एहवी तृष्णारूप झेहेरनी वेली तेने छेदी नाखे छे ॥१६॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वने वेश्म धनं दौस्थे तेजो ध्वांते जलं मरौ । दुरापमाप्यते धन्यैः कलावध्यात्मवाङ्मयं ॥ १७॥ वेदान्यशास्त्रवित् क्लेशं रसमध्यात्मशास्त्रवित् । भाग्यभृद्भोगमाप्नोति वहते चंदनं खरंः ॥ १८ ॥ अर्थ – जेम वनने विषे घर, दरिद्रने धन, अंधारामां उद्योत तथा मरुदेशने विषे जे पाणी, ते दुःखे पामवा योग्य छे, तेम ने धन्य प्राणी होय छे तेनेज अध्यात्मशास्त्र कलियुगने विषे प्राप्त थाय छे || १७ || वेदना जाण तथा बीजा शास्त्रना जाणनारा ते क्लेशना भोक्ता छे, अने रसना भोक्ता ते अध्यात्मशास्त्रना जाणनारा छे. ए रसनो भोग तो जे भाग्यवंत होय तेजपामे, अने जे गधेडो होय ते तो मात्र चंदनना भारने उपाडे एटलुंज ॥ १८॥ भुजास्फालनहस्तास्यविकाराभिनयाः परे । अध्यात्मशास्त्रविज्ञास्तु वदंत्यविकृतेक्षणाः ॥ १९ ॥ अध्यात्मशास्त्रहेमाद्रि मथितादागमोदधेः ॥ भूयांसि गुणरत्नानि प्राप्यते विबुधैर्न किम् ? || २० || अर्थ — भुजाना आस्फोट करवे करीने, वली हाथने तथा मुख विकारे करीने, इत्यादिक नाटिकना अभिनय करवे करीने भोगी पुरुष सुख करी माने छे, अने अध्यात्मशास्त्रना जाण जे पुरुष छे, ते तो अविकारी नेत्रना धणी इंद्रियना विकार रहित छे ।। १९ ।। अध्यात्मशास्त्ररूप जे हेमाचल पर्वत तेणे मथ्यो छे आगमरूप समुद्र ते थकी नीकल्यां घणा गुणरूपीयां जे रत्न ते तो विबुध जे पंडित लोक तेओज पामे छे ॥ २० ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोभोगावधिः कामे सद्भक्ष्य भोजनावधिः । अध्यात्मशास्त्रसेवायां रसोनिरवधिः पुनः ॥२१॥ कुतर्कग्रंथसर्वस्व गर्वज्वरविकारिणी। एति दग्निर्मलीभाव मध्यात्मग्रंथभेषजात्॥२२॥ ___ अर्थ-कामनो जे रस ते भोगवतां सुधी मधुर छे, भलां भोजननो जे रस ते जमवाना वखत सुधी मधुरपणे वर्ते छे, पण अध्यात्मशास्त्रनी सेवानो जे रस ते तो निरवधि छे केमके ते प्रारंभकालथी मांडीने सदा वधतो ज रहे छे, पण किवारे विरस न थाय ॥ २१ ॥ कुतर्कशास्त्रना सर्व रहस्यनो जे अहंकार, ते रूपी ताव तेहना विकारवाली थइ एहवी जे दृष्टि ते अध्यात्मशास्त्ररूप औषधना योगथी निर्मलपणाने पामे छे ॥२२॥ धनिनां पुत्रदारादि यथा संसारवृद्धये। तथा पांडित्यदप्तानां शास्त्रमध्यात्मवर्जितं ॥२३॥ अधेतव्यं तदध्यात्मशास्त्रं भाव्यं पुनः पुनः। अनुष्ठेयस्तदर्थश्च देयो योग्यस्य कस्यचित् ॥२४॥ अर्थ-धनवंत जनने जेम पुत्र अने स्त्री ते संसारनी वृद्धिनां कारण छे तेम अभिमाने भरायेला पंडित लोकने अध्यात्मशास्त्र विना मात्र संसारनी वृद्धि छे ॥ २३ ॥ ते माटे अध्यात्मशास्त्रने भणवू, वली वारंवार हृदयने विषे भाव, एना अर्थ- वारंवार चिंतन करवू अने जे पुरुषो योग्य होय तेनेज शीखवय्-पुस्तक आपq ॥ २४ ॥ ए रीते अध्यात्मशास्त्रना महात्म्यनो पहेलो अधिकार पूरो थयो. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अध्यात्म स्वरूप. भगवन् ! किं तदध्यात्मं यदिच्छमुपवर्ण्यते । शृणु वत्स यथाशास्त्रं वर्णयामि पुरस्तव ॥ १ ॥ गतमोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्म जगुर्जिनाः ॥२॥ अर्थ-हवे शिष्ये पूछयु के-हे भगवंत ! अध्यात्म ते शुंछे के जेनुं तमे आq वर्णन करो छो ? त्यारे गुरु कहे छे केहे शिष्य ! शास्त्रमर्यादाये तने कहुं हुं ते सांभळ ॥ १॥ जे मुनिराजनो मोहनो अधिकार नाश पाम्यो छे अने जे आत्माने आश्रीने शुद्ध क्रियाये अंतरआत्माने विष प्रवर्ते, तेनुं नाम परमेश्वर अध्यात्म कहे छे ॥ २॥ सामायिकं यथासर्व चारित्रेष्वनुवृत्तिमत् । अध्यात्मं सर्वयोगेषु तथानुगतमिष्यते ॥३॥ अपुनबंधकाद्यावद्गणस्थानं चतुर्दशं । क्रमशुद्धिमती तावत् क्रियाध्यात्ममयो मता ॥४॥ ___अर्थ–सामायिक चारित्र जेम सर्व चारित्रने विषे अनुगत कारणपणे वर्ते छे तेम सर्व जोगने विषे अध्यात्म पण सहचारीपणे वर्ने छ ।॥ ३ ॥ अपुनर्बधी जे चोथु गुणठाणुं त्यांथी मांडीने चौदमा गुणठाणा लगण अनुक्रमे जे आत्मानी विशुद्धता प्रगट थाय ते सत्र अध्यात्म क्रिया जाणवी ॥ ४ ॥ आहरोपधिपूजार्ड गौरवप्रतिबंधतः । भवाभिनंदी यां कुर्यात् क्रियां साध्यात्मवैरिणी॥५॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो मत्सरी भयवान् शठः । अज्ञो भवाभिनंदीस्या निष्फलारंभसंगतः ॥६॥ अर्थ-अने जे आहारोपधिने अर्थे तथा पूजा पामवानी ऋद्धि तेनी गौरवताये बंधाणा थका भवाभिनंदी जे क्रिया करे ते सर्व अध्यात्म क्रियानी वैरिणी जाणवी ॥ ५॥ १ क्षुद्रता, २ लोभ, ३ रति, ४ दीनता, ५ मत्सरीपणु, ६ भय, ७ शठता, ८ अज्ञानताए भवाभिनंदिपणाना संगथकी जे क्रिया करे ते क्रियानो आरंभ निःष्फल थाय छे ॥ ६॥ शांतो दांतः सदागुप्तो मोक्षार्थी विश्ववत्सलः। निर्दभां यां क्रियांकुर्यात् साध्यात्मगुणवृद्धये॥७॥ अत एव जनः पृच्छो त्पन्नसंज्ञः पिपृच्छिषुः । साधुपार्श्वे जिगमिषुर्धर्म पृच्छन् क्रियास्थितः ॥८॥ अर्थ–१ शांतगुण, २ दांतगुण, ३ सदागुप्तेंद्रियपणु, ४ मोक्षार्थीपणुं, ५ विश्वन वात्सल्यतापणुं इत्यादिक गुणवालो निर्दभीपणे जे क्रिया करे ते क्रिया अध्यात्मगुणनी वृद्धिकर्ता थाय ॥ ७॥ ते माटे जेने तत्व पूछवानी संज्ञा उपनी छे तथा पिपृच्छिषु के० तत्त्व प्रते हवे पूछवाने सन्मुख थयो छे ते, साधुनी पासे तत्त्व सांभलवाने अर्थे जवानुशील छ जेनुं ते तथा क्रिया योगने विषे रह्यो थको धर्मना तत्त्वने पूछे छे ते ।। ८ ।। प्रतिपित्सुः सृजन् पूर्व प्रतिपन्नश्च दर्शनं । श्राडोयतिश्च त्रिविधोऽनंतांशक्षपकस्तथा ॥९॥ दृगमोहक्षपको मोहशमकः शांतमोहकः। क्षपकः क्षीणमोहश्च जिनोऽयोगी च केवली ॥१०॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--वली तत्त्वने अंगीकार करतां थकां पूर्व प्रतिपन्न थयु छे सम्यक्त्वदर्शन जेने एवा श्रावक तथा यति ते त्रण प्रकारना १ उपशमसमकिती, २ क्षयोपशमसमकिती, ३ क्षायकसमकिती ते अनंतानुबंधीनो अंश खपाव्यो छे जेणे ॥९॥ वली जेणे दर्शनमोहनीय खपावी छे अथवा मोहनीयने उपशमावी छे एहवा जे उपशांतमोही तथा क्षपकश्रेणिने विषे वर्ते छे तथा जेणे मोहनो क्षय कयों छे ते सयोगीकेवली तथा अयोगीकेवली भगवंत जाणवा ॥१०॥ यथाक्रमममी प्रोक्ता असंख्यगुणनिर्जराः ॥ यतितव्यमतोध्यात्मवृद्धये कलयापि हि ॥११॥ ज्ञानं शुद्ध क्रिया शुद्धत्यंशी द्वाविह संगतौ॥ चक्रे महारथस्येव पक्षाविव पतत्रिणः ॥१२॥ अर्थ-ए अनुक्रमे जे कह्या ते सघला एक एक थकी असंख्यातगुणी निर्जराना कर्ता छे; माटे एक कलाए करीने पण अध्यात्मनी वृद्धिने अर्थे उद्यम करवो एहीज हेतु छे ॥ ११ ॥ जेम रथनां बे चक्र ते रथनी साथे संलग्नज छे, तथा पक्षीनी बे पांखो ते पक्षीनी साथे संलग्नज छे, तेम एक शुद्ध ज्ञान अने बीजी शुद्ध क्रिया ए बे अंश ते अध्यात्मनी साथे संलग्न छे ॥१२॥ तत्पंचमगुणस्थानादारभ्यैवैतदिच्छति ॥ निश्चयोव्यवहारस्तु पूर्वमप्युपचारतः ॥१३॥ चतुर्थेऽपि गुणस्थाने शुश्रूषाद्या क्रियांचिता ॥ अप्राप्तस्वर्णभूषाणां रजताभूषणं यथा ॥१४॥ अर्थ-पूर्वे पण निश्चयनय अने व्यवहारनयनु आरोपण Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपचारथी छे, पण पांचमा गुणठाणाथी मांडीने ए नय इच्छे है। ॥ १३ ॥ अने चोथे गुणठाणे पण शुश्रूषादिक क्रिया ते उचित छे जेम कोइने सोनानां घरेणां न मलतां होय तेने रुपानां मले ते पण रुडां मनाय ।। १४ ॥ अपुनर्बधकस्यापि या क्रिया शमसंयुता ॥ चित्रादर्शनभेदेन धर्मविनक्षयाय सा ॥१५॥ अशुद्धा पि हिशुद्धायाः क्रियाहेतुः सदाशयात् ॥ तानं रसानुवेधेन स्वर्णत्वमधिगच्छति ॥१६॥ __अर्थ–समभावे करीने सहित, दर्शन भेदे करीने विचित्र प्रकारर्नु अपुनर्बध जे चोथु गुणठाणुं तेहनी क्रिया पण धर्मना विघ्नने क्षय करनारी छे ॥ १५ ॥ तो पण भला आशयथकी अशुद्ध क्रिया करे ते पण शुद्ध कहेवाय. जेम त्रांबु जे छे तेने गाली तेमां रसानुवेध कर्याथी ( रसायन मेळववाथी ) सोनुं थइ जाय छे तेम ॥ १६॥ अतो मार्गप्रवेशाय व्रतं मिथ्यादृशामपि ॥ द्रव्यसम्यक्त्वमारोप्य ददते धीरबुद्धयः ॥१७॥ यो बुध्वा भवनैर्गुण्यं धीरः स्याद् व्रतपालने ॥ सयोग्यो भावभेदस्तु दुर्लक्ष्योनोपयुज्यते ॥ १८ ॥ अर्थ–ए ज कारण माटे धीरबुद्धिना धणी रत्नत्रयना मार्गने विषे प्रवेशवाने मिथ्यादृष्टिवालाने पण द्रव्य समकितनो आरोप करीने चारित्र आपे छे ॥ १७ ॥ जे प्राणी संसारर्नु निर्गुणपणुं जाणीने व्रत पालवाने विषे धीर थाय ते. प्राणी धर्मने योग्य जाणवो अने अंतरंगभावनो भेद तो दुःखे करीने समजाय छे, माटे ते उपयोगमां न आणको ॥ १८ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोचेद्भावापरिज्ञानात्सिडयसिद्धोपराहते ॥ दीक्षादानेन भव्यानां मार्गोच्छेदःप्रसज्यते॥१९॥ अशुद्धानादरेभ्यासाद्योगानो दर्शनाद्यपि ॥ सिद्धिनैसर्गिकोमुक्ता तदप्यभ्यासिकं यतः ॥२०॥ - अर्थ-कदापि कोइ एम कहेशे जे भाव जाण्या विना चारित्र देवाथी सिद्धि असिद्धि सर्व हणाइ जाय, ते वारे भव्यने पण दीक्षा न आपवी केम के तेने अंतरंगनी खबर नथी, अने ए रीते दीक्षा न आपवाथी तो सम्यगमार्गनो उच्छेद थाय ॥१९॥ एम अशुद्धनो अनादर करे अने शुद्ध जोगनो अभ्यास न करे त्यारे दर्शन जे समकित ते पंण शुद्ध न थाय, केम के एक निसर्ग समकित टालीने शुद्ध करवू ते पण अभ्यासथी ज थइ शके ॥ २० ॥ शुद्धमार्गानुरागेणाशठानां यातु शुद्धता ॥ गुणवत्परतंत्राणां सानकापि विहन्यते ॥२१॥ विषयात्मानुबंधैर्हि त्रिधाशुद्धं यथोत्तरं ॥ ब्रुवते कर्म तत्राद्यं मुक्त्यर्थपतनाद्यपि ॥२२॥ अर्थ-शुद्धमार्गने अनुरागे करीने अशठता भावे जो आत्मानी शुद्धता के० निर्मलताये गुणवंत प्राणीने आधीन थइने वर्ते, तो ते प्रवृत्ति कोइ ठेकाणे हणाय नहीं ॥ २१ ॥ विषये करीने, आत्माये करीने अने अनुबंधे करीने ए त्रण प्रकारनी विशुद्धि छे. ते एकेकथी निर्मल छे. ए त्रणे कर्म छे, तेमां जे दुःखथी पोताना आत्माने मूकाववाने झंपापात प्रमुख करे तेहने विषयशुद्धि कहिये ॥ २२ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञानानां द्वितीयं तु लोकदृष्टयायमादिकं ॥ तृतीयं शांतवृत्त्यातत्तत्वसंवेदनानुगं ॥२३॥ आद्यानाज्ञानबाहुल्यान्मोक्षबाधकबाधनं ॥ सद्भावाशयलेशेनोचितं जन्मपरे जगुः ॥२४॥ - अर्थ-अज्ञानीने आत्मशुद्धि नामे बीजी शुद्धि थाय; ते लोकदृष्टिये पांच यम नियम प्रमुख पाले छे-ए बीजो भेद. त्रीजो आत्मानुबंध ते कहिये, जे शांत वृत्तिये तत्त्व- संवेदन करे, चिंतन करे ॥ २३ ॥ पहेली शुद्धिमां अज्ञाननी बहुलता छे, जेणे करीने मोक्षना बाधकने बाध न करे अने तेना सद्भावथकी शुभाशयनो लेशमात्र होय, तो तेथी जन्म-मरणनी परंपरा कांइ त्रुटे नही एहवं योगाभ्यासी पुरुष कहे छे ॥ २४ ॥ द्वितीयादोषहानिः स्यात्क्वचिन्मंडूकचूर्णवत् ॥ आत्यंतिकी तृतीया तु गुरुलाघवचिंतया ॥ २५ ॥ अपिस्वरूपतःशुद्धाक्रिया तस्माद्विशुद्धिकृत् ॥ मौनीद्रव्यवहारण मार्गबीजं दढादरात् ॥ २६ ॥ __अर्थ-आत्मशुद्धि नामे बीजा जोगथकी कांइक लवलेश मात्र दोषनी हानि तो थाय, पण परंपराये घणा दोष थयेला ते देडकाना चूर्णनी पेठे एक देडकानो नाश थाय, पण तेथी बीजा घणा देडका उत्पन्न थाय. त्रीजी शुद्धि आत्यंतिक छे, तेथी कर्मनी हानि थाय केम के ते गुरुताभाव अने लधुताभावनी विचारणा करवाथी प्रगटे एवी छे ।। २५ ॥ स्वरूप थकी जे क्रिया शुद्ध छे ते ज निश्चयपणे आत्माने विशुद्धतानी करनारी छे, ते माटे शुद्धक्रिया करवी. मुनींद्र जे परमेश्वर तेणे बताव्यो जे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार तेनु सेवन करवे करीने घणा आदर सहित क्रिया करे, तो मार्ग जे रत्नत्रयी तेनुं बीज प्रगट थाय छे ॥ २६ ॥ गुर्वाज्ञापारतंत्र्येण द्रव्यदीक्षाग्रहादपि ॥ वीर्योल्लासक्रमात्प्राप्ता बहवः परमं पदं ॥ २७॥ अध्यात्माभ्यासकालेपि क्रिया काप्येवमस्ति हि ॥ शुभौघसंज्ञानुगतं ज्ञानमप्यस्ति किंचन ॥२८॥ अर्थ-गुरुनी आज्ञाने आधीन रहेवाथी द्रव्यदीक्षा लीधी होय तो पण वीर्योल्लासनी अनुक्रमे वृद्धि करीने घणा जीव परमपदने पाम्या छे ॥ २७ ॥ ए रीते अध्यात्मना अभ्यासकालने विषे पण क्रिया काइक लेशमात्र निश्चे वर्तेज.छे, अने शुभकारी ओघ संज्ञाने सहचारीपणे तिहां ज्ञान पण कांइक वर्ते छे ॥ २८ ॥ अतो ज्ञानक्रियारूपमध्यात्म व्यवतिष्ठते ॥ एतत्प्रवर्द्धमानं स्यानिर्दभाचारशालिनां ॥ २९॥ ___ अर्थ-एज कारण माटे ज्ञानने क्रियारूप ते अध्यात्मपणुं वर्ते छे, जे ज्ञान क्रियारूप ते अध्यात्म छे. ए ज ज्ञानक्रिया निर्दभाचारे करीने मनोहर एहवो जे प्राणी तेने विषे उत्तरोत्तर वृद्धिने पामे छे ॥ २९ ॥ ए बीजो अध्यात्मना स्वरूपनो अधिकार संपूर्ण थयो॥ दंभो मुक्तिलतावहिर्दभो राहुः क्रियाविधौ ॥ । दौर्भाग्यकारणं दभो दंभोध्यात्मसुखार्गला ॥१॥ दंभो ज्ञानाद्रिदंभोलिर्दभः कामानलेहविः॥ व्यसनानां सुहृदंभो दंभश्चौरो व्रतश्रियः ॥२॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंभेन व्रतमास्थाय यो वांछति परमं पदं ॥ लोहनावं समारुह्यसोब्धेः पारं यियासति ॥३॥ __ अर्थ-मुक्तिरूप वेलीने दहन करवामां कपट ते अग्नि समान छे ने क्रियारूप चंद्रनो ग्रास करवाने कपट ते राहु छ; भने कपट ज दुर्भाग्यनुं कारण छे; अध्यात्मसुखनी प्राप्तिमां अर्गलारुप छे ॥ १॥ ज्ञानरूप पर्वतने तोडवाने कपट ते वज्र समान छे; कामरूपी अग्निनी वृद्धि करवाने घृत जोइये ते पण कपट छे, व्यसननो मित्र ते कपट छ; अने व्रतरूप लक्ष्मीनो चोर पण दंभ ज छे ॥ २॥ कपट राखी व्रतने विषे रही जे प्राणी परम पद जे मोक्ष तेनी वांच्छना करे छे, ते प्राणी लोढानी नावमां बेसी समुद्र तरवानी इच्छा राखे छे ॥ ३॥ किं व्रतेन तपोभिर्वा दंभश्चेन्न निराकृतः॥ किमादर्शन किं दीपैर्यद्यांध्यं न दृशोर्गतं ॥४॥ केशलोचधराशय्या भिक्षाब्रह्मव्रतादिकं ॥ दंभेन दुष्यते सर्व त्रासेनैव महामणिः ॥५॥ अर्थ-ते त पण शुं ? ते व्रतें पण शुं ? जो कपट दिशाने तजी नहीं तो ते सर्व निष्फल छे, ते आरसीए पण शुं ? अने दीवे पण शुं ? जो दृष्टीए अंध छे तो तेहने सर्व ठेकाणे अंधकारज रहेशे ॥ ४ ॥ केश लोच करवो, भुमि उपर शयन करवू, भिक्षा मागवी, शीलवतादिक पालवां, ए सर्व धर्मकरणी कपटे करीने दुषाइ जाय छे, जेम सुंदर मणि होय ते उपर एक डाघ लागवाथी तेनी कांति मंद थाय छे तेहनी परे जाणवू ॥ ५॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्यजं रसलांपट्यं सुत्यजं देहभूषणं ॥ सुत्यजाः कामभोगाश्च दुस्त्यजं दंभसेवनं ॥६॥ स्वदोषनिन्हवो लोक पूजा स्यादू गौरवं तथा ॥ इयतैव कदयंते दंभेन बत बालिशाः ॥७॥ ___अर्थ–रसनुं लोलपीपणुं ते सुखे तजी शकाय, देहनी शोभा पण सुखे तजी शकाय, कामभोगादिने पंण सुखे तजाय; पण कपटनो त्याग करवो घणो ज विकट छे ॥ ६ ॥ पोताना दोषने ढांकी राखे तेथी लोकमां पूजना थाय, तथा मोटाइ थाय, एहि ज पूजा प्रमुखनी लालच माटे पोताना आत्माने मूर्ख प्राणी कदर्थना उपजावे छे ! ॥ ७ ॥ असतीनां यथा शीलमशीलस्यैव वृद्धये ॥ दंभेनाव्रत वृद्धयर्थ व्रतं वेषभृतां तथा ॥८॥ जानानाअपि दंभस्य स्फुरितं बालिशाजनाः ॥ तत्रैव धृतविश्वासाः प्रस्खलंति पदे पदे ॥९॥ __ अर्थ-जेम कुलटा नारीनुं शील जे आचारते कुशीलनी वृद्धिने अर्थे ज होय, तेम कपटे वेष धरनार व्रतवंताने भवनी वृद्धि थाय; ते अवतनी वृद्धिने अर्थे ज थाय ॥ ८॥ कपटना विपाकने जाणता थका पण मूर्ख अज्ञानी प्राणी ते ज' कपटने विषे विश्वास करता थका पगले पगले स्खलना पामे छे ॥ ९ ॥ अहो मोहस्य माहात्म्यं दीक्षां भागवतीमपि ॥ दंभेन यद्विलुपंति कजलेनेव रूपकं ॥१०॥ अब्जे हिमं तनौ रोगो वने वह्निर्दिने निशा ॥ ' ग्रंथे मौख्यं कलिः सौख्ये धम्म दंभउपप्लवः ॥ ११॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अर्थ - अहो इति खेदे जूओ ! मोहराजानो महिमा ! जे भगवंत संबंधी दीक्षा ते पण जेम काजले करीने चित्रामणनुं लोप थाय छे, तेहनी परे कपटे करीने लोपी नाखे छे, जेम कमलने विषे हिम, शरीरने विषे रोग, वनने विषे अग्नि, दिवसने विषे रात्री, ग्रंथने विषे मूर्खता, सुखने विषे क्लेश, ते उपद्रवना करता छे ते धर्मने विषे कपट ते दुःखकर्त्ता छे ।। १०-११ ॥ अतएव नयो धर्तु मूल्योत्तरगुणानलं ॥ युक्ता सुश्राद्धता तस्य न तु दंभेन जीवनं ॥ १२ ॥ परिहर्तुं न यो लिंगमप्यलं दृढरागवान् ॥ संविज्ञपाक्षिकः सस्यान्निर्दभः साधुसेवकः ॥ १३ ॥ अर्थ — एहि हेतु माटे मूलगुण पंचमहाव्रत अने उत्तरगुण करणसित्तरी प्रमुख धरवाने जे प्राणी समर्थ न होय, तेणे श्रावकनां व्रत पालवां ते युक्त ज छे, पण कपट चारित्रं जीवकुं रुडं नथी ॥ १२ ॥ हवे जे प्राणी व्रतने मूकवाने समर्थ नथी केमके जेने व्रत उपर दृढराग लाग्यो होय ते मूकी शके नहीं तो तेणे संविज्ञपक्ष अंगीकार करवो श्रेष्ठ छे, केमके निर्दभी साधुनी सेघना करवाथी घणो गुण थाय छे ॥ १३ ॥ निर्दभस्यावसन्नस्याप्यस्य शुद्धार्थभाषिणः ॥ निर्जरां यतनादत्ते स्वल्पापि गुणरागिणः ॥ १४ ॥ व्रतभारासहत्वं ये विदंतोप्यात्मनः स्फुटं ॥ दंभायतित्वमाख्यांति तेषां नामापि पाप्मने ।। १५ ।। अर्थ - निष्कपटी होय, शुद्ध सिद्धांतना अर्थना भाषक होय, ते गुणे करीने ते उसन्नाप्रमुख साधु जो थोडी पण जतना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे छे, तो पण ते गुणना रागीपणाथी वर्तता थका तेने निर्जरा थाय छे ॥ १४ ॥ पोताथी व्रतनो भार नथी उपडतो, एवं जाण्या छतां पण जे पोताना आत्माने प्रगट रीते कपटे करीने यतिपणुं ठरावे छे, संयमीपणुं स्थापे छे ते लिंगीतुं नाम लेतां पण पाप थाय तो तेनी सेवना तो पापकारी थाय ज तेमां शुं कहेतुं ? ॥ १५॥ कुर्वते ये न यतनां सम्यगालोचितानपि ॥ तैरहो यतिनाम्नैव दांभिकैर्वच्यते जगत् ॥ १६ ॥ धर्मातिख्यातिलाभेन प्रच्छादितनिजाश्रवः ।। तृणायमन्यते विश्वं हीनोऽपि धृतकैतवः ॥ १७ ॥ अर्थ-जे लिंगी भली रीते द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जोईने यत्ना नथी करता, ते लिंगी यति एवे नामे करीने कपटी थई लोकने ठगता फरे छे ॥ १६ ॥ जे हीनाचारी थको कपटनो धरनारो लिंगी होय अने ते यतिधर्मी छे एवी प्रसिद्धि थइ तेना लाभे करीने पोताना आश्रवने ढांक्या होय एवा जे यति ते समग्र जगतने तृण तुल्य जाणे छे ॥ १७॥ . आत्मोत्कर्षात्ततो दंभात्परेषां चापवादतः ॥ बध्नाति कठिनं कर्म बाधकं योगजन्मनः ॥१८॥ आत्मार्थिना ततस्त्याज्यो दंभोऽनर्थनिबंधनं ॥ शुद्धिः स्यादृजुभूतस्येत्यागप्रतिपादितं ॥ १९ ॥ अर्थ:-पोताना आत्मानी वडाइ करे, घणुं कपट धरे अने पारका अवर्णवाद बोले तेथी करीने कठिण कर्म बांधे छे, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवा पुरुषो ते योगीना जन्मने बाधक करनारा छे ते शुद्ध चारित्रने पामी शके नहीं ॥ १८ ॥ माटे अनर्थन कारण जे कपट तेने धर्मार्थी प्राणीए तजवू, केमके आत्मानी शुद्धि तो सरलताभावे थाय छे, एवं आगमने विषे कयुं छे ॥ १९ ॥ जैनैर्नानुमतं किंचिंनिषिद्धं वा न सर्वथा ॥ कार्यभाव्यमदंभेनेत्येषाज्ञा पारमेश्वरी ॥२०॥ अध्यात्मरतचित्तानां दभः स्वल्पोऽपि नोचितः॥ छिद्रलेशोऽपि पोतस्य सिंधुं लंघयतामिव ॥ २१ ॥ अर्थ-तीर्थकरे एकांते आज्ञा पण नथी करी, तेम सर्वथा निषेध पण नथी कीधो, तोपण जे कार्य करवं ते कपट रहित कर, एही ज परमेश्वरनी आज्ञा छे ॥ २० ॥ जेम वहाणमां छिद्रनो लेश होय ते पण समुद्र तरवामां योग्य नथी, तेम अध्यात्मने विषे जेनुं मन रंगायुं छे, तेने जरापण कपट करवू ते योग्य नथी ॥ २१॥ दंभलेशोऽपि मल्ल्यादेः स्त्रीत्वानर्थनिबंधनं ॥ अतस्तत्परिहाराय यतितव्यं महात्मना ॥ २२ ॥ ____ अर्थ-जेम मल्लिनाथजीने कपटनों लेश पण स्त्रीवेदनो कारिणक थयो, माटे महान् पुरुषे कपट तजवाने घणो यत्न करवो ॥ २२ ॥ इति श्रीअध्यात्मसार ग्रंथने विषे दंभत्याग नामा त्रीजो अधिकार समाप्त थयो । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवस्वरूपचिन्ताधिकार तदेवं निर्देभाचरणपटुता चेतसि भवस्वरूपं संचित्य क्षणमपि समाधाय सुधिया ॥ इयं चिंताऽध्यात्मप्रसरसरसी तोरलहरी सतां वैराग्यायप्रियपवनपीना सुखकृते ॥ १ ॥ अर्थ - एटला माटे निर्दभ आचरण करवाने हे चेतन ! तुं सावधान था ! आत्मस्वरूपनुं चिंतन कर ! केमके क्षण मात्र पण सद्बुद्धि हृदयमां धरीने आत्मस्वरूपनी चिंता करवी तेही ज आत्मदिशारूप सरोवरनी लहरी छे ते शीतलता करे एवी छे; एही ज सज्जन लोकने वैराग्यदिशारूप पवन पूर्ण पुष्टताकारी छे; माटे ते आत्मिक सुखने अर्थ साधवी ॥ १ ॥ इतः कामौर्वाग्निर्ज्वलति परितोदुःसह इतः पतंति ग्रावाणो विषय गिरिकुटाद्विघटिताः ॥ इतः क्रोधावर्ती विकृतितटिनी संगमकृतः समुद्रे संसारे तदिह न भयं कस्य भवति ॥ २ ॥ अर्थ – एक तरफ कामरूप वडवानलनो अग्नि बली रह्यो छे ते दुःखे सहन थाय एवो छे, अने एक तरफ पंचकारना विषयरूप पर्वत, तेहथी पड्या जे उन्मादरूप पथरा, तेणे करी भयंकर, वली एक तरफ विकारदिशारूप नदीना संग - थकी क्रोधना आवर्त्त पड्या छे; एवो जे आ संसार-समुद्र तेने विषे कहो का ठेका प्राणीने भय नथी । सर्वत्र भय ज वर्ते छे ॥२॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रिया ज्वाला यत्रोद्रमति रतिसंतापतरला कटाक्षान् धूमौघान् कुवलयदलश्यामलरुचीन् || अथांगान्यंगारा कृतबहुविकाराश्च विषया दहंत्यस्मिन्वह्रौ भववपुषि शर्म क्व सुलभं ? ॥ ३ ॥ अर्थ – जे संसारने विषे रतिना संतापे करीने तरला के० चपल एवी जे प्रिया के ० भार्या ते कटुकज्वाला वर्त्ते छे, वली नीलकमल दलना सरखी जेनी कांति छे एहवा नेत्रना त्रिकोणमांथी जे जोवं तेनुं नाम कटाक्ष ते रूप धूम्रना समूह चाले छे, तथा स्त्रीनां अंग ते अंगारा समान छे, जे अंगवडे घणा प्रकारना विकार प्रगट थाय छे, ते माटे संसाररूप अग्निमां बली रह्या जे प्राणी तेने भवमां पण सुख नथी तेमज शरीरमां पण कई सुख नथी ॥ ३ ॥ गले दत्वा पाशं तनयवनितास्नेहघटितं निपीड्यते यत्र प्रकृतिकृपणः प्राणिपशवः ॥ नितांतं दुःखार्त्ता विषमविषयैर्घातिकभदै र्भव: सूनास्यानं तदहह महासाध्वसकरं ॥ ४ ॥ अर्थ - जेना गलाने विषे पुत्र तथा स्त्रीरूप स्नेहनो फांसो नखायो छे, तेना स्नेहपाशमां पड्या तुच्छ स्वभावना धणी ते अतिशयपणे पीडा पामे छे, आकरा विषयरूप जे घातकी सुभट तेणे करीने संसार ते खाटकीनुं स्थानक छे; माटे हाहा संसार ते केवल दुःखनुं मूल छे ॥ ४ ॥ अविद्यायां रात्रौ चरति वहते मूर्ध्नि विषमं कषायव्याati क्षिपति विषयास्थीनि च गले ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादोषान् दंतान प्रकटयति वक्रस्मरमुखी न विश्वासार्होयं भवति भवनकंचर इति ॥५॥ अर्थ-अज्ञानदिशारूप रात्रिनो चालनार जेना माथा उपर विषमकषायरूप सर्पनो समूह रह्यो छे, जेना गलाने विषे विषयरूप हाडकां बांध्यां छे, जे महोटा दोषरूप दांत प्रकट करे छे, जेनु मुख कामनी चेष्टा करे छे, एवो संसाररूपी राक्षस ते विश्वास करवाने योग्य नथी ॥५॥ जना लब्ध्वा धर्मद्रविणलवभिक्षां कथमपि प्रयांतोवामाक्षीस्तनविषमदुर्गस्थितिकृता ॥ विलुट्यंते यस्यां कुसुमशरभिल्लेन बलिना भवाटव्यां नास्यामुचितमसहायस्य गमनं ॥ ६॥ अर्थ-जे प्राणी धर्मरूप धनना लवलेशने पाम्यो छे, तेणे भिक्षा मागवाने एकला विचर, नहि, केमके भवाटवीने विषे बलवत्तर भील एवो जे काम ते स्त्रीना स्तनरूप विषयी कोटमां रहीने ते प्राणीमात्रना धर्मरूप धनने लुटी ले छे, माटे सहाय विना ते प्राणीए एकलुं विचरवु ( चालवू ) योग्य नथी ॥ ६॥ धनं मे गेहं मे मम सुतकलनादिकमतो विपर्यासादासादितविततदुःखा अपि मुहुः । जना यस्मिन् मिथ्यासुखमदभृतः कुटघटना मयो यं संसारस्तदिह न विवेकी प्रसजति ॥७॥ . अर्थ-धन, घर, पुत्र ने स्त्री आदि सर्व वस्तु मारी छे, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ एवा विपर्यासपणाथी विशेष प्रसिद्ध दुःखज छे, माटे जे प्राणी वारंवार सुखने मदे भर्या थका सुख माने छे, ते फोकट छे. ए संसार तो केवल कपट रचनाथी भर्यो छे, तेने विषे विवेकी प्राणीए प्रीति करवी नहीं ॥ ७ ॥ प्रियास्नेहो यस्मिन्निगडसदृशो यामिकभटो पमः स्वीयो वर्गो धनमभिनवं बंधनमिव ॥ महामेध्यापूर्ण व्यसनबिलसंसर्गविषमं भवः कारागेहं तदिह न रतिः कापि विदुषां ॥ ८॥ अर्थ-स्त्रीनो स्नेह ते बेडी समान छे, बीजा सगासंबंधी लोक ते पोरियात समान छे, धनसंपत्ति ते नवा बंधन सरखी छे अने महा अमेध्येकरी सहित छे, सात प्रकारना व्यसनरूप बिल्ले सहित छे दंकामां कहिये तो आ संसार ते बंदिखाना जेवो छे माटे पंडित लोकने ए वस्तुमाहेनी एके वस्तु उपर रति के० मरजी थती नथी ।। ८॥ महाक्रोधोगृध्रोऽनुपरतिशृगाली च चपला स्मरोलको यत्र प्रकटकटुशब्दः प्रचरति ॥ प्रदीप्तः शोकाग्निस्ततमपयशोभस्म परितः स्मशानं संसारस्तदतिरमणीयत्वमिह किं ? ९॥ अर्थ-जे पंडित लोक ते आ संसारने स्मशान सरखो कहे छे, केमके स्मशानमा रहेनारी चीजो सर्व संसारमा छे, ते कही बतावे छे. जेम स्मशानमां गिध पक्षी छे तेम संसारमा महाक्रोध ते गीध पक्षी छे, अरतिरूप घणी चपल शियाळणी छे घुवड पक्षीरूप काम छे, ते प्रगटपणे कडवा शब्दथी रुदन करे छे, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ देदीप्यमान शोकरूपी अग्नि प्रज्वले छे, निरंतर अपयशरूप राख छे; माटे संसार ते स्मशान छे, एमां रमणीक चीज कोई नथी | ९ | धनाशा यच्छायाप्यति विषममूर्छा प्रणयिनी विलासो नारीणां गुरुविकृतये यत्सुमरसः ॥ फलास्वादो यस्य प्रसरनरकव्याधिनिवहस्तदास्या नो युक्ता भव विषतरावत्र सुधिया ॥ १० ॥ अर्थ – धननी जे इच्छा ते अतिशय विषयरूप विषम मूर्च्छाने विस्तारनारी छे, स्त्रीयोनो विलास ते महाविकारकारी कुसुमनो रस छे, जेना फलनो स्वाद विस्तार पामतो नर्कनी पीडाना समूह तुल्य थाय; एवं संसाररूप विषयवृक्ष छे, एनी oo विश्राम करवो युक्त नथी ॥ १० ॥ क्वचित् प्राज्यं राज्यं वचन धनलेशोप्यसुलभः कचिज्जातिस्फातिः क्वचिदपि च नीचत्वकुयशः ॥ क्वचिल्लावण्यश्रीरतिशयवती कापि न वपुः स्वरूपं वैषम्यं रतिकरमिदं कस्य नु भवे ॥ ११ ॥ अर्थ — कोने तो विस्तारखालुं राज्य छे, कोइने धननो लेश पण दोहलो छे, कोइनी उत्तम जाति छे, कोइनी नीच जाती छे, कोइने अपयश छे, कोइने लावण्यलीलानी लक्ष्मी घणी छे, कोइनुं शरीर पण रुडुं नथी, एवं संसारनुं स्वरूप विषम छे, ते कोने रतिकारी थाय १ ।। ११ ।। इहोद्दामः कामः खनति परिपंथि गुणमहीमविश्रामः पार्श्वस्थितकुपरिणामस्य कलहः ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ बिलात्यंत: क्रामन्मदफणभृतां पामरमतं वदामः किं नाम प्रकटभवधामस्थितिसुखं ॥ १२ ॥ अर्थ - इहां उद्दाम काम दिशा छे; ते ज परिपंथी के० शत्रु छे, ते गुणरूप जे मही के० पृथ्वी तेने खणे छे अने पासे रह्यो जे कुपरिणाम ते विश्राम लीधा विना निरंतर क्लेश करे छे, शवडे खरडाया एवा जे प्राणी ते अष्ट मदरूप सर्प तेणे करी युक्त छे. एवं पामर लोकने मानवा योग्य आ संसाररूप जे घर तेनुं शुं सुख कहीए ? ।। १२ ।। तृषार्त्ताः खियंते विषयविवशा यत्र भविनः करालक्रोधार्काच्छमसरसि शोषं गतवति ॥ स्मरस्वेद क्लेदग्लपितगुणमेदस्यनुदिनं भवग्रीष्मे भीष्मे किमिह शरणं तापहरणं ॥ १३ ॥ अर्थ संसारने विषे प्राणी मात्र पुद्गलनी तृष्णारूप तरसे करीने पीडाणा छे, अने विषयनी आशाए करी परवश थया छे, एहवा प्राणीयो बिहामणा क्रोधे करी पीडाय छेः केमके तेमने माटे समतारूप सरोवर तो सुकाइ गयुं छे, अने काम'दिशारूप जे परस्वेद तेनी जे ग्लानता तेणे करी निरंतर गुणमेदा खरडाय छे. ज्यां एहवो बिहामणो आ संसाररूप उष्णकाल छे त्यां तेना तापने हरे एवो कोइ नथी || १३ || पिता माता भ्राताप्यभिलषित सिद्धावभिमतो गुणग्रामज्ञाता न खलु धनदाता च धनवान् ॥ जनाः स्वार्थस्फातावनिशमवदा नाशयभृतः प्रमाता कः ख्याताविह भवसुखस्याशु रसिकः | १४ | Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ अर्थ – संसारने विषे पिता, माता ने भ्राता के० भाइ आदि ते सर्व चिंतित अर्थनी अभिलाषा पूरे त्यां लगी अभिमत के ० संमत करी माने, तथा गुणना समूहनो जाण एवो धनवंत प्राणी होय ते पण कृपणपणे करीने गुणी जनने धन देह शके नहीं, एम सर्व प्राणी पोताना स्वार्थ साधन करवाने सावधानपणे वर्त्ते छे, पण परमार्थथी वेगला वसे छे, एवा भवसुखना रसिया जे जीव तेहना स्वरूपने कहेवाने कोण समर्थ थइ शके ? ॥ १४ ॥ पणैः पाणिं गृहणात्यहहमहति स्वार्थ इह यान् त्यजत्युच्चैर्लोकस्तृणवदघृणस्तानपरथा || विषं स्वांते वक्त्रेऽमृतमिति च विश्वासहतिकृद्भवादित्युद्वेगो यदि न गदितैः किं तदधिकैः ॥१५॥ अर्थ – एम स्वार्थने वश थईने प्राणी चंडालनो हाथ पकडी चाले छे ! अहो इति आश्चर्य ! जे स्वार्थपणुं ते एहबुं छे. बली जे उत्तम कुलथी उपजेला तेहने तजे छे अने तरणा जेवो निर्लज्ज थईने हैयामां झेर भर्यु होय पण मोढे अमृत जेवुं मीटुं बोले छे. एवा अनेक प्रपंच स्वार्थ माटे प्राणी करे छे ने विश्वासघाती थाय छे, एवा प्राणी आ संसारमां वसे छे, ते जोईने पण आ संसारथी जेनुं मन उद्वेग पामतुं नथी तेने घणुं शुं कही १ ॥ १५ ॥ दृशां प्रांतैः कांतैः कलयति मुदं कोपकलितै रमीभिः खिन्नः स्याद्धनधननिधीनामपि गुणी ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपायैः स्तुत्यारिपनयति रोषं कथमपी- . त्यहो मोहस्यैवं भवभवनवैषम्यघटना ॥१६॥ ___ अर्थ-स्त्रीनी दृष्टिना प्रांत के० खूणा ते मनोहर छे, माटे तेना जोवाथी हर्ष उपजे छे, अने स्त्रीनी कोपयुक्त दृष्टि खराब छ माटे ते देखीने खेद उपजे छे, तथा घणा धनवाला पुरुषने गुणीजनो स्तुति आदि करी रीजवे छेने कष्ट सहीने तेमनो रोष उतारे छे, ए सघलं मोहथकी थाय छे; माटे जुओ मोहरूपी राजानुं केQ विषमतापणुं छे, के जे तजवा योग्य छे तेनो आदर करावे छे अने जेनो आदर करवो जोइए तेनो त्याग करावे छे ॥ १६ ॥ प्रिया प्रेक्षा पुत्रो विनय इह पुत्री गुणरति विवेकाख्यस्तातः परिणतिरनिंद्या च जननी ॥ विशुद्धस्य स्वस्य स्फुरति हि कुटुंबं स्फुटमिदं भवे तन्नो दृष्टं तदपि बत संयोगसुखधीः ॥ १७ ॥ अर्थ-जीवने तत्त्वविचारणा करवी ते स्त्री छे, विनय करवो ते पुत्र छे, गुणने विषे जे रति करवी ते पुत्री छे, स्याद्वादपणे स्वपर-विवेचन करवू ते पिता छे, अनिंद्या जे पारकी निंदा तजवी ते आत्मानी माता छे, ए, जे अंतरंग कुटुंब छे ते तो जे वारे आत्मा शुद्ध थाय ते वारे प्रगट रीते पेदा थाय; पण तेने जे पुरुष संयोगी सुखमां मग्न थइ रह्यो छे ते तो क्यारे पण देखतो नथी । १७ ॥ पुरा प्रेमारंभे तदनुतद विच्छेदघदने, तदुच्छेदे दुःखान्यय कठिनचेता विषहते ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपाकादापाका हितकलशवत्तापबहुलात्, जनो यस्मिन्नस्मिन्कचिदपि सुखं हंत न भवे ||१८|| अर्थ - प्रथम प्रेम करतां दुःख छे, ते पछी तेने निश्चलपणे राखवाने पण घणुं दुःख छे; वली ते प्रेमपात्रनो विच्छेद थाय, मरण थाय अथवा प्रेम त्रुटे त्यारे सौथी वधारे दुःख उपजे, ने ते सहन करवाने छाती घणी कठण राखवी पडे. नींभाडाना पाकने विषे आरोपित कर्यो एवो जे घट तेना सरखी तापनी बहुलता छे एवो जे आ संसाररूप नींभाड़ो तिहां सुख तो कांह ज नथी; समग्र दुःखमय ज छे ॥ १८ ॥ मृगाक्षीदृग्बाणैरिह हि निहतं धर्म्मकटकं, विलिप्ताहृदेशा इह च बहुलैरागरुधिरैः ॥ भ्रमंस्यूर्ध्व क्रूरा व्यसनशतगृधाश्च तदियं महामोहक्षोणीरमणरणभूमिः खलु भवः ॥ १९ ॥ अर्थ-आ संसारने विषे धर्मराजाना कटकने तो मृगननीना दृष्टिरूपी चाणे हणी नाख्युं छे, रागदिशारूप रुधीवडे लेपाइ गया छे हृदयप्रदेश जेना ते उपर अनेक प्रकारना मनतन संबंधी कष्टरूपी गीधपक्षीयो भमी रह्या छे; एवो महामोहरूप क्षोणीरमण जे राजा तेनी रणभूमि समान आ संसार छे ॥१९॥ हसंति क्रीडति क्षणमय च खिद्यंति बहुधा, रुदंति ऋदंति क्षणमपि विवादं विदधते ॥ पलायंते मोदं दधति परिनृत्यंति विवशा भवे मोहोन्मादं कमपि तनुभाजः परिगताः ||२०|| Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अर्थ-क्षणमा हसे, क्षणमा क्रीडा करे ( रमे ), क्षणमा खेद करे, क्षणमां बहु प्रकारे रडे, क्षणमा विलाप करे, क्षणमा अनेक प्रकारनो विवाद करे, क्षणमां नासी जाय, क्षणमां हर्षित थइ नाचवा मांडे इत्यादि उन्माद संसारने विषे देहधारी प्राणीयो करे छे, ते सर्व मोहराजाने आधीनथका करे छे ॥ २० ॥ अपूर्णा विद्येव प्रकटखलमैत्रीव कुनय प्रणालीवास्थाने विधववनितायौवनमिव ।। अनिष्णाते पत्यौ मृगदृश इव स्नेहलहरी भवक्रीडा ब्रीडा दहति हृदयं तात्त्विकदृशाम् ॥२१॥ ____ अर्थ-असंपूर्ण विद्या जेम पंडितने, तेमज खल माणसनी मित्राई, वली राजसभामां अन्यायनी प्रणालिका एटले अन्यायनो मार्ग, तथा विधवा स्त्रीनुं यौवन, वली मूर्ख भरतारनी आगल स्त्रीना स्नेहनी लहरी ते जेम खेदने पात्र थाय छे तेमज संसारनी क्रीडा जे लजामणी छे तेथी तत्वदर्शी प्राणी दुःख पामे छे ।। २१ ॥ प्रभाते संजाते भवति वितथा स्वापकलना, द्विचंद्रज्ञानं वा तिमिरविरहे निर्मलदृशां ॥ तथा मिथ्यारूपं स्फुरति विदिते तत्त्वविषये, भवोऽयं साधूनामुपरतविकल्पस्थिरधियां ॥२२॥ अर्थः-जेम प्रभात समय स्त्रमनी रचना निष्फल थइ जाय छे, जेम कोइनी आंखमां जाकल आवी होय तेहने आकाशमां बे चंद्रमा भासे, पण निर्मलदृष्टि थतां बे चंद्रमार्नु भ्रांतिज्ञान मटी जाय छे तेम संसारथी न्यारा रह्या एहवा जे स्थिर बुद्धि Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ वाला तत्वज्ञान समजेला साधु तेने आ संसार ते मिथ्यारूप भासे छे ॥ २२ ॥ प्रियावाणीवीणाशयनतनुसंबाधनसुखैभवोयं पीयूषैर्घटित इति पूर्व मतिरभूत् ॥ अकस्मादस्माकं परिकलिततत्त्वोपनिषदामिदानीमेतस्मिन्न रतिरपि तु स्वात्मनि रतिः ||२३|| अर्थ:-- स्त्रीनी वाणीयें करीने तथा वीणानादे करीने, शय्य। ये करीने, वली शरीरने चोल चांपवुं तेणे करीने जे सुख उपजे छे, ते अमृते करीने धुंटेलुं होय तेनुं छे. एवं पूर्वे बालकाले वर्तायुं हतुं, पण हवे सहसात्कारे अमने तत्त्वदिशाना रहस्नी परिकलना थड़ - जाणपणुं थयुं; तेथी संसारने विषे तत्त्वरुचि वर्त्तती नथी, पण आत्मतत्त्वमां रुचि थइ छे || २३ ॥ दधानाः काठिन्यं निरवधिकमाविद्यकभव प्रपंचा: पांचाली कुचकलशवन्नातिरर्तिदाः ॥ गलत्यज्ञानाभ्रे प्रसृमररुचावात्मनि विधौ चिदानंदस्यदः सहज इति तेभ्योऽस्तु विरतिः ||२४|| अर्थ :- संसारना समस्त प्रपंच ते अतिशय कठि - ताने धरताथका छे, माटे मुजने काष्ठ अने पाषाणनी पुतलीना स्तननी पेरे रतिकारी नथी लागता; केमके अज्ञाननुं वादल गली गयुं छे अने आत्मिक ज्ञानरूप चंद्रोदय थयो तेथी सहज चिदानंद रसनी शीतलता प्रगटी तेणे करी विषय तापनी अरति मटी गइ ॥ २४ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवे या राज्यश्रीगजतुरगगोसंग्रहकृता न सा ज्ञानध्यानप्रशमजनिता किं स्वमनसि ॥ बहिर्याः प्रेयस्यः किमु मनसि ता नात्मरतय स्ततः स्वाधीनं कस्त्यजाति सुखमिच्छत्यथ परं ॥२५॥ अर्थ:-संसारने विषे हाथी, घोडा, बलद प्रमुख जे राजलक्ष्मी छे, ते शुं अतंरग आत्माने नथी ? अर्थात् छे. ज्ञान हाथी, ध्यान घोडा, समता ते बलद, ए लक्ष्मी आत्मानी छे; अने तुं जो मनवडे बाह्य साथे प्रेम करे छे तो पोताना आत्मा साथे रति केम करतो नथी ? आत्मिक सुख तजीने पौद्गलिक सुखने कोण इच्छे ? एवो मूर्ख कोण होय ? ।। २५ ।। पराधीनं शर्म क्षयि विषयकांक्षौघमलिनं भवे भीति स्थानं तदपिकुमतिस्तत्र रमते ॥ बुधास्तु स्वाधीने ऽक्षयिणि करणौत्सुक्यरहिते . निलीनास्तिष्ठति प्रगलितभयाध्यात्मिकसुखे॥२६॥ अर्थ:--पौद्गलिक सुख के छ ? एक तो पराधीन छ स्वभावे क्षय थवा लायक छे विषयनी वांछनावडे मलिन छे एम संसारने विषे भयनां स्थान घणां छे, ते छतां कुमतिना धणी संसारमा रमे छे अने पंडित लोक जे छे ते स्वाधीन सुखमां रमे छे. ते सुख के, छे ? के जे कोइ काले क्षय पामे नहीं; इंद्रियोनी उत्सुकताये रहित छे. जे प्राणी आत्मज्ञानमा लय पाम्या थका छे ते प्राणी सकल भयदिशा रहित थका परमानंदने विषे मनपणे रहे छे ॥ २६ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेतद्भाषते जगभयदानं खलु भव स्वरूपानुध्यानं शमसुखनिदानं कृतधियः॥ स्थिरीभूते ह्यस्मिन्विधुकिरणकर्पूरविमला यश:श्री:प्रौढा स्याजिनसमयतत्त्वस्थितिीवदाम्॥२७॥ अर्थः-आ जगत् प्रत्ये पंडित लोक एम कहे छे, जे पोताना आत्मभावना स्वरूपर्नु चिंतन ते ज समताना सुखर्नु कारण छे; अने जगतने अभयदान- देवावालु छे. जेणे कारकता भावे बुद्धि करी तेने आत्मस्वरूपज्ञान स्थिर थये थके चंद्र किरण कर्पूर सरीखी उज्ज्वल यशलक्ष्मी ते प्रौढपणे विस्तार पामे, एवा तत्त्वज्ञानी ते जिनेश्वरप्रणीत सिद्धांतना तत्त्वनी मर्यादाये वर्ते ॥ २७ ॥ इति भवस्वरूप चिंताधिकारः चतुर्थः समाप्तः ॥ इतिश्री नयविजयगणिशिष्य श्रीयशोविजयेन विरचिते अध्यात्मसार प्रकरणे प्रथमः प्रबंधः ॥१॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य संभवाधिकार भवस्वरूपविज्ञानाद् द्वेषान्नैर्गुण्यदृष्टिजात् ।। तदिच्छोच्छेदरूपं द्राग् वैराग्यमुपजायते ॥ १ ॥ सिया विषयसौख्यस्य वैराग्यं वर्णयंति ये ॥ मतं न युज्यते तेषां यावदाप्रसिद्धितः ॥२॥ अर्थः-भवनुं स्वरूप जाण्या थकी, संसार उपर द्वेष थया थकी, संसारने निर्गुणपणे देखवा थकी शीघ्रपणे संसारना विच्छेदनो वैराग्य आत्माने विषे प्रगट थाय ॥ १॥ विषयसुखनी सिद्धि-निष्पत्ति-प्राप्ति तेवडे जे वैराग्यनुं वर्णन करे छे, तेनुं मत घटमान नथी, जिहां सुधी अर्थ के० द्रव्य छ, तिहां सुधी विषय छे, एवी प्रसिद्धि छे. '' अर्थसत्वे विषयसत्वं "। इति ॥२॥ अप्राप्तत्वभ्रमादुचैरवाप्तेष्वप्यनंतशः॥ कामभोगेषु मूढानां समीहा नोपशाम्यति ॥ ३॥ विषयः क्षीयते कामो नेंधैनरिव पावकः ॥ प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्तिर्भूय एवोपवर्धते ॥४॥ अर्थ:-जे एम जाणे छे; जे हुँ कोइ काले संसारने विषे आव्योज नथी, जो अनंती वार विषय सेव्या छे, ते छतां आ विषय नवा पाम्यो, एवो भ्रम जेने उपजे छे, एवा जे कामभोगने विषे मुंझाइ रह्या छे, तेनी अभिलाषानो नाश थतोज नथी ॥३॥ जेम इंधनथी अग्नि घटे नहीं, पण उलटी वृद्धिज पामे, तेम विषय सेवतां कामभोग पण कदापि क्षय पामे नहीं, उलटी शक्ति उल्लास पामती जाय; वारंवार वधतीज जाए ॥ ४ ॥ सौम्यत्वमिव सिंहानां पन्नगानामिव क्षमा । विषयेष्ठ प्रवृत्तानां वैराग्यं खलु दुर्वचं ॥५॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकृत्वा विषयत्यागं यो वैराग्यं दिधीर्षति । अपथ्यमपरित्यज्य स रोगोच्छेदमिच्छति ॥६॥ अर्थः-जेम सिंहने सोमपणुं नथी, सर्पने जेम समता नथी तेन विषयमा जे प्रवर्त्या तेमने वैराग्य दोहिलो छे; पण सुगम नथी ॥५॥ जे विषयनो त्याग कर्या विना चित्तमां वैराग्यनी धारणा करे छे, ते कुपथ्य तज्या विना रोग टालवानी इच्छा करे एवं छे ॥ ६॥ न चित्ते विषयासक्ते वैराग्यं स्थातुमप्यलं ॥ __अयोधन इवोत्तप्ते निपतन्बिन्दुरंभसः यदीदुः स्यात् कुहरात्रौ फलं यद्यवकेशिनि ॥ तदा विषयसंसर्गिचित्ते वैराग्यसंक्रमः ॥ ८॥ ___अर्थ-जेम लोढानो घण तप्यो होय ते पाणीना बिंदुने । शोषी जाय छे तेम जेनुं चित्त विषयासक्त छे तेना हृदयमां वैराग्य रही शकतो नथी ॥ ७ ॥ जो अमासनी रात्रीए चंद्र उगे अने जो वांझीआ वृक्षने फल आवे तो विषयी जीवना हृदयमां वैराग्य संक्रमे ॥ ८॥ भवहेतुषु तद्वेषाद्विषयेष्वप्रवृत्तितः ॥ वैराग्यं स्यान्निराबाधं भवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥९॥ चतुर्थेऽपि गुणस्थाने नन्वेवं तत् प्रसज्यते॥ युक्तं खलु प्रमातृणां भवनैर्गुण्यदर्शनम् ॥१०॥ ___अर्थः-भवनी वृद्धिना हेतु उपर जेने द्वेष होय, विषयने विषे जेनी प्रवृत्ति न होय ते प्राणीने संसारनी निर्गुणताना चिंतनथकी निराबाधपणे वैराग्य उपजे ॥९॥ चोथा गुणठाणाने Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषे पण सम्यक्त्ववंत ज्ञातापुरुष निश्चयपणे संसारनी निर्गुणताज जुए छे, तो तेने वैराग्यनी प्राप्ति थाय छे ते युक्त ज छे ॥१०॥ सत्यं चारित्रमोहस्य महिमा कोप्ययं खलु ॥ . यदन्यहेतुयोगेऽपि फलायोगोऽत्र दृश्यते ॥११॥ दशाविशेषे तत्रापि न चेदं नास्ति सर्वथा ॥ स्वव्यापारहतासंगं तथा च स्तवभाषितम् ॥१२॥ अर्थः-चारित्रमोहनीनो महिमा साचो छ, केमके निश्चयथकी अन्यजोग हेतुये पण फलनु अयोग्यपणुं ते थकी जोवामां आवे छे ॥ ११ ॥ सम्यक्त्वनी दशामा विशेषे करीने ते चोथे गुणठाणे पण सर्वथा वैराग्य न ज होय, एम न जाणवू, तिहां पण पोताना आत्मिक स्वभावनी रमणतायें कुसंगपणुं हणाय छे, ए अर्थ वीतरागस्तोत्रने विषे श्रीहेमाचार्यजीए करेलो छे; माटे चोथे गुणठाणे वैराग्यपणुं होय ॥ १२ ॥ यदा मरुन्नरेंद्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते ॥ यत्र तत्र रतिर्नाम विरक्ततत्वं तदापि ते ॥ १३ ॥ भवेच्छा यस्य विच्छिन्ना प्रवृत्तिः कर्मभावजा ॥ रतिस्तस्य विरकस्य सर्वत्र शुभवेद्यतः ॥१४॥ अर्थ-जे काले देवताना राजानी लक्ष्मी हे नाथ ! तमे भोगवी तिहां पण जिहां जिहां रतिमोहनी उपजे ते तमे करी नथी, त्यां पण तमे विरतपणु ज कर्यु छे; पण रंगाया नथी ॥ १३ ॥ माटे भवनी इच्छा जेहने विछेद थाय छे, तेने जे Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवश्य वेदवा योग्य भावकमनी प्रवृत्ति प्रमुख जे विरक्त आत्माने रतिपणु छे ते सर्वत्र शुभ वेदनी ज वर्ते छे. ॥ १४ ॥ अतश्चाक्षेपकज्ञानात् कांतायां भोगसन्निधौ ॥ न शुद्धिप्रक्षयो यस्माद्धारिभद्रमिदं वचः ॥ १५ ॥ मायाभस्तत्त्वतः पश्यन्ननुद्विग्नस्ततोद्रुतंः ॥ तन्मध्ये न प्रयात्येव यथा व्याघातवर्जित ॥ १६ ॥ अर्थ-एही ज कारण माटे स्वरूप ज्ञानना अभ्यासे करी अथवा अन्य वस्तुयें करी अन्य वस्तुनुं पूर, ते क्षेपक कहेवाय; ते क्षेपकपणु जेने नथी तेनुं नाम अक्षेपक कहियें; एहवो अक्षेपक ज्ञानवंत निश्चय भावनुं ग्रहण करनारो ते पुरुष जो कांता जे स्त्री तेना भोगने सन्मुख प्रवर्त्ततो होय, तो पण तेहनी शुद्धिनो प्रकर्ष रीते क्षय न थाय; एटले ज्ञानशुद्धि ते कर्मक्षयर्नु कारण छे एबुं हरिभद्रसरिनुं वचन छे ॥१५ ।। परमार्थ दिशाथकी सर्व संसारने इंद्रजाल समान देखतो थको अनुद्वेग दशामां वर्ते, जेहने कामभोगमा उद्वेग नथी ने राग पण नथी ते तेणे करी तेमां तन्मयपणुं न करे, ते निर्विघ्नपणे यथायोग्ये मोक्षे ज जाय छे ॥१६॥ भोगान् स्वरूपतः पश्यंस्तथा मायादिकोपमान् ॥ भुंजानो पि ह्यसंगः सन्प्रयात्येव परं पदं ॥ १७ ॥ भोगतत्त्वस्य तु पुनर्न भवोदधिलंघनम् ॥ मायोदकदृढावेशस्त्तेन यातीह कः पथा ॥ १८ ॥ अर्थ-जे प्राणी शब्दादिक भोगने परमार्थ दिशायें जोतो थको इंद्रजाल समान जाणे ते विषयादिकने भोगवतो पण Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेमा लेपातो नथी, ते निश्चय परमपद जे मोक्ष तेने पामे छे ॥ १७ ।। अने जे भवाभिनंदी प्राणी ते संसारना भोगने ज तत्त्व करी माने छे, ते प्राणी संसार समुद्रने उलंघी न शके, केमके मायारूप उदकना आवेशे ते प्राणी कुपंथने विषे जाय छे ॥ १८॥ स तत्रैव भवोद्विग्ने यथा तिष्ठत्यसंशयं ॥ __ मोक्षमार्गेऽपि हि तथा भोगजंबालमोहितः ॥१९॥ धर्मशक्ति न हत्यत्र भोगयोग बलीयसीं ॥ हंति दीपापहो वायुर्वलतं न दावानलं ॥ २० ॥ ____ अर्थ-ते प्राणी भोगनो जंबाल के० कलिमल तेणे मोहित थयो थको मोक्षमार्गना साधनने विषे पण भवोद्विग्नतापणे निश्चय थकी रहे छे ॥ १९ ॥ धर्मनी सामर्थताने कामभोगनो संयोग हणी शकतो नथी, केमके धर्मनी सामर्थता घणी बलवत्तर छे. दीपक समान अल्प धर्मने तो कदापि वायु समान विषय • ओलवी नाखे, पण जाज्वल्यमान दावानल समान जे महाधर्मनी वासना तेने वायु नडी शकतो नथी ॥ २० ॥ बध्यते बाढमासको यथा श्लेष्मणि मक्षिका ॥ शुष्कगोलवदश्लिष्टो विषयेभ्यो न बध्यते ॥ २१ ॥ बहुदोषनिरोधार्थमनिवृत्तिरपि कचित् ॥ निवृत्तिरिव नो दुष्टा योगानुभवशालिनां ॥ २२ ॥ अर्थ-जेम श्लेष्मने विषे माखी लेपाइ फसाइ जाइ छे, तेम विषयने विषे गाढपणे आसक्त थतां प्राणी बंधाइ जाय छे. सुकी मृत्तिकाना गोलामा जेम माखी फसाती नथी तेम आसक्ति - अथ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर जदुष्ट नया ।। २२ ।। रहित उदासीन एवा जे जीव ते विषयने विषे बंधाता नथी ॥ २१ ॥ जेम रोगने काढयाने औषधोनी जरूर छे तेम घणा दूषणनो रोध करवाने अर्थे क्वचित् अनिवृतिपणुं पण दुष्ट नथी. जेम कामभोगनी त्यागबुद्धि दुष्ट नथी, तेम अनुभवजोगे करीने सहित जे वर्ते तेने कचित् मात्र अनिवृत्ति छे. ते पण निवृत्तिनी परेंज दुष्ट नथी ॥ २२ ॥ यस्मिनिषेव्यमाणेऽपि यस्याशुद्धिः कदाचिन । तेनैव तस्य शुद्धिः स्यात् कदाचिदिति हि श्रुतिः।।२३॥ विषयाणां ततो बंधजनने नियमोऽस्ति न ॥ अज्ञानिनां ततो बंधो ज्ञानिनां तु न कर्हिचित् ॥२४॥ ___अर्थ-जेम शत्रुनी सेवना करनारो पुरुष दुःखीयो थईने कालांतरे सुखी थाय तेम कदापि विषयने सेवनारो कर्मे करीने तेहि ज विषयादिकथी शुद्ध थाय, एवी पण कोइकनी श्रुती छे ॥ २३ ॥ जे विषय ते एकांते कर्मबंधनुं ज कारण छे, एवो एकांत नियम नथी; पण जे अज्ञानी छे तेने ज कर्मबंधन कारण छे, पण जे तत्त्वज्ञानी समतारसमां मन छे, तेने नथी ॥ २४ ॥ मेवतेऽसेवमानोऽपि सेवमानो न सेवते ॥ कोऽपि पारजनो न स्याच्छ्रयन् परजनानपि ॥२५॥ अत एव महापुण्यविपाकोपहितश्रियाम् ॥ गीदारभ्य वैराग्यं नोत्तमानां विहन्यते ॥ २६ ॥ अर्थ-केटलाक प्राणी विषयने द्रव्यथी अणसेवता थका पण भावथी विषयने सेवे छे, केटलाक प्राणी द्रव्यथी सेवे छे पण भावथी नथी सेवता, पारकी सेवना करतो थको पण तेहनो Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थ पर प्रते न देतो थको एहवो जे ज्ञानी ते कर्ममयी ज नथी थतो ॥ २५ ॥ ए माटे उत्तम पुरुषे महापुण्य विपाकना योगे प्राप्त करी एहवी जे तीर्थंकरादिकनी लक्ष्मी तेने गर्भयकी मांडीने पण वैराग्यधारा त्रुटती नथी ॥ २६ ॥ विषयेभ्यः प्रशांतानामश्रांतं विमुखैकृतेः ॥ करणैश्चास्वैराग्यमेष राजपथः किल ॥ २७ ॥ स्वयं निवर्तमानैस्तैरनुदीरयंत्रितः ॥ तृत्पैर्ज्ञानवतां तस्मादसावेकपदी मता ॥ २८ ॥ ___ अर्थ-जेहने विषयथकी प्रशांत चित्त थयु छे अने विश्राम रहित इंद्रियोना विषयने विमुख करवू तेणे करीने मनोहर वैराग्य मार्ग सेवबानुं बने, अने विषयनो पण त्याग थाय, ते तो निश्चयथकी वैराग्य दिशानो राजमार्ग छे ॥ २७ ॥ अने जे इच्छा विना सहेजे कोइ कारणयोगे पोते इंद्रियविकारथकी निवर्ने छे, पण प्रशांतने अण उदीरवे करीने अनियंत्रणायें करी एटले इंद्रियनो निरोध हजी कों नथी, पण सहेज चारित्र प्रमुखना योगे इंद्रियनिरोध थयो छे एहवा तृप्तिवंत ज्ञानी पुरुष तेनो वैराग्य ते पूर्वोक्त राजमार्गना वैराग्यनी एकपदी छे, एटले एकदंडी छे. जेम गाडा चालवाना मार्गने तो महोटो मार्ग कहिये, पण माणसोने पगे चालवानो रस्तो न्हानो थाय छे, तेवो ते वैराग्य पण न्हानो कहिये ॥ २८ ॥ बलेन प्रेर्यमाणानि करणानि वने भवत् ॥ न जातु वशतां यांति प्रत्युतानर्थवृद्धये ॥ २९ ।। पश्यंति लजया नीचैर्दुध्यानं च प्रयुंजते ॥ आत्मानं धार्मिकाभासाःक्षिपति नरकावटे ॥३०॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-बलात्कारे प्रेर्या थकां पण वनना हाथीनी पेठे इंद्रियो कदापि वश थती नथी, ऊलटी अनर्थनी वृद्धि करनारी थाय छे ॥ २९ ॥ लाजे करी नीचं जुए छे अने मनमां दुष्ट ध्यान धरे छे, एवा धर्मधुतारा प्राणी ते पोताना आत्माने नरकना कूपमां नाखे छे ॥ ३०॥ वंचनं करणानां तद्विरक्तः कर्तुमर्हति ॥ सद्भावविनियोगेन सदा स्वान्यविभागवित् ॥३१॥ प्रवृत्तेर्वा निवृत्तेर्वा न संकल्पो न च श्रमः॥ विकारोहीयतेऽक्षाणामिति वैराग्यमद्भुतं॥३२॥ अर्थ-शुभ भावने अर्पण करीने सदा स्वपर विवेचन ज्ञानयुक्त भावनावाला ज्ञाता विरक्त प्राणी इंद्रियोने ठगवाने समर्थ थाय छे, पण बीजा नथी थता ॥ ३१ ॥ प्रवृत्तिने विषे अथवा निवृत्तिने विवे जेने संकल्प नथी अने थाक पण नथी, एवा समभावे वर्तनारना सर्व विकार दूर थाय छे, अने एनुं नाम अद्भुत वैराग्य पण छे ॥ ३२ ॥ दारुयंत्रस्थपांचालीनृत्यतुल्याः प्रवृत्तयः ।। __ योगिनो नैव बाधायै ज्ञानिनो लोकवर्तितः॥३३॥ इयं च योगमायेति प्रकटं गीयते परैः॥ लोकानुग्रहहेतुत्वान्नास्यामपि च दूषणं ॥ ३४ ॥ अर्थ:-जेम काटनी पुतलीने दोरीना संचारे करी नाचनारीना माफक नाचती जोइए छीये, पण तेने कर्मबंध नथी, तेम लौकिक व्यवहारने विषे वर्त्तता ज्ञानी जे योगीश्वर पुरुष तेहने संसारनी प्रवृत्ति पीडा करती नथी ॥ ३३ ॥ ए वैराग्य Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाने पर दर्शनी जोग मायाने नामे प्रगटपणे बोलावे छे, ए पण लोकने उपकारकर्ता छे. एने विषे दूषण नथी ॥ ३४ ॥ सिद्धांते श्रूयते चेयमपवादपदेष्वपि ॥ मृगपर्षत्परित्रासनिरासफलसंगता ॥ ३५ ॥ औदासीन्यफले ज्ञाने परिपाकमुपेयुषि ॥ चतुर्थेऽपि गुणस्थाने तद्वैराग्यं व्यवस्थितं ॥ ३६ ॥ ____अर्थ:-सिद्धांतमा पण सांभलीये छीये के, अपवादने विषे मृगला सरखी पर्षदाने पण निरास करवी एज वृषभ तुल्य गीतार्थनी शुद्ध ज्ञानदिशा जाणवी ॥ ३५ ॥ परिपक्व थइथकी एवी जे ज्ञानदिशा अने जेनुं फल उदासीनता छे, ते थकी चोथे गुणस्थानके पण वैराग्यदिशा प्राप्त थाय छे ॥ ३६॥ इति वैराग्यसंभवाधिकार पंचम समाप्त ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यभेदाधिकार तद्वैराग्यं स्मृतं दुःखमोहज्ञानान्वयात्रिधा ॥ तत्राद्यं विषयाप्राप्तेः संसारोद्वेगलक्षणं ॥ १ ॥ अत्रांगमनसोः खेदो ज्ञानमव्यापकं न यत् ॥ निजाभीप्सितलाभे च विनिपातोऽपि जायते ॥ २ ॥ अर्थः- ते वैराग्य त्रण प्रकारनो छे. दुःखगर्भित, मोहगर्मित अने ज्ञानगर्भित. तेमां प्रथम कह्यो ते विषयादिकने न पामबाथकी संसारथी उद्वेग पामवानुं लक्षण छे, माटे तेहने दुःखगर्भित वैराग्य कहिये ॥ १ ॥ देह संबंधी, मन संबंधी जे खेद तेथी उपज्युं जे ज्ञान ते अव्यापक के० वृद्धिकारी न थाय, आत्मानी पुष्टिकर्त्ता न थाय; केमके ते प्राणी पोताने अभिलाष करवा योग्य धनादिक वस्तुने पामीने तापसादिपशुं छोडीने पाहुं गृहस्थपणं अंगीकार करे ।। २ ।। दुःखाद्विरक्ताः प्रागेवेच्छति प्रत्यागतेः पदं ॥ अधीरा इव संग्रामे प्रविशतो वनादिकं ॥ ३ ॥ शुष्कतर्कादिकं किंचिद्वैद्यकादिकमप्यहो ॥ • पठति ते शमनदीं न तु सिद्धांतपद्धतिं ॥ ४॥ अर्थ :- दुःखथकी जे वैराग्य पामे छे ते तो प्रथमथी ज "पाछा गृहस्थावासनी इच्छा करे छे, जे दुःख टले तो घरे जइये, जेम अधीर पुरुष जे कायर ते संग्रामने विषे जतोथको arati मराइ बेसवानी इच्छा करे छे, तेहनी परें ॥ ३ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणीयो वादविवाद करवाने शुष्क तर्क ग्रंथ भणे छे, आजीविकाने अर्थे वैद्यक प्रमुखना ग्रंथ भणे छे; पण समता रसनी नदी एवी सिद्धांतनी जे पद्धति ते भणता नथी ॥ ४ ॥ ग्रंथपल्लव बोधेन गर्वोष्माणं च बिभ्रति ।। तत्त्वं ते नैव गच्छंति प्रशमामृतनिझरं ॥५॥ वेषमात्रभृतोऽप्यते गृहस्थानातिशेरते ॥ न पूर्वोत्यायिनोयस्मान्नापि पश्चान्निपातिनः ॥६॥ अर्थ:-जे समता-अमृतना झरणने पाम्या नथी, ते ग्रंथना पल्लवमात्रके० खंडखंडमात्रे करीने गर्वनी गरमीने धरीनेज वर्ने छे, पण तत्वना रहस्यने पामताज नथी ॥ ५ ॥ जे साधुना वेष मात्रे करीने पोतानुं जीवितव्यपणुं सखे छे, ते पण गृहस्थतुल्यज छे, पण गृहस्थथी न्यारा नथी; जेणे आगल उच्छाह धयों नथी, जे गुण पामीने पडवाइ पण थया नथी, केमके गुण पामीने तजे ते तो पडवाइ कहेवाय; पण एतो कोइवारे पडवाइ पण थया नथी, एहवा जे छे ते तो गुणने पाम्याज नथी ॥ ६ ॥ गृहेऽनमात्रदौर्लभ्यं लभ्यंते मोदका व्रते ॥ वैराग्यस्यायमर्थो हि दुःखगर्भस्य लक्षणं ॥७॥ कुशास्त्राभ्याससंभूतंभवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥ मोहगर्भ तु वैराग्यं मतं बालतपस्विनां ॥ ८॥ - अर्थ:-अहो घरमां तो पूरुं अन्न पण नथी मलतुं, ने दीक्षा लीधा थकी तो लाडवा मले छे, ते माटे दीक्षा लेवामां शुं दुःख छे १ एषु जाणीने जे दीक्षा लिये छे तेनुं नाम दुःखगर्भित “वैराग्य जाणवू ॥ ७ ॥ ए रीते प्रथम दुःखगर्भित वैराग्यपणुं Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखाडयुं. हवे मोहगर्भित वैराग्य कहे छे. कुशास्त्राना अभ्यासथी प्रगटयुं जे संसारनुं निर्गुणीपण तेथी मोहगर्भित वैराग्य थाय छे. ते बाल तपस्वी प्रमुख जाणवा ॥ ८ ॥ सिद्धांतमुपजीव्यापि ये विरुद्धार्थभाषिणः ॥ तेषामप्येतदेवेष्टं कुर्वतामपि दुष्करं ॥ ९ ॥ संसारमोचकादीना मिवैतेषां न तात्त्विकः ॥ शुभोsपि परिणामो यजातानाज्ञानरुचिस्थितिः | १०| अर्थ:- जे सिद्धांतनुं उपजीवन करीने पणसूत्र विरोधि अर्थ कहे छे, ते प्राणी जो दुष्कर करणी करे छे तोपण तेने एवो ज जाणवो || ९ || संसारना दुःखथी मूकावाना हेतुथी जे मुसलमान ते घोडा प्रमुखने दुःखी देखी दयाभावे करी मारी नाखे छे, ते पण शुभ परिणामनी बुद्धि राखे छे ते छतां परमार्थे पाप ज छे, तेम मोहगर्भितने परमार्थ जडे नहीं. जो एनो परिणाम शुभ होय तोपण परमार्थे ज्ञाननी रुचि थाय नहीं ॥ १० ॥ अमीषां प्रशमोचै दोषपोषाय केवलं । · अंतर्निलीनविषम ज्वरानुभवसन्निभः ॥ ११ ॥ कुशास्त्रार्थेषु दक्षत्वं शास्त्रार्थेषु विपर्ययः ॥ स्वच्छंदता कुतर्कश्च गुणवत्संस्तवोंज्झनं ॥ १२ ॥ अर्थ — जेम अंतरंगमां लीन थइ रह्यो एहवो हाडवेदी ज्वर दुःखदायी थाय छे, तेम एने पण जे प्रशमादिक गुण थाय, ते पण घणुं करीने केवल दूषणभणीज थाय, पण गुणभणी नहींज थायः केमके अंतरंग मिथ्यात्व गया विना वैराग्य ते दुःखदायी छे ॥ ११ ॥ कुशास्त्रना अर्थने विषे डाह्या थाय, ने शास्त्रना Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपरीत अर्थ करे, स्वछंदपणे वर्ते, कोइ साथे क्षमा राखे नहीं अने गुणीनी प्रशंसा न करे ॥ १२ ॥ आत्मोत्कर्षः परद्रोहः कलहो दंभजीवनं ॥ आवाच्छादनं शक्त्युल्लंघनेन क्रियादरः ॥१३॥ गुणानुरागवैधुर्यमुपकारस्य विस्मृतिः॥ अनुबंधाधचिंता च प्रणिधानस्य विच्युति ॥१४॥ .. अर्थः-जे पोतानी मोटाइ करे, पारको द्रोह करे, क्लेश कजीआ करे, कपट राखे, पोताना पाप ढांके, पोतार्नु सामर्थ्य उलंघीने क्रियानो उद्यम करे, ते आतध्यानी कहेवाय ॥ १३ ॥ वली जे गुणी पुरुषोनो रागी न होय, बीजाना करेला उपकारने विसरी जाय, तीव्र कर्मबंधनी चिंता सहित दर्त, अने शुभ अध्यात्मना अध्यवसाय रहितपणे वः ॥ १४ ॥ ; श्रद्धामृदुत्वमौडत्य माधुर्यमविवकिता ॥ वैराग्यस्य द्वितीयस्य स्मृतेयं लक्षणावली ॥ १५ ॥ ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं सम्यक्तत्त्वपरिच्छिदः ॥ स्याद्वादिनः शिवोपायस्पर्शिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥१६॥ · अर्थ:-श्रद्धा, मृदुता, उद्धतता, मधुरता, अविवेकपणुंए मोहगर्भित वैराग्यनी परंपरा जाणवी ॥१५॥ ए रीते मोहगर्भित वैराग्यनुं स्वरूप कडुं. हवे ज्ञानगर्भित वैराग्यनुं स्वरूप कहे छे. जे सम्यक्त्वे करी तत्त्वनी ओलखाण करे, स्याद्वाद दृष्टियें वर्ते, मोक्षतुं चिंतन करे, मोक्षना उपायने फरसे, अने तत्त्वदिशा देखवानो अर्थी थाय; ते ज्ञानगर्मित वैराग्य जाणवो ॥ १६ ॥ .... Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ मीमांसा मांसला यस्य स्वपरागमगोचरा ॥ बुद्धि: स्यात्तस्य वैराग्यं ज्ञानगर्भमुदंचति ॥ १७ ॥ न स्वान्यशास्त्र व्यापारे प्राधान्यं यस्य कर्मणि ॥ नासौ निश्चयसंशुद्धं सारं प्राप्नोति कर्म्मणः || १८ || अर्थः- जेहनो विचार पुष्टकारी होय अने स्वसिद्धांत तथा परसिद्धांत संबंधी बुद्धि जेने होय तेने वैराग्यनी वात कहियें, अने वाज ज्ञानगर्भित वैराग्य प्रगट थाय ॥ १७ ॥ जेने स्वशास्त्र परशास्त्रना व्यापारनुं प्राधान्यपणुं नथी, तेमज क्रियाने विषे पण प्राधान्यता नथी, ते निचे थकी क्रियानुं निर्मल सारभूत जे फल तेने क्यारे पण पामे नहीं ॥ १८ ॥ सम्यक्त्वमानयोः सूत्रे गतप्रत्यागते यतः ॥ नियमो दर्शितस्तस्मात् सारं सम्यक्त्वमेव हि ॥ १९ अनाश्रवफलं ज्ञानमव्युत्थानमनाश्रवः ॥ सम्यक्त्वं तदभिव्यक्तिरत्येकत्वविनिश्चयः ||२०|| अर्थः- जे सम्यक्त्व ते मौन चारित्र कहिये, अने चारित्र ते मौन समकित कहियें; एवं श्री आचारांग मध्ये गतप्रत्यागत करीने कां छे । जं सम्मं तिवासहा तं मोणं तिपासहा जम्मो || ते माटे नियामक्कापर्ण जाणवुं ॥ सिझति चरणरहिया दंसणरहिया न सिर्झति ।। इति वचनात् ते माटे सम्यक्त्व ते सारभूत जाणवुं ।। १९ ।। आश्रवनो त्याग ते ज्ञाननुं फल छे अने अनाश्रवनुं फल ते अभ्युत्थान एटले विषयमां उजमाल न थाय, विषयनो त्यागी होय, एनुं नाम निश्चय सम्यक्त्व कहिये. कारक सम्यक्त्वीनी एवी दृष्टि होय, एटला माटे निश्चय नयनीरति के० प्रीति ते शुद्धचारित्रवंतनेज होय ॥ २० ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहिर्निवृत्तिमात्रं स्याचारित्र्याव्यवहारिकात् ॥ : अंतःप्रवृत्तिसारं तु सम्यक्प्रज्ञानमेव हि ॥ २१ ॥ एकांतेन हि षट्कायश्रद्धानेऽपि न शुद्धता ।। संपूर्णपर्ययालाभाद् यन्न याथात्म्यनिश्चयः ।। २२॥ अर्थः-धन, कण, कंचन, कामिनी प्रमुख बाह्य वस्तुनो जे त्यागी थाय, ए व्यवहार चारित्रना पालवाथी ते प्राणी व्यवहार दृष्टियेंज चाले छे अने जेने सम्यक्त्व सहित ज्ञाननी प्रवृत्ति होय, तेहनेज अंतरंग प्रवृत्तिनो सार कहिये ॥ २१ ॥ समस्त नयनी वासना रहित थका एकांते छकायनी रक्षानी श्रद्धा करता थका सम्यक्त्वनी शुद्धता न कहेवाय, पण संपूर्ण नयनो अपेक्षाये द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयना. लाभ विना यथार्थपणानो लाभ नही ज थाय, माटे शुद्ध नयनी अपेक्षाये वर्तवू ॥ २२ ॥ यावंतः पर्यया वाचां यावंतश्चार्थपर्ययाः ॥ सांप्रतानागतातोतास्तावद्व्यं किलैककं ॥ २३ ॥ स्यात्सर्वमयमित्येवं युक्तं स्वपरपर्ययैः ।। अनुवृत्तिकृतं स्वत्वं परत्वं व्यतिरेकजं ॥ २४ ॥ ____अर्थ-जेम जगतमा वर्तमान, अनागत तथा अतीतकालना जेटला शब्द पर्याय वचनना छे, तथा पदार्थना जेटला अर्थपर्याय छे, ते सर्व पर्याय निश्चैथी एकज द्रव्य छे ॥ २३ ।। जे सत्व के० पदार्थ ते सर्वस्त्र परपर्यायमयी होय ते आवी. रीते जे अनुवृत्ति सहजचारी गुणपणे स्वत्वं के० स्वपणुं जाणवू अने परपणुं ते व्यतिरेकपणे करी जाणवू ॥ २४॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये नाम परपर्यायाः स्वास्तित्वायोगतो मताः ॥ स्वकीया अप्यमी त्यागःस्वपर्यायविशेषणात् ॥२५॥ अतादात्म्येऽपि संबंधव्यवहारोपयोगतः ॥ तेषां स्वत्वं धनस्येव व्यज्यते सूक्ष्मया धिया ॥ २६ ॥ ___ अर्थ-जेटला परपर्याय छे ते सर्व पोतानी आस्तिक्यताना अजोगथी जाणवा. ते यद्यपि पोताना छे, तो पण गतभावे छे अने पोताना पर्याय तो सामान्यतापणे छे ॥ २५ ॥ परपर्याय जो पण तादात्म्यभावे नथी तोपण व्यवहारनयना जोगथी तेहनो संबंध छे. जेम धननो धणी अने धन ते जुदा जुदा छे, तोपण सूक्ष्म बुद्धिये विचारतां तेमनो संबंध जणाय छे ॥ २६ ॥ पर्यायाः स्युर्मुनेर्ज्ञानदृष्टिचारित्रगोचराः। यथा भिन्ना अपि तथोपयोगाद्वस्तुनो ह्यमी ॥ २७॥ नो चेदभावसंबंधान्वेषणे का गतिर्भवेत् ॥ आधारप्रतियोगित्वे द्विष्ठे न हि पृथग द्वयोः ॥२८ !! ___ अर्थ-तेम अभिन्नपणे ज्ञानना तथा चारित्र संबंधी पर्याय मुनिने पण होय, जो पण ते अभिन्न छे, तो पण उपयोगपणे विचारतां निश्चयनये पोतपोताना ज छे, पण व्यवहारे एक आत्माना छे, एम कहेवाय ॥ २७ ॥ एम जो न कहीये अने अभावना संबंधथी गवेषणा करिये तो केवी गति थाय ? आधारांतर निरूपकताने भावे विचारतां, " द्विष्टे विनष्टे द्वयात् " एटले पृथवभावताना द्वेष करवाथी विणसे अने ते बेहुथी आत्मा भिन्न नथी ॥ २८॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वान्यपर्यायसंश्लेषात् सूत्रेऽप्येवं निदर्शितं ॥ ... सर्वमेकं विदन्वेद सर्व ज्ञानं तथैककं ॥ २९॥ आसत्तिपाटवाभ्यास स्वकार्यादिभिराश्रयन् ॥ पर्यायमेकमप्यर्थ वेत्ति भावाद् बुद्धोऽखिलं ॥३०॥ अर्थ-स्वपर्याय अने परपर्यायना संबंधथी सूत्रने विषे पण एम देखाडयुं छे के सपलं एकताभावे जाणतां, " एगेआया, " इत्यादिक संघलुं ज्ञान ते संग्रहनये करी एकज छे ॥ २९ ॥ माटे चित्तनी आसक्तिये अने बुद्धिनी पाटवताये अभ्यास करवाथी पोताना कार्यपणादिकने आश्रयतां थकां पर्यायना एक अर्थने जाणीने पण बुद्ध जे पंडित ते सर्व भावने जाणे " जे एगं जाणइ से सर्व जाणइ " इति वचनात् ॥ ३० ॥ अंतरा केवलज्ञान प्रतिव्यक्तितर्न यद्यपि ॥ कापि ग्रहणमेकांशद्वारं चातिप्रसक्तिमत् ॥ ३१ ॥ अनेकांतागमश्रद्धा तथाप्यस्खलिता सदा ॥ सम्यग्दृशस्तयैव स्यात् संपूर्णार्थविवेचनं ॥३२॥ ___ अर्थ-यद्यपि केवलज्ञानने विषे तो काइ पण प्रतिव्यक्ति नथी, तोपण कोई ठेकाणे एक अंशनुज ग्रहण कर्यु छ, ने कोइ स्थानके सर्वांश ग्रहण कीधो छ । ३१ ।। तो पण अनेकांत आगमनी श्रद्धा ते अस्खलितपणे सदा प्रवर्ते छे, माटे अनेकांतपणुं अंगीकार करतां ज सम्यक्त्व छे तथा उत्सर्ग, अपवाद, निश्चयव्यवहार तेना संपूर्ण अर्थनो निश्चय थाय छे ॥ ३२ ॥ आगमार्थोपनयनाद ज्ञानं प्राज्ञस्य सर्वगं ॥ कार्यादेर्व्यवहारस्तु नियतोल्लेखशेखरः ॥ ३३ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदेकांतेन यः कश्चिद्विरकस्यापि कुग्रहः॥ शास्त्रार्थबाधनात्सोऽयं जैनाभासस्य पापकृत् ॥३४॥ _ अर्थ-आगमना अर्थन उपनयन जे थापq ते थकी प्राज्ञ जे बुद्धिवंत तेनुं ज्ञान सर्वव्यापकपणे प्रवर्ते. कार्यादिक जे व्यवहार छे, ते तो निश्चयपणे चित्रामणनी रेखा सरिखो छे. श्रेष्ठरूप करवाने जेम आलेखन करे ते सरिखो व्यवहार छे, अने समग्ररूप करवा समान ते निश्चयनय छे ॥३३॥ ते माटे एकांत नय अंगीकार करीने प्रवर्तनारा वैराग्यवंतने पण कुग्रही कहिये, तो बीजा मात्र नाम धरावनार होय तेनी तो शी वार्ता ? एक नयवालो शास्त्रना अर्थनो बाधक जाणवो. ते जो जैनाभास छे तो पण पापकारी जाणवो ॥ ३४ ॥ उत्सर्गे चापवादेऽपि व्यवहारेऽथ निश्चये ॥ ज्ञाने कर्मणि वायं चेन्न तदा ज्ञानगर्भता ॥ ३५ ॥ स्वागमेऽन्यागमार्थानां शतस्येव परार्धके ॥ तावताप्यबुधत्वं चेन्न तदा ज्ञानगर्भता ॥ ३६॥ ___ अर्थ-उत्सर्गमार्गमां, अपवादमार्गमां, व्यवहारमार्गमां, निश्चयमार्गमां, ज्ञाननयने विषे अने क्रियानयने विषे जो कदाग्रह नथी, तो तेने ज्ञानगर्भितपणु छे अने ते ज्ञानी पण छे ॥३५॥ स्वसिद्धांतना जाणवाथी अन्य शास्त्रनुं जाणवू ते तेमां ज समाइ जाय छे. जेम परार्ध नाम उत्कृष्ट गणित (अंक) छे, तेमां सोनुं गणित (अंक)पण समाइ जाय छे, अने तेटलुं ज्ञान पामीने पण जो अज्ञानपणुं रहे तो, तेने ज्ञानगर्भिता बिलकुल नथी एम जाणवू ॥ ३६ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने ॥ माध्यस्थ्यं यदि नायातं न तदा ज्ञानगर्भता ॥३७॥ आज्ञयागमिकार्थानां यौक्तिकानां च युकितः ॥ न स्थाने योजकत्वं चेन्न तदा ज्ञानगर्भता ॥३८॥ _ अर्थ-पोतपोताना स्वार्थने विषे सघला नय सत्य छे, ने परमार्थनी चालने विषे निष्फल छे, अने ते नयना विवादमा जो मध्यस्थता न आवी तो तेने ज्ञानगर्भता छ ज नहीं ॥३७॥ जे आज्ञाग्राह्य अर्थने आज्ञाये ग्रहे नही, आगम प्रमाणे ग्रहवा योग्यने आगमे ग्रहे नहीं, अने युक्तिग्राह्यने युक्तिवडे ग्रहे नहीं, एम सहुने पोतपोताने ठेकाणे जोडी जाणे नही, तो तेने ज्ञानगर्भिता मूलथी ज नथी एम जाणवू ॥ ३८॥ गीतार्थस्यैव वैराग्यं ज्ञानगर्भ ततः स्थितं ॥ । उपचारादगीतस्याप्यभीष्टं तस्य निश्रया ॥ ३९॥ सूक्ष्मेक्षिका च माध्यस्थ्यं सर्वत्र हितचिंतनं ॥ . क्रियायामादरो भूयान् धर्म लोकस्य योजनं ॥४०॥ ___ अर्थ-उपर कह्या मुजब तो गीतार्थने ज ज्ञानगर्भित वैराग्य छे, पण अज्ञानीने नथी एम ठर्यु तो पण तेना उपचारथकी अगीतार्थने पण गीतार्थनी निश्राये ज्ञानगर्भित वैराग्य छे ॥३९॥ ते माटे सूक्ष्म दृष्टिये मध्यस्थपणुं अंगीकार करीने अने परदूषण तजीने वर्तवू, सर्व जगतना जीवनुं हित चिंतवद्, मैत्रीभाव धरवो, क्रियाने विषे घणो आदर करतो, उपयोग धरखो अने धर्ममार्गमां लोकने जोडवा एहि ज श्रेष्ठ छे ॥ ४० ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेष्टा परस्य वृत्तांते मूकांधबधिरोपमा ॥ - उत्साहः स्वगुणाभ्यासे दुःस्थस्येव धनार्जने ॥४१॥ मदनोन्मादवमनं मदसंमर्दमर्दनं ॥ असूयातंतुविच्छेदः समतामृतमजनं ॥ ४२ ॥ ____ अर्थ-मुंगा तथा आंधला अने बेहरानी पेरे बोलवामां, देखवामां अने सांभलवामां इत्यादिक पारका वृत्तांतने विषे जेणे चेष्टा तजी छे, अने पोताना गुणना अभ्यास करवामां जे उत्साहवंत छे जेम दरिद्री धन कमावानो उद्यमी होय तेनी परें उज़माल थको वर्ते ॥४१॥ कामना उन्मादनुं वमन करनारा, मदना समूहने टालनारा, ईर्षारूप तंतुना तोडनारा अने समतारूप अमृत कुंडमां मज्जन करनारा ॥ ४२ ॥ स्वभावान्नैव चलनं चिदानंदमयात्सदा ॥ वैराग्यस्य तृतीयस्य स्मृतेयं लक्षणावली ॥ ४३ ॥ ज्ञानगर्भमिहादेयं द्वयोस्तुस्वोपमर्दतः ॥ उपयोगः कदाचित् स्यानिजाध्यात्मप्रसादतः॥४४॥ अर्थ-तथा चिदानंदमयपणाना स्वभावथी सर्वदा चलायमान नही एहवा वर्तणुकवंत जे होय, ए त्रीजा ज्ञानगर्भित वैराग्यना गुणनी लक्षणावली कही ॥ ४३ ॥ इहां ज्ञानगर्भित वैराग्य ते ग्रहवा योग्य छे, अने मोहगर्भित वैराग्य तथा दुःखगमित वैराग्यनुं उपमर्दन करीने केइक पोताना अध्यात्मभावना प्रसादथकी कदाचित ज्ञानगर्भित वैराग्यनो उपयोगी थाय ॥४४॥ इति श्रीवैराग्यभेदाधिकारः षष्ठः समाप्तः ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य विषयाधिकारविषयेषु गुणेषु च द्विधा भुवि वैराग्यमिदं प्रवर्त्तते॥ अपरं प्रथम प्रकीर्तितं परमध्यात्मबुधैर्द्वितीयकं ॥१॥ ___अर्थ-पृथ्वीने विषे विषयमा अने गुणमा ए बेहु प्रकारे वैराग्य प्रवर्ते छे. तेमां विषय वैराग्य तो अमुख्यपणे कह्यो छे. बीजो अध्यात्मभावयुक्त गुण वैराग्य ते मुख्यपणे जाणवो ॥१॥ विषयाउपलंभगोचरा अपि चानुश्रविकाविकारिणः ॥ न भवति विरक्तचेतसां विषधारेव सुधासु मन्जतां ॥२॥ __अर्थ-जे विषय वैराग्य छे ते प्राप्तिगोचरपणे वर्ने छे, पण निश्चथी ज्ञाता पुरुष ते रूपरसादिकने विष आसक्ति करे नही. जे विरक्त चित्तवाला ते अविकारी थकाज होय, केमके जे अध्यात्मरूप अमृतधाराने विषे मन्जन करता होय तेहने विषनी धारा शुं करनार छे ? अर्थात तेहने कांइ विषनी धारा पीडा करी शकती नथी ॥२॥ सुविशालरसालमंजरीविचरत्कोकिलकाकलीभरैः ॥ किमु मायति योगिनां मनो निभृतानाहतनादसादर॥३ __ अर्थ-जे योगीश्वर अनहद नादे सहित छे, ते योगमार्गे करीने सर्व देहरंध्रपुरीने " अर्हपद " अथवा " सोहं " पद अथवा ॐकार ध्वनि मनमां धरे छे, तेनो ब्रह्मद्वारे जे नाद ऊठे छे तेनुं नाम अनहद नाद कहिये, तेणे करी जे युक्त छे तो तेवा योगीश्वरनुं मन भली विस्तारवंती आंबानी मंजरीने विषे विचरती जे कोकिला तेना मनोहर शब्द सांभलीने शुं मग्न थशे ? अर्थात् नहीं ज थशे ॥ ३॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमणीमृदुपाणिकंकणकणनाकर्णनपूर्णघूर्णनाः॥ अनुभूतनटीस्फुटीकृतप्रियसंगीतरता न योगिनः॥४॥ अर्थ-स्त्रीना सुकोमल हाथमा रह्यां जे कंकण तेनो शब्द सांभलीने पूर्णपणे घुम्यां छे लोचन तेनी अनुभवन दिशारूप नाटक करनारी स्त्रीये प्रियकारी संगीतबध नाटक कीयां तो पण तेमां योगीश्वरनुं मन रंगाय नही, एटले लोभाय नहीं ॥ ४ ॥ स्खलनाय न शुद्धचेतसां ललनापंचमचारुघोलना ॥ यदियं समतापदावलीमधुरालापरतेन रोचते ॥५॥ अर्थः-स्त्रीनी पंचमरागनी घोलना ते समतापदनी श्रेणिना मधुर आलापनी रतिवाला शुद्ध चेतनावंत योगीने रुपे नहीं, एटले शुद्ध चेतनावंतने खलनाकारी न थाय ॥ ५॥ सततं क्षयि शुक्रशोणितप्रभवं रूपमपि प्रियं न हि ॥ अविनाशिनिसर्गनिर्मलप्रथमानस्वकरूपदर्शिनः ॥६॥ अर्थ:-अविनाशी सहज निर्मल अने विस्तार पामतुं एहवू जे पोतानुं स्वरूप तेहना जोनार योगीश्वर तेने तो जेनुं निरंतर शील क्षय थाय छे अने वीर्यरुधिरथी उपनुं एवं जे स्त्री आदिकनुं रूप ते प्रियकारी लागतुं नथी ॥ ६ ॥ परदृश्यमपायसंकुलं विषयो यत्खलु चर्मचक्षुषः॥ न हि रूपमिदं मुदे यथा निरपायानुभवैकगोचरः॥७॥ अर्थः-जेवो निरपाय के० जेहनो नाश नथी एहवो अनुभवदिशाने जोवानो रस छे तेवो रूप ते परपदार्थ के० बीजाने जोवा योग्य छ, तथा नाशवंत छ; अने चर्मचक्षुनो विषय Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ छे एहवो जे रूप ते जोवाथकी तेनो जे रस ते निश्चयनयथकी हर्षकारी न थाय ॥ ७ ॥ रतिविभ्रमहास्यचेष्टितै र्ललनानामिह मोदते ऽबुधः ॥ सुकृताद्रिपविष्वमीषु नो विरतानां प्रसरति दृष्टयः ॥ ८ अर्थ —रतिसुखने देखीने तथा स्त्रीना नेत्रविभ्रमनी चेष्टा करीने अबुद्ध जे अज्ञानी प्राणी ते घणो हर्ष पाने छे, पण ए विभ्रम विलासादिक तो सुकृतरूप पर्वतमे वज्र थह भेदे एवा छे माटे योगीश्वरनी दृष्टि तेमां रमती नथी ॥ ८ ॥ न मुदे मृगनाभिमल्लिकालवली चंदन चंद्र सौरभं ॥ विदुषां निरुपाधिवाधितस्मरशीलेन सुगंधिवर्ष्मणां ९ अर्थः- कस्तूरी, मालतीना पुष्प, लवली के० एलची चंदन तथा चंद्र के० कर्पूरनी सुगंधी ते पंडित लोकोने मन करती नथी; तेमने तो निरुपाधिक अनुभवगोचर स्वरूप चिदादानंदने विषेच मनपणु वर्त्ते छे, पण रूपादिकने विषे मग्नतापं नथी ॥ ९ ॥ 1 उपयोगमुपैति यच्चिरं हरते यन्न विभावमारुतः ॥ न ततः खलु शीलसौर भादपरस्मिन्निह युज्यते रतिः ॥ १० अर्थः- जे घणा काल सुधी उपयोगमां आवे जेनी सुगंधीने विभावदिशारूप वायु हरी शकतो नथी, एवी जे शील सुगंधी तेने मूकी योगीश्वरनुं चित्त अन्य सुगंधीमां लोभातुं नथी ॥ १० ॥ मधुरैर्न रसैरधीरता कचनाध्यात्मसुधालिहां सतां ॥ अरसैः कुसुमैरिवालीनां प्रसरत्पद्मपरागमादिनां ॥ ११ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ अर्थ : — जेम विकस्वर थतां जे कमल तेना स्वाद सुगंध - युक्त रसे मन थया एवा जे भ्रमर ते निरस कुसुम उपर रति पामे नहीं, तेम अध्यात्मरूप अमृतरसना भोगी जे प्राणी तेने बीजा शर्करादिक मधुररसनी अधीरजता उपजती नथी; गृधतापथुं करे नहीं ॥ ११ ॥ विषमायतिभिर्नु किं रसैः स्फुटमापातसुखैर्विकारिभिः नवमे नवमे रसे मनो यदि मग्नं सतताविकारिणि । १२ । अर्थ :- जे आगल कडवा विपाक आपे एवा मधुररसे शुं सारुं ? वली प्रगटपणे राज्यरुद्धि, स्त्री विषयादिक सुख पाम्या अने ते पाछां जतां रहे तेथी विक्रिया प्रगटे तो तेवां सुखथी शुं सारुं ? जो सदाय अधिकारी एवो पूर्ण नवमो जे शांतरस तेने विषे मनमग्न छे; तो पूर्वे का एवा रसे शुं फायदो थाय ? अर्थात् कांइज नहीं ॥ १२ ॥ मधुरं रसमाप्य नि:पतेद्रसनातो रसलोभिनां जलं ॥ परिभाव्य विपाकसाध्वसं विरतानां तु ततो दृशोर्जलं १३ अर्थ :- एक अचरज जुवो, के रसना लालची जे प्राणी ते मधुर रसने जोइने अथवा खाधानी वात सांभलीने कहे छे के मारा मुखमां पाणी भराय छे एटले जीभथी पाणी पडे छे, अने सर्वविरति जे मुनिराज ते मांसादिक मधुररस खाधे आगल माठा विपाक आवशे, तेना भयने विचारी बेड आंखे पाणी आणे छे, एटले आंखमांथी आंसु पाडे छे ॥ १३ ॥ इह ये गुणपुष्पपूरिते धृतिपत्नीमुपगुह्य शेरते ॥ विमले सु विकल्प तल्पके के बहि: स्पर्शरता भवंतु ते १४ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अर्थ:-इहां चरणकरणादिक जे गुण ते रूप फुलें धुरी एवी निर्मळ जे सुविकल्प के० मनकुशलतारूप शय्या तेहने विषे संतोषरूप स्त्रीने आलिंगन देइने सूए छे, तेवा मुनिराज ते बाह्य स्वीना स्पर्श विषे रत केम थाय ? ॥ १४॥ हृदि नितिमेव बिभ्रतां न मुदे चंदनलेपनाविधिः॥ विमलत्वमुपेयुषां सदा सलिलस्नानकलापि निष्फला १५ ___अर्थ:-हृदयने विषे निवृत्ति सुखने धरनारा जे प्राणी तेने पावनाचंदनना लेपनी विधि ते हर्ष आपती नथी, तथा सदैव निर्मलभावने धरता जे प्राणी तेने जलनी स्नानविधि ते निष्फल जाणवी ॥ १४ ॥ गणयंति जनुः स्वमर्थवत्सुरतोल्लाससुखेन भोगिनः॥ मदनाहिविषोग्रमूर्छनामयतुल्यं तु तदेव योगिनः॥१६॥ ___अर्थ-भोगी प्राणी स्त्री साथे विलास सभोगना सुखे करी जन्मारो सफल माने छे, अने योगीश्वर पुरुष तो मदन जे काम तेनी चेष्टाने सर्पना विषनी आकरी मूर्छातुल्य माने छे ।।१६ तदिमे विषयाः किलैहिका न मुदे केऽपि विरक्तचेतसां॥ परलोकसुखेऽपि निःस्पृहाः परमानंदरसालसा अमी॥१७ अर्थ-वैरागी जीवने आ भवमा क्षणिक सुख आपे एवा जे विषय ते निश्चयथकी काइ पण हर्षकारी नथी, केमके त्यागी प्राणी तो परलोक जे स्वर्गादिकनां सुख तेने विषे पण निःस्पृही छे ते तो मात्र मोक्षसुखनाज़ अभिलाषी छे ॥ १७॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदमोहविषादमत्सरज्वरबाधाविधुराः सुरा अपि ॥ विषमिश्रितपायसान्नवत् सुखमेतेष्वपि नैति रम्यतां ॥१८ अर्थ-गर्व, अज्ञान, विषाद अने मत्सर ते रूपभावनी पीडाये रहित एवा जे देवता तेनां जे विषयादिक सुख ते पण विषमिश्रित दूधपाकना भोजननी परे मनोहरकारी नथी ॥ १८ ॥ रमणीविरहेण वह्निना बहुबाष्पानिलदीपितेन यत् ॥ त्रिदशैर्दिवि दुःखमाप्यते घटते तत्र कथं सुखस्थिति: १९ अर्थ-केमके स्त्रीना वियोगरूप अग्नि ते आंसुरूप वायरे करी देदीप्यमान थयो एवो जे शोकरूप अग्नि प्रगट्यो, तेथी स्वर्गना देवताने पण पीडा थाय छे, तेवा ते स्वर्गमां देवताने पण सुखनी स्थिति छे, एहवु केम कहेवाय ? ॥ १९ ॥ प्रथमानविमानसंपदां च्यवनस्यापि दिवो विचिन्तनात् ॥ हृदयं न हि यद्विदीयंते धुसदांतत्कुलिशाणुनिर्मितं ॥२० अर्थ:-जेने विमान संपदा मोटी छे एवा देवताने पण च्यवन वेलायें जे दुःख प्रगटे छे, ते दुःखथी देवतार्नु हृदय मात्र फाटतुं नथी, तेनुं कारण जे तेमनुं हृदय ते वज्रना परमाणुयें करी उत्पन्न थयेलुं छे, तेथी घणुं कठण छे माटेज फाटतुं नथी ॥ २० ॥ विषयेषु रतिः शिवार्थिनो न गतिष्वस्ति किलाखि लास्वपि ॥ घननंदनचंदनार्थिनो गिरिभूमिष्वपरद्रुमेष्विव ॥२१॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ:-जेम निविड नंदनवनना चंदनना विलेपनवालाने पर्वतनी भूमि अथवा बीजा कोइपण वृक्षे रति थती नथी, तेम मोक्षार्थीने विषय उपर प्रीति थती नथी, तेमज मनुष्य तथा स्वर्गप्रमुख समग्र गतिने विषे पण प्रीति थती नथी ॥ २१ ॥ इति शुद्धमतिः स्थिरीकृताऽपरवैराग्यरसस्य योगिनः॥ स्वगुणेषु वितृष्णतावहं परवैराग्यमपि प्रवर्त्तते ॥२२॥ ___ अर्थ:-एम विचारी शुद्धबुद्धि स्थिर करीने जेने बीजा वैराग्यनो गुण प्रगट्यो छे तेवा योगीने आत्मगुणने वधारे एवी तृष्णाना आगमरूप परम वैराग्य प्रगट थाय ॥ २२ ॥ विपुलर्डिपुलाकचारणप्रबलाशीविषमुख्यलब्धयः ॥ न मदाय विरक्तचेतसामनुषंगोपनताः पलालवत् ॥ २३ अर्थ:-विपुललब्धि, पुलाकलब्धि, चारणलब्धि, महोटीआशीविषयलब्धि, प्रमुख अनेक लब्धिओ जो पण उपजे, तोपण ते वैरागी मुनिने अहंकार भणी थाय नहीं, मात्र एक मुक्तिसुख विना बीजां सुखने पलाल पुंजरूप ते माने छे ।।२३॥ कलितातिशयोऽपि कोऽपि नो विबुधानां मददगुणव्रजः ॥ अधिकं न विदन्त्यमी यतो निजभावे समुदंचति स्वतः ॥ २४॥ अर्थः-पंडित ते कोइ मोटा अतिशयादि गुणना समूहे सहित होय; तोपण मद करे नहीं, तेथी कांइ अधिकता पण न गणे, मात्र पोताना शुद्ध स्वभावमांज आनंद पामे ॥ ३४ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ हृदये न शिवेऽपि लुब्धता सदनुष्ठानम संग मंगति । पुरुषस्य दशेयमिष्यते सहजानंदतरंगसंगता ॥ २५ ॥ अर्थ : - पोताना हृदयने विषे मुक्तिमुख उपर पण लुब्धता नथी, एक सद्अनुष्ठानरूप सहजानंदना कल्लोलने मलती असंगानुष्ठानरूप पुरुषनी जे दशा तेने वांछे छे, पामे छे ॥२५॥ इति यस्य महामतिभवेदिह वैराग्यविलासभृन्मनः ॥ उपयंति वरीतुमुच्चकैस्तमुदारप्रकृतिं यशः श्रियः ||२६|| अर्थ :-- वैराग्यविलासी पुरुषने एवी बुद्धि उपजे छे ने तेवा उदार प्रकृतिवालाने यशरूप जे लक्ष्मी ते हर्ष धरीने वरवाने इच्छे छे. ॥ २६ ॥ इतिश्री वैराग्य विषयाधिकारः समाप्तः इति द्वितीय प्रबंध समाप्तः ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममतात्यागाधिकारः निर्भयैव वैराग्यं स्थिरत्वमवगाहते ॥ परित्यजेत्ततः प्राज्ञो ममतामत्यनर्थदां ॥ १ ॥ विषयैः किं परित्यक्तजागर्ति ममता यदि ॥ त्यागात्कंचुकमात्रस्य भुजंगो नहि निर्विषः ॥ २ ॥ अर्थः- ममता रहित प्राणीनेज वैराग्य स्थिरपणे रहे छे. ते माटे बुद्धिवंत प्राणिये अनर्थदायक जे ममता तेने तजवी ॥ १ ॥ जे सर्प कांची काढवाथी विष रहित थतो नथी, तेम जेने ममता जागे छे ते विषयनो त्याग करे तो पण त्यागी थतो नथी ॥ २ ॥ कष्टेन हि गुणग्रामं प्रगुणीकुरुते मुनिः ॥ ममताराक्षसी सर्व भक्षयत्येकहेलया ॥ ३॥ जंतुकांतं पशुकृत्य द्रागविद्यौषधीबलात् ॥ उपायैर्बहुभिः पत्नी ममता क्रीडयत्यहो ॥ ४ ॥ अर्थ – जे गुणसमूहने मुनिराज घणा कष्टे करी प्रगट करे छे, तेने ममतारूप राक्षसी एक कोलीये खाइ जाय छे ॥ ३ ॥ hi आश्चर्य छे के स्त्रियाराज्यनी पेरे ममतारूप स्त्री ते जीवरूप भर्त्तारने पशु जे मर्कट ते रूपे करीने शीघ्रपणे अज्ञानरूप जडीबुटीना बलथकी घणे प्रकारे नचावीने रमाडे छे ॥ ४ ॥ एक: परभवे याति जायते चैक एव हि ॥ ममतोद्रेकतः सर्व संबंधं कलयत्यथ ।। ५ ।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यामोति महती भूमिं वटबीजाद्यथा वटः॥ तथैकममताबीजात्प्रपंचस्यापि कल्पना ॥६॥ ___ अर्थ–एकलो चेतन परभवे जाय छे अने एकलोज आ भवे आवे छे, पण ममताने वश थइने रत्नादेवीनी परें मिथ्या सगपण न्यात जात वगेरेनी कल्पना करे छे ।। ५ ॥ जेम एक वडना बीजथकी घणी धरतीये वड व्यापीने विस्तार पामे छे, तेम एक ममताना बीज थकी घणा प्रपंचनी कल्पना उठे छे ॥ ६ ॥ माता पिता मे भ्राता मे भगिनी वल्लभा च मे ॥ पुत्राः सुता मे मित्राणि ज्ञातयः संस्तुताश्च मे ॥७॥ इत्येवं ममताव्याधिं वर्डमानं प्रतिक्षणं ॥ जनः शक्नोति नोच्छेत्तुं विना ज्ञानमहौषधं ॥ ८॥ अर्थ--माता, पिता, भाई, बेन, स्त्री ए सर्व माहरां छे पुत्र, पुत्री, मित्र ए पण माहरां छे; न्याति परिचित ए माहरां छे ॥ ७ ।। ए प्रकारे ममतारूप रोग दिवसे दिवसे वधतो जाय छे, तेने मटाडवाने कोइ पण ज्ञानरूप औषध विना समर्थ थातो नथी ॥ ८॥ ममत्वेनैव निःशंकमारंभादौ प्रवर्त्तते ॥ कालाकालसमुत्थायी धनलोभेन धावति ॥ ९॥ स्वयं येषां च पोषाय खिद्यते ममतावशः॥ इहामुत्र च ते न स्युस्त्राणाय शरणाय वा ॥१०॥ अर्थ-जेम वेला कवेला उठीने विप्र बे मासा सोनू लेवाने गयो, तेनी परे एक ममताये करीने निःशंकपणे आरंभमां Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्ने छेममणशेठ परे धनने लोमे करी दोडे छे ॥ ९ ॥ परभवमां इहानुं कुटुंब शरण आधार नथी, तो पण कुटुंबने पोषवानी ममतामां खेद पामे छे ॥ १०॥ ममत्वेन बहून लोकान् पुष्णात्येकोर्जितैर्धनैः ॥ सोढा नरकदुःखानां तीव्राणामेक एव तु ॥ ११ ॥ ममतान्धो हि यन्नास्ति तत्पश्यति न पश्यति ॥ जात्यंधस्तु यदस्त्येतद्भेद इत्यनयोर्महान् ॥१२॥ ____ अर्थ-पोते एकलो धन मेलवीने ममत्वे करीने घणा लोकने पुष्टि करे छे, पण परभवमा आकरां नारकीनां दुःख आवशे तेवारे एकलोज भोगवशे ॥ ११ ॥ जीव आंधलो नथी, पण ममताये करी नास्तिक पदार्थने खरा करी माने छे, तेहने मिथ्यादृष्टि अंध कहीये, केमके तेनी चर्मचक्षु छे, तो पण ते चक्षुए करी आत्मिक अर्थने नथी देखतो, माटे एने देखतो पण आंधलोज जाणवो; अने जे जातिअंध छे पण ज्ञानीने संयोगे आत्मार्थने जुए छे, माटे ए बे प्रकारना अंधमां घणो अंतर छे ।। १२॥ प्राणाननित्यताध्यानात् प्रेमभूम्ना ततोऽधिकां ॥ प्राणापहां प्रियां मत्वा मोदते ममतावशः ॥१३ ॥ कुंदान्यस्थीनि दशनान् मुखं श्लेष्मगृहं विधुम् ॥ मांसग्रंथी कुचौ कुंभौ हेम्नो वेत्ति ममत्ववान् ॥१४॥ अर्थ-राग दिशाये करीने प्राणने अनित्य माने पण प्राणनी लेनारी जे स्त्री तेने ममताने वश थइ वल्लभ जाणीने हर्ष पामे छे ॥ १३ ॥ ते स्त्रीना दांत यद्यपि हाडकानां छे, तो पण Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेने कुंदफुलनी कलिना जेवा जाणे, अने श्लेष्म जे लाळ तेणे करी भरेलुं मुख होय तेने चंद्रतुल्य वखाणे छे, अने स्तन मांसना गंठा छे तेने सोनाना कलश समान लेखे छे, ए वातो सर्व ममत्वने ली थाय छे ॥ १४ ॥ मनस्यन्यद्वचस्यन्यत् क्रियायामन्यदेव च ॥ यस्यास्तामपि लोलाक्षीं साध्वीं वेत्ति ममत्ववान् ||१५|| या रोपयत्यकार्येsपि रागिणं प्राणसंशये ॥ दुर्वृत्तां स्त्रीं ममत्वांधस्तां मुग्धामेव मन्यते ।। १६ ।। कोइक होय वली कोइ अर्थ-वली ते स्त्री केवी छे ! जेना मनमां अने वचनमां वली बीजो कोइक होय, अने भोग तो श्रीजानी साथेज करे एवी छे, तेने वैरागी पुरुष कहे छे जे ए स्त्री की सर्व सयुं. एटले स्त्रीने सर्वथा भुंडी गणे छे; पण जे प्राणी ममतावंत छे, ते तो एवी चंचल नेत्रवाली स्त्रीने सती माने छे ॥ ५ ॥ स्त्री पोताना रागी धणीने मरण थाय एवां काम भलावे, अने ते पण ममत्वे आंधलो पुरुष ते कार्य कुटाइ - पीटाइने करे. वली स्त्री व्यभिचारिणी होय तो पण तेने भोली करी माने, ते उपर एक दृष्टांत छे. “ लाली कहेती बापडी अवला खेलमखेल, ज्यांथी लाग्यो लाकडी त्यांनी त्यां जइ मेल " ॥ १६ ॥ चर्माच्छादितमांसास्थिविण्मूत्रपिठरीष्वपि ॥ वनितासु प्रियत्वं यत्तन्ममत्वं विजृंभितं ॥ १७ ॥ लालयन् बालकं तातेत्येवं ब्रूते ममत्ववान् ॥ वेत्ति च श्लेष्मणा पूर्णामंगुलीममृतांचितां ॥ १८ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-ममत्वनी चेष्टा ते धूललीला सरखी छे, तेने वश थइ रह्यो एवो जे पुरुष ते हाड, मांस, विष्टा, मूत्र तथा चर्मथी मढेली हांडली जेवी स्त्री उपर प्रेम करे छे; ममत्व धरे छे ॥ १७ ॥ वली ममत्वे करीने पोताना पुत्रने रमाडे ते वखते तेने बाप बाप करी कहे, अने ते बालकना हाथनी आंगलीयो श्लेष्मथी भरी होय तेने अमृत समान जाणे ॥ १८॥ . पंकामपि निःशंका सुतमंकान्न मुंचति ॥ तदमेध्येऽपि मेध्यत्वं जानात्यंवा ममत्वतः ॥ १९ ॥ मातापित्रादिसंबंधोऽनियतोऽपि ममत्वतः ।। दृढभूमिभ्रमवतां नैयत्येनावभासते ॥ २० ॥ . अर्थ—मोहथकी बालकनी माता पोताना बालकने कादवे भर्यो होय, तो पण निःशंकपणे खोलामांथी मूकती नथी. वली विष्टाये अशुचि होय, तो पण ते बालकने तेनी माता मोहना वशथकी पवित्र गणे छे ॥ १९॥ जेम धरती शाश्वत दृढ छे, पण धतुराना फल भक्षण करनार प्राणीने फेर आवे छे, त्यारे तेने धरती फरती जणाय छे तेम मातापितादिकनो संबंध संसारमा अनादिनो शाश्वत छे; पण मोहवडे मुंझाणो प्राणी एम कहे छे जे, माता मरी गइ; हवे केम थशे ? शी रीते चालशे ? ॥ २० ॥ भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो विभिन्नाः पुद्गला अपि ॥ शून्यसंसर्ग इत्येवं यः पश्यति स पश्यति ।। २१ ॥ अहंताममते स्वत्वस्वीयत्वभ्रमहेतुके । भेदज्ञानात्पलायेते रज्जुज्ञानादिवाहिभिः ॥ २२॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-तेम प्रत्येक जीव पण जुदा जुदा छे, अने ते कइ गतिथी आव्या अने कइ गतिये जशे ? तेम पुद्गल पण जुदा छे, तथा शरीरनो संग पण शून्य छे, ए रीते जे देखे छे; तेने देखतो जाणवो ॥ २१ ॥ जेम दोरडानुं ज्ञान थये सर्पनी भीति नाश पामे छे, तेम हुं अने स्त्री आदिक माहरी छे एवो ममत्व थाय छे, ते भ्रमहेतु छे. ते भ्रम ज्ञाननजरे जोवाथी नाश पामे ।। २२ ॥ किमेतदिति जिज्ञासा तत्त्वाभिज्ञानसंमुखी ॥ व्यासंगमेव नोत्थातुं दत्ते क ममतास्थितिः ॥२३॥ प्रियार्थिनः प्रियाप्राप्तिं विना कापि यथा रतिः ॥ न तया तत्त्वजिज्ञासोस्तत्वप्राप्तिं विना कचित् ॥२४॥ अर्थ–ए संसारनो संबंध शुं छे ? एम आत्मतत्त्वने सन्मुख ओलखवानी इच्छा थइ एटले ममता तरत नाश पामे. आत्मज्ञानी आगल ममता किहां रहे ? ॥ २३ ॥ जेम कामी पुरुष स्त्रीनो अर्थी थयो, ते स्त्री पाम्या विना कोइ पण ठेकाणे रति न पामे, तेम तत्वनो जाण पुरुष पण तत्त्व पाम्या विना क्यांये रति न पामे ।। २४ ॥ अत एव हि जिज्ञासां विष्कंभति ममत्वधीः ॥ विचित्राभिनयाक्रांतः संभ्रांत इव लक्ष्यते ॥२५॥ धृतो योगो न ममता हता न समताऽऽदृता ॥ न च जिज्ञासितं तत्त्वं गतं जन्म निरर्थकम् ॥२६॥ जिज्ञासा च विवेकश्च ममतानाशकावुभौ ॥ ___ अतस्ताभ्यां निगृह्णीयादेनामध्यात्मवैरिणीं ॥२७॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अर्थ – ए कारण माटे तत्र जाणवानी इच्छाए करी ममतानी बुद्धि जेणे दबावी छे ते प्राणी विचित्र प्रकारनी नयगम, भंग, रचनाये व्याप्यो थको संसारना सर्व पदार्थने संभ्रांत जाणे, एटले इंद्रजालवत् जाणे ।। २५ ।। जेणे जोग पण धर्यो नहीं, अने ममता पण हणी नही, तथा समता पण आदरी नही, वली शास्त्र जाणवानी इच्छा पण न करी, तेनो नरजन्म निष्फल गयो, एम जाणवुं ||२६|| एक जाणवानी इच्छा अने बीजो विवेक एबे ममताने नाश करनारा छे. ते माटे ए बेहुथकी ममतानो निग्रह करवो कारण के ममता ते अध्यात्मनी दुश्मन छे ॥ २७ ॥ इति ममता त्यागाधिकारः अष्टम समाप्तः ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समताधिकारः त्यक्तायां ममतायां च समता प्रथते स्वतः ॥ स्फटिके गलितोपाधौ यथा निर्मलतागुणः ॥१॥ प्रियाप्रियत्वयोथैर्व्यवहारस्य कल्पना ॥ निश्चयात्तद् व्युदासेन स्तमित्यं समतोच्यते ॥२॥ अर्थ-हवे समता आववानो अधिकार कहे छे. जेम स्फटिकने विषे उपाधिपणुं टले, तेवारे निर्मलतापणुं वधे छे, तेम जेबारे ममतानो त्याग थाय तेवारे पोतानी मेलेज समता विस्तरे. ॥ १ ॥ संसारने विषे पोताने अर्थे कोइ काम पडे तेवारे एम जाणे जे आ माहरो वहालो छे अने आ दुश्मन छे, पण ए सर्व व्यवहार कल्पना छे निश्चयथकी तो ते व्यवहारनाशे करी मध्यस्थपणुं पामे; तेवारेज समतावंत कहेवाय ॥ २ ॥ तेष्वेव द्विषतः पुंसस्तेष्वेवार्थेषु रज्यतः ॥ निश्चयाकिचिदिष्टं वाऽनिष्टं वा नैव विद्यते ॥३॥ एकस्य विषयो यः स्यात्स्वाभिप्रायेण पुष्टितः॥ अन्यस्य द्वेष्यतामेति स एव मतिभेदतः ॥ ४॥ ___ अर्थ-व्यवहार कल्पनावालो तो जेने विषे द्वेष लावे तेनेज विषे पोताना अर्थ साधने करी राजी थाय; पण जो निश्चयथकी विचारे तो एमां कांइ इष्ट नथी, तेम अनिष्ट पण नथी. ॥३॥ एक विषय जे एक कार्य छे ते एक जणने पोतानी रुचिये पुष्टकारी छे अने बीजाने तेथीज द्वेष उपजे छे. ए मति-कल्पनाना भेद छे एम जाणवू ॥ ४ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकल्पकल्पितं तस्माद्वयमेतन्न तात्विकं ॥ विकल्पोपरमे तस्य द्वित्वादिवदुपक्षयः ॥५॥ स्वप्रयोजनसंसिद्धिः स्वायत्ता भासते यदा ॥ बहिरर्थेषु संकल्पसमुत्थानं तदा हतं ॥६॥ अर्थ--इष्ट अनिष्ट ए विकल्पनी कल्पनाथकी छे, ए बेनेज रागद्वेष जाणवा. पण एमां कांइ तत्त्व नथी. जो मनथी विकल्प जाय तो रागद्वेष ए बेहु दूर थाय ॥ ५॥ पोताना प्रयोजननी सिद्धि जेवारें पोताने स्वाधीन थाय, तेवारें बाहेरना अर्थसंकल्पनो उठाव नाश पामे ॥ ६॥ लब्धे स्वभावे कंठस्थस्वर्णन्यायादभ्रमक्षये ॥ रागद्वेषानुपस्थाने समता स्यादनाहता ॥ ७ ॥ जगज्जीवेषु नो भाति द्वैविध्यं कर्मनिर्मितं ॥ यदा शुद्धनयस्थित्या तदा साम्यमनाहतं ॥ ८॥ अर्थ-जेम कंठ उपर रहेलुं सुवर्ण साक्षात् देखाय छे तेम स्वाभाविक गुण पामे थके विभाविक भ्रमणा दूर जाय, तेबारे रागद्वेष ऊठी दूर थाय अने समता विशेषे वधे ॥ ७ ॥ जगतना जीवने विषे कर्मनु विचित्रपणुं छे, माटे ते विभावपणुं सारं नरसु कहेवानी रीते जेवारे न भासे तेबारे शुद्धनयनमा रह्यो थको प्रबल समताने पामे ॥ ८ ॥ स्वगुणेभ्योऽपि कौटस्थ्या देकत्वाध्यवसायतः ॥ आत्मारामं मनो यस्य तस्य साम्यमनुत्तरं ॥९॥ समतापरिपाकेस्याद्विषय ग्रहशून्यता ॥ यया विशदयोगानां वासीचंदनतुल्यता ॥१०॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ अर्थ - - पोताना गुणथकी पोतानो आत्मा साक्षी करीने एक शुद्ध अध्यवसायथकी आत्माने विषे जेनुं मन रमे छे, तेनी समता अनुत्तर कहिये || ९ || एम जेने पाकी समता थइ तेनुं विषयरूप घर सूनुं थयुं; एम जे मुनिने निर्मल समता योग प्रगटयो, ते मुनिने कुठारे करी कोइ छेदे अथवा चंदने करी कोइ पूजे ते बेहु तुल्य छे ॥ १० ॥ किं स्तुमः समतां साधौ या स्वार्थप्रगुणीकृता ॥ वैराणि नित्यवैराणामपि हंत्युपतस्थुषाम् ॥ ११ ॥ किं दानेन तपोभिर्वा यमैश्च नियमैश्च किं ॥ एकैव समता सेव्या तरीः संसारवारिधौ ॥ १२ ॥ अर्थ - एवा साधुनी समतानों शुं वखाण करियें ? जेणे पताना आत्मानी सिद्धि करवाने समता आदरी, एहवा मुनि ते समतारूप घरमा रहेता थका आ भवना तथा आगला कंइक भव सर्व भवना वैरभाव टाली नाखे छे, जेम नित्य पासे वसतां थकi कुतरां अने मांजारी के० बिलाडी तेमनां वैर पण शमी जाय तेनी परें जाणवुं ||११|| कपटी वेश धारण करवाथी शुं थाय ? तथा घणी तपस्यायें पण शुं थाय ? वली मौन धारी अतीतनी पेरें इंद्रियदमन कीधे शुं थाय ? अने व्रत धारणकरे पण शुं थाय ? मात्र एक समता जे संसाररूप समुद्र तरवामां नौका जेवी छे, तेनुंज सेवन करवुं तेहि ज श्रेष्ठ छे ॥ १२ ॥ दूरे स्वर्गसुखं मुक्तिपदवी सा दवीयसी || मनः संनिहितं दृष्टं स्पष्टं तु समतासुखं ॥ १३ ॥ दृशोः स्मरविषं शुष्येत् क्रोधतापः क्षयं व्रजेत् ॥ औद्धत्यमलनाशः स्यात्समतामृतमज्जनात् ॥ १४ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अर्थ-देवलोकनां सुख तो दूर छे. वली मोक्ष पदवी ते तो मोटी छे, अने भवस्थितिने हाथ छे, तेवारे मननी पासे प्रगटपणे देखीयें एवी समतानुं सुख ते शुं खोटुं छे ? ॥ १३ ॥ समतारूप अमृतकुंडमां स्नान करवाना प्रभावथी आंखथकी कंदपरूप दर्पनुं विष सोषाइ जाय छे क्रोधरूप ताप नाश पामे छे उद्धताइ रूपी मेल ते पण दूर थाय छे. ॥ १४ ॥ जरामरणदावाग्निज्वलिते भवकानने ॥ सुखाय समतैकैव पीयुषघनवृष्टिवत् ॥१५॥ आश्रित्य समतामेका निर्वृता भरतादयः॥ न हि कष्ट मनुष्ठानमभूत्तेषां तु किंचन ॥ १६ ॥ अर्थ-जन्म, जरा, मरणरूप दावानलें करी बलतुं एवं संसाररूप वन तेमां समतानुं जे सुख छे ते अमृतना वर. साद सरखं जाणवु ॥ १५ ॥ चित्रशाली मध्ये एकज समताने अवलंबता भरतराजा आदि आठ पाट केवल पामीने सिद्ध थया पण तेमने कष्टक्रिया कांइ पण करवी पडी नही, एहवी ए समता छे ॥ १६॥ अर्गला नरकद्वारे मोक्षमार्गस्य दीपिका ॥ समता गुणरत्नानां संग्रहे रोहणावनिः ॥ १७ ।। मोहाच्छादितनेत्राणामात्मरूपमपश्यतां॥ दिव्यांजनशलाकेव समता दोषनाशकृत् ॥ १८ ॥ अर्थ-वली समता ते नरकने बारणे भोगल जेवी छे, अने मोक्षमार्गनी दीवि छे. वली गुणरूप रत्ननो संग्रह करवाने रोहणाचल पर्वतनी भूमिका सरिखी छे ॥ १७ ॥ जेनां नेत्र Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहवडे ढंकायां छे अने जे पोताना स्वरूपने जोइ शकता नथी, तेने दिव्य अंजन आंजवाने समता ते शलाकारूप छ; अने अज्ञानना पडलने छेदनारी छे ॥ १८॥ क्षणं चेतः समाकृष्य समता यदि सेव्यते ॥ स्यात्तदा सुखमप्यस्य यद्वक्तुं नैव पार्यते ॥१९॥ कुमारी न यथा वेत्ति सुखं दयितभोगजं ॥ न जानाति तथा लोको योगिनां समतासुखं ॥२०॥ अर्थ-जे प्राणी एक क्षणमात्र मनने खेंचीने समताने सेवे, ते प्राणीने एहवं सुख प्रगटे, जेहनो मुखे कहेतां थकां पार आवे नही ॥ १९ ॥ जेम कुमारिका भरतारना सुखने जाणती नथी. तेम लोको पण मुनिराजनी समताना सुखने जाणता नथी ॥ २० ॥ नतिस्तुत्यादिकाशं साशरस्तीवः स्वमर्मभित् ॥ समतावर्मगुप्तानां नार्तिकृत्सोऽपि जायते ॥२१॥ प्रचितान्यपि कर्माणि जन्मनां कोटिकोटिभिः॥ तमांसीव प्रभा भानोः क्षिणोति समता क्षणात्॥२२॥ ___ अर्थ जेणे समतानुं बख्तर पहेयु: छे. तेने नमस्कार, स्तुति, पूजा, लाभ, परद्रव्यनी इच्छादिरूप जे पोतानाज मर्मने लागनारां एहवां जे तीक्ष्ण बाणो ते पीडा करी शकतां नथी ॥ २१ ॥ जेम सूर्य किरणना प्रकाशथी अंधकार नाश पामे छे तेम कोटि कोटि भवनां प्राणीनां निबिडसंचित जे पापकर्म छे ते समतावडे एक क्षणमां नाश पामे छे. ॥ २२ ।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अन्यलिंगादिसिद्धानामाधारः समतैव हि ॥ रत्नत्रयफलप्राप्तेर्ययास्याद्भावजैनता ॥ २३॥. ज्ञानसाफल्यमेषैव नयस्थानावतारिणः ॥ चंदनं वह्निनेव स्यात् कुग्रहेण तु भस्म तत् ॥ २४॥ ___ अर्थ जे अन्यलिंगी सिद्ध थया ते पण द्रव्यथी मोक्षफल साधता थका रत्नत्रयना फलनी प्राप्तिवडे भावथी जैनपणुं पाम्याः माटे ते अन्यलिंगीओने पण समता ते एक आधारभूत हती ॥ २३ ॥ जो नयस्थानके उतारी जोइयें तो, ए समताज ज्ञान- फल छे ने जेम ज्ञानवडे भवताप शमे छे. तेम समतारूप चंदने करी भवताप शमी जाय छे; पण कुग्रह के० कदाग्रह अज्ञानरूप अग्निवडे तो समतारूप चंदन बली भस्म थाय छे ।॥२४॥ चारित्रपुरुषप्राणाः समताख्या गता यदि ॥ जनानुधावनावशस्तदा तन्मरणोत्सवः ॥ २५ ॥ संत्यज्य समतामेकां स्याद्यत्कष्टमनुष्ठितं ॥ तदीप्सितकरं नैव बीजमुप्तमिवोषरे ॥ २६ ॥ अर्थ-संसाररूप गामने विषे सर्व लोक क्रयविक्रय करता दोडादोड करे छे, ते शुं छे ? ते कहे छे, के जेवारे चारित्ररूपी पुरुष मरण पाम्यो, तेवार समतारूपी प्राण पण जता रह्या. पछी तेना मृत कार्यनो उत्सव, पाथरणा, स्नानसूतक वगेरे करवाने जाणे ऐ लोको दोडादोड करे छे एम समजवु ॥ २५॥ जेम उखर क्षेत्रमा बीज वाव्यु ते कष्टे करीने पण फले नही, तेम एक समताने छोडी जे प्राणी कष्ट क्रिया करे छे तेने रुईं फल आगल मलतुं नथी ॥ २६ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ७३ उपायः समतैवेका मुक्तेरन्यः क्रियाभरः॥ तत्तत्पुरुषभेदेन तस्या एव प्रसिद्धये ॥ २७ ॥ दिङ्मात्रदर्शने शास्त्रव्यापारः स्यान्न दूरगः ॥ अस्याः स्वानुभव: पारं सामर्थ्याख्योऽवगाहते ॥२८॥ ___ अर्थ-मुक्तिनो उपाय तो एक समता छे. बाकी क्रिया कष्ट सर्व आडंबर छे; ते पुरुषने भेदेंकरी एटले तप, जप सर्व समतानी प्रसिद्धि छे. पुरुष भेद ते गृहस्थ अने मुनिने शीले छे एटले क्रिया करवामां गृहस्थ तथा मुनिनो व्यवहार जुदो छे, पण ते बेउनी क्रिया समतायें वखाणवी एवी शास्त्रनी आज्ञा छे ॥ २७ ॥ शास्त्रना उपदेश तो जेम कोइ आंगलीवडे मार्ग बतावे, पण पोते काइ साथे आवे नही; तेम दिशिमात्रने बतावे एवा छे, पण जे शास्त्र सांभलीने पोताना अनुभवमां लावी पोताने सामर्थ्य करी पंथ अवगाहे, तेज भवाटवीनो पार पामे ॥ २८ ॥ परस्मात् परमेषा यन्निगूढं तत्त्वमात्मनः ॥ तदध्यात्मप्रसादेन कार्योस्यामेव निर्भरः ॥ २९॥ अर्थ-परपुद्लादिक वस्तु ते आत्मानी नथी, अने देखवाथी आत्मा परम पवित्र छे, आत्माने विषे आत्मतत्त्व गुप्त छे; माटे अध्यात्मने प्रसादे करी समताने विषे हर्ष उल्लास करवो ॥ २९॥ ॥ इति समताधिकारः नवमः समाप्तः ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदनुष्ठानाधिकारः परिशुद्धमनुष्ठानं जायते समतान्वयात् ॥ कतकक्षोदसंक्रांतेः कलुषं सलिलं यथा ॥ १॥ . विषं गरलाऽननुष्ठानं तहेतुरमृतं परं ॥ गुरुसेवाद्यनुष्ठानमिति पंचविधं जगुः ॥२॥ __अर्थ:-जेम कतकफलना चूर्णने योगें डोहलं पाणी निर्मल थाय तेम समताना योगथी शुद्ध अनुष्ठान प्रगट थाय छे ।। १॥ विषानुष्ठान, गरलानुष्ठान, अन्योन्यानुष्ठान, तद्धेतुअनुष्ठान ने अमृतानुष्टान ए पांच अनुष्ठान गुरुसेवादिक करणीमां कह्यां छे ॥२॥ आहारोपधिपूर्डिप्राभृत्याशंसया कृतं ॥ शीघ्र सञ्चित्तहन्तृत्वाद्विषानुष्ठानमुच्यते ॥३॥ स्थावरं जंगमं चापि तत्क्षणं भक्षितं विषं ॥ यथा हंति तथेदं सञ्चित्तमैहिकभोगतः ॥ ४ !! अर्थः-मिष्टान भोजननी लालचे, वस्त्रनी लालचे, पूजानी लालचे, दोलतनी इच्छाये, जे तप जप कष्टक्रिया करे ते क्रिया पोताना शुभ चित्तनी हणनारी छे. एर्नु नाम विषअनुष्ठान जाणवू ॥ ३ ॥ स्थावर विष ते सोमल जाणवू अने जंगम विष सादिकनुं जाण; ए बेउमाथी एक विष खाधाथी तरत मरे छे तेम भोगाभिलाषे क्रिया करवी ते शुभ चित्तने हणे छे. ॥ ४ ॥ दिव्यभोगाभिलाषेण कालांतरपरिक्षयात् ॥ स्वादृष्टफलसंपूर्तेर्गरानुष्ठानमुच्यते ॥ ५॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ यथा कुद्रव्यसंयोगजनितं गरसंज्ञितम् ॥ विषं कालांतरे हंति तथेदमपि तत्त्वतः॥ ६ ॥ ___अर्थ:-जे देवेंद्रादिकना सुख परभवें पामवानी इच्छा . करीने तपस्या करे ते प्राणी कालांतरे नरकगति पामे, कष्ट करीने अणदीठां फलनी वांछ्छा करे तेने गरलानुष्ठान कहेQ ॥५॥ जेम बंगडी चूर्ण प्रमुख निर्बलं द्रव्यने संयोगे प्रगट थतुं विष ते गरलनामा विष कहिये, ते घणा दिवस कष्ट पमाडी मारे छे, तेम ए पण तत्त्वथी नर्क फलनी प्राप्ति करे छे ॥ ६॥ निषेधायानयोरेव विचित्रानर्थदायिनोः॥ . सर्वत्रैवानिदानत्वं जिनेंद्रैः प्रतिपादितं ॥७॥ प्रणिधानाद्यभावेन कानध्यवसायिनः ॥ संमूच्छिमप्रवृत्ताभमननुष्ठानमुच्यते ॥ ८॥ अर्थः–अनेक प्रकारे महा अनर्थ उपजावे एवांए पूर्वोक्त बे अनुष्ठाननो निषेध करवाने समस्त तीर्थकरे निया' वर्जवानुं कमु छे ॥ ७ ॥ प्रणिधानादिकने अभावे कर्म जे क्रिया तेमां अध्यवसाय रहित के० शून्यपणे संमूच्छिमनी परे शून्य मननी प्रवृत्तिये अथवा देखादेखीये जे क्रिया करे ते अन्योन्यानुष्ठान कहिये ॥ ८ ॥ ओघसंज्ञात्र सामान्यज्ञानरूपा निबंधनं ॥ लोकसंज्ञा च निर्दोषसूत्रमार्गानपेक्षिणी ॥९॥ न लोकं नापि सूत्रं नो गुरुवाचमपेक्षते ॥ अनध्यवसितं किंचित्कुरुते चौघसंज्ञया ॥१०॥ अर्थः-इहां सामान्य प्रकारे ज्ञानरूपद् कारण न गवेषे, ते ओघसंज्ञा प्रवाहरूप कहिये; तेथी निर्दोष सूत्रना मार्गनी अपेक्षा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ विना लोक देखादेखीये क्रिया करे अथवा उपयोगशून्य थका जे क्रिया करे ते अन्योन्यानुष्ठान छे ॥ ९ ॥ एटले लोकनी रीत विना अने सूत्रनी तथा गुरुना वचननी अपेक्षा विना उपयोगशून्यपणे जे कांई करतुं तेनुं नाम ओघसंज्ञा छे ॥ १० ॥ शृद्धस्यान्वेषणे तीर्थोच्छेदः स्यादितिवादिनां ॥ लोकाचारादरश्रद्धा लोकसंज्ञेति गीयते ॥ ११ ॥ शिक्षितादिपदोपेतमप्यावश्यकमुच्यते ॥ द्रव्यतो भावनिर्मुक्तमशुद्धस्य तु का कथा ! ||१२|| अर्थः – जो अत्यंत शुद्ध मार्ग खोलवा जइए, तो तीर्थनो उच्छेद थाय, माटे लोकना आचार उपर आदर - श्रद्धा करवी, जेम चाले तेम चालवा दीजे, एहवां वचन बोलता जे लौकिक आचारे प्रवर्त्ते तेनुं नाम लोकसंज्ञा छे ॥ ११ ॥ अने शिक्षाग्रहण, आसेवन तथा पदसंपदाये सहित भावशून्यपणे जे आवश्यक करे ते पण द्रव्य आवश्यक कयुं छे, तो जे अशुद्ध करे तेनी तो शी वात कहिये १ ॥ १२ ॥ तीर्थोच्छेदभिया हंताविशुद्धस्यैव चादरे || सूत्रक्रियाविलोपः स्याद्गतानुगतिकत्वतः ॥ १३ ॥ धर्मोद्यतेन कर्त्तव्यं कृतं बहुभिरेव चेत् ॥ तदा मिथ्यादृशां धर्मो न त्याज्यः स्यात्कदाचन ॥ १४ ॥ अर्थ ः तीर्थनो उच्छेद थाय, तेना भयथी अशुद्ध क्रियाने विषे गाडरीया प्रवाहनी पेरे गतानुगतिकपणे आदर करतां कांह परमार्थ जाणे नहीं अने ज्ञानक्रियानो नाश करे ॥ १३ ॥ वली धमर्ना अर्थी थइने एम कहेशो के जे घणा जन Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ करे ते आपणे पण करवं, तो मिथ्यात्वधर्मना घणा सेवनार छ, माटे ते पण कोइ काले छंडाशे नहीं एम ठयु ॥ १४ ॥ तस्माद्गतानुगत्या यत् क्रियते सूत्रजितं ॥ ओघतो लोकतो वा तदननुष्ठानमेव हि ॥ १५ ॥ अकामनिर्जरांगत्वं कायक्लेशादिहोदितम् ॥ सकामनिर्जरा तु स्यात् सोपयोगप्रवृत्तितः ॥१६॥ अर्थः-माटे सूत्रनी शैली रहितपणे गतानुगतिकपणे ओघसंज्ञाये अथवा लोकसंज्ञाये जे कर, तेने अन्योन्यानुष्ठान कहेवू ॥ १५ ॥ जे अज्ञानपणे कायक्लेश करे तेने अकामनिर्जरा कहेवी, अने उपयोग सहित ज्ञानक्रिया करवी तेनुं नाम सकामनिर्जरा छे ॥ १६ ॥ सदनुष्ठानरागेण तद्धतुर्मार्गगामिनां ॥ एतच चरमावर्ते ऽनोपयोगादोर्विना भवेत् ॥१७॥ धर्मयौवनकालोऽयं भवबालदशापरा ॥ अत्र स्यात्सक्रियारागोऽन्यत्र चासत्क्रियादरः ॥१८॥ अर्थःमार्गानुसारीपुरुष शुद्ध क्रियानुष्ठानने रागे करी जे करे ते तद्धेतुअनुष्ठान कहेवाय, ते जेवारे छेलु पुद्गल परावर्त रहे, तेवारे जे क्रिया करे ते अनउपयोगे न करे. माटे ए अनुष्ठान पण तेवारेंज होय ॥ १७ ॥ छेल्ले पुद्गल परावर्ते जेवारे तद्धेतु अनुष्ठान प्रगटे तेवारे ए धर्मनो यौवनकाल प्रगट्यो; अने संसारमां बालदशा हती ते मटी गइ एम जाणवू. ए अनुष्ठाने शुद्ध क्रियानो राग उपजे छे, अने पूर्वना त्रण अनुष्ठाने अशुद्ध क्रियानो आदर उपजे छे ॥ १८॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ भोगरागाद् यथा यूनो बालक्रीडाऽखिला हिये ॥ धर्मयूनस्तथा धर्मरागेणासत्क्रियाहिये ॥ १९ ॥ चतुर्थ चरमावर्ते तस्माद्धर्मानुरागतः॥ __ अनुष्ठानं विनिर्दिष्टं बीजादिकमसंगतं ॥ २० ॥ अर्थ-जेम युवान् पुरुष भोगनो विलासी थाय छे ने बालक्रीडाथी लजवाय छे, तेम धर्म यौवनकालवंत पुरुष धर्मना रागे करी अशुद्ध क्रियाथी लजवाय छे ॥ १९॥ ते माटे ते धर्मना अनुरागथी चरम पुद्गल परावर्तेज तद्धेतु नामे चोथु अनुष्ठान कह्यु छे, पण बीजादिक जे समकित ते तो असंग के० अप्राप्त छे ॥ २०॥ बीजं चेह जनान् दृष्ट्वा शुद्धानुष्ठानकारिणः ॥ बहुमानप्रशंसाभ्यां चिकीर्षा शुद्धगोचरा ॥ २१ ॥ तस्या एवानुबंधश्चाकलंक कीर्त्यतेऽङ्करः ॥ तहेत्वन्वेषणा चित्रा स्कंधकल्पा च वर्णितां ॥२२॥ ___ अर्थः-इहां समकितरूप बीज तो तेवारे थाय के जेवारे शुद्ध क्रिया करता जीवोने देखीने बहुमान प्रशंसा करे, अने आगमविधिरागे पोते पण ज्ञाने शुद्ध विधिगोचर होय तेवारे समकित उपजे छे ॥ २१ ॥ ए तद्धेतुअनुष्ठाननो अनुबंध जे शुद्ध परिणमन ते कलंक रहित अंकुर कहिये, अने तद्धेतुअनुष्ठाननी खोल करवी ते नाना प्रकारनो स्कंध कहिये ॥ २२ ॥ प्रवृत्तिस्तेषु चित्रा च पत्रादिसदृशी मता ॥ ___ पुष्पं च गुरुयोगादिहेतुसंपत्तिलक्षणं ॥ २३ ॥ भावधर्मस्य संपत्तिर्या च सद्देशनादिना ॥ फलं तदत्र विज्ञेयं नियमान्मोक्षसाधकं ॥ २४ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ अर्थ - ते मध्ये प्रवर्त्तकं ते रूप विचित्र प्रकारनां पान - जाणवां, अने सद्गुरुना योगवडे स्वर्गमां सुखसंपदा पामवी ते रूप फूल जाणवां ।। २३ || जेवारे गुरु पासे देशना सांभळीने भावधर्मरूप संपदा पामे ते फल कहियें, ते फल मोक्ष - साधनरूप छे एम जाणं ॥ २४ ॥ सहजो भावधर्मो हि शुद्धश्चंदनगंधवत् ॥ एतद्गर्भमनुष्ठानममृतं संप्रचक्ष्यते ।। २५ ।। जैनीमाज्ञां पुरस्कृत्य प्रवृत्तं चित्तशुद्धितः ॥ संवेगगर्भमत्यतममृतं तद्विदो विदुः ॥ २६ ॥ अर्थ — सहज स्वाभाविक जे भावधर्म छे ते तो चंदननी सुगंध समान छे. ते सहित जे अनुष्ठान क्रिया करवी तेनुं नाम अमृतानुष्ठान छे ॥ २५ ॥ प्रभुनी आज्ञावडे मनशुद्धिये प्रवर्त्ते अने अत्यंतपणे संवेगगुणे सहित होय तेने गणधरादिक अमृतानुष्ठान कहे छे ॥ २६ ॥ ▾ शास्त्रार्थालोचनं सम्यक् प्रणिधानं च कर्म्मणि ॥ कालाद्यंगाविपर्यासोऽमृतानुष्ठानलक्षणं ॥ २७ ॥ द्वयं हि सदनुष्ठानं त्रयमत्रासदेव च ॥ तत्रापि चरमं श्रेष्ठं मोहोग्रविषनाशनात् ॥ २८ ॥ अर्थ - भली रीते शास्त्रना अर्थ विचारे, क्रिया मध्ये वीर्य उल्लास घरे, पंचमकालना दोष न गणे, अथवा जे काले जे उचित क्रिया होय ते क्रिया करे, ए लक्षण अमृतानुष्ठाननां जावां ।। २७ ।। ए पांच अनुष्ठानमां छेल्लां वे अनुष्ठान ए रुडां छे अने प्रथमना ऋण अनुष्ठान ते रुडां नथी, तेमां पण सर्वथा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • श्रेष्ठ तो अमृतानुष्ठान जाणवु केमके मोह के० अज्ञान तेनुं आकरूं जे विष ते ए अनुष्ठानवडे नाश पामे छे ॥ २८ ॥ आदरः करणे प्रीतिरविग्रसंपदागमः ॥ जिज्ञासातज्ज्ञसेवा च सदनुष्ठानलक्षणं ॥ २९॥ भेदैभिन्नं भवेदिच्छाप्रवृत्तिस्थिरसिद्धिभिः॥ चतुर्विधमिदं मोक्षयोजनाद्योगसंज्ञितं ॥ ३०॥ ___ अर्थ-क्रियाये आदर करतां राग धरे, तथा आगमने अति मोटी संपदानुं माने, वली जाणवानी इच्छा करे, जाणनो संग करे, ए शुद्ध क्रियानां लक्षण छे ॥ २९ ॥ तेना पण जुदा जुदा भेद छे. १ इच्छा, २ प्रवृत्ति, ३ स्थिरता, ४ सिद्धियोग. ए चार योग मोक्षने जोडे ( मोक्ष आपे ) माटे योग कहिये ॥३०॥ इच्छा तद्यत्कथा प्रीतियुक्ता विपरिणामिनी ॥ प्रवृत्तिः पालनं सम्यक् सर्वत्रोपसमान्वितं ॥३१॥ सत्क्षयोपशमोत्कर्षादतिचारादिचिंतया ॥ रहितं तु स्थिरं सिडिः परेषामर्थसाधकं ॥ ३२ ॥ अर्थ-जे गुरुनो उपदेश सांभली गुरु उपर अने कथा उपर परम प्रीति धरे-गुण परिणमे तेने पहेलो इच्छायोग कहिये. पछी गुरुना कह्या प्रमाणे समताये सहित व्रत पाले, क्रियाये सहित प्रवर्ते, ते बीजो प्रवृत्तियोग कहिये ॥ ३१ ॥ जे रुडा क्षयोपशमना उत्कर्षथी अतिचार न लगाडे अने मनस्थिरपणे प्रवर्ते ए त्रीजो स्थिरयोग कह्यो, अने निरतिचार शुद्ध क्रियामां बीमा जीवोने भेलवीने तेनो पण अर्थ सधावे ते चोथो सिद्धियोग जाणवो ।। ३२ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदा इमे विचित्राः स्युः क्षयोपशमभेदतः ॥ श्रद्धाप्रीत्यादियोगेन भव्यानां मार्गगामिनाम् ॥३३ अनुकंपा च निर्वेदः संवेगः प्रशमस्तथा ॥ एतेषामनुभावाः स्युरिच्छादीनां यथाक्रमम् ॥३४॥ ... अर्थ:-ए इच्छादिक योगना वली विचित्र भेद छे, ते क्षयोपशम भावना भेदथी छे. ते श्रद्धा प्रीति प्रमुख योगे करीने मुक्तिमार्ग पामनार भन्यजीवने होय ॥ ३३ ॥ १ करुणा, २ वैराग्य, ३ संवेग, ४ उपशम ए अनुक्रमे इच्छादिकना चार प्रकार छे ॥ ३४ ॥ कायोत्सर्गादिसूत्राणां श्रद्धामेधादिभावतः ॥ इच्छादियोगसाफल्यं देशसर्वव्रतस्पृशाम् ॥ ३५ ॥ गुडखंडादिमाधुर्यभेदवत् पुरुषांतरे ॥ भेदेऽपीच्छादिभावानां दोषो नार्थान्वयादिह॥३६॥ अर्थ कायोत्सर्गादिक आवश्यक सूत्रनुं श्रद्धापणुं जो भावथी थाय तो श्रावक तथा साधुने इच्छादिक योग सफल थाय ॥३५॥ कोइने गोल मीठो लागे छे अने कोइने खांड मीठी लागे छे. ए रीते मीठाशना स्वादमां जेम भिन्नता छे तेम ज पुरुषोनी प्रकृति भिन्न भिन्न, माटे इच्छादिक योगना जे भाव तेना पण भेद छे तो पण तेमां कांइ दूषण नथी, केमके जेम शर्करादिकनी मीठाश जुदी जुदी छे तो पण मीठाशनो अर्थ एकज छे, मिठाश गमे तेनी होय, पण तेथी मीठाशनो अर्थ सरे छे, तेमज इच्छादिक योगना भेद छे, तो पण ते थकी अर्थ जे फल ते एकज मले छे; माटे दूषण नथी एम जाणवु ॥ ३६॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ येषां नेच्छादिलेशोऽपि तेषां त्वेतत्समर्पणे ॥ स्फुटो महामृषावाद इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ३७ ॥ उन्मार्गोत्थापनं बाढमसमंजसकारणे ॥ भावनीयमिदं तत्त्वं जानानैर्योगविंशिकाम् ||३८|| त्रिधा तत्सदनुष्ठानमादेयं शुद्धचेतसा ॥ ज्ञात्वा समयसद्भावं लोकसंज्ञां विहाय च ॥ ३९ ॥ अर्थ - पण जेने शुद्ध अनुष्ठानने विषे इच्छादि योगनो लेश पण नथी, तेवा अयोग्य नरने जे इच्छादि योग आपे तेने प्रगट मृषावादनुं पाप लागे छे, एवं पूर्वाचार्य कहे छे ॥ ३७ ॥ जे अति असमंजस कारण छे, तेने विषे उन्मार्ग स्थापन थाय छेः माटे योगविशिका ग्रंथना जाण पुरुषे ए तत्त्व चितवीने सद्अनुष्ठान कर, एटले जेम तेम करीये तो उन्मार्गनुं स्थापन थह जाय || ३८ || माटे शुद्ध चेतनाये, मन-वचन-कायाये करीने सदनुष्ठान सेववां, सिद्धांतना सद्भाव जाणी लोकसंज्ञा तजीने शुद्ध क्रिया करवी ।। ३९ ॥ इति सदनुष्ठानाधिकारः दशमः ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनशुद्धिअधिकारः उचितमाचरणं शुभमिच्छतां प्रथमतो मनसः खलु शोधनं ॥ .. गदवतामयकृते मलशोधने ____कमुपयोगमुपैतु रसायनं ॥ १ ॥ अर्थ-अध्यात्मनी शुद्धि करवा माटे प्रथमथी उचितपणे शुभ आचरणनी इच्छा करवी ने मननी शुद्धता करवी जेम रोगवंत प्राणी मल-शोधन करवाने रेच लीधा विना रसायन खाय तो, तेथी तेने कांइ गुण थाय नही; केमके मल जाय तेवार पछी रसायण खाय तो गुण करे; तेम प्रथम मनशुद्धि थइ होय तोज अध्यात्मनी शुद्धि थाय ॥ १॥ परजने प्रसभं किमु रज्यते द्विषति वा स्वमनो यदि निर्मलं ॥ विरहिणामरतेर्जगतो रते रपि च का विकृतिर्विमले विधौ ॥२॥ अर्थ हे चेतन ! जो तारुं मन निर्मल छे तो लोक ताहरा उपर राग धरशे अथवा द्वेष करशे ते थकी ताहरे शुं बगाड थवानो छ ? जेम चंद्रमा निर्मल छे, पण तेना उदयथी विरही जीवो अथवा चोर लोकोने अरति उपजे छ; अने जगतना बीजा जीवोने तेथी आनंद थाय छे; पण तेथी चंद्रमाने गुण अथवा अवगुण काइज थतां नथी ॥ २ ॥ रुचितमाकलयन्ननुपस्थितं स्वमनसैव हि शोचति मानवः ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ उपनते स्मयमानमुखः पुन भवति तत्र परस्य किमुच्यतां ॥ ३ ॥ अर्थ - रुडी वस्तु मनमां चितवी मनोरथ कीधो, अने ते मनोरथ निपनो नही, तेवारे ते प्राणी पोताना मनमां शोक धरे छे, अने जेवारे ते धारेली वस्तु मले छे तेवारे खुशी थाय छे; ए हर्ष-शोकनो कर्त्ता आत्मा ने एक मनज छे: तो बीजाये महारुं सारं नरसुं कर्यु एम शुं कहे ? ॥ ३ ॥ चरणयोगघटान्प्रविलोठयन् शमरसं सकलं विकिरत्यधः ॥ चपल एष मनः कपिरुचकै रसवणि विदधातु मुनिस्तु किं ॥ ४ ॥ अर्थ – मन मांकडा जेवुं छे केमके ते चारित्रना योगरूप घृतना घडाने ऊंधा वाले छे, तथा समतारूपी अमृतरसना घडाने ढोली नाखे छे; एवं ए चपल मन ते खरेखरुं वांदरुं छे. तेनी आगल मुनिरूप रस वाणिज्यनो करनार वाणीयो बिचारो शुं करे १४ ॥ सतत कुट्टितसंयमभूतलोत्थितरजोनिकरैः प्रययंस्तमः ॥ अतिदृढैश्च मनस्तुरगोगुणै रपि नियंत्रित एष न तिष्ठति ॥ ५ ॥ अर्थ-ली मुनये चारित्रे करी कर्मरूपी धूलने दावी नाखी हती, पण मनरूपी घोडाये नित्य कुदी कुदीने संयमरूप भूमिनुं तलियुं उखेडयुं; तेथी कलुषतारूप रज ऊडी, तेहना समूहे Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ करी अज्ञानरूप अंधकार थयो, एवो अति आकरो ए मनरूप घोडो छे, ते श्रतरूपी दोरडे बंधायो छतो तोफान करे छे, पण समो रहेतो नथी ॥ ५ ॥ जिनवचोघनसारमलिम्लुचः कुसुमसायकपावकदीपकः ॥ अहह कोपि मनः पवनो बली शुभमतिद्रुम संततिभंगकृत् ॥ ६ ॥ अर्थ -- एक कौतुक जुवो के मनरूपी वायु महाबलवान् छे, केमके रुडी बुद्धिरूप वृक्षने भांगी नाखे छे तथा जिन वचनरूप बरासनो चोर छे; वली कंदर्परूप अग्निनो दीपावनार छे || ६ || चरणगोपुरभंगपरः स्फुरत्समयबोधतरूनपि पातयन् ॥ भ्रमति यद्यतिमत्तमनोगजः क कुशलं शिवराजपथे तदा ॥ ७ ॥ अर्थ-वली मनरूप हाथी छे, ते चारित्ररूप नगरना दरवाजा भांगतो थको प्रसरे छे, सिद्धांतना बोधरूपी वृक्षने पण पाडतो थको भमे छे, एवो मदोन्मत्त मनरूपी हाथी दोडादोड करे छे, तेवारे साधुने मोक्षमार्गे जतां कुशलता ते क्यांथी होय ! ॥ ७ ॥ व्रततरून् प्रगुणीकुरुते जनो दहति दुष्टमनोदहनः पुनः ॥ ननु परिश्रम एष विशेषवान् । क भविता सुगुणेपवनोदये ॥ ७ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ--जे साधु छे ते व्रतरूपी वृक्षे फली वाडीने चेतन ज्ञान अमृतरसवडे सींचीने नवपल्लव करे छे; पण दुष्ट मनरूप जे अग्नि ते वली वाडीने वाली नांखे छे तो रुडा गुणरूप वाडीमां गुणरूप वायराने उदयें मुनिनी महेनत ते केम करीने सफल थाय ? ॥ ८॥ अनिगृहीतमना विदधत्परां न वपुषा वचसा च शुभक्रियां ॥ गुणमुपैति विराधनयाऽनया ___ बत दुरतंभवभ्रममचति ॥९॥ अर्थ-एक मननो निग्रह कर्या विना वचने तथा कायाये जेटली शुभ क्रिया करे ते उपयोगशून्यताये-अविधिये करे, अने ते अविधिनो करनारो तो आवश्यकसूत्रने विषे छकायनो विराधक कह्यो छे; माटे ते गुण न करे. जे शून्य मने क्रिया करनारो ते विराधक छे, माटे शून्य क्रिया करतो विराधकपणे संसारने विषे घणा भव भमशे ॥ ९ ॥ अनिगृहीतमनाः कुविकल्पतो नरकमृच्छति तंदुलमत्स्यवत् ॥ इयमभक्षणजा नहि जीर्णता ऽनुपनतार्थविकल्पकदर्थना ॥१०॥ अर्थः-मन वश कीधा विना जे तप-जप करे, वळी मनमा कुविकल्प धणा थाय तेथी ते तंदुलमच्छनी परे नरके पडे, ए कुविकल्प करतो थको जो उपवास करे, तप करे, तेथी तेने मात्र अजीर्ण थाय; केमके अणपाम्या अर्थनो विकल्प करे तेनी कदर्थना अजीर्णनुं कारण छे ॥१०॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनसि लोलतरे विपरीतता वचननेत्रकरेंगितगोपना ॥ व्रजति धूर्ततया ह्यनयाखिलं निबिडदंभपरैर्मुषितं जगत् ॥ ११ ॥ अर्थ--जो मन चपळ छे तो वचनगुप्ति करे तथा नेत्रने गोपवे, इंगितआकार चेष्टा विना काउस्सग्ग करे, ते सर्व विपरीत जाणवू. ते सर्व धूर्ततापणाने पामे; अने एवी रीते धूर्तपणे कपट क्रियाना करनारा ते मोटा चोर छे. जगतने लुटनारा छे ।।११॥ मनस एव ततः परिशोधनं नियमतो विदधीत महामतिः ॥ इदमभेषजसंवननं मुनेः __ परपुमर्थरतस्य शिवश्रियः ॥ १२॥ अर्थ ते माटे मनने भली रीते निश्चयथकी शोधन करे तेज पंडितने मनोशुद्धिरूप चूर्ण छे, अने परम पुरुषार्थने विषे राता जे मुनि तेने मुक्ति स्त्रीने वश करवानुं औषध छे ॥१२॥ प्रवचनाजविलासरविप्रभा प्रशमनीरतरंगतरंगिणी ॥ हृदयशुद्धिरुदीर्णमदज्वर प्रसरनाशविधौ परमौषधं ॥ १३ ॥ अर्थः-सिद्धांतरूप कमलने विकसित करवाने मनशुद्धि ते सूर्यना प्रकाशरूप छे, उपशमरूप जलकल्लोल वधारवाने मनशुद्धि ते नदीरूप छे, वली प्रसरतो थको एहवो मदरूप जे Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ताप तेने टालवाने मनशुद्धि ते परम सुन्दर ( जडीबुडी ) औषध छे ।। १३ ।। अनुभवामृतकुंडमनुत्तर व्रतमरालविलासपयोजिनी ॥ सकलकर्म कलंकविनाशिनी मनस एव हि शुद्धिरुदाहृता ॥ १४ ॥ अर्थ - वली मनशुद्धि अनुभवनो मोटो अमृतकुंड छे; तथा चारित्ररूप हंसने रमवाने कमलिनी छे, अने सर्व कर्मकलंक हरवाने अनि समान मन शुद्धिने कही छे ॥ १४ ॥ प्रथमतो व्यवहारनयस्थितोऽशुभविकल्प निवृत्तिपरो भवेत् ॥ शुभविकल्पमयव्रत सेवया हरति कंटक एव हि कंटकं ॥ १५ ॥ अर्थ – प्रथमथी व्यवहारनये रह्यो एहवो जे पुरुष ते अशुभ विकल्पनी निवृत्ति जे नाश कर तेने विषे तत्पर थईने शुभ विकल्पमय जे व्रत तेनी सेवा करे; तेथी अशुभपं टली जाय. जेम कांटा वडे कांटो नीकळी जाय छे तेनी परे ॥ १५ ॥ विषमधीत्य पदानि शनैः शनै हरति मंत्रपदावधि मांत्रिकः ॥ भवति देशनिवृत्तिरपि स्फुटा गुणकरी प्रथमं मनसस्तथा ॥ १६ ॥ अर्थ — जेम मंत्रवादी पुरुष मंत्रपद समाप्ति सुधी मंत्रना शब्द धीमे धीमे मनमां भणे, पण विषने टाले; तेम जे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ देशथी निवृत्ति करे ते पण प्रगटपणे प्रथम मनने गुणकारी थाय ।। १६ ।। स्फुटमसद्विषयव्यवसायतो लगति यत्र मनोऽधिक सौष्ठवात् ॥ प्रतिकृतिः पदमात्मवदेव वा तदवलंबनमत्र शुभं मतं ॥ १७ ॥ अर्थ — जे देखतांज नबळो अने भुंडो एहवो जे विषय तेना व्यापारथी जे नरनुं चित्त घणी चतुराईथी जे वस्तुने विषे लागे वस्तु आत्माने साथै जोडीये तेवारे तेनुं प्रतिबिंब भासे, पण ते आत्मधर्म नहीं, तोपण अध्यात्म रीते तेनुंज अवलंबन रुडुं कह्युं छे ॥ १७ ॥ तदनु काचन निश्चयकल्पना विगलित व्यवहार पदावधिः ॥ न किमपीति विवेचनसंमुखी भवति सर्वनिवृत्तिसमाधये ॥ १८ ॥ अर्थ - पछी कांईक निश्चय कल्पना थइ, अने व्यवहार पदनी मर्यादा मलित थई “ एगोहं नत्थि मे कोई " एवी वहेंचण चेतना सन्मुख थई वारे सर्वनिवृत्तिरूप समाधि थाय ॥ १८ ॥ " इह हि सर्वबहिर्विषयच्युतं १२ हृदयमात्मनि केवलमागतं ॥ चरणदर्शमबोधपरंपरा परिचितं प्रसरत्यविकल्पकम् ॥ १९ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अर्थ-जेवारे सर्व बाह्य विषयथी हृदय खस्युं तेवारे पोताना आत्माने विषे केवल एकज ज्ञान, दर्शन, चारित्रना बोधनी परंपरा जे आत्मकुटुंब छे, तेनो मिलाप ते निर्विकल्पपणे प्रसरे, ओलखाण थाय एम जाणवू ॥ १९ ॥ तदिदमन्यदुपैत्यधुनापि नो नियतवस्तुविलास्यपि निश्चयात् ॥ क्षणमसंगमुदीतनिसर्गधी__ हतबहिर्ग्रहमंतरुदाहृतम् ॥ २० ॥ अर्थ-निश्चयनयथकी ए आत्मा ते खरी शुद्ध वस्तुनो विलासी छे, ते माटे हमणां अन्य जे रागद्वेषादि भाव तेने न पामे; वली क्षणमात्र पण जे परपुद्गलादिकनो संग न करे, एवी स्वाभाविक बुद्धि थई तेथी बाह्य भाव हण्यो, अने अंतरंग उत्कृष्टभावने पाम्यो ॥ २० ॥ कृतकषायजयः सगभीरिम, प्रकृतिशांतमुदात्तमुदारधीः ॥ स्वमनुगृह्य मनोऽनुभवत्यहो __ गलितमोहतमः परमं महः॥ २१ ॥ ___ अर्थ-एहवो जे गंभीर स्वभाववालो, जेणे कषायनो जय मेलव्यो छे अने जेनी बुद्धि मोटी छे, अने स्वभावे शांत छे, ते जो सम्यक्प्रकारे मननो निग्रह करे तो तेथी मोहांधकारने गालीने परम महातेजस्विपणानो ते प्राणी जरूर अनुभव पामे ॥ २१॥ गलितदुष्टविकल्पपरंपरं धृतविशुद्धि मनो भवतीदृशं । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धृतिमुपेत्य ततश्च महामतिः समधिगच्छति शुभ्रयशः श्रियं ॥ २२ ॥ अर्थ-जेणे माठा विकल्पनी श्रेणि टाली छे अने विशुद्धतानुं ग्रहण की, छे ते मनोशुद्धिने पामे, अने वली संतोषीपणाने पामीने ते पंडित पुरुष उज्ज्वल यशरूप लक्ष्मी अथवा यशशोभाने पामे ॥ २२ ॥ इति मनशुद्धिनामाएकादशोधिकारः समाप्तः ॥ इतिश्री पंडित यशोविजयेन विरचितेऽध्यात्मसारप्रकरणे तृतीयः प्रबंधः ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वाधिकारः मनशुद्धिश्च सम्यक्त्वे सत्येव परमार्थतः ॥ तद्विना मोहगर्भा सा प्रत्यपायानुबंधिनी ॥१॥ सम्यक्त्वसहिता एव शुद्धा दानादिकाः क्रियाः॥ तासां मोक्षफले प्रोक्ता यदस्य सहकारिता ॥२॥ अर्थ-ए पूर्वे मनशुद्धि कही ते जो सम्यक्त्व गुण होय तो निश्चे मनशुद्धि कहेवाय, पण सम्यक्त्व विना जे मनशुद्धि माने ते मोहगर्भित होय एटले अज्ञान सहित होय, ते तो ऊलटी कष्टबंधन करनारी छे माटे हवे सम्यक्त्वनो अधिकार कहे छे ॥१॥ दानादिक क्रिया पण सम्यक्त्व सहित होय तोज शुद्ध छे ते क्रिया मोक्षफल लेवाने सहायकारक छे ॥ २॥ कुर्वाणोऽपि क्रियां ज्ञातिधनभोगांस्त्यजन्नपि ॥ दुःखस्योरो ददानोऽपि नांधो जयति वैरिणं ॥३॥ कुर्वन्निवृत्तिमप्येवं कामभोगास्त्यजन्नपि ॥ दुःखस्योरो ददानोऽपि मिथ्यादृष्टिर्न सिध्यति ॥४॥ अर्थ-जेम आंधलो वैरीने जीती शकतो नथी तेम क्रिया करे छे, न्याति धननो भोग तजे छ, दुःख सहे छे, कायाने कष्ट आपे छे; पण ए सर्व सम्यक्त्व विना व्यर्थ जाय छे ॥३॥ जो संतोष धरे, कामभोग छोडे, कायाने कष्ट आपे, तो पण मिथ्यात्वी थको मुक्तिने पामे नही ॥४॥ कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभं॥ सम्यक्त्वमुच्यते सारः सर्वेषां धर्मकर्मणां ॥५॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वश्रद्धानमेतच गदितं जिनशासने॥ सर्वे जीवा न हंतव्याः सूत्रे तत्त्वमितीष्यते ॥६॥ ___ अर्थ-जेम आंखमां कीकी सारभूत छे, फूलमां सुगंध सारभूत छे तेम सर्व धर्मक्रियामां सम्यक्त्व ते सारभूत कयु छे ॥५॥ जिनशासनने विषे जे तत्वनी श्रद्धा करवी तेहने सम्यक्व कयुं छे, अने कोई पण जीवने हणवो नही तेने सूत्रपां तत्र कह्यु छे ॥ ६॥ शुद्धो धर्मोऽयमित्येतद्धर्मरुच्यात्मकं स्थितं ॥ शुद्धानामिदमन्यासां रुचीनामुपलक्षणं ॥७॥ अथवेदं यया तत्त्वमाज्ञयैव तयाखिलं ॥ नवानामपि तत्त्वानामिति श्रद्धोदितार्थतः ॥ ८॥ अर्थ-जे शुद्ध धर्म ते ए धर्मरुची नामा सम्यक्त्वनेज कहिये अने ए मध्ये उपलक्षणथी बीजी पण शुद्ध पदार्थनी रुचीओ प्रगटे छे ॥ ७ ॥ अथवा ए सम्यक्त्व ते प्रभु आज्ञारूप तत्त्वे प्रगटे छे. ते तच तो जीवादिक नव प्रकारे छे, तेनी जे श्रद्धा ते सम्यक्त्व जाणवू ॥ ८ ॥ इहैव प्रोच्यते शुद्धाऽहिंसा वा तत्वमित्यतः॥ सम्यक्त्वं दर्शितं सूत्रप्रामाण्योपगमात्मकं ॥९॥ शुडाऽहिंसोक्तित: सूत्रप्रामाण्यं तत एव च ॥ .. अहिंसाशुद्धधीरेवमन्योऽन्याश्रयभीर्न तु ॥१०॥ अर्थः—बली इहां तत्त्व ते अहिंसारूप शुद्ध तत्त्व छे. ते तत्र शुद्धाचार प्रमाणे विचारीए, तेवारें आत्माने अभिन्नस्वरूपे सम्यक्त्व देखाडयुं छे ।। ९ ॥ अने शुद्ध अहिंसा कही ते Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रे प्रमाण छे; ए बेहुनी मात्र वचनेज जुदाई छे. ते माटे एक अहिंसा तथा बीजी तत्त्वशुद्धि ए बेहुने मांहोमाहे मेलवतां दूषण नथी; एक स्वरूपे छे ॥ १० ॥ नैव यस्मादहिंसायां सर्वेषामेकवाक्यता ॥ तच्छुडतावबोडश्च संभवादिविचारणात् ॥ ११ ॥ यथाऽहिंसादयः पंच व्रतधर्मयमादिभिः॥ पदैः कुशलधर्माद्यैः कथ्यते स्वस्वदर्शने ॥ १२ ॥ अर्थःकेमके अहिंसाने विषे सर्वनी एकवाक्यता नथी, तो पण विचारी जोतां शुद्ध अवबोध जणाय छे ॥ ११ ॥ जेम अहिंसादिक पांच व्रत ते धर्म छे तेम सर्व पोतपोताना दर्शनने विषे कुशलथका धर्म आदे देइ यमादिक पदे करीने व्रत कहे छे ।। १२ ॥ प्राहुर्भागवतास्तत्र व्रतोपव्रतपंचकम् ॥ यमांश्च नियमान् पाशुपतान् धर्मान् दशाभ्यधुः॥१३॥ अहिंसा सत्यवचनमस्तैन्यं चाप्यकल्पना ॥ ब्रह्मचर्य तथाऽक्रोधो ह्यार्जवं शौचमेव च ॥१४॥ अर्थःतेमां भागवत मतवाला एम बोले छे, के पांच व्रत अने पांच उपव्रत मलीने दश छे. एम पाशुपतमतवाला दश प्रकारे धर्मदिशा माने छे. ते यम-नियमादिक दश कही बतावे छे ॥ १३ ॥ दया, सत्य वचन, अचोरी, अकल्पना अने ब्रह्मचर्य ए पांच यम तथा अक्रोध, सरलता, शौच, संतोष अने गुरुसेवा, ए पांच नियम जाणवा ॥१४॥ संतोषो गुरुशुश्रूषा इत्येते दश कीर्तिताः ॥ निगद्यते यमाःसांख्यै रपिव्यासानुसारिभिः ॥१५॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा सत्यमस्तैन्यं ब्रह्मचर्य तुरीयकं ॥ पंचमो व्यवहारश्चेत्येते पंच यमाः स्मृताः ॥ १६ ॥ ___ अर्थ:-ए दश धर्मदशा कहेवाय. हवे वेदव्यासना मतानुसारी सांख्यमतवाला पण यम नियम एम कहे छे ॥ १५ ॥ दया, सत्य,अचोरी,ब्रह्मचर्य, व्यवहार ए पांच यम जाणवा ॥१६॥ अक्रोधो गुरुशुश्रूषा शौचमाहारलाघवं ॥ अप्रमादश्च पंचैते नियमाः परिकीर्तिताः ॥ १७ ॥ बौडैः कुशलधाश्च दशेष्यते यदुच्यते ॥ हिंसास्तेयान्यथाकामं पैशुन्यं परुषानृतं ॥ १८॥ अर्थ:-अक्रोध, गुरुसेवा, शौच, अल्पाहार, अप्रमादए पांच नियम कह्या छे ।। १७ ॥ अने बौद्धदर्शनमां जे कुशल छे ते धर्मवाला पण दश प्रकारे कहे छे, तेम कहिये छीए; हिंसा, चौरी, कंदर्प, चाडी, कठोर वचन अने जूठु बोलवु ॥ १८ । संभिन्नालापव्यापाद मभिध्यागविपर्ययं ॥ पापकर्मेति दशधा कायवाङमनसैस्त्यजेत् ॥१९॥ ब्रह्मादिपदवाच्यानि तान्याहुर्वैदिकादयः ॥ अतः सर्वैकवाक्यत्वाद्धर्मशास्त्रमदोऽर्थकं ॥२०॥ ___अर्थ:-जेमतेम बकवू, मारवू, अब्रह्म सेववं,-दृष्टिविपर्यास, ए दश प्रकारे पापकर्म ते मन, वचन अने काया ए त्रणे योगे करी त्यजवा ॥ १९ ॥ अने वैदिकादिक मतवाला पण ब्रह्मादिक पद बोले छे, जे सर्वत्र ब्रह्मपद छे, एथी ए सर्व धर्मवालानां एकवचन छे, माटे सार्थकपणे सर्वने धर्मशास्त्र कहिये ॥ २० ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क चैतत्संभवो युक्त्त इति चिंत्यं महात्मना॥ शास्त्र परीक्षमाणेना व्याकुलेनांतरात्मना ॥२१॥ प्रमाणलक्षणादस्तु नोपयोगोत्र कश्चन ॥ तन्निश्चयेऽनवस्थानादन्यथार्थस्थितेर्यतः ॥ २२॥ ___ अर्थ:-ते माटे ए सर्वदर्शननो संभव किहां ठेकाणे छे, एम मोटा पुरुषे चितव, ते शास्त्रनी परीक्षावालाए विचारवं, ते वली अव्याकुलपणे अंतरात्मावडे विचारवं ॥ २१ ॥ इहां प्रमाणलक्षणादिकथकी कशोए उपयोग कार्यकारी नथी, जिहां अन्यथा अर्थ उपजे एटले ते धर्म जुदो थइ जाय अने धर्म तो एक स्वभावरूप छे ॥ २२ ॥ प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारश्च तत्कृतः॥ प्रमाणलक्षणस्योको ज्ञायते न प्रयोजनं ॥ २३ ॥ तत्रात्मा नित्य एवेति येषामेकांतदर्शनं ॥ हिंसादयः कथं तेषां कथमप्यात्मनोव्ययात् ॥२४॥ अर्थः-अने चार प्रमाण तो प्रसिद्ध छे, व्यवहार पण तेज कह्यो छे; माटे प्रमाण तथा लक्षणनी युक्ति विषे प्रयोजन जणातुं नथी॥ २३ ॥ ते मध्ये वे नये करी आत्मा नित्यज छे, एवं एकांत मतवालानु कहेवू छे. तेने मते तो हिंसादिक नथी. केमके आत्मा अविनाशी छे, ते कोइवारे मरे नहीं, अने मरे नहीं तेवारे हिंसा पण शानी ? ॥ २४ ।। मनोयोगविशेषस्य ध्वंसो मरणमात्मनः ॥ हिंसा तचेन्न तत्त्वस्य सिद्धेरार्थसमाजतः ॥ २५ ॥ नैति बुद्धिगता दुःखोत्पादरूपेयमौचितिम् ॥ पुंसि भेदाग्रहात्तस्याः परमार्थोऽव्यवस्थितः ॥२६॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ अर्थ :- सघळे मरणे मनोयोग नाश पामे छे तेवारे लोक कहे छे के जीव मुवो, पण आत्मा तो मरतो नथी; माटे तत्त्वथकी आत्मानी हिंसा नथी ए अर्थ घटमान छे एम कहे छे. ॥ २५ ॥ कोई जाशे जे आगल दुःख उपजावानी जे बुद्धि तेहने हिंसा कहिये, पण ए वात योग्य नथी; केमके तमे बुद्धिने तो पुरुषभेद आग्रहथकी आत्माथी भिन्न मानो छो, तेथी पण आत्मानी हिंसा न थई केमके परमार्थे बुद्धिने आत्मा साथे व्यवस्था नथी || २६ ॥ न च हिंसापदं नाशपर्यायं कथमप्यहो । जीवस्यैकांत नित्यत्वे ऽनुभवाबाधकं भवेत् ॥ २७ ॥ शरीरेणापि संबंधो न तद्योगाविवेचनात् ॥ विभुत्वेनैव संसारः कल्पितः स्यादसंशयं ॥ २८ ॥ अर्थः- एकांते नित्यपणे जीवनो नाश थवानो जे पर्याय हिंसा पद कवाय, तेहने अहो इति आश्चर्य ! अनुभव अबा - धकपणे न होय शुं ? होयज इति काकोति ॥ २७ ॥ नित्यपणे शरीरे करीने पण संबंध नथी, केमके तेना योगनी वहेंचण नथी; माटे संशय रहितपणे ईश्वरखडे करीनेज ईश्वरकर्त्ता इत्यादिक संसार कल्प्यो छे ॥ २८ ॥ आत्मक्रियां विना च स्यान्मितानुग्रहणं कथं ! ॥ कथं संयोगभेदादिकल्पना चापि युज्यते ॥ २९ ॥ अदृष्टादेहसंयोगः स्यादन्यतरकर्म्मजः ॥ इत्यं जन्मोपपत्तिश्चेन्न तद्योगाविवेचनात् ॥ ३० ॥ अर्थ: - एक आत्मक्रिया विना एटले आत्माना व्या १३ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार विना परिमित परमाणुनुं ग्रहण केम थाय ? वली संयोगवियोगादिकनी कल्पना पण केम घटे ? ॥ २९ ॥ एम सांभलीने कोई बोल्यो के- हरकोई कर्मथी पूर्व संस्कार दिठा विना शरीरनो संयोग थाय छे, तेनो उत्तर आपे छे. एम जन्मनी उत्पत्ति ते जीवना व्यापार विना-वेंचण विना थाय नही, इति भावार्थः ॥ ३०॥ कथंचिन्मूर्ततापैतिर्धिना वपुरसंक्रमात् ॥ व्यापारयोगतश्चैव यत्किचित्तदिदं जगुः ॥ ३१ ॥ नि:क्रियोऽसौ ततो हति हन्यते वा न जातुचित् ॥ किंचित्केनचिदित्येवं न हिंसाऽस्योपपद्यते ॥ ३२॥ - अर्थः-शरीरने संयोगे तो जीव काईक रूपीपणुं पामे छे. जो शरीरनो संक्रम न होय तो जे कांई छे ते इहां कहे छे ॥ ३१ ॥ जेणे आत्मा त्यागी कीधो छे ते एम कहे छे के आत्मा क्रिया रहित छे, माटे कोइने हणतो नथी तेम कोइ काले कोइथी हणातो पण नथी; एबुं जेना चित्तमा छे ते हिंसा नहीं माने ॥ ३२॥ अनित्यैकांतपक्षेऽपि हिंसादीनामसंभवः । नाशहेतोरयोगेन क्षणिकत्वस्य साधनात् ॥ ३३ ॥ न च संतानभेदस्य जनको हिंसको भवेत् ॥ सांवृतत्वादजन्यत्वाद् भावत्वनियतं हि तत् ।३४। ___अर्थ:-एम एकांते अनित्यवादीने पक्षे हिंसा नथी मनाती, केमके ते सर्व पदार्थ क्षणरूप माने छे; माटे आत्मा क्षणमां नाशरूप छे, ते पोतानी मेलेज मरे छे तेवारे मानार Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु कोई नथी माटे हिंसा नथीज ॥ ३३ ॥ पुत्र-पुत्री प्रमुखनो कोइ बाप नथी तेम कोइ मारनार पण नथी; ए जगत् सर्व क्षणिक भावनो नियम छे, अनित्य छे; माटे कोइ प्रगट करनार नथी. तेवारे पिता कोनो अने पुत्र कोनो १ ॥ ३४ ॥ नरादिः क्षणहेतुश्च शूकरादेर्न हिंसकः ॥ शूकरांत्यक्षणेनैव व्यभिचारप्रसंगतः ॥ ३५ ॥ अनंतरक्षणोत्पादे बुद्धलुब्धकयोस्तुला॥ नैवं तद्विरतिः कापि ततः शास्त्राद्यसंगतिः ॥३६॥ अर्थः-मनुष्य क्षणमात्र छे अने पछी सुअरना मरणने अंतकालना क्षणमां ते मनुष्य नथी, माटे सुअरने मारनार कोण छे ? एहवा बोलनारने पण प्रसंगथी व्यभिचार आवे छे ॥ ३५ ॥ तथा सुअरने मायुं अने मरणने बीजे समये ज्ञानी तथा आहेडी ए बे सरिखा छे. सुअर मरण पाम्युं ते ए बे जणे जाण्युः माटे हवे ए बेमांथी कोइने मारवानी मति नथी. ते माटे मारनार तथा मरनार सर्वनां क्षणे क्षणे उत्पत्ति तथा मरण छे, पण कोइ क्षणे कांइ विरति नथी, एम कहे छे ए मतवालानां शास्त्र पम जूठां छे ॥ ३६॥ घटन्ते न विनाहिंसां सत्यादन्यिपि तत्वतः॥ एतस्यावृत्तिभूतानि तानि यद्भगवान जगौ ॥३७॥ मौनींद्रे च प्रवचने युज्यते सर्वमेव हि ॥ नित्यानित्ये स्फुटं देहाद्भिन्नाभिन्ने तथात्मनि ॥३८॥ ___ अर्थः-केमके अहिंसा विना सत्यादिक धर्म पण घटे नहीं अने सत्यादिक धर्म ने छे ते जीवदयारूप क्षेत्रनी वाड Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० छे, एवं केवली कहे छे || ३७ ॥ जिनशासनने विषे तो ए सर्व घटमान छे, शरीरथी प्रगटपणे नित्य छे, वळी अनित्य पण छे; तेमज भिन्नाभिन्नपणुं छे; तथा एकपणुं छे अने अनेकपणं पण छे; वली आत्माने विषे पण तेमज कहेतुं ॥ ३८ ॥ आत्मा द्रव्यार्थतो नित्यः पर्यायार्थाद्विनश्वरः ॥ हिनस्ति हन्यते तत्तत्फलान्यप्यधिगच्छति ॥ ३९ ॥ इह चानुभव: साक्षी व्यावृत्यान्वयगोचरः ॥ एकांतपक्षपातिन्यो युक्तयस्तु मियो हताः ॥ ४० ॥ अर्थ — आत्मा द्रव्यार्थिकन ये नित्य छे अने पर्यायार्थिकनये अनित्य छे; ए जीव कोइने हणे छे, अथवा कोइ ए जीवने हणे छे, तेनां फल परभवमां आत्मा भोगवे छे ॥ ३९ ॥ ए जैननी शैलीये अन्वय अने व्यतिरेक ए बे गुणे सहित एवो जे अनुभव ते साक्षी करतां थकां एकांत मतवालानी युक्तियो मामा हाइ जाय छे ॥ ४० ॥ पीडाकर्तृत्वतो देहव्यापस्या दुष्टभावतः ॥ त्रिधा हिंसागमे प्रोक्ता न हीत्थमपहेतुका ॥४१॥ हंतुजप्रति को दोषो हिंसनीयस्य कर्म्मणि ॥ प्रसक्तिस्तदभावे चान्यत्रापति मुधा वचः ॥४२॥ अर्थ - पीडा करवाथी, देहपीडाथी, दुष्टभावथी, एवा त्रण प्रकारनी हिंसा सिद्धांतमां कही छे, ते कांइ जूठी नथी ॥ ४१ ॥ जे प्राणीनुं स्वकृत कर्मनो उदय थये थके मृत्यु थयुं तो तेना हणनारने शो दोष छे ? एटले हिंसा न थइ; अने जे हणाणो तेनां कर्म उदय आव्यां, ते तेणे भोगव्यां तो तेमां शी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा छे ? केमके जे जीवने मरणनो उदय हाल नथी तेने मारिये तो पण ते काइ मरतो नथी; माटे हिंसा कोइनी थती नथी, एवं जे माने छे ते मिथ्या छे ।। ४२ ॥ हिंस्यकर्मविपाकस्य दुष्टाशयनिमित्तता॥ हिंसकत्वं न तेनेदं वैद्यस्य स्याद्रिपोरिव ॥ ४३ ॥ इत्थं सदुपदेशादेस्तन्निवृत्तिरपि स्फुटा॥ सोपक्रमस्य पापस्य नाशात्स्वाशयवृद्धितः ॥४४॥ ___अर्थ-केमके जे प्राणीना मनमां दुष्ट आशयनुं निमित्त छे तेने ए हिंसा छेअने हिंसाना कर्मविपाक पण तेनेज छे. जो वैद्यने औषध करतां दुष्ट चित्त होय तो ते औषध शत्रु सरखं थाय, अने ते वैद्यने पण हिंसकपणुं लागे. अने जो वैद्यनुं मन निर्मल छे तो वैद्यने हिंसकपणुं न लागे ॥ ४३ ॥ एवा सद्गुरुना उपदेश सांभलवाथी हिंसानी निवृत्ति प्रगटपणे थाय. निर्मल चित्तना आशयनी वृद्धिथकी सोपक्रमी जे अनिकाचित बांधेलां पाप तेनो नाश थाय छे. ॥ ४४ ॥ अपवर्गतरो/जं मुख्याहिंसेयमुच्यते ॥ सत्यादीनि व्रतान्यत्र जायंते पल्लवा नवाः॥४५॥ अहिंसासंभवश्चेत्यं दृश्यतेनैव शासने ॥ अनुबंधादिसंशुद्धिरप्यत्रैवास्ति वास्तवी ॥४६॥ अर्थ:-जे अहिंसा ते मोक्षरूप वृक्षनुं बीज कहिये, अने सत्यादिक जे व्रत छे ते मोक्षरूप वृक्षना नवपल्लव अंकुरा छे ॥ ४५ ॥ ते तो आ जिनशासनमा जीवदयानो, अहिंसकपणानो संभव जोवामां आवे छे अने वली अनुबंधहिंसा तथा हेतुहिंसा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अने स्वरूपहिंसा ए त्रण जातनी जे हिंसा तेनी शुद्धि ते पण आ जिनशासनमांज वसी रही छे ॥ ४६॥ हिंसाया ज्ञानयोगेन सम्यग्दृष्टेमहात्मनः ॥ तप्तलोहपदन्यासतुल्याया नानुबंधनं ॥४७॥ सतामस्याश्च कस्याश्चिद् यतनाभक्तिशालिनां ॥ अनुबंधो यहिंसाया जिनपूजादिकर्मणि ॥ ४८ ॥ अर्थः-मोटा प्राणी जे सम्यग्दृष्टि ते ज्ञानयोगे करी वर्ते छे, तेने पण अविरतिथी हिंसा लागे छे, ते केवी छे ? जेम तपाव्युं एवं जे लोढुं ते उपर पग मूकी कोई चाले, पण बलवाने भये निःशंकपणे पग ठरावे नहीं, तेम समकिती पण निःशंकपणे हिंसा न करे, अने ते माटेज नरकनो बंध पण करे नहीं ॥४७॥ तेम रुडा जयणावंत जीवने ज्ञानयोगे करी जिनपूजा करतां अहिंसा जे दया तेनो अनुबंध छे केमके ए पूजा ते परंपराये मुक्तिफलनी आपनारी छे ॥ ४८ ।।। हिंसानुबंधिनी हिंसा मिथ्यादृष्टस्तु दुर्मतेः॥ __ अज्ञानशक्तियोगेन तस्याहिंसापि तादृशी ॥४९॥ येन स्यान्निवादीनां दिविषदुर्गतिः क्रमात् ॥ हिंसैव महती तिर्यङ्नरकादिभवांतरे ॥५०॥ ___ अर्थः–पण नरकगतिनो बंध पडे एवी जे हिंसा ते मिथ्यात्वी दुर्मतिने होय, अज्ञानने योगे करी ते मिथ्यात्वी जो जीवदया पाले तो ते पण हिंसा जेवीज जाणवी ॥ ४९ ॥ जे कारण माटे निन्हवादिक जमाली प्रमुखे पण जीवदया पाली छे, तोपण अज्ञानोदयना योगे स्वर्गमां पण दुर्गति पाम्या छे, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ अने ढेडरूप छे; माटे निन्हवनी जे अहिंसा ते परमार्थे हिंसानां ज फल आपे, केमके भवांतरे तेमने तिर्यंच नरकादिकनी गति प्रगटे छे ॥ ५० ॥ साधूनामप्रमत्तानां सा चाहिंसानुबंधिनी || हिंसानुबंध विच्छेदाद्गुणोत्कर्षो यतस्ततः ॥ ५१ ॥ मुग्धानामियमज्ञत्वात् सानुबंधा न कर्हिचित् ॥ ज्ञानोद्रेकाप्रमादाभ्यामस्या यदनुबंधनं ॥ ५२ ॥ अर्थः- अप्रमत्त साधु जे सातमा गुणठाणावाला तेने जे हिंसा छे ते अहिंसानुबंधी छे, केमके हिंसानो अनुबंध विच्छेद थया थकी जिहां तिहां थकी गुणनो उत्कर्ष थाय छे ॥ ५१ ॥ पण ए अहिंसा ते अज्ञानपणे भोला प्राणीने कदापि काले सुखदायक नथी, एटले ए अनुबंध सहित न थाय, पण अप्रमत्त साधुने ज्ञान सहित जे अहिंसा अथवा हिंसा ते अनुबंधे अहिंसाज कहिये; केमके ए परंपराए मोक्षसुखनुं कारण छे माटे ॥ ५२ ॥ एकस्यामपि हिंसायामुक्कं सुमहदंतरं || भाववीर्यादिवैचित्र्यादहिंसाया च तत्तथा ॥ ५३ ॥ सद्यः कालांतरे चेतद्विपाकेनापि भिन्नता ॥ प्रतिपक्षांतरालेन तद्वा शक्तिनियोगतः ॥ ५४ ॥ अर्थ :- एकली हिंसाने विषे पण जेम मोटो अंतर देखाड्यो छे तेम भाव वीर्यना विचित्रपणाथकी अहिंसाने विषे पण तेमज जाणं ।। ५३ ।। प्रतिपक्षपणे अंतराले करी अथवा ते शक्तिने योगे करी तत्काल अथवा कालांतरे विपाके करीने पण भिन्नता छे ॥ ५४ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ हिंसाप्युत्तरकालीनविशिष्टगुणसंक्रमात् ॥ त्यकाविध्यनुबंधत्वादहिंसैवातिभत्कितः ॥१५॥ ईदग्भंगशतोपेताऽहिंसा यत्रोपवर्ण्यते ॥ सर्वाशपरिशुद्ध तत्प्रमाणं जिनशासनं ॥५६॥ ___ अर्थ:-जे हिंसा छे ते पण जो उत्तरकाले विशिष्टगुण प्रगटे, तथा अविधिनो अनुबंध तज्याथी अने अत्यंत भक्तिथकी प्राणीने अहिंसारूपज फलदायक थाय छे ॥ ५५॥ ए रीते सेंकडो गमे भंगजाल सहित जिहां अहिंसाने वर्णविये ते तो सर्वाशे शुद्ध एवं जे जिनशासन तेमांज प्रमाण छे ।। ५६ ॥ अर्थोऽयमपरोऽनर्थ इति निर्धारणं हृदि ॥ आस्तिक्यं परमं चिन्हें सम्यक्त्वस्य जगुर्जिनाः॥५७॥ शमसंवेगनिर्वेदानुकंपाभिः परिष्कृतं ॥ दधतामेतदविच्छिन्नं सम्यक्त्वं स्थिरतां व्रजेत् ॥१८॥ अर्थ:-अहिंसा तेज अर्थ छे अने बीजा सर्व अनर्थ छे, ए प्रकारे जेना मनमा धारणा छे एहवी परम आस्था प्रगटे ते आस्था श्रद्धारूप समकितनुं चिह्न छे, एवं प्रभुए कह्यु छे ।।५७।। समता, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा ए लक्षणो रुडी रीते अविच्छिन्नपणे धरतां थकां समकित जे छे ते स्थिरतापणाने पामे ॥ ५८ ॥ इति सम्यक्त्वाधिकारः द्वादशः समाप्तः ॥ : Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ मिथ्यात्व त्यागाधिकार ॥ मिथ्यात्वत्यागतः शुद्धं सम्यक्त्वं जायतेऽङ्गिनां । अतस्तत्परिहाराय यतितव्यं महात्मना ॥१॥ नास्ति नित्यो न कर्त्ता च न भोकात्मा न निर्वृतः । तदुपायश्च नेत्याहुर्मिथ्यात्वस्य पदानि षट् ॥ २॥ अर्थ:-ते जे वारे मिथ्यात्वनो नाश थाय ते वारे जीवने सम्यक्त्व अगटे; माटे मिथ्यात्व टालवानो रुडा प्राणीयें उद्यम करवो ॥१॥ आत्मा नथी, आत्मा नित्य नथी, कर्ता नथी, भोक्ता नथी, सिद्ध नथी, ते सिद्धता प्रगट करवानो उपाय नथी ए छ पद भिथ्यात्वना छे ॥ २ ॥ एतैर्यस्माद्भवेवृद्धव्यवहारविलंघनं । अयमेव च मिथ्यात्वध्वंसी सदुपदेशतः ॥ ३ ॥ नास्तित्वादिग्रहै वोपदेशो नोपदेशकः । ततः कस्योपकारः स्यात्संदेहादिव्युदासतः ॥४॥ अर्थ:-ए पदवडे करी पूर्वाचार्यना व्यवहार उलंघाय छे, लोपाय छे; एज मिथ्यात्व छे, अने ते सद्गुरुना उपदेशथकी नाश पामे छे ॥ ३ ॥ ए छ पदरूपी कुग्रहे नड्याथका जे उपदेश आपे ते उपदेश न कहिये; तेथी कोइने उपकार न थाय, मिथ्यात्वीना उपदेशे संदेह टले नही ॥४॥ येषां निश्चय एवेष्टो व्यवहारस्तु संगतः । विप्राणां म्लेच्छभाषेव स्वार्थमात्रोपदेशनात् ॥५॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा केवलमात्मानं जानानः श्रुतकेवली । श्रुतेन निश्चयात्सर्व श्रुतं च व्यवहारतः ॥ ६॥ अर्थः-जेम ब्राह्मणने म्लेच्छ भाषा बोलवानी मनाई छे, माटे पोताना स्वार्थ जेटलीज बोले; तेमज जेहने एक निश्चय नयज इष्ट छे तेहने व्यवहार नय तो ब्राह्मणने म्लेच्छनी भाषाना उपदेशनी परे स्वार्थ माटे संगत मात्र छे ॥ ५॥ जेम श्रुतकेवली व्यवहारथी श्रुत जाणे; अने सर्व निश्चय नयवडे श्रुतज्ञाने करी श्रुतकेवली केवल आत्माने जाणे ॥६॥ निश्चयार्थोऽत्र नो साक्षाद्वक्तुं केनापि पार्यते । व्यवहारो गुणद्वारा तदर्थावगमक्षयः ॥ ७ ॥ प्राधान्यं व्यवहारे चेत्तत्तेषां निश्चये कथं ? परार्थस्वार्थते तुल्ये शब्दज्ञानात्मनोईयोः ॥ ८॥ ____ अर्थः-इहां निश्चय अर्थ प्रगटपणे कहेवाने कोई समर्थ नथी. देखीतो गुण प्रगटे ते रूप द्वारे निश्चय अर्थनी प्राप्ति क्षयरूप व्यवहार कहेवाय ॥ ७॥ जेने केवल व्यवहारने विषेज प्रधानपणुं छे तो तेने निश्चयनयमां केम होय ? वली शब्दनय. अने ज्ञाननयरूप प्राणीने स्वअर्थ ने परअर्थ बे तुल्य छे. जे शब्द ते व्यवहार छे अने ज्ञान ते निश्चय छे । ८॥ प्राधान्याद्व्यवहारस्य तत्त्वमुच्छेदकारिणां । मिथ्यात्वरूपतैतेषां पदानां परिकीर्तिता ॥९॥ नास्त्येवात्मेति चार्वाकः प्रत्यक्षानुपलंभतः। अहंताव्यपदेशस्य शरीरेणोपपत्तितः ॥ १०॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ अर्थ :- जे व्यवहारना प्रधानपणाथकी सर्वनो उच्छेद थाय तेवा प्राणीने मिध्यात्वरूप छ पदमां मिथ्यात्वभाव थयो एम जाणवुं || ९ || चार्वाक दर्शनवाला कहे छे के आत्मा नथीः केमके जो आत्मा होय तो प्रत्यक्ष जणाय, ते तो कांई जणातो नथी, अने अहंकार एटले आ कार्य हुं करुं हुं तेनो जे व्यपदेश छे ते तो शरीरे करीने जणाय छे ॥ १० ॥ मांगेभ्यो मदव्यक्तिः प्रत्येकमसती यथा । मिलितेभ्यो हि भूतेभ्यो ज्ञानव्यक्तिस्तथा मता ॥ ११ ॥ राजरं कादिवैचित्र्यमपि नात्मबला हितम् । स्वाभाविकस्य भेदस्य ग्रावादिष्वपि दर्शनात् ॥ १२॥ अर्थ – जेम महुडां तथा पाणीप्रमुख मदिरानां अंग छे, पण ते प्रत्येकमां मदिरानी शक्ति नथी; जे वारे भेगां मले ते वारेज शक्ति प्रगटे, तेम पंचभूत भेगां मले ते वारे ज्ञानशक्ति प्रगट थाय छे ॥ ११ ॥ जेम एक शिला अथवा एक कांकरी ए सर्व पथराना भेद छे तेम आ राजा छे, आ रांक छे एवं विचित्रपणं ते आत्मा नथी; ए तो स्वभावे भेद पड्या छे ॥१२॥ वाक्यैर्न गम्यते चात्मा परस्परविरोधिभिः । दृष्टवान्न च कोऽप्येनं प्रमाणं यद्वचो भवेत् ||१३|| आत्मानं परलोकं च क्रियां च विविधां वदन् । भोगेभ्यो भ्रंशयत्युचैर्लोकचित्तं प्रतारकः ॥ १४ ॥ अर्थ:-वली सर्व मतवालानां मांहोमांहे विरोधी वचन होवाथी आत्मानी प्रतीति थती नथी, केमके कोइये आत्मा दीठो नथी के जे थकी एकेनुं वचन प्रमाण थाय ॥ १३ ॥ आत्माने Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ परलोकने अर्थे एम विचित्र प्रकारनी क्रिया करावे छे, एवं कहेनारा विचारा लोकने सुखभोगथी भ्रष्ट करे छे. एम जे लोकोना चित्तने फेरवे छे, ते धूर्त गुरु जाणवा ॥ १४ ॥ त्याज्यास्तहिकाः कामाः कार्या नानागतस्पृहा । भस्मीभूतेषु भूतेषु वृथा प्रत्यागतिस्पृहा ॥ १५ ॥ तदेतदर्शनं मिथ्या जीवः प्रत्यक्ष एव यत् । गुणानां संशयादीनां प्रत्यक्षणाम भेदतः ॥ १६ ॥ अर्थः-माटे आ भवमां पाम्या जे सुखभोग ते तजवा नही, अने आवता भवमां सुख पामशुं एवी वांछा न करवी; केमके पंचभूतनुं पुतलु बलीने राख थशे एटले परभवनी इच्छा सर्व फोगट जशे ॥ १५ ॥ ए रीते चार्वाक दर्शन- मत कटुं, पण ए दर्शन खोटुं छे केमके प्रत्यक्षपणे संशयादिक जे गुण ते जीवने छे माटे जीव प्रत्यक्ष अभेदपणे छ । १६ ॥ न चाहं प्रत्ययादीनां शरीरस्यैव धर्माता । नेत्रादिग्राह्यतापत्तेनियतं गौरवादिवत् ॥१७॥ शरीस्यैव चात्मत्वे नानुभूतस्मृतिर्भवेत् । बालवादिदशाभेदात्तस्यैकस्यानवस्थितेः ॥१८॥ अर्थ:-जेम कोई आदर आपे ते पण आत्मा छे, तेम अहंकारादिक प्रत्यय जे छे ते आत्मा छे. ते काई शरीरनो धर्म नथी. अहंकारादि नेत्रमा जणाय छे ते देखवारूप छे ॥ १७ ॥ शरीरने जो आत्मा कहिये तो आत्मा जड थयो ते वारे पूर्वनी अनुभवेली वात आत्मा विना कोने सांभरे छे ? शरीरने तो सांभरतुं नथी, अने बाल, यौवन तथा वृद्ध इत्यादिक जे शरीरनी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ दशाना भेद छे तेथी आत्मा पण बालत्वादि दशावंत थाय छे, पण निश्चपनयथी आत्मानी एक दशा छे अने शरीरनी अवस्था एक नथी; केमके अनवस्थित दोषनो प्रसंग छे माटे ॥ १८ ॥ नात्मांगं विगमेऽप्यस्य तल्लब्धानुस्मृतिर्यतः । व्यये गृहगवाक्षस्य तल्लब्धार्थाधितृवत् ॥ १९ ॥ न दोषः कारणात्कार्ये वासनासंभ्रमाच्च न । भ्रूणस्य स्मरणापत्तेरंबानुभव संक्रमात् ॥ २० ॥ 1 अर्थ :- शरीरनो तो नाश थाय अने आत्मा परभवमां जाय, पण जातिस्मरणे करी पूर्वजन्मादिकनुं स्मरण छे. जेम घरना गोखमां बेसीने नगरना पदार्थ दीठा अने पछी ते गोख पडी गयो तो पण जोयानुं स्मरण जतुं नथी ।। १९ ।। कारणथकी बाल्यावस्थानी वासनाना संक्रमणथकी जे कार्य आत्मा करे छे ते कार्यनी जो स्मृति न रही, तो पण तेने दूषण नथी. जेम माताए पोताना अनुभवना संक्रमणथकी बालकने बोलवु - चालबुं शीखव्युं होय, तेनी बालकने स्मृति न होय तेहनी परे जाणवुं ॥ २० ॥ नोपादानादुपादेयवासना स्थैर्यदर्शने ॥ करादेरतयात्वेन योग्यत्वाप्रणुस्थितौ ॥ २१ ॥ मांगेभ्यो मदव्यक्तिरपि नो मेलकं विना ॥ ज्ञानव्यक्तितया भाव्यान्यया सा सर्वदा भवेत् ||२२|| अर्थः- उपादानना योगे करी स्थिरताना दर्शनने विषे उपादान वासना न होय, जेम हस्तादि जे छे ते उपादेय छे अने तेनुं उपादान ते हस्तादिकना परमाणु छे; माटे परमाणुरूप Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सूक्ष्म स्थितिमां स्थिरदर्शन न संभवे ॥ २१ ॥ जेम मदिराना अंगथकी मदशक्ति प्रगटपणे नथी, पण भेगे मलवे थाय छे, अथवा पीधा पछी आत्माने संयोगे थाय छे तेम ज्ञाननी प्रगटता पण आत्माने योगे थाय छे नहीं तो सदाय एकलं ज्ञान रहेवू जोइए ॥ २२ ॥ राजरंकादिवैचित्र्यमप्यात्मकृतकर्मजं ॥ सुखदुःखादिसंवित्तिविशेषो नान्यथा भवेत् ॥२३॥ आगमाद्गम्यते चात्मा दृष्टेष्टार्थाविरोधिनः ॥ तद्वक्ता सर्वविच्चैनं दृष्टवान्वीतकश्मलः ॥ २४ ॥ ___अर्थ:-आ राजा छे अने आ रांक छे, एवो जीवने विचित्र भाव उपजे छे एवी लोकवाणी छे ते सर्व पोतानां कीधेलां कर्मथकी जाणवी. सुखदुःख सर्व कर्मथकी प्रगट थाय छे, अन्यथा बीजुं विशेष कारण कांई नथी ॥ २३ ॥ जे दृष्टिये दी? ते प्रत्यक्षप्रमाण अने इष्टार्थ ते अनुमान प्रमाण, तथा उपमाप्रमाण ते अनुमानमां भले छे; माटे ए त्रण प्रमाणने अविरोधी एहवू जे आगमप्रमाण तेणे करी आत्माने जाण्यो जाय छे. ते आगम तो जेनां सर्व पाप गयां छे एहवा सर्वज्ञ देवे देखाडयुं छे ॥ २४ ॥ अभ्रांतानां च विफला नामुष्मिक्यः प्रवृत्तयः॥ परबंधनहेतोः कः स्वात्मानमवसादयेत् ॥२९॥ सिद्धिः स्थाण्वादिवद्वयक्ता संशयादेव चात्मनः॥ असौ खरविषाणादौ व्यस्तार्थविषयः पुनः ॥२६॥ अर्थः-अभ्रांत जे ज्ञानी पुरुष तेने हमणानी प्रवृत्ति ते Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ निःफलता न होय; माटे परबंधनना हेतुए करी पोताना आत्माने कोण खेदमां नाखे ? ॥ २५ ॥ आत्मानी प्रगटपणे संशयथी सिद्धि छे, एवी वात तो वगडामा झाडना ढुंठा जेवी देखाय, पण संशय करतां थकां जे खरुं वृक्ष ते न जणाय. तेमज संशयवडे आत्माने न जाणिये अने जे विपरीत अर्थ आत्माने माने तेने गधेडाने शिंगडा माननार जेवो समजवो ॥ २६ ॥ अजीव इति शब्दस्य जीवसत्तानियंत्रितः॥ असतो न निषेधो यत्संयोगादिनिषेधनात् ॥२७॥ संयोगः समवायश्च सामान्यं च विशिष्टता ॥ निषिध्यते पदार्थानां त एव न तु सर्वथा ॥ २८॥ अर्थ:-अजीव शब्दमां जीव शब्दनी सत्ता वलगेली छे; पण निषेध अछतो छे. जेथी नास्तिक मतवाला संयोग, समवाय अने सामान्य तथा विशेषने निषेधे छे, ते पण सर्वथापणे वस्तुस्वरूपने निषेधी शकता नथी; केमके संयोग, समवाय अने सामान्य नही मानवाथकी पण अजीव शब्द बोलवो ते यद्यपि अजीव पदार्थ सत् छे, तथापि शब्द असत् मानीए तो ते असत् पदार्थनो निषेध देखातो नथी ॥ २७ ॥ माटे संयोग, समवाय, सामान्य इत्यादिक पदार्थनुं विशेषपणु ते नास्तिक मतवाला निषेध करे छे, पण ते सर्वथा निषेध थाय नहीं ॥ २८ ॥ शुद्धं व्युत्पत्तिमजीवपदं सार्थ घटादिवत् ॥ तदर्थस्य शरीरं नो पर्यायपदभेदतः ॥ २९ ॥ आत्मव्यवस्थितेस्त्याज्यं ततश्चार्वाकदर्शनम् ॥ . पापाः किलैतदालापाः सव्यापारविरोधिनः॥३०॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अर्थः-शामाटे ? शुद्ध निर्मल एवी व्युत्पत्ति ते जीव प्राण धारणे एवे अर्थे युक्त एवं जीव पद साचुं छे, घटादिकनी पेरे छतुं छे; पण नवा नवा पर्यायना भेदथकी जीवने मूल अर्थे शरीर नथी ॥ २९ ॥ ए रीते आत्मानुं स्थापन करीने चार्वाक दर्शनने छोडवू, ए दर्शनी साथे आलाप करवो ते पण पापरूप छे, केमके ते सत्यवादी साथे विरोधकारक छे; तेथी तजवू ॥३०॥ ज्ञानक्षणावलीरूपो नित्यो नात्मेति सौगताः॥ क्रमाक्रमाभ्यां नित्यत्वे युज्यतेऽर्थक्रिया न हि॥३१॥ स्वभावहानितोऽध्रौव्यं क्रमेणार्थक्रियाकृतौ ॥ अक्रमेण च तद्भावे युगपत्सर्वसंभवः ॥ ३२॥ ____ अर्थ:-हवे बौद्धमतवाला बोल्या के-आत्मा ज्ञानरूप छे, पण क्षण-आवलिका प्रमाणे स्थिति छे; माटे आत्मा नित्य नथी. एटले जीव ते क्षणमां क्रोध करे, क्षणमां मान करे, एम भिन्न अवस्था थाय छे; एक अवस्था नित्य रहेती नथी. परंपराये क्रम अक्रमपणे जो नित्य आत्मा कोइ वेलाये होय, तो अर्थक्रियाकलाप घटे नही; माटे नित्य आत्मा नथी ॥ ३१ ॥ एनो स्वभाव हणाय ते वारे ध्रुवपणुं पामे, अनुक्रमे अर्थक्रिया आकृतिने विष अक्रमे करीने ते भावने विषे समकाले विचारतां सर्व संभव होय, माटे अमारो क्षणिक मत साचो ठयों ॥ ३२ ॥ क्षणिके तु न दोषोऽस्मिन् कुर्वद्रूपविशेषिते ॥ ध्रुवेक्षणोत्थतृष्णाया निवृत्तेश्च गुणो महान् ॥ ३३ ॥ मिथ्यात्ववृद्धिकृन्नूनं तदेतदपि दर्शनं । क्षणिके कृतहानिर्यत्तथात्मन्यकृतागमः ॥ ३४ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ अर्थ:-वळी आ क्षणिक मतमां दोष नथी, केमके नवनवां रूप करे छे; पण जे समये जे रूप होय ते समये ते रूपना लक्षणे करी ध्रुव छे. तेमां तृष्णानो अने निवृत्तिनो मोटो गुण छे. जेथी ध्रुवतारूप महागुण पामिये, एम बौद्ध कहे छे ॥ ३३ ।। ए उपरथी खरेखलं ए दर्शन मिथ्यात्वनी वृद्धि करनारुं छे, केमके आत्माने क्षणिक माननारना सुकृतनी हानि थाय छे. जो कदी पाप न करे, तोपण जूठा बोलवानुं पाप तो परभवे भोगवq पडे, माटे अकृतागम कहिये ॥ ३४ ॥ एकद्रव्यान्वयाभावाद्वासनासंक्रमश्च न । पौर्वापर्य हि भावानां सर्वत्रातिप्रसक्तिमत् ।। ३५ ।। कुर्वदूपविशेषे च न प्रवृत्तिर्न वाऽनुमा॥ ___ अनिश्चयान्न वाऽध्यक्ष तथाचोदयतो जगौ ॥ ३६ ॥ अर्थ--जेम एक द्रव्यनो सापेक्षपणे एक भाव नथी, माटे वासनानुं संक्रमण न थाय अने भावनुं पूर्वापरपणुं सर्वत्र शक्तिरूपे परिणमे छे ॥ ३५ ॥ रूप विशेष करता छतां प्रवृत्ति करवी अथवा वारवी ते तो नहीं, पण क्षणिक मतवालाए तो अनिश्चयथकी आत्माने उदयथी क्षणिकपणु कह्यु छे ।। ३६ ॥ न वैजात्यं विना तत् स्यान्न तस्मिन्ननुमा भवेत् ॥ विना तेन न तत्सिद्धिर्नाध्यक्षं निश्चयं विना ॥३७॥ एकताप्रत्यभिज्ञानं क्षणिकत्वं च बाधते ।। योऽहमन्वभवं सोऽहं स्मरामीत्यवधारणात् ॥३८॥ अर्थः-विजाति विना ते न होय, एमां कोई अनुमान घटतुं नथी; केमके ते विना तेनी सिद्धि पण नथी. निश्चय विना १५ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष ज्ञान पण नथी थतुं ॥ ३७ ॥ तथा हुं आ अनुभवू छु, ते हुं संभारं छु-ए अवधारणथकी आत्माने त्रैकालिक एकताज्ञान ते क्षणिकपणे बाधकारी थाय छे ॥ ३८॥ नास्मिन्विषयबाधो यत् क्षणिकेऽपि यथैकता ॥ नानाज्ञानान्वये तद्वत् स्थिरे नानाक्षणान्वये ॥३९॥ नानाकार्येक्यकरणस्वाभाव्ये च विरुध्यते ॥ स्याद्वादसन्निवेशेन नित्यत्वेऽर्थक्रिया न हि ॥४०॥ अर्थ:-ए नित्यात्माना मतवडे विषयबाधकपणुं न होय, क्षणिक मतने विषे पण एमज जेम ज्ञानान्वये एकत्वपणुं छे तेम स्थिर आत्माने विषे नाना क्षणने संयोगे एकता जाणवी ॥३९॥ बहु कार्यना एकीकरण स्वभावने अंगीकार करे छते विरोध पडे छे अने स्याद्वाद शैली स्थापना करवाथी नित्यापेक्षपणे अर्थक्रिया विरोध पामती नथी; केमके बेहु नये प्रकृति अर्थ अनुसरे छे; माटे ॥ ४० ॥ नीलादावप्यतद्भेदशक्तयः सुवचाः कथं ? ॥ परेणापि हि नानकस्वभावोपगमं विना ॥ ४१ ॥ ध्रुवे क्षणेऽपि न प्रेम निवृत्तमनुपप्लवात् ।। ग्राह्याकार इव ज्ञाने गुणस्तन्नात्र दर्शने ॥ ४२ ॥ अर्थः-नीलादि वर्णने विषे भेदशक्ति न होय, एम सुखे केम कहेवाय ? पर पुद्गलवडे करीने पण एक स्वभावने टाल्या विना नानाविधपणुं संभवे नही ॥४१॥ ध्रुवतापणाने विषे इक्षणने विषे पण एटले लोचनने विषे पण उपप्लव माटे निवृत्तपणे प्रेम न जोइये. जेम ग्रायाकार ज्ञानने विषे गुण छे तेम आ दर्शनमां गुण नथी ॥ ४२ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ प्रत्युतानित्यभावे हि स्वतः क्षणजबुर्धिया || हेत्वनादरतः सर्व क्रियाविफलता भवेत् ॥ ४३ ॥ तस्मादिदमपि त्याज्यमनित्यत्वस्य दर्शनं ॥ नित्यसत्यचिदानंदपदसंसर्गमिच्छता ॥ ४४ ॥ अर्थ : – ऊलटो अनित्यभावने विषे पण पोताथी क्षणनी बुद्धिये करी हेतुना अनादर थकी सघळी क्रिया निष्फल थाय ॥ ४३ ॥ ते माटे ए अनित्य दर्शन पण छोड़वं. सदैव नित्य सत्यपणे मुक्तिपदना संसर्गने इच्छता प्राणीये जरूर त्यजतुं ॥ ४४ ॥ न कर्त्ता नापि भोक्तात्मा कापिलानां तु दर्शने ॥ जन्मधर्माश्रयो नायं प्रकृतिः परिणामिनी ॥ ४५ ॥ प्रथमः परिणामोsस्या बुद्धिर्धर्माष्टकाऽन्विता ॥ ततोऽहंकारतन्मात्रेंद्रियभूतोदयः क्रमात् ।। ४६ ।। 1 अर्थ : – हवे कपिल दर्शनवाला बोल्या के- आत्मा कर्त्ता नथी तेम भोक्ता पण नथी. आत्मा प्रगट धर्माश्रयवालो नथी; माया परिणाम वर्त्ते छे ॥ ४५ ॥ ए मायानो प्रथम परिणाम शुश्रूषा, श्रवर्णं, चैत्रग्रहणं इत्यादिक आठ प्रकारनी बुद्धिरूप धर्मे करी सहित छे अथवा तेथी अहंकार, तन्मात्र, इंद्रिय, पांच भूतोदय - ए अनुक्रमे जाणवुं ।। ४६ ।। चिद्रूपः पुरुषो बुडे: सिद्धयै चैतन्यमानतः ॥ सिद्धिस्तस्या अविषयाऽवच्छेदनियमान्वितः ॥४७॥ हेतुत्वेषु प्रकृत्यर्थेन्द्रियणामत्र निर्वृत्तिः ॥ दृष्टादृष्टविभागाश्च व्यासंगश्च न युज्यते ॥ ४८ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अर्थः -बुद्धिनी सिद्धिने अर्थे आत्मा चिद्रप छे, वली चैतन्य छे तो पण निश्चय सहित अविच्छेदपणे ते बुद्धिनी जे सिद्धि ते अविषयी छे । ४७ ॥ हेतुत्वे करी आत्माने प्रकृति अर्थने विषे इंद्रियोना निवृत्तिपणानो दीठा-अणदीठाना विभागथी प्रसंग घटतो नथी ॥ ४८ ॥ स्वप्ने व्याघ्रादिसंकल्पान्नरत्वानभिमानतः॥ . अहंकारश्च नियतव्यापारः परिकल्प्यते ॥४९॥ तन्मात्रादिक्रमस्तस्मात्प्रपंचोत्पत्तिहेतवे ॥ इच्यबुद्धिर्जगत्क: पुरुषो न विकारभाक् ॥ ५० ॥ .. अर्थ:-जेम स्वमने विषे व्याघ्रादिकना संकल्पथी अने पुरुषार्थना निराभिमानथी अहंकारने निश्चये व्यापाररूप कल्पिये छीये ॥ ४९ ॥ ते प्रपंचनी उत्पत्तिना हेतुने अर्थे तन्मात्रादिकनो क्रम छे. ए रीते जगतनी करनारी बुद्धि ठरे छे; माटे विकारनो भजनार आत्मा नथी । ५० ।। पुरुषार्थोपरागौ द्वौ व्यापारावेश एव च ॥ ___ अत्रांशो वेदम्यहं वस्तु करोमीति च धीस्ततः॥५१॥ चेतनोऽहं करोमीति बुद्धर्भेदाग्रहात्स्मयः ॥ एतन्नाशेऽनवच्छिन्नं चैतन्यं मोक्ष इष्यते ॥५२॥ ___अर्थ:-सर्व प्रवृत्ति व्यापारने विषे एक पुरुषार्थ अने बीजो उपराग ए बे व्यापार भले छे. ते वारे हुं अंशे जाणुं छु, हुं वस्तु करूं छु- एवी कदाग्रही बुद्धि थाय छे ॥ ५१ ॥ हुँ चेतन छु, हुं करूं छु एवो गर्व बुद्धिना हेतुथी प्रगटे छे. एवा गर्वनो नाश करी स्वभावे रघु चैतन्यपणुं मुक्तिने पामे छे ॥५२।। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ कर्तृबुद्धिगते दुःखसुखे पुंस्युपचारतः॥ नरनाथे यथा भृत्यगतौ जयपराजयौ ॥५३॥ . का भोक्ता च नो तस्मादात्मा नित्यो निरंजनः । अध्यात्मादन्यथाबुद्धिस्तदा चोक्तं महात्मना ॥५४॥ अर्थ:-आत्माने विषे दुःख-सुख पामशुं, एहवी कर्तापणानी बुद्धि जे थाय छे ते उपचारथी छे. जेम सेवकनो जय अथवा पराजय ते राजा होवाथी जणाय छे ॥ ५३ ॥ इत्यादिक माटे आत्मा कर्ता भोक्ता नथी पण नित्य निरंजन छे, अने जे बुद्धि छे ते तो अध्यात्मथी जुदी छे एवं महात्मा कपिल मुनिए कहेलुं छे ॥ ५४॥ प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वथा ॥ अहंकारविमूढात्मा कर्ताह मिति मन्यते ॥ ५५॥ विचार्यमाणं नो चारु तदेतदपि दर्शनं ॥ प्रकृतिचैतन्ययोर्व्यक्तं सामानाधिकरण्यतः॥५६॥ ___ अर्थः-प्रकृतिना गुणे करी क्रियमाण जे कर्म तेनो हुँ कर्ता छ, एम सर्व प्रकारे अहंकारे मूढ आत्मा माने छे ॥ ५५ ॥ एवो विचार करेथी ए दर्शन पण रुडुं नथी; केमके प्रगट बुद्धि प्रकृति अने चैतन्यनो सामानाधिकरणे विचार करतां रुडु नथी जणातुं ॥ ५६ ॥ बुद्धिः की च भोक्री च नित्या चेन्नास्ति निर्वृत्तिः॥ अनित्या चेन्न संसारः प्रागधर्मादेरयोगतः ॥७॥ प्रकृतावेव धर्मादिस्वीकारे बुद्धिरेव का ॥ सुवचश्च घटादौ स्यादीग्धान्वयस्तथा ॥ ५८॥ %3D . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थः-वळी तमे जो कर्ता, भोक्तापणे बुद्धि मानशो; पण जो ने बुद्धि नित्य छे तो मोक्ष नथी एटले मोक्ष ठरशे नहीं, अने जो बुद्धिने अनित्य मानशो तो पूर्व धर्मना अयोग्य थकी संसार ठरशे नही ॥ ५७ ॥ प्रकृतिने विषे धर्मादिकने अंगीकार कीधाथी बुद्धिने शुं कहेवी जोइये ? अने घटादिकने विषे एवा धर्मनो अन्वय ते सुखे कहेवो. इति तर्कवादः ॥५८॥ कृतिभोगी च बुद्धेश्चेबंधो मोक्षश्च नात्मनः ॥ ततश्चास्मानमुहिश्य कूटमेतद्यदुच्यते ॥ ५९॥ पश्चविंशतितत्वज्ञो यत्रतत्राश्रमे रतः ॥ जटी मुंडी शिखी चापि मुच्यते नात्र संशयः॥६॥ - अर्थ:-जो करवू, भोगव, बुद्धिने छे तो बंधमोक्ष आत्माने नथी, ते पण बुद्धिनेज जोइये; माटे आत्माने उद्देशीने नहीं समजवामां आवे तेने कूट वचन कवि कहे छे । ५९ ॥ पंचविशतत्वनो जाण जे पुरुष छे ते कोई पण आश्रममां रत होय एटले जटाधर होय, अथवा मुंडावे, अथवा चोटी रखावे, तो पण ते संदेह विना संसारथी मूकाय एवं कपिल मतवाला कहे छे ।। ६० ॥ एतस्य चोपचारत्वे मोक्षशास्त्रं वृथाखिलं ॥ अन्यस्य हि विमोक्षार्थे न कोऽप्यन्यः प्रवर्तते ॥३१॥ कपिलानां मते तस्मादस्मिन्नवोचिता रतिः॥ यत्रानुभवसंसिद्धः कर्ता भोक्ता च लुप्यते ॥३२॥ अर्थः-ए रीते ए आत्माने विषे मोक्षने उपचारिपणे अंगीकार करे छे, तेनुं सकल मोक्षशास्त्र फोगट थाय छे केमके Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोईने मोक्ष आपवा कोइ बीजो प्रवृत्त थाय नहीं ॥ ६१ ॥ जिहां अनुभवसिद्ध आत्मानुं कर्त्तापणुं तथा भोक्तापणुं लोपे छे एटले मानता नथी, ते माटे एहवा कपिलना मतमांप्रीति करवी ते ठीक नथी । ६२ ॥ नास्तिनिर्वाणमित्याहुरात्मनः केऽप्यबंधतः॥ प्राक् पश्चाद्युगपद्वापि कर्मबंधाव्यवस्थितेः ॥ ६३ ।। अनादिर्यदि संबंध इष्यते जीवकर्मणोः ॥ तदानंत्यान्न मोक्षः स्यात्तदात्माकाशयोगवत्॥६४॥ अर्थः—केटलाक अबंध मतवाला छे ते एम कहे छे केआत्माने मोक्ष-निर्वाण नथी; केमके प्रथम के अथवा पछी समकाले आत्माने कर्मबंध नथी, तो मुक्ति शेनी होय ? ॥ ६३ ॥ जो जीवने तथा कर्मने अनादि संबंध मानिये तो आदि नही, तिहां अंत पण केम थाय ? माटे अनंतपणाना प्रसंगथी कोई काले मोक्ष न थाय, जेम आत्माथकी आकाश योग कदापि भिन्न न थाय ॥ ६४ ॥ तदेतदत्यसंबद्धं यन्मियो हेतुकार्ययोः॥ संतानानादिता बीजांकुरवत् देहकर्मणोः ॥ ६५ ॥ कर्ता कर्मान्वितो देहे जीवः कर्मणि देहयुक् ॥ क्रियाफलोपभुक्तत्वे दंडान्वितकुलालवत् ॥६६ ।। अर्थः-एह, बोले छे, ए वचन पण जूटुं छे; केमके कारण कार्यने माहोमांहे संबंध छे-जेम पुत्र पौत्रादिकनो अनादि संबंध थाय छे ते बीजना अंकुरानी पेरे छे, तेमज शरीर तथा कर्मनो पण अनादि संबंध छ । ६५ ।। कर्मे सहित जीव कर्ताः Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पणे देहमा रह्यो छे, एवं जे कहे छे ते पण जूटुं छे, जेम दंड सहित कुंभारनी परे क्रियानुं फल भोगवे ते पण असंबंध छे तेनी परे । ६६ ।। अनादिसंततेाशः स्याहीजांकुरयोरिव ॥ कुक्कुट्यंडकयोः स्वर्णमलयोरिव वानयोः ॥ ६७ ॥ भव्येषु च व्यवस्थेयं संबंधो जीवकर्मणोः ॥ अनाद्यनंतोऽभव्यानां स्यादात्माकाशयोगवत्।।६८|| अर्थः–तमे कहो छो के अनादि संतति नाश न थाय तेनो तो नाश थतो देखीये छीये; जेम बीज वणस्ये अंकुर न थाय अने अंकुरा नाश थये बीज नहीं थाय. कुकडी नाश थये इंडे नाश पामे अने इंडानो नाश थये कुकडी नाश पामे. वळी अनादिनो सुवर्णथी मेल जुदो थाय छे. तेम आत्माथकी कर्म जुदा थाय छे ।। ६७ ॥ ए रीते अनादि संतति जीवकर्मनो जे संबंध ते नाश थाय छे. ते भव्य जीवो आश्रयी छे. अने जेहने अनादि संतति टलती नथी ते अभव्य जीवो आश्रयी छे. आत्मा तो आकाशना योगनी परे छे ॥ ६८ ।। द्रव्यभावे समानेऽपि जीवाजीवत्वभेदवत् ॥ जीवभावे समानेऽपि भव्याभव्यत्वयोर्भिदा ॥१९॥ स्वाभाविकं च भव्यत्वं कलशप्राग्भावतः॥ नाशकारणसाम्राज्याद्विनश्यन्न विरुध्यते ॥ ७० ॥ अर्थ:-जेम द्रव्यनी रीते तो सर्वद्रव्य एकद्रव्यपणे तुल्य छे, पण ते द्रव्यमां भेद करीए तो जीव अजीव ए बे थाय; तेमज जीवपणे तो सर्व जीव सरिखा छे, पण भेद करतां भव्य Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा अभव्य ए बे भेद थाय छे ॥ ६९ ॥ जेम घट उत्पत्ति । पहेलां माटी द्रव्य स्वाभाविकपणे छे अने माटीना नाशथी घट प्रगटे छे ते विरुद्ध नथी तेम स्वाभाविक भव्यपणे कर्मनी अनादि संततिना नाशरूप कारणना सामर्थ्यथी परमात्मापणुं प्रगटे ते पण विरुद्ध नथी ॥ ७० ॥ भव्योच्छेदो न चैवं स्याद्गुर्वानंत्यानभोंशवत् ॥ प्रतिमादलवत् कापि फलभावेऽपि योग्यता ॥ ७१ ॥ नैतद्वयं वदामो यद्भव्यं सर्वोऽपि सिध्यति ॥ यस्तु सिध्यति सोऽवश्यं भव्य एवेति नो मतं ॥७२॥ अर्थ:-ए रीते भव्यपणानो उच्छेद न थाय, मोटा अनंतपणाथकी आकाशना अंशनी परे घट आखे आकाश पण आलुं अने घट भांगे आकाश खंड थयो, पण आकाश कांई वध्यु नही, तेम कर्मना नाशथकी आत्मा अधिक थतो नथी. जेम कोई ठेकाणे प्रतिमाना दलनी पेरे. प्रतिमादल पाषाणथी बिंबरूप फल उपजे तेम मोक्षनुं उपजवु थाय ॥ ७१ ॥ अमे एम कहेता नथी के सघला भव्य जीवो सिद्धि पामे, पण जे सिद्धि वरे तेने निश्चय भव्य कहीए ए अमारो मत छे ।। ७२ ॥ ननु मोक्षेपि जन्यत्वाद्विनाशिनी भवस्थितिः॥ नैवं प्रध्वंसवत्तस्यानिधनत्वव्यवस्थितेः ।। ७३ ।। आकाशस्यव वैविक्त्या मुद्गरादेर्घटक्षये ॥ ज्ञानादेः कर्मणो नाशे नात्मनो जायतेऽधिकं ॥७४॥ अर्थः-मोक्षने विषे प्रगटथवापणुं नथी अने भवनी स्थिति नाशवंती छे, पण मोक्षमां अनंतपणानी स्थिति छे. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ माटे मुक्तिनो नाश नथी ॥ ७३ ॥ जेम मोगरे करी घडो भांग्यो, अने घडाने क्षये आकाश जुदुं थयुं, पण वध्युं नही तेम ज्ञानथी कर्मनो नाश थाय, पण आत्मा अधिक थाय नहीं | ७४ ॥ न च कर्माणुसंबंधान्मुक्तस्यापि न मुक्तता ॥ योगानां बंधहेतूनामपुनर्भवसंभवात् ॥ ७५ ॥ सुखस्य तारतम्येन प्रकर्षस्यापि संभवात् ॥ अनंतसुखसंवित्तिर्मोक्षः सिध्यति निर्भयः ॥ ७६ ॥ अर्थः- जिहां मूलथीज कर्मपरमाणुनो संबंध नथी, अने जे मुकाणा तेने कांइ मुकात्रापणुं नथी तथा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग ए चार बंधहेतुना योग छे, तेनुं फरी थवा नथी, तेहने सिद्धि कहिये ॥ ७५ ॥ सुखनुं तारतम्य तथा ज्ञाननी उत्कृष्टता प्रगट थयेथी एटले अनंत सुख जाणवाथी निर्भयपणे जे सिद्धि तेनुं नाम मोक्ष छे एम कहीये ॥ ७६ ॥ वचनं नास्तिकाभानां मात्मसत्तानिषेधकम् ॥ भ्रतानां तेन नादेयं परमार्थगवेषिणा ॥ ७७ ॥ न मोक्षोपाय इत्याहुरपरे नास्तिकोपमाः ॥ कार्यमस्ति न हेतुश्चेत्येषा तेषां कदर्थना ॥ ७८ ॥ अर्थ :- माटे नास्तिक मतवालानां वचन आत्मसत्तानां निषेधक छे, ते भ्रम चित्तवालाये आदखां नही. अथवा नास्तिक मतवालानां भयनां वचन छे, एम जाणी आदखां नही. जे परमार्थनो गवेषक होय तेणे छांडवां ॥ ७७ ॥ हवे वली बीजा नास्तिक मतने मलताज मतवाला छे, तेनुं कहेतुं एम छे के मोक्षनो उपाय नथी. एटले कार्य जे मोक्ष ते तो छे, पण तेनुं कारण जे उपाय ते नथी. एम माने छे तेमने पण विटंबना छे॥ ७८ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ अकस्मादेव भवतीत्यलीकं नियतावधेः ॥ कदाचित्कस्य दृष्टत्वाद्वभाषे तार्किकोऽप्यदः ॥ ७९ ॥ हेतुभूतनिषेधानां स्वानुपाख्य विधिर्न च || स्वभाववर्णना नैवमवधेर्नियतत्वतः ॥ ८० ॥ अर्थ: कोइक तो अणचितव्यो अकस्मात् मोक्ष थाय छे एम कहे छे ए पण जूटुं छे. नियत अवधिमर्यादाज छे. जे माटीना पिंडथी घट निपजे छे, ते कदाचित् दी छे तेहने तार्किकशास्त्रवाला कहे छे जे अमुक वखतमांज पूरुं थाशे एवो कांई नियम नथी ॥ ७९ ॥ हेतुभूत मोक्षनो निषेध नथी. पोतानो अनुपकथनीय एटले पोताने बोलवु नही एहवो जे विधि ते पण नथी, अने स्वभाव वर्णन करवुं, स्तुति करवी ते नथी; केमके ए सर्वनी अवधि छे. एटले अवधिएज मोक्ष थाशे, ते माटे मोक्षनुं साधन करवुं ते जुठ्ठे छे, एम कहे छे ॥ ८० ॥ न च सार्वत्रिको मोक्षः संसारस्यापि दर्शनात् ॥ - न चेदानीं न तद्व्यक्तिर्व्यञ्जको हेतुरेव यत् ॥ ८१ ॥ मोक्षोपायोsस्तु किं त्वस्य निश्चयो नेति चेन्मतं ॥ तत्र रत्नत्रयस्यैव तथाभावविनिश्चयात् ॥ ८२ ॥ अर्थः- सर्वत्र मोक्ष नथी, केमके जे हमणां नथी तेनी प्रगटता पण नथी, अने संसार तो प्रत्यक्ष देखाय छे; माटे जेहनो जे हेतु छे तेज प्रगट नथी, तो तेहनो संशय छे. ॥ ८१ ॥ ॥८१॥ मोक्षनो उपाय छे किंवा नथी १ ए वातनो निश्चय नथी, माटे ए मत पण जूठो छे. मोक्षनो हेतु तो रत्नत्रयनी परे, तेमज भावे निश्चयथी जाणिये ॥ ८२ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भवकारणरागादिप्रतिपक्षमदः खलु ॥ तद्विपक्षस्य मोक्षस्य कारणं घटतेतरां ॥ ८३ ॥ अथ रत्नत्रयप्राप्तेः प्राक्कर्म्मलघुता यथा ॥ परतोऽपि तथैव स्यादिति किं तदपेक्षया ॥ ८४ ॥ अर्थः- रत्नत्रयी जे छे ते संसारनुं कारण जे रागादिक तेहना शत्रु छे, अने संसाररूप कार्यनो शत्रु मोक्ष छे, माटे मोक्षनुं कारण जे उपाय, ते घटे छे; ॥ ८३ ॥ केमके रत्नत्रयी प्राप्ति थयाथकी पूर्वभवना कर्मनी जेवी लघुता थाय तो बीजाथकी पण तेमज थाय, ए अपेक्षाये जो अवधि नथी तोपण शुं थयुं ॥ ८४ ॥ नैवं यत्पूर्व सेवातो मृद्वीतो साधनक्रिया || सम्यक्त्वादिक्रिया तस्माद् दृढैव शिवसाधने ॥ ८५ ॥ गुणाः प्रादुर्भवत्युच्चैरथवा कर्मलाघवात् ॥ तथाभव्यतया तेषां कुतोऽपेक्षानिवारणं ॥ ८६ ॥ अर्थ :- जे पूर्वसेवाथकी ते धंचनाघोलनारूपथी, रुजुताथी, साधनक्रियामंद रूप तेवी न होय, माटे समकितादिकक्रिया ते मोक्षसाधनमां दढ छे ।। ८५ ।। अथवा कर्मना लघुतापणाथकी मोटा जे गुण ते प्रगट थाय छे; ते प्रकारे तेनो भव्यतापणे करीने मोक्ष छे; पण मोक्षनी अपेक्षा वारी नथी. ॥ ८६ ॥ तथाभव्यतयाक्षेपाद्गुणा न च न हेतवः ॥ अन्योऽन्यसहकारित्वाद् दंडचक्रभ्रमादिवत् ॥ ८७ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्राण्युपायास्तद्भवक्षये ॥ एतन्निषेधकं वाक्यं त्याज्यं मिथ्यात्ववृद्धिकृत् ॥८८॥ अर्थ :- तेम भव्यपणाना तिरस्कारथकी पुनर्हेतुभूत Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ गुण न होय; केमके परस्पर सहकारी छे माटे दंड, चक्र, भ्रमणनी पेरे भव्यतापणे ज्ञानादिक गुण प्रगट थाय. ते गुण मोक्षनो हेतु छे, ए उत्तर को छे || ८७ || माटे संसारना क्षयरूप जे उपाय ते ज्ञान, दर्शन अने चारित्र छे. तेनों जे निषेध करे अने मिथ्यात्वनी वृद्धि करे तेनुं वचन त्याग कर ॥ ८८ ॥ मिथ्यात्वस्य पदान्येतान्युत्सृज्योत्तमधीधनः ॥ भावयेत्प्रातिलोम्येन सम्यक्त्वस्य पदानि षद् ॥ ८९ ॥ अर्थ :- ए पूर्वे कला जे सर्व शास्त्रना मतवाद ते मिथ्यातनां ठेकाणां छे तेने छांडीने बुद्धिरूप धननुं ग्रहण करीने मिथ्यात्वने प्रतिकूलपणे जे समकितनां छ पद छे तेने भाववां ॥ ८९॥ इति मिथ्यात्वत्यागाधिकारः त्रयोदशः समाप्तः ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाग्रहत्यागाधिकारमिथ्यात्वदावानलनी खाहम सदगृहत्यागमुदाहरंति ॥ अतो रतिस्तत्र बुधैर्विधेया, विशुद्धभावैः श्रुतसारवद्भिः॥१॥ अर्थ:-मिथ्यात्वरूप जे दावानल तेने शमाववाने मेघ समान एवा मिथ्यात्व कदाग्रहरूप प्रसारनो त्याग पंडिते कह्यो छे. जे कदाग्रहना त्यागने विषे रति करवी ते तो जे पंडित होय, वली शुद्ध भाववालो होय अने सिद्धांतना सारनो जाण होय तेणे कदाग्रहने छांडवो ॥१॥ असद ग्रहामिज्वलितं यदंतः, क तत्र तत्त्वव्यवसायवल्लिः ॥ प्रशांतिपुष्पाणि हितोपदेश फलानि चान्यत्र गवेषयंतु ॥२॥ अर्थ:-जेनुं अंतःकरण अछता पदार्थना कदाग्रहरूप अग्निये बल्युं छे तेना हृदयमां तत्त्व-व्यापाररूप वेली केम करी ऊगे ? अने समतारूप फूल केम फूटे ? तथा हित उपदेशरूप फल क्याथी होय ? ते माटे कदाग्रहने तजीने बीजे ठेकाणे तत्वनी खोज करवी ॥२॥ अधीत्य किंचिच्च निशम्य किंचिद सद्ग्रहात्पंडितमानिनो ये॥ मुखं सुखं चुंबितमस्तु वाचो, लीलारहस्यं तु न तैर्जगाहे ॥ ३ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ अर्थ :- कांइक भणीने तथा कांइक शास्त्र सांभळीने आत्माने पंडितपणुं मानता एवा मूर्ख कदाग्रहना धरनार ते पोतानुं मुखचुंबित जे वाचा तेने सुख माने; पण ते मुखे करी लीलारूप रहस्य जे ज्ञान ते अवगाहे नही || ३ ॥ असद्ग्रहोत्सर्पदतुच्छदबधांशतांधी कृतमुग्धलोकैः ॥ विडंबिता हंत जडैर्वितंडा पांडित्यकंडूलतया त्रिलोकी ॥ ४ ॥ अर्थ :- जेने कदाग्रहथकी घणो गर्व वध्यो छे, अने स्वकल्पित ज्ञानने अंशे करी भविक जीवोने जेणे आंधळा कीधा छे, एहवा जड प्राणीये पंडिताइनी खरजे करीने हंत इति खेदे पाहुप्रहारेथकी ण लोकने वितंडा कहेतां डाकडमालें विटंबना करी छे ॥ ४ ॥ विधोर्विवेकस्य न यत्र दृष्टि स्तमोघनं तत्त्वरविर्विलीनः ॥ अशुक्लपक्ष स्थितिरेष नूनम सद्ग्रहास्थूलमतिर्मनुष्यः ॥ ५ ॥ अर्थ :- जेना हृदयमां विवेकरूप चंद्रनी दृष्टि नथी तेथी घणो अंधकार छे, अने तत्त्वरूप सूर्य अस्त पाम्यो छे तेथी ते कृष्णपक्षनी निशावत् स्थितिमां छे; केमके तेने कदाग्रहे छल्यो छे ॥ ५ ॥ कुतर्कदात्रेण लुनाति तस्ववल्लीरसानू सिंचति दोषवृक्षं ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ क्षिपत्यधः स्वादुफलं समाख्य मसद्ग्रहः कोऽपि कुहूविलासः ॥ ६ ॥ अर्थ:-जे कदाग्रही छे ते कुविचाररूप दातरडे करी तस्वरूप वेलीने छेदे छे, अने पापरूप वृक्षने पाणी पाय छे तथा समतारूप अमृत फलने हेतुं धूळमां नाखे छे; एवो कोई कदाग्रहरूप अमावास्यानी रात्रीनो विलास छे ॥ ६ ॥ असद्ग्रहग्रावमये हि चित्ते, न कापि समावरसप्रवेशः॥ इहांकुराश्चित्तविशुद्धबोधः सिद्धांतवाचां बत कोऽपराधः ॥ ७॥ अर्थः–ते कदाग्रही माणसनुं चित्त पथ्थर जेवं छे. जेम पथ्थरने पाणी भेदे नही तेम जिनवाणीरूप रस ते कदाग्रही माणसमा प्रवेश करे नही, तेथी तेना चित्तरूप वृक्षमा शुद्ध बोधरूप अंकुर प्रगटे नहीं; तो तेमां सिद्धांतनी वाणीनो शोवांक ? ॥७॥ व्रतानि चीर्णानि तपोऽपि तप्तं, कृता प्रयत्नेन च पिंडशुद्धिः॥ अभूत्फलं यत्तु न निन्हवानाम__ सद्ग्रहस्यैव हि सोऽपराधः॥ ८॥ अर्थ:-जो पंचमहाव्रत पाळ्यां, उग्र तप कीधां, उद्यमे करी बेंतालीस दोष रहित आहार लीधो, तेम छतां पण जे निलवादिक मुक्तिरूप फळ न पाम्या ते अपराध सर्व कदाग्रहनोज छे ॥ ८॥ स्थालं स्वबुद्धिः सुगुरोश्च दातु रुपस्थिता काचन मोदकाली ।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ असदग्रहः कोऽपि गले ग्रहीता तथापि भोक्तुं न ददाति दुष्टः ॥९॥ अर्थः-पोतानी बुद्धिरूप थालमां कांइक शुद्ध ज्ञानरूप मोदकने गुरु पीरसवा उठ्या, पण कदाग्रहे आवी गळं पकडयुं, तेथी जमायुं नही, एवो कदाग्रह दुष्ट छे ॥ ९ ॥ गुरुप्रसादीक्रियमाणमर्थ गृह्णाति नासद्ग्रहवांस्ततः किं १ ॥ द्राक्षा हि साक्षादुपनीयमानाः, ___ क्रमेलकः कंटकभुङ् न मुंक्ते ॥ १० ॥ अर्थः—जो गुरु प्रसन्न थइने अर्थ-उपदेश आपे छे, तोपण कदाग्रही पुरुष ते उपदेशने ग्रहतो नथी; तेथी शुं थयु ? उपदेश तो कोई खोटो नथी. ए तो जेम प्रगटपणे मीठी द्राक्ष उंट आगल मुकिये, तोपण तेने तजीने उंट कांटाने खाय छे॥१०॥ असद्ग्रहात्पामरसंगतिं ये, कृर्वति तेषां न रतिबंधेषु ॥ विष्टासु पुष्टाः किल वायसा नो - मिष्टान्ननिष्ठा प्रसभं भवंति ॥ ११ ॥ अर्थ:-जे प्राणी कदाग्रहे करी मूर्खनी संगत करे छे तेने पंडितनी सोबत गमती नथी. जेम कागडा विष्ठाभोगी छे तेने मधुर आहारनी इच्छा थती नथी तेनी पेरे ॥ ११ ॥ नियोजयत्येव मतिं न युक्तौ, युक्तिं मतो यः प्रसभं नियुक्त ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० असग्रहादेव न कस्य हास्योsजले घटारोपणमादधानः ।। १२ ।। अर्थ :- जेम कोई मूर्ख नदीना जल उपर घडो भरीने मूके, तेने जोईने कोण हसे नहीं १ केमके अगाध निर्मल जलना विस्तार आगल एक तुच्छ मात्र जले भरेलो घडो ते शी गणत्रीमां छे ? तेम गुरुना मुखथी शास्त्रयुक्ति सांभलीने तेमां पोतानी मति जोडे नही अने पोतानी युक्तिवडे ऊलटुं बोले, जे तमारी युक्तिने नमस्कार होजो ! एवा कदाग्रहीने देखी कोण हांसी न करे ? इहां गुरुनो उपदेश ते नदीना जल तुल्य छे. तेना आगल कदाही घट केम नीमे १ ।। १२ ।। असद्ग्रहो यस्य गतो न नाशं, न दीयमानं श्रुतमस्य शस्यम् ॥ न नाम वैकल्यकलंकितस्य, प्रौढा प्रदातुं घटते नृपश्रीः ॥ १३ ॥ अर्थ : जेम कोइ घेला आदमीने महोटी राज्यलक्ष्मी आपवी घटे नही, तेम जेहने कदाग्रह गयो नथी तेवा प्राणीने धर्मोपदेश आपवो योग्य नथी ॥ १३ ॥ आमे घटे वारि धृतं यथा सद्विनाशयेत्स्वं च घटं च सद्यः ॥ असद्ग्रहग्रस्तमतेस्तथैव श्रुतात्प्रदत्तादुभयोर्विनाशः ॥ अर्थः – जेम काचा घडामां पाणी भरवाथी घडानो तेमज पाणीनो नाश थाय छे, तेमज कदाग्रही माणसने शास्त्र शीखवतां शास्त्रनो तेमज तेनो पोतानो बनेनो विनाश थाय छे ॥ १४ ॥ असग्रहग्रस्तमतेः प्रदत्ते हितोपदेशं खलु यो विमूढः ॥ शुनी शरीरे स महोपकारी कस्तूरिकालपेनमादधाति ।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ:-जेम विष्टाये भयु मुख देखी कुतरीने उपकार करवा कस्तूरीनो लेप करे ते मुर्ख जाणवो, तेम कदाग्रही प्राणीने उपकार करवाने हितोपदेश आपे ते पण मूर्ख जाणवो ॥१५॥ कष्टेन लब्धं विशदागमार्थ ददातियोऽसद्ग्रहदूषिताय। स खिद्यते यत्नशतोपनीतं बीजं वपन्नूषरभूमिदेशे१६ अर्थ:-जेम घणा उद्यमे अनाजनां बीज मेगां करी उखर जमीनमां वावे, ते आगल जतां सदाय खेद पामे छे; तेम पंडित प्राणी गुरुनो विनय करी कष्टे करी निर्मल आगम . सिद्धांतना अर्थने पाम्यो होय, ते जो कदाग्रहे करी दुषित पाणीने तेहनो अर्थ शीखववानो उद्योग करे तो तेथी अंते खेद पामे छे ॥ १६ ॥ शृणोति शास्त्राणि गुरोस्तदाज्ञां, करोति नासद्ग्रहवान् कदाचित् ॥ विवेचकत्वं मनुते च सार ग्राही भुवि स्वस्य च चालनीवत् ॥ १७ ॥ अर्थ:-जो गुरु पासेथी शान सांभले तो पण कदाग्रही जे होय ते कोई काले ते गुरुनी आज्ञा न माने. ते पोतानी मेळे पोते एहवं माने, जे हुंज सर्व पदार्थनी बराबर वहेचण करं छु, पण ते तो जेम पृथ्वीमां चालणीमांथी चाळीने सारभूत वस्तु कहाडी लेइने बाकी असार धान्य रहे छे तेहनो ते ग्राही छे ॥ १७॥ दंभाय चातुर्यमधाय शास्त्रं प्रतारणाय प्रतिभापटुत्वं। गर्वाय धीरत्वमहोगुणानाम सद्ग्रहस्थे विपरीतसृष्टिः अर्थ:-माटे अहो इति आश्चर्य ! विधाताये कदाग्रही Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ माणसमां विपरीत गुण सृज्या छे ! जेवा देव तेवी पात्री, अने मेघजल सर्पना मुखमां जेम विषतुल्य थइ जाय छे, ए कहेवतने विधाताये खरी पाडी छे, केमके जे कदाग्रहीनी चतुराइ ते कपटने अर्थे थाय, अने शास्त्र भणवू ते मदने अर्थे थाय, तथा बुद्धि, डहापण अने उपदेश ते. लोकने ठगवाना साधनने अर्थे थाय अने धर्यपणुं ते गर्व करवाने अर्थे थाय ॥ १८ ॥ असग्रहस्थेन समं समंता सौहार्दभृदुःखमवैति तादृग् । उपैति यादकदली कुवृक्ष स्फुटत्रुटत्कंटककोटिकीर्णा ॥ १९ ॥ अर्थ:-जेम केलर्नु वृक्ष ते कंथेरादिक वृक्षने संगे कांटाये करी कोराय छे तेम जे प्राणी कदाग्रही साथे मित्राई करे ते अंते दुःखनो विपाक पामे छे ॥ १९ ॥ विद्या विवेको विनयो विशुद्धिः, सिद्धांतवाल्लभ्यमुदारता च ॥ असद्ग्रहाद्यान्ति विनाशमेते, __ गुणास्तृणानीव कणाहवाग्नेः ॥ २० ॥ ... अर्थ:-जेम अग्निथी घासना समूह भस्मीभूत थाय छे तेम विद्या, विनय, विवेक, विशुद्धि अने सिद्धांत उपर वलभतापणु अने उदारता ए सर्व कदाग्रहथी नाश पामे छे ॥ २० ॥ स्वार्थः प्रियो नो गुणवांस्तु कश्चिन्__ मूढेषु मैत्री न तु तत्त्ववित्सु ॥ असद्ग्रहापादितविश्रमाणां स्थितिः किलासावधमाधमानां ॥ २१ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ अर्थ:-जे कदाग्रहीनी सोबते रह्या तेने स्वार्थ प्रिय छे ते प्राणी अवगुणवंत, मूर्ख साथे मित्राई करे अने पंडित साथे मित्राइ करे नही, एवा कदाग्रहीनी सोबते रह्या, जे अधममां अधम नीच प्राणी तेहनी ए स्थिति छे, ते कही ॥ २१ ॥ इदं विदस्तत्त्वादारबुद्धि. रसग्रहं यस्तृणवजहाति । जहाति नैनं कुलजेव योषि गुणानुरका दयिता यश:श्री ॥ २२॥ . अर्थ:-एम जाणीने तत्त्वने ओलखनार मोटी बुद्धिवाला प्राणी कदाग्रहने तृणखलानी पेठे छांडे; तेने जेम कुलवंती स्त्री भरतारने तजती नथी तेम गुणरागी एवी जे यश-कीर्तिरूप लक्ष्मी स्त्री छांडती नथी ॥ २२ ॥ इति कदाग्रहत्यागाधिकार चतुर्दशः॥ . इति महापाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिते ___ अध्यात्मसारप्रकरणे चतुर्थः प्रबंधः ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगाधिकारः असद्ग्रहव्ययाद्वांतमिथ्यात्वविषयीप्रुषः ॥ सम्यक्त्वशालिनोऽध्यात्मशुद्धेर्योगः प्रसिध्यति ॥१॥ कर्मज्ञानविभेदेन स द्विधा तत्र चादिमः ॥ भावश्यकादिविहितः क्रियारूपः प्रकीर्तितः ॥२॥ ___ अर्थः-हवे कदाग्रहना नाशथी मिथ्यात्वरूप अंधकारनो विषय गयो छे जेमांथी एहवा समकिते करी उज्ज्वल अंतःकरण थयां छे जेहना एवा जे प्राणी तेमने अध्यात्मनी शुद्धिथकी योग प्रसिद्ध रीते प्रगटे॥१॥ ते योगना बे मेद छे. एक कर्मयोग अने बीजो ज्ञानयोग. तेमां कर्मयोग ते आवश्यकादिक जे क्रिया करवी ते रूप कह्यो छे ॥ २ ॥ शारीरस्पंदकर्मात्मा यदयं पुण्यलक्षणं॥ कर्मातनोति सद्भोगास्कर्मयोगस्ततः स्मृतः ॥ ३ ॥ आवश्यकादिरागेण वात्सल्याद्भगवदूगिरां ॥ प्राप्नोति स्वर्गसौख्यानि न यांति परमं पदं ॥४॥ ___ अर्थ:-शरीरचेष्टारूप ते कर्मात्मा कहिये, ए योग पुण्यरूप छे. ते रुडा भोग थकी कर्मने विस्तारे छे. ते माटे एने कर्मयोग कहिये ॥ ३ ॥ आवश्यकादिक क्रियाने रागे तथा जिनवाणीने विलासे करीने स्वर्गना सुखने पामे; पण ए योगे मुक्तिपदने न पामे ॥ ४ ॥ ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमात्मरत्येकलक्षणं ॥ इंद्रियार्थोन्मनीभावात्स मोक्षसुखसाधकः ॥५॥ न परप्रतिबंधोऽस्मिन्नल्पोऽप्येकात्मवेदनात् ॥ शुभं कर्मापि नैवात्र व्याक्षेपायोपजायते ॥ ६॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थः-बीजो ज्ञानयोग तेहने कहिये, जे तप शुद्धिपणे आत्माने विषे रति पामे, ते एक लक्षण अने इंद्रियोना विषयथी दूर रहे, ते बीजं, एवां लक्षणे युक्त जे योग तेने पामेलो पुरुष ते मोक्षसुखने साधे ॥ ५॥ एक आत्मज्ञानयोगना ज्ञानमा बीजो प्रतिबंध नथी, अने जे कर्मथी मोक्षमा जतां वार लागे ते शुभ कर्म पण नथी ॥ ६॥ न ह्यप्रमत्तसाधूनां क्रियाप्यावश्यकादिका ।। नियता ध्यानशुद्धत्वाद्यदन्यैरप्यदः स्मृतं ॥७॥ यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ॥ आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥ ८॥ अर्थः-अप्रमत्तसाधुने आवश्यक प्रमुख जे क्रिया तेने पण करवाने विषे प्रतिबंध नथी, केमके तेने ध्यानरूप शुद्धि छ; माटे ॥ ७ ॥ वलि अन्य दर्शनमां पण श्रीकृष्ण कहे छे के हे अर्जुन ! जे आत्मसुखमां तृप्त छे तेने आत्माने विषे ज रति छे, अने संतोष छे. जे आत्म सुखमां संतुष्ट छे, एवो जे जीव तेने कांई पण कर्तव्य नथी ॥८॥ नैवं तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ॥ न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥९॥ अवकाशो निषिद्धोऽस्मिन्नरत्यानंदयोरपि ॥ ध्यानावष्टंभतः क्वास्तु तत्क्रियाणां विकल्पनं ॥१०॥ अर्थः ते प्राणीने कार्य करवे अर्थ नथी, तेमज न करवाथी खोट पण नथी; तेने सर्व भूतने विषे कांई प्रयोजन नथी ॥ ९॥ए ठेकाणे अरतिनो अने आनंदनो अवकाश नथी, केमके ध्याननी स्थिरताथी ते क्रियानो विकल्प पण केम होय १ ॥ १० ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहनिर्वाहमात्रार्था याऽपि भिक्षाटनादिका ॥ क्रिया सा ज्ञानिनोऽसंगान्नैव ध्यानविघातिनी॥११॥ रत्नशिक्षादृगन्या हि तन्नियोजनहग्यथा ॥ फलभेदात्तथाचारक्रियाप्यस्य विभिद्यते ॥ १२ ॥ ___ अर्थः-देह-निर्वाहरूपे मुनिने गोचरी प्रमुख जे क्रिया ते क्रिया ज्ञानीना असंगानुष्ठानथी ध्यानमां विघ्न करे नहीं ॥११॥ रत्नमाणिक्यपरीक्षाना ग्रंथ जुदा अने नजर-परीक्षा पण जुदी. ग्रंथ भणीने जेम नजर-परीक्षामां फलभेदथी प्रवर्ते छे, तेम आचारक्रिया पण फलभेदे करी भिन्न भिन्न छे, एटले भेदवंती छे ॥ १२॥ ध्यानार्था हि क्रिया सेयं प्रत्याहत्य निजं मनः ॥ प्रारब्धजन्मसंकल्पादात्मज्ञानाय कल्पते ॥१३॥ स्थिरीभूतमपि स्वांतं रजसा चलतां व्रजेत् ॥ प्रत्याहृत्य निगृह्णाति ज्ञानी यदिदमुच्यते ॥१४॥ अर्थः-जो पोताना मनने पाछु वाळीने जन्मसंकल्पथी मांडीने आत्मज्ञान भणी कल्पिये तो ते क्रिया ध्यानरूप छ।।१३॥ स्थिर थयेलं जे मन ते पण रजोगुणे करी चपलताने पामे. तेहने पार्छ वाली तेनो निग्रह करे तेने ज्ञानी कहेवो ॥ १४ ॥ शनैः शनैरुपशमेदबुद्ध्या धृतिगृहीतया ॥ __ आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिंतयेत् ।१५ यतो यतो निःसरति मनश्चंचलमस्थिरं ॥ ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ १६ ॥ अर्थः हे अर्जुन ! मनने धीरे धीरे धीरजवडे अने बुद्धिवडे स्थिर करवू, पछी ते मन जेवारे आत्माना स्वरूपने Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ विषे जाय तेवारे कांइ बीजं चिंतन करवानी जरूर नथी ॥ १५ ॥ मन चंचल ने अस्थिर छे. तेने ज्या ज्यां जाय त्यां त्यांथी पार्छ वाळीने आत्मानी साथे वश करी राखg ॥ १६ ॥ अत एवादृढस्वांतः कुर्याच्छास्त्रादिना क्रियां ॥ सकलां विषयप्रत्याहरणाय महामतिः ॥ १७ ॥ श्रुत्वा पैशाचिकी वार्ता कुलवध्वाश्च रक्षणं ।। नित्यं संयमयोगेषु व्यापृतात्मा भवेद्यतिः ॥ १८॥ ... अर्थः–एम परदर्शनमां पण कर्तुं छे, माटे ज्यां सुधी मन स्थिर न होय त्यां सुधी शास्त्रोक्त क्रिया जेटली करिये तेटली सर्व सफल न थायं. जेवारे विषयत्याग थाय तेवारेज सफल थाय, माटे जे प्राणी मनने विषयथी वाळवामां उजमाल रहे ते महामतिवाळा जाणवा ॥ १७ ॥ जेम एक शेठनो पुत्र देशांतर गयो. तेना घरनी सामेना एक वृक्ष उपर एक भूत रहेतो हतो. ते छल पामी, पुत्रनुं रूप धारण करी तेनी स्त्री साथे लागु पड्यो. एम करतां ते शेठनो दीकरो पोताने घरे आव्यो तेवारे घरमा लडाई चालवा लागी. पछी राजदरबारे इन्साफने वास्ते गया. तिहांथी भूतने घरमांथी काढवानुं ठयु, पण ते नीकळ्यो नहीं ने कहेवा लाग्यो के हुं जवानो नथी; हूं पण पुत्र छु. ए वात सांभळी वहुने लाज लागी. छेल्ले शेठने भूतने वैरी साथे युद्ध करवानुं काम भळाव्यु, अने वहुने घरनो धंधो भळाव्यो, ए रीते अनाचार टाल्यो अने वहुने राखी, तेम मुनिये पण निरंतर संयमना योगे आत्माने राखवो ॥ १८ ॥ या निश्चयैकलीनानां क्रिया नातिप्रयोजनाः ॥ व्यवहारदशास्थानां ता एवातिगुणावहाः ॥ १९ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कर्मणोऽपि हि शुद्धस्य श्रडामेधादियोगतः ॥ अक्षतं मुक्तिहेतुत्वं ज्ञानयोगानतिक्रमात् ॥ २० ॥ ___अर्थ:-जेनुं मन निश्चयमां लीन छे तेने क्रियानुं प्रयोजन नथी. व्यवहारदशावालाने क्रिया ते अतिगुणकारी छे ॥ १९ ॥ शुभ कर्मथी अने श्रद्धाबुद्धिना योगथी अखंडपणे जे ज्ञानयोगने उल्लंघे नहीं तो तेने मुक्तिनो हेतु प्रगट थाय ॥२०॥ अभ्यासे सक्रियापेक्षा योगिनां चित्तशुद्धये ॥ ज्ञानपाके शमस्यैव यत्परैरप्यदः स्मृतं ॥ २१ ॥ आरुरुक्षो मुनर्योगं कर्मकारणमुच्यते ॥ योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ २२ ॥ ___ अर्थ-जे रुडी क्रियानी अपेक्षाये अभ्यास करे छे ते योगीश्वरने चित्तशुद्धिने अर्थ ज्ञान परिपक्व करवाने उपशम कडं छ एम अन्य दर्शनीओ पण कहे छे ॥ २१ ॥ हे अर्जुन ! योग पामवाने इच्छता जे योगी छे तेहने कर्म तो एक कारण छे. जेवारे सर्व संकल्प शमी जाय तेवारे तेने ज्ञानयोगी कहिये. ते माटे ज्ञानारूढने समता तेज कारण छे ॥ २२॥ . यदा हि नेंद्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्यते ॥ सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ २३ ॥ ज्ञानं क्रियाविहीनं न क्रिया वा ज्ञानवर्जिता ॥ गुणप्रधानभावेन दशाभेदः किलैतयोः ॥ २४ ॥ ___ अर्थ-जेवारे विषयथी विरमे, कर्मने विषे संलग्न न श्राव, जेवारे सर्व संकल्प शमी जाय तेवारे तेहने योगारूढ कहिये ॥ २३ ॥ क्रिया विना ज्ञान नथी, भने ज्ञान विना क्रिया मथी. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए बेमा क्रिया ते गौण छे अने ज्ञान ते मुख्य छे, एवो ए बेनो दिशीभेद कह्यो छे ॥ २४ ॥ ज्ञानिनां कर्मयोगेन चित्तशुद्धिमुपेयुषां ॥ निरवद्यप्रवृत्तीनां ज्ञानयोगौचिती ततः ॥ २५ ॥ अत एव हि सुश्रद्धाचरणस्पर्शनोत्तरम् ॥ दुःपालश्रमणाचारग्रहणं विहितं जिनैः ॥ २६ ॥ ___ अर्थः-कर्मयोगे करीने मनशुद्धि पामेला अने निर्दोष विहारी एहवा जे ज्ञानी तेने ज्ञानयोग मुख्यपणे सेववो उचित छे. एवो वीतरागनो मत छे. ॥ २५॥ ए माटे रुडी श्रद्धायें देशविरतिरूप चारित्रनो स्पर्श कीधा पछी दुःखे पाली शकिय एवा मुनिनो आचार जे सर्वविरतिपणुं छे ते लेवो एटले प्रभुयें पछी संयम लेवू कयु छे ॥ २६ ॥ एकोद्देशेन संवृत्तं कर्म यत्पौर्वभूमिकं ॥ दोषोच्छेदकरं तत्स्यादूज्ञानयोगप्रवृद्धये ॥ २७॥ अज्ञानिनां तु यत्कर्म न ततश्चित्तशोधनं ॥ योगादेरतथाभावान् म्लेच्छादिकृतकर्मवत् ॥२८॥ अर्थः-कोइएक देश आश्रीने पूर्वभूमि ते पूर्वभवरूप संवृत्तपणे उद्देशीने एटले देशथकी जे पहेलां वृत्त आदर्यो एहवी जे क्रिया ते पण दुःखने टालनारी छे. वली ज्ञानयोगनी वृद्धिकर्ता थाय छे ॥ २७ ॥ अने अज्ञानीनी जे क्रिया ते चित्तशुद्धि करवाने अर्थे नहीं थाय; केमके तेहने ज्ञानयोगनो अभाव छ, माटे म्लेच्छना करेला कार्य सरखी ते जाणवी ॥ २८ ॥ न च तत्कर्मयोगेऽपि फलं संकल्पवर्जनात् ॥ संन्यासो ब्रह्मबोधाद्वा सावद्यत्वात्स्वरूपतः ॥२९॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो चेदित्थं भवेबुद्धिगोहिंसादेरपिं स्फुटा॥ श्येनाद्वा वेदविहिताद्विशेषानुपलक्षणात् ॥ ३० ॥ अर्थ:-तो तेवा कर्मयोगे पण फल नथी. फल तो संकल्प वर्जे तेवारेज थाय छे. आत्मज्ञान विना त्याग पण नथी, अने एनुं स्वरूप सावध छे, माटे ब्रह्म जे ज्ञान तेना बोधथकी फल प्रगटे ॥ २९ ॥ जो कदापि एम बुद्धि न होय तेवारे तो गोहिंसादिकथकी म्लेच्छादिकने पण प्रगट शुद्धि होय, तथा सिंचाणाना वधथी वेदमां पशुयाग कह्या, ते थकी हिंसक कर्मना योगे वेदीयानां अने म्लेच्छनां एक सरखां ज लक्षण छे काई विशेष नथी ।। ३० ॥ सावद्यकर्म नो तस्मादादेयं बुद्धिविप्लवात् ।। कर्मोदयागते तस्मिन्नसंकल्पादबंधनं ॥ ३१ ॥ कर्माप्याचारतो ज्ञातुर्मुक्तिभावो न हीयते ॥ तत्र संकल्पजो बंधो गीयते यत्परैरपि ॥ ३२ ॥ अर्थः-एटला माटे बुद्धिना विपर्यासपणाथी सावद्यकर्म आदरयु नही, अने जो दैवयोगे तेवा कर्म करवानुं उदय आव्यु तेवारे ते कर्म करवानो जो संकल्प नथी, तो ते कर्मनुं बंधन पण नथी ॥३१॥ सांसारिक क्रियानो जो आचार छे, तोपण ज्ञानीने मुक्तिभावनी हाण नथी, केमके संकल्पथी बंधन छे, एवं अन्य दर्शनवालानुं पण कहे, छे, ते जुओ आगल कहे छे ॥ ३२ ॥ कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः॥ __ स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृतकर्मकृत् ॥३३॥ कर्मण्यकर्म वाकर्म कर्मण्यस्मिन्नुभे अपि ॥ नोभे वा भंगवैचित्र्यादकर्मण्यपि नो मते ॥३४॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ अर्थ :- जे कर्मने विसर्जे, अकर्मपणुं देखे छे, अने कर्म नथी करतो, अने जाणे छे जे हूं करूं छं, तेने माणसमां बुद्धिवंत कहिये. ते करवापणाना कर्मने अकरवा पणुं देखे छे ते पोते पोताने स्वरूपे छे, एम घणी भंगजाल प्रगटे छे ॥ ३३ ॥ निःकर्म मार्गने विषे नहीं माण्युं, ते अकरबुं थयुं; अने अकरवापणे जे करे छेतेना बे भांगा छे. एम करवाना विचित्र भांगा छे ॥ ३४ ॥ कर्मनैः कर्मवैषम्यमुदासीनो विभावयन् ॥ ज्ञानी न लिप्यते भोगैः पद्मपत्रमिवांभसा ॥ ३५ ॥ पॉपॉकरणमात्राडि न मौनं विचिकित्सया || अनन्यपरमात्मा स्यात् ज्ञानयोगी भवेन्मुनिः || ३६ || अर्थ :- उदासी भाववालो विचित्रपणे कर्मनुं विषमपणुं चितवे. जेम कमलपत्र जलमां लेपातुं नथी तेम ज्ञानी पुरुष भोगमां लेपातो नथी ।। ३५ ।। पाप न करवाथी कांइ मुनिपणुं आवतुं नथी, संशय रहितपणे पोतेज ज्ञानयोगमय परमात्मा थाय तेने मुनि कहिये || ३६ ॥ विषयेषु न रागी वा द्वेषी वा मौनमश्नुते ॥ समं रूपं विदंस्तेषु ज्ञानयोगी न लिप्यते ॥ ३७ ॥ सतस्त्वचिंतया यस्याभिसमन्वागता इमे ॥ आत्मवान् ज्ञानवान्वेदधर्मब्रह्ममयो हि सः ||३८|| अर्थ ः– विषयने विषे जेने राग नथी तेम द्वेष पण नथी तेने मुनि कहिये. मध्यस्थपणे रूपादिकने जाणतो जे ज्ञानी योगी ने लेप लागतो नथी ॥ ३७ ॥ जेणे तचनी ओलखाणवडे समता धारण कीधी, तेनेज आत्मानी ओलखाण थई, अने तेज ज्ञानी तथा तेज धर्ममय तथा ब्रह्ममय कहेवाय || ३८ || Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ वैषम्यबीजमज्ञानं निघ्नंति ज्ञानयोगिनः॥ . विषयांस्ते परिज्ञाय लोकं जानंति तत्त्वतः ॥३९॥ इतश्चापूर्वविज्ञानाच्चिदानंदविनोदतः॥ ज्योतिष्मंतो भवत्येते ज्ञाननिधूतकल्मषाः ॥४०॥ ___ अर्थः-संसारनुं विषम बीज जे अज्ञान छे ते बीजने ज्ञानयोगी बाली नांखे छे तथा विषयादिकने ओलखीने तत्त्वथी लोकना स्वरूपने जाणे छे ।। ३९ ॥ ते अपूर्व अनुभवथी अने ज्ञानना आनंदमय विनोदथी महाज्योतिवंत थाय अने तेना पाप ज्ञाने करी बली जाय ॥ ४० ॥ तेजोलेश्याविवृद्धिर्या पर्यायक्रमवृद्धितः॥ __ भाषिता भगवत्यादौ सेत्यंभूतस्य जायते ॥४१॥ विषमेऽपि समेक्षी यः स ज्ञानी स च पंडितः॥ जीवन्मुक्तः स्थिरं ब्रह्म तथा चोक्तं परैरपि ॥४२॥ ___ अर्थ-दीक्षापर्यायनी वृद्धिथी तेजोलेश्यानी वृद्धि थाय छे, एम भगवती आदि सूत्रोमां कयुं छे. ते एवा प्राणीने प्रगट थाय ॥ ४१॥ जे विषमने विषे समभावे जुए, तेवा ज्ञानीने पंडित कहिये. वली जीवनमुक्त अने स्थिर तथा ब्रह्म पण तेने ज कहिये ॥ ४२ ॥ विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ॥ शुनि चैव श्वपाके च पंडिताः समदर्शिनः ॥४३॥ इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ॥ निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः।।४४॥ अर्थ-तेमज परदर्शनने विषे पण का छे के, हे अर्जुन ! विद्या, विनय सहित ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुतरूं, चंडाल Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ सर्वने समदृष्टिये जुए छे तेने पंडित कहियें ॥ ४३ ॥ एहवा जीवे इहां बेठे थकेज जगत्सृष्टिने जीती लीधी ने तेनुं मन समता पाम्युं. ते निर्दोषपणे सम्यक् जे आत्मस्वरूप तेने पाम्यो, ते ब्रह्मज्ञाने रह्यो एम जाणवुं ॥ ४४ ॥ न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियं ॥ स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ॥ ४५ ॥ अर्वाग्दशायां दोषाय वैषम्ये साम्यदर्शनं ॥ निरपेक्षमुनीनां तु रागद्वेषक्षयाय तत् ।। ४६ ।। अर्थ - जे रुडुं मले हर्ष न करे अने भुडुं प्राप्त थये शोक न धरे, ते स्थिर बुद्धिवालो चतुर प्राणी ब्रह्मनो जाण ब्रह्मज्ञाने रह्यो छे एम जाणवुं ।। ४५ ।। हेठली दशावालाने तो जे विषमने विषे समपणे जोवुं ते दोषनुं कारण छे; अने जे निरपेक्षी मुनि तेने तो विषमने समपणे जोर्बु ते रागद्वेषनो क्षय करनार थाय छे ॥ ४६ ॥ रागद्वेषक्षयादेति ज्ञानी विषयशून्यतां ॥ छिद्यते भिद्यते वाऽयं हन्यते वा न जातुचित् ||४७ || अनुस्मरति नातीतं नैव कांक्षत्यनागतं ॥ शीतोष्णसुखदुःखेषु समो मानापमानयोः ॥ ४८ ॥ अर्थ – रागद्वेषना क्षयथी ज्ञानी मुनि विषयनी शून्यतापणाने पामे छे. तेने कोई छेदी शके नही, कोई भेदी शके नही, कोई ही शके नही; केमके ते पोतानो आत्मा आत्मस्वरूपे माने छे ।। ४७ ।। ते ज्ञानी पुरुष गई वस्तुने संभारे नहीं अने अनागत वस्तुने इच्छे नही, शीत अने उष्ण तथा सुख अने दुःख, क्ली मान ने अपमान ए सर्वने - समपणे माने छे ॥ ४८ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जितेंद्रियो जितक्रोधो मानमायानुपद्रुतः ॥ लोभसंस्पर्शरहितो वेदखेदविवर्जितः। ४९ ॥ संनिरुध्यात्मनात्मानं स्थितः स्वकृतकर्मभित् ॥ हठप्रयत्नोपरतः सहजाचारसेवनात् ॥५०॥ ___ अर्थ-जे क्रोध रहित, मान-मायाना उपद्रवे रहित, लोभना स्पर्शे रहित, वेदोदय रहित, अने खेद रहित होय तेने जितेंद्रिय कहियें ॥ ४९ ॥ ते आत्माए करी आत्माने रोधी रह्यो, पोताना कर्या कर्मने भेदतो कदाग्रहथी विरम्यो, स्वाभाविक आचारने सेवतो ॥ ५० ॥ लोकसंज्ञाविनिर्मुक्तो मिथ्याचारप्रपंचहृत् ॥ उल्लसत्कंडकस्यानः परेण परमाश्रितः ॥५१॥ श्रद्धावानाज्ञया युक्तः शस्त्रातीतो यशस्त्रवान् ॥ गतो दृष्टेषु निर्वेदमनिन्हुतपराक्रमः ॥५२॥ अर्थ-लोकसंज्ञाथी मूकाणो, मिथ्यात्त्र आचारनो टालनार, योगस्थानके उल्लसित थयो छे, एवो जे उत्कृष्ट भावे आत्मानो आश्रित थयो छे ॥ ५१॥ तथा श्रद्धावंत, आज्ञायुक्त अने माठा अध्यवसायरूप जे शस्त्र तेथी वेगलो रहेलो, अने बाह्य शस्त्रथी रहित, देखीता पदार्थने विषे वैराग्यवान् , वली बल-वीर्यने अणगोपवनार । ५२ ।। निक्षिप्तदंडो ध्यानाग्निदग्धपापेन्धनत्रजः ॥ प्रतिस्रोतोऽनुगत्वेन लोकोत्तरचरित्रभृत् ॥ ५३॥ लब्धान् कामान्बहिःकुर्वन्नकुर्वन्बहुरूपतां ॥ स्फारीकुर्वन् परं चक्षुरपरं च निमीलयन् ॥५४ ॥ अर्थ-अने त्रण दंड रहित, जेणे ध्यानरूप अमिए करी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ पापरूप काटना समूहने बाल्यो छे, जे सामे प्रवाहे । चालवे करीने लोकोत्तर चारित्रनो धरनार ।। ५३ ॥ तथा विषयसुख पामीने ते सुख दूर करनार तथा माया-कपट अने क्रोधादिकने अणकरतोथको ते ज्ञानचक्षुने विकस्वर करतो अज्ञानरूप चक्षुने बंध करतो थको ॥ ५४॥ पश्यन्नन्तर्गतान् भावान् पूर्णभावमुपागतः ॥ भुंजानोऽध्यात्मसाम्राज्यमवशिष्टं न पश्यति॥५॥ श्रेष्ठो हि ज्ञानयोगोऽयमध्यात्मन्येव यजगौ ॥ बंधप्रमोक्षं भगवान् लोकसारे सुनिश्चितम् ॥५६॥ - अर्थ-वली जे अध्यात्मभावने देखतो थको पूर्णभावने पामेलो, अध्यात्मनी ठकुराइने भोगवतो थको अन्य पदार्थने नथी जोतो ॥ ५५ ॥ ए उपर कह्यो ते उत्कृष्ट ज्ञानयोग छे. ए अध्यात्म ग्रंथने विषे बंध-मोक्ष पण भगवंते निश्चये आचारांगना लोकसार अध्ययने कह्यो छे ॥ ५६ ।। उपयोगैकसारत्वादाश्वसंमोहबोधतः॥ .. मोक्षाप्तेयुज्यते चैव तथा चोक्तं परैरपि ॥ ५७ ॥ तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽप्यधिको मतः॥ कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ! १५८ अर्थ:-मोक्षप्राप्तिने विषे उपर कहेलो ज्ञानयोग घटे छे, केमके शीघ्रपणे ज्ञानजागृत एहवो उपयोगज मात्र एक सार छे अने अन्यदर्शनीए पण एमज कह्यु छे ।। ५७ ॥ तपसीथी योगी अधिक छे। ज्ञानीथी अने राजाथी पण योगीने मोटो १९ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह्यो छे ते माटे श्रीकृष्णे अर्जुनने क_ छे के हे अर्जुन ! तमे पण योगी थाओ ॥ ५८ ॥ समापत्तिरिह व्यक्तमात्मनः परमात्मनिः॥ अभेदोपासनारूपस्ततः श्रेष्ठतरो ह्ययं ॥ ५९॥ उपासना भागवती सर्वेभ्योऽपि गरीयसी ॥ महापापक्षयंकारी तथा चोक्तं परैरपि ॥६०॥ अर्थ:-माटे इहां आत्मानी समाधि प्रगटे छे. आत्मा तथा परमात्मा ए बेउने विषे अभेदपणे सेवनरूप जे योग ते घणोज श्रेष्ठ छे ।। ५९ । माटे सर्वथी मोटी अने मोटा पापने टाले एवी प्रभुनी सेवा छे, अने परदर्शनमां पण एकुंज कमु छ । ६० ॥ योगिनामपि सर्वेषां सद्गतेनांतरात्मना । श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥३१॥ उपास्ते ज्ञानवान् देवं यो निरंजनमव्ययं । स तु तन्मयतां याति ध्याननिधूत कल्मषः ॥ १२॥ ___अर्थ:-सर्वयोगीमां पण अंतरआत्माये भल्यो एवो श्रद्धावंत प्राणी तो तेहने कहिये, जे मुजने सेवे, ते मुज सरखो पुरुषोत्तम थाय, एम श्रीकृष्ण अर्जुनने कहे छे ॥६१ ॥ ज्ञानवंत, निरंजन अने अविनाशी देव जाणीने, जे पुरुष मने सेवे छे ते तन्मयीपणे थाय छे, अने जेणे महारा ध्यानथी पाप बाली नाख्यां छे, हे अर्जुन ! ते पुरुष महारारूपे थाय छे ।। ६२ ॥ विशेषमप्यजानानो यः कुग्रहविवर्जितः ॥ सर्वज्ञं सेवते सोऽपि सामान्यं योगमास्थितः ॥३३॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञो मुख्य एकस्तत्प्रतिपत्तिश्च यावताम् ॥ सर्वेऽपि ते तमापन्ना मुख्यं सामान्यतो बुधाः ॥१४॥ ___ अर्थ:-जे विशेषने अणजाणतो छे, तोपण जे कदाग्रहे रहित छे अने जे सर्वज्ञने सेवे छे ते पण सामान्य योगे आश्रित छे ॥ ६३ ॥ सर्व प्रमाणमां एक सर्वज्ञ तो मुख्य छे तेहनी सेवाना करनार जेटला छे ते सर्वे तेहिज सर्वज्ञना भावने पामे, पण सर्वज्ञर्नु मुख्यपणुं पंडितो सामान्यथकी कहे छे ॥ ६४ ॥ न ज्ञायते विशेषस्तु सर्वथाऽसर्वदर्शिभिः । __ अतो न ते तमापन्ना विशिष्य भुवि केचन ॥६५॥ सर्वज्ञप्रतिपत्यंशात्तुल्यता सर्वयोगिनां ॥ दूरासन्नादिभेदस्तु तभृत्यत्वं निहंति न ॥ ६६ ॥ अर्थ:-ते सर्वथा प्रकारे सर्वज्ञ सर्वदर्शी तेवडे पण विशेष तो जाणतो नथी, तेथी ते कोई विशेष भूमिकाने पाम्या नथी; एटले पृथ्वीमां कोई विशेष जाणपणे सर्वज्ञपणुं पाम्या नथी ।। ६५ ॥ सर्वज्ञपणाना जे प्रत्येक अंश छे ते सर्व योगीने सरिखा छेमाटे ढुंकडा अने वेगलापणाना भेदथी तेहनुं सेवकपणुं काइ हणातुं नथी ॥ ६६ ॥ माध्यस्थमवलंब्यव देवतातिशयस्य हि ॥ सेवा सर्वैर्बुधैरिष्टा कालातीतोऽपि यजगौ ॥ ६७॥ अन्येषामप्ययं मार्गो मुक्ताविद्यादिवादिनां ॥ अभिधानादिभेदेन तत्वरीत्या व्यवस्थितः ॥६८॥ __ अर्थः-माध्यस्थपणु अवलंबीने एटले देवताना अतिशयनुं माध्यस्थपणुं धारीने सर्व पंडिते सेवा मानी छे. कालथी अतीत छे, तोपण एम कहे छे ॥ ६७ ॥ बीजा पण मुक्तवादीनो Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अने अविद्यादिकवादी जे परदर्शनी तेनो पण आ मार्ग छे, एटले पूर्वे कह्यो ते मार्ग छे. जो के नामादिक भेदे करी कदापि जुदा छे तोपण तत्त्व रीते जोतां एकज व्यवस्था छ । ६८ ॥ मुक्तोबुद्धोऽहश्चापि यदैश्वर्येण समन्वितः।। तदीश्वरः स एव स्यात्संज्ञाभेदोऽत्र केवलं ॥३९॥ अनादिशुद्ध इत्यादियों भेदो यस्य कल्प्यते ॥ तत्तत्तंत्रानुसारेण मन्ये सोऽपि निरर्थकः ॥ ७० ॥ अर्थ:-ते व्यवस्था कही देखाडे छे. कोई दर्शनी मुक्त कहे छे कोई बुद्ध कहे छे, कोइक अर्हत कहे छेकोइक ऐश्वर्ययुक्त एटले ईश्वर कहे छे, ए सर्व सर्वज्ञनी संज्ञाना भेद छे; बीजुं नथी ।। ६९ ॥ तेमज वली अनादिशुद्ध ईश्वर छे इत्यादिक भेद जे परदर्शनीओ कल्पे छे, ते भेद सिद्धांतने अनुसारे विचारीए तो मानवा पण निरर्थक छे ॥ ७० ॥ विशेषस्यापरिज्ञानाद युक्तीनां जातिवादिनः ॥ प्रायो विरोधतश्चैव फलाभेदाच भावतः ॥७१॥ अविद्याक्लेशकर्मादि यतश्च भवकारणं ॥ ततः प्रधानमेवैतत्संज्ञाभेदमुपागतं ॥७२॥ ___अर्थ:-केमके जे विशेषने नहि जाण्याथी, उक्तियुक्तिना जातिवचनथी अने प्राये विरोधथकी भावथी फलनो अभेद छे, ए हेतु माटे ॥ ७१ ।। जे अविद्या, क्लेश अने कर्म इत्यादिक जे संसारना कारण प्रगटे, ते केटलाएक दर्शनीओ जुदा जुदा कहे छे. एटले कोई अविद्या, कोई क्लेश, कोई कर्म, एम संज्ञाये करी भेद कहे छे, पण ए त्रणे प्रधानपणे एकज छे ।। ७२ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ यस्यापि योऽपरो भेदश्चित्रोपाधिस्तथा तथा ॥ गीयतेऽतीतहेतुभ्यो धीमतां सोऽप्यपार्थकः ॥ ७॥ ततः स्थानप्रयासोऽयं यत्तद्भेदनिरूपणं ॥ सामान्यमनुमानस्य यतश्च विषयो मतः ॥ ७४ ॥ अर्थ—ए अविद्यादिक त्रणना वली बीजा भेद कल्पनाये अनेक थाय छे, तेथी अनेक प्रकारनी उपाधी निपजे, तेम तेम जाणिये जे हेतुनो अभाव थाय छे, पण ते उपातिभेद पंडितने निरर्थक छे एम जाणवू ॥ ७३ ॥ तेथी आ स्थाननो जे प्रयास ते भेदनुं निरूपण करवाने अनुमाननो विषय ते सामान्य जाणवो केमके ज्यां अनुमान प्रमाण करिये त्यां सामान्यपणे उपयोगी होय तेबारे अनुमान विषयनो अभाव थाय ॥ ७४ ॥ संक्षिप्तरुचिजिज्ञासोर्विशेषान बलंबलम् ॥ चारिसंजीविनीचारज्ञातादत्रोपयुज्यते ॥७५॥ जिज्ञासापि सतां न्याय्या यत्परेऽपि वदंत्यदः ॥ जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते ॥ ७६ ॥ अर्थ-जेम संजीवनी नामा चारो जे घासबुटी तेने ओलखनारी मोटी स्त्रीये ते बुटीने योगे भरिने पशु अवस्थामांथी पुरुष बनाव्यो, तेम संक्षेप रूचिवालो विशेष बलवान केवारे कहेवाय ? जेवारे तेनी प्रीति साचे साची होय तेवारे कहेवाय पण साची प्रीति विनानुं विशेष बल ते बलमां न गणाय ॥ ७५ ॥ माटे ए त्रण जे कामादि योग तेने विषे सत्पुरुषे जाणपणुं राखq उचित छे. परदर्शनीनुं कहेवू पण एवं ज छे. हे अर्जुन ! जे पुरुष ज्ञानयोगने जाणवा इच्छे ते पुरुष परमात्मानी दिशाने पामे ॥ ७६ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेति चतुर्विधाः ॥ उपासकास्त्रयस्तत्र धन्या वस्तुविशेषतः ॥ ७७ ॥ ज्ञानी तु शांतविक्षेपो नित्यभक्तिर्विशिष्यते ॥ अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरंतरात्मा सदाशयः ॥ ७८ ॥ अर्थ – एक दुःखी, बीजो जाणवानी इच्छावालो, त्रीजो धननो अर्थी अने चोथो ज्ञानी - ए चार प्रकारना हे अर्जुन ! मारा सेवको छे; पण ते मध्ये एक धनार्थी विना जे बीजा त्रण जाना सेवक ते वस्तुतत्वना जाण छे माटे धन्य छे - वखाणवा योग्य छे ॥ ७७ ॥ ए त्रणने धन्य कह्या तेमां पण जेनो विक्षेप शम्यो छे, अने नित्य भक्तिवंत एहवो ज्ञानी पुरुष जे चोथो ते मोटो जाणवो. ते ज्ञानी अमारी पासे अत्यंत नजीक रहे छे माटे श्रेष्ठ छे, केमके अंतरात्माए वर्त्ते छे, अने तेना आशय निर्मल छे; ते माटे ॥ ७८ ॥ कर्मयोगविशुद्धस्तद्ज्ञाने युंजीत मानसं ॥ अनश्चाश्रद्दधानश्च संशयानो विनश्यति ॥ ७९ ॥ निर्भयः स्थिरनासाग्रदत्तदृष्टिर्वते स्थितः । सुखासनः प्रसन्नास्यो दिशश्चानवलोकयन् ॥ ८० ॥ अर्थ – हे अर्जुन ! कर्मयोगे विशुद्ध थको ते प्राणी ज्ञानमां पोतानुं मन जोडे छे, अने हे अर्जुन ! एक मूर्ख, बीजो श्रद्धा रहित अने बीजो संशयभरेलो माणस ए त्रणे विनाश पामे छे ।। ७९ ।। निर्भय, नासिकाना अग्रभागने विषे दृष्टि राखीने स्थिर रहेनार, तथा निरंतर व्रतमां रहेनार, एहवो सुखासने बेठो, वली प्रसन्न मुख छे जेहनुं अने एकदृष्टि राखनार, अब नही जोनार ॥ ८० ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ देहमध्यशिरोग्रीवमवक्रं धारयन्बुधः ॥ दंतैरसंस्पृशन् दंतान सुश्लिष्टाधरपल्लवः ॥ ८१ ॥ आर्त्तरौद्रे परित्यज्य धर्मे शुक्ले च दत्तधीः ॥ अप्रमत्तो रतो ध्याने ज्ञानयोगी भवेन्मुनिः ||८२|| अर्थ-केड, मस्तक अने कोट तेने पांसरा धरतो, एटले शरीरनी चपलाइ - वांकाइ रहित एहवो डाह्यो, दांते करी दांतने अणफरसतो एटले स्पर्श करतो नथी अने जेना होठ पल्लव बेउ रुही रीते मलेला होय ॥ ८१ ॥ तथा आर्त्त रौद्रध्यान छांडीने धर्म शुक्लध्यानमां बुद्धि दीधी छे अने भावे अप्रमत्तपणे ध्यानमा रत थको एवो जे मुनि तेने ज्ञानयोगी कहेवो ॥ ८२ ॥ कर्मयोगं समभ्यस्य ज्ञानयोगसमाहितः । ध्यानयोगं समारुह्य मुक्तियोगं प्रपद्यते ॥ ८३ ॥ अर्थ - ते मुनि कर्मयोगनो अभ्यास करी, चढवाने उजमाल थई, ज्ञानयोगरूप दोरडं झाली, समाधिपणे ध्यानयोग नीसरणी चडीने मुक्तियोगरूप मंदिरने पामे ॥ ८३ ॥ || इति योगाधिकारः पंचदशमो समाप्तः ।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ध्यानाधिकारः स्थिरमध्यवसानं यत्तद्धयानं चित्तमस्थिरं ॥ भावना चाप्यनुप्रेक्षा चिंता वा तत्रिधा मतं ॥१॥ मुहूर्तातर्भवेड्यानमेकार्थे मनसः स्थितिः ॥ बह्वर्थसंक्रमे दीर्घाप्यच्छिन्ना ध्यानसंततिः ॥ २॥ अर्थ-चित्त चपल छे, पण ते चित्तने जे स्थिरपणे चित्तना अध्यवसायने प्रगट करे तेवारे तेने ध्यानयोगी कहिये.. एक भावना, बीजी अनुप्रेक्षा, अने त्रीजुं चिंतानुं ध्यान-ए त्रण प्रकारे चित्त चपल थाय छे ॥ १ ॥ अंतर्मुहूर्ते ध्यान होय, पण जिहां एक ठामे एक अर्थने विषे घणा अर्थ- संक्रमण थाय, एवी मननी स्थिति होय तिहां ध्याननी अविच्छिन्न दीर्घपणे परंपरा थाय. तिहां कोई अंतर्मुहूर्त्तनो नियम नथी ।। २ ॥ आर्त रौद्रं च धर्म च शुक्लं चेति चतुर्विधं ॥ तत्स्या दाविह द्वौ द्वौ कारणं भवमोक्षयोः ॥३॥ शब्दादीनामनिष्टानां वियोगासंप्रयोगयोः॥ चिंतनं वेदनायाश्च व्याकुलत्वमुपेयुषः ॥४॥ ___अर्थ-आर्त, रौद्र, धर्म ने शुक्ल-ए चार ध्यानना भेद छे. ते मध्ये प्रथमनां बे ध्यान ते संसारनां कारणिक छे, अने पाछलां बे ध्यान ते मुक्तिनां कारणवाची छे ॥ ३ ॥ तेमां प्रथम आर्तध्यानना चार भेद कहे छे. प्रथम अनिष्ट जे शब्दादिक, तेनो वियोग वांछे के रखे अनिष्टनो संयोग बने तेम अनिष्ट मले जे पीडा थाय तेनुं चिंतन करे तेथी व्याकुल थाय ॥ ४ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इष्टानां प्रणिधानं च संप्रयोगवियोगयोः ।। निदानचिंतनं पापमार्त्तमित्थं चतुर्विधम् ॥५॥ कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र संभवः ॥ अनतिक्लिष्टभावानां कर्मणां परिणामतः ॥ ६॥ अर्थ-बीजो भेद इष्टर्नु चिंतन करे, एटले रखे इष्ट वस्तुना संयोगनो वियोग थई जाय; त्रीजो निया| करे, चोथो रोगना औषधनी चिंता करे. ए चार आर्तध्यानना प्रकार छ ।॥ ५ ॥ ए मध्ये कापोत, नील, कृष्ण ए त्रण लेश्यानो संभव छे केमके जेमां अति क्लिष्ट भावना नथी एवी कर्मनी परिणतिना परिणामे करी ए त्रण लेश्यानो संभव छे ॥ ६ ॥ क्रंदनं रुदनं प्रोचैः शोचनं परिदेवनं ।। ताडनं लुंचनं चेति लिंगान्यस्य विदुर्बुधाः ॥ ७ ॥ मोघं निंदनिजं कृत्यं प्रशंसन् परसंपदः ॥ विस्मितः प्रार्थयनेताः प्रसक्तश्चैव दुर्जनः ॥ ८॥ अर्थ-कोर करवो, ऊंचे स्वरे रडवू, शोचना करवी, नाम दइने रडवू, मारवू, माथाना बाल तोडवा इत्यादिकने पंडित आर्तध्याननां लक्षण कहे छे ॥ ७ ॥ अमे मंदबुद्धि छीए एम कहीने पोतार्नु कार्य निंदे, अमे शुं पालीशुं ? मुक्तिमार्ग तो ' महोटो छे, एम प्रशंसा करे, एम विस्मित थको लोक पासे मांगतो फरे. इत्यादिक दुर्जननी रीत छ ।॥ ८॥ प्रमत्तश्चेद्रियार्थेषु गृद्धो धर्मपराङ्मुखः ।। जिनोक्तमपुरस्कुर्वन्नार्तध्याने प्रवर्तते ॥९॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ प्रमत्तांतगुणस्थानानुगमेतन्महात्मना || सर्वप्रमादमूलत्वात्त्याज्यं तिर्य्यग्गतिप्रदं ॥ १० ॥ अर्थ — जे प्रमादी होय, विषयमां लीन होय, धर्मथी ऊलटो होय, जिनवाणीने गोपवे तेवो पुरुष आर्त्तध्यानमां प्रवर्त्ते ॥ ९ ॥ ए ध्यान उपलां गुणठाणां पामतां थकां प्रमादमां पाडे अने छट्टा गुणठाणा लगे रहे; माटे मोटा मुनिये सर्व प्रमादनुं मूळ तथा तिर्यच् गति पमाडे एवं जाणीने ए ध्यानने छोडबुं ॥ १० ॥ निर्दयं वधबंधादिचिंतनं निबिडकुधा || पिशुनासत्य मिथ्यावाक् प्रणिधानं च मायया ॥ ११ ॥ चौधीनिरपेक्षस्य तीव्रक्रोधानलस्य च || सर्वाभिशंकाकलुषं चित्तं च धनरक्षणे ॥ १२ ॥ अर्थ:- हवे जे निर्दय होय, जीवनो वध-बंधनादिक चितवे, आकरो क्रोधी होय, चाडीओ होय, जुठं बोले, मिथ्यात्वनुं वचन बोले, माया - कपट धरे ॥ ११ ॥ चोरी करनार, परमार्थ रहित, क्रोधरूप अग्निये धमधमतो रहे, धन संचय करनार, धनने डाटी राखे, शंकाये मेलं मन राखनार, एले रखेने कोई मारुं धन जुए अने लड़ जाय ए रीते १ हिसानुबंधी, २ मृषानुबंधी, ३ चौर्यानुबंधी, ४ परिग्रहरक्षणानुबंधी ए चार प्रकार रौद्रध्यानना जाणवा ॥ १२ ॥ एतत्सदोषकरणकारणानुमतिस्थिति ॥ देशाविरतिपर्यतं रौद्रध्यानं चतुर्विधं ॥ १३ ॥ कापोतनीलकृष्णानां लेश्यानामत्र संभवः ॥ अतिसंश्लिष्टरूपाणां कर्मणां परिणामतः ॥ १४ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ:-ए रीते ध्यानने करवे, कराववे अने अनुमोदवानी स्थितिये करी ए ध्यान दोषनुं कारण छ. ए ध्यान चोथा अविरति गुणठाणा अने पांचमा देशविरति गुणठाणा सुधी होम, ए रीते रौद्रध्यानना चार भेद कह्या ॥ १३ ॥ कापोत, नील अने कृष्ण ए त्रण लेश्यानो इहां संभव छे. ए अति संक्लिष्टरूप जे कर्म तेना परिणामथी होय छे ॥ १४ ॥ उत्सन्नबहुदोषत्वं नानामारणदोषता ॥ हिंसादिषु प्रवृत्तिश्च कृत्वाचं स्मयमानता ॥ १५ ॥ निर्दयत्वाननुशयो बहुमानः परापदिः ॥ लिंगान्यत्रेत्यदो धीरस्त्याज्यं नरकदुःखदं ॥ १६ ॥ - अर्थः-ए प्राये घणा दोषनुं कारण छे नानाप्रकारना जीवने मारवाना दोषे करी हिंसादिकमा प्रवृत्ति थाय, पाप करीने खुशबक्तीपणुं माने ॥ १५ ॥ निर्दयपणुं, पश्चात्तापपगुं, परआपदाये राजीपणुं अने महाविषयीपणुं, ए चिन्हे करी ए ध्यान नरकनां दुःख, आफ्नारं छे; माटे ए ध्यानने छांडq ॥ १६ ॥ अप्रशस्ते इमे ध्याने दुरंते चिरसंस्तुते ॥ प्रशस्तं तु कृताभ्यासो ध्यानमारोदुमर्हति ॥१७॥ भावना देशकाले च स्वसत्तालंबनक्रमात् ॥ ध्यातव्यध्यानानुप्रेक्षा लेश्यालिंगफलानि च ॥१८॥ अर्थ:-एवा ए बे ध्यान दे महानिर्बल छे. एनो घणो परिचय करीए, तो तेथी कडवा विपाक प्रगटे; माटे डाया पुरुषे अभ्यास करतां उज्ज्वल ध्याने चढवु योग्य छे ॥ १७ ॥ हवे धर्मध्यान कहे छे. देशकाल जोईने शुभ भावना करवी, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ पोतानी सत्ताना आलंबनना क्रमथी ध्येय ध्याता अने ध्याननी अनुप्रेक्षा तें शुभ लेश्याना चिन्हनुं फल छे ।। १८ । ज्ञात्वा धर्मे ततो ध्यायेच्च तस्रस्तत्र भावनाः ॥ ज्ञानदर्शन चरित्रवैराग्याख्या: प्रकीर्तिताः ॥ १९ ॥ निश्चलत्वमसंमोहो निर्जरा पूर्वकर्मणां ॥ संगाशंसा भयोच्छेदः फलान्यासां यथाक्रमात् ॥ २० ॥ अर्थ - ज्ञानभावना, दर्शनभावना, चारित्रभावना अने वैराग्यभावना ए चार भावनाने धर्म जाणी ध्याववी ॥ १९ ॥ ज्ञानभावनाथी निश्चलपणुं थाय अने दर्शनभावनाथी अमृढपं थाय. वली चारित्रभावनाथी पूर्वकर्मनी निर्जरा थाय अने वैराग्यभावनाथी स्त्रियादिकनो संग तथा पुद्गलनी इहा अने भय तेनो उच्छेद थाय. ए रीते ए चार भावनानां फल जाणवां ॥२०॥ स्थिरचित्तः किलैताभिर्याति ध्यानस्य योग्यतां ॥ योग्यतैव हि नान्यस्य तथा चोक्तं परैरपि ॥ २१ ॥ चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथिबलवद्दृढं । तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करं ।। २२ ।। अर्थ - ए भावनामां जेनुं चित्त स्थिर होय तेने ध्यानमां स्थिरता रहे. माटे ते प्राणी ध्याननी योग्यता पामे; पण बीजो कोई न पामे. तेमज परदर्शनमां पण कधुं छे, ते कहे छे ॥ २१ ॥ अर्जुन पूछे छे - हे कृष्ण ! मन तो चंचल छे; अने शत्रुना सैन्य सरखं दृढ छे, ते मननो निग्रह हूं शी रीते करूं ? केमके पवननी पेठे मन दुष्कर अने अग्राह्य छे || २२ | Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलं ॥ अभ्यासेन च कौंतेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ २३ ॥ असंयतात्मनो योगो दुःप्राप्य इति मे मतिः ॥ वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ २४॥ अर्थ — श्रीकृष्ण कहे छे - हे महाबाहो ! के० मोटी छे बाहु जेनी एवा हे अर्जुन ! खरेखरुं मन चपल छे. तेनो निग्रह करवो तो कठण छे, तो पण हे कुंतिना पुत्र ! हे अर्जुन ! अभ्यास अने वैराग्ये करीने मन वश थाय एवं छे || २३ || हे अर्जुन ! जेने पोतानो आत्मा वश नथी एवो जे पुरुष तेने ध्यानयोग पामवो दुष्कर छे, एवी मारी मति छे; पण जेणे आत्माने वश कीधो छे तेने उद्यमे करी अने अभ्यासे करी ध्यानयोग पामवो सुलभ छे ॥ २४ ॥ सदृशप्रत्ययावृत्त्या वैतृष्ण्याद्वहिरर्थतः ॥ एतच युज्यते सर्व भावनाभावितात्मनि ।। २५ ।। स्त्रीपशुक्लीषदुःशीलवर्जितस्थानमागमे ॥ सदा यतीनामाज्ञप्तं ध्यानकाले विशेषतः ॥ २६ ॥ अर्थ — सरखो प्रत्यय जे विश्वास तेणे सहित अने बाह्य पदार्थनी तृष्णाये रहित तथा शुद्ध भावनाये भावीत पुरुषने ए आत्मा वश करवो सर्व प्रकारे घटे छे ।। २५ ।। स्त्री, पशु, नपुंसक, दुःशीलादि रहित एहवी वसती मुनिये सेवी, एम आगममां मुनिने सदाय प्रभु आज्ञा करी छे, तेमां पण ध्यानवेलाये तो विशेषपणे कही छे एम जाणवुं ।। २६ ।। स्थिरयोगस्य तु ग्रामे विशेषः कानने वने ॥ तेन यत्र समाधानं स देशो ध्यायतो मतः ||२७|| Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ यत्र योगसमाधानं कालोऽपीष्टः स एव हि ॥ दिनरात्रिक्षणादीनां ध्यानिनो नियमस्तु न ||२८|| अर्थ - स्थिरयोगवालाए गाममां अने विशेषे करीने वगडामां तथा वनमां जिहां चित्त समाधीमां रहे ते स्थानके ध्यान करवुं ।। २७ ।। जे वखत योग स्थिर रहे ते काल रुडो समजवो; पण ध्यानवालाने दिवस अथवा रात्रीनो नियम नथी ॥ २८ ॥ यैवावस्था जिता या तु न स्यावधानोपघातिनी । तया ध्यायेन्निषण्णो वा स्थितो वा शयितोऽथवा ॥ २९ ॥ सर्वासु मुनयो देशकालावस्थासु केवलं || प्राप्तास्तन्नियमो नासां नियता योगसंस्थिता ||३०|| अर्थ - ध्यानवंत मुनिने जे अवस्थाये, जे ठेकाणे अने जे वेलाये ध्यानने व्यवघात न लागे ते ठेकाणे, ते वेलाये, ते रीते बेठा, ऊभा अथवा सूता ध्यान कर ।। २९ ।। सर्व देशकाल अवस्थाने विषे रह्या जे, मुनि तेने कांई नियम नथी, केमके ते नियतपणे योगमां स्थिर रह्या छे ।। ३० ।। वाचना चैव पृच्छा च परावृत्यनुचितनं ॥ क्रिया चालंबनानीह सडमीवश्यकानि च ॥ ३१ ॥ आरोहति दृढद्रव्यालंबनो विषमं पदं ॥ तथा रोहति सद्ध्यानं सूत्रायालंबनाश्रितः ॥ ३२ ॥ अर्थ – वाचना, पृच्छना, परावर्त्तना अने अनुप्रेक्षा ए धर्मनां आलंबन इहां कहां, ते अवश्यकरणी छे ॥ ३१ ॥ जे प्राणी खरी वस्तुनो आलंबक छे ते प्राणी कठण ठेकाणे पण जेम चडे तेम जे जैन सूत्रादिकनो आलंबक छे ते प्राणी रुडे ध्याने पण चढे ॥ ३२ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलंषनादरोद्भुतप्रत्यूहक्षययोगतः ॥ ध्यानाधारोहणभ्रंशो योगिनां नोपजायते ॥ ३३ ॥ मनोरोधादिको ध्यानप्रतिपत्तिकमो जिने ॥ शेषेषु तु यथायोगसमाधानं प्रकीर्तितं ॥ ३४ ॥ अर्थ—आलंबनना आदरथी प्रगव्यो जे विघ्ननो क्षय तेना योगथी ध्यानरूप पर्वत उपर चढतां, योगीश्वरने भ्रष्टपणुं थतुं नथी ।। ३३ ।। योगनिरोध ध्यान तो केवलीने छे. मनरोधकरण इत्यादि अनुक्रम जिनमतमां छे. बाकी बीजां दर्शनमा तो जेम नजरमां आवे तेम योगनुं समाधान कयुं छे ॥ ३४ ॥ आज्ञापायविपाकानां संस्थानस्य च चिंतनात् ॥ धर्मध्यानोपयुक्तानां ध्यातव्यं स्याचतुर्विधं ॥ ३५ ॥ नयभंगप्रमाणाढ्यां हेतूदाहरणान्वितां ॥ आज्ञां ध्यायेजिनेंद्राणामप्रामाण्यकलंकितां ॥३६॥ अर्थ:-आज्ञा, अपाय, विपाक अने संस्थान ए चार भेदना चिंतनथकी धर्मध्यानवालाये धर्मध्यान करवू ॥६५॥ सातनय, सप्तभंगी, चार प्रमाण सहित तथा हेतु उदाहरणे सहित अने अप्रमाणरूप दूषणे रहित एवी जिनेश्वरनी आज्ञा ध्याववी ए प्रथम भेद ॥ ३६ ॥ रागद्वेषकषायादिपीडितानां जनुष्मतां ॥ ऐहिकामुष्मिकांस्तांस्तान्नानापायान्विचिंतयेत् ॥३७ ध्यायेत्कर्मविपाकं च तं तं योगानुभावजं ॥ प्रकृत्यादिचतुर्भेदं शुभाशुभविभागतः ॥ ३८॥ अर्थ:-जे जीव राग, द्वेष, कयायवडे पीडाया छे, ते आ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक ने परलोक संबंधी कष्ट ते बीजे पाये चिंतवे ए बीजो भेद. ॥३७॥ जे योगना अनुभवथी थयो अने प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेशना बंधथी नीपज्यो एहवो जे कर्मनो विपाक तेने शुभाशुभ वहेचणथी ध्यावे ए बीजो भेद ॥ ३८ ॥ उत्पादस्थितिभंगादिपर्या यैर्लक्षणे पृथक् ।। भेदैर्नामादिभिलोकसंस्थानं चितयेद् भृतं ॥ ३९॥ चिंतयेत्तत्र कर्तारं भोक्तारं निजकर्मणां ॥ .. अरूपमव्ययं जीवमुपयोगस्वलक्षणं ॥४०॥ ... अर्थः-उत्पाद, व्यय अने ध्रुव, काल तथा भंगादि पर्याय लक्षणे करी जुदा जुदा भेदें नाम, स्थापना, द्रव्य, भावभेदे करीने चौद राजलोकनुं संस्थान धारीने चिंतवे ॥ ३९ ॥ तिहां पोताना कर्मनो कर्ता-भोक्ता आत्मा छे, एम चिंतवे. ए जीव अरूपी, अविनाशी अने उपयोग लक्षणे युक्त छे, एम चिंतये ए चोथो भेद ॥ ४० ॥ तत्कर्मजनितं जन्मजरामरणवारिणा ॥ पूर्ण मोहमहावर्त्तकामौर्वानलभीषणं ॥४१॥ आशामहानिलापूर्ण कषायकलशोच्छलत् ।। ___ असद्विकल्पकल्लोलचक्रं दधतमुद्धतं ॥४२॥ अर्थ:-हवे कर्मजनित संसारसमुद्र वखाणे छे ते जन्म, जरा अने मरणरूप जले पूर्ण भयों छे, तथा मोहरूप मोटा आवर्त, तद्रूप भमरी अने कामरूप वडवानले करी भयंकर ॥४१॥ आशारूप प्रचंडवायुवडे भरपूर, कषायरूप चार कलशाये युक्त अने माठा विकल्परूप महाउद्धत कल्लोल जिहां उछले छे एवो भवसमुद्र भयंकर छे ॥ ४२ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ हृदि श्रोतसिकावेलासंपातदुरतिक्रमम् ॥ प्रार्थनावल्लिसंतानं दुःपूरविषयोदरं ॥४३ ।। अज्ञानदुर्दिनं व्यापद्विद्युत्पातोद्भवद्भयं ।। कदाग्रहकुवातेन हृदयोकंपकारिणं ॥४४॥ अर्थ:-वली ते समुद्रमा मनमां श्रोतसिका एटले जे हर्ष तथा शोकनुं भरावं ते रूपवेल एटले भरति कहिये, माटे जो एमां पड्यो तो पछी नीकळवू घणुं कठण छ; अने याचनारूप सेवालनो समूह छे जेने विषे, तथा दुःखे पूर्ण थाय एवो विषयरूप मध्यभाग छे जेनो ॥ ४३ ॥ जिहां अंधकारे व्याप्युं एवं अज्ञानरूप वादलुं छे, तथा जेमां आपदारूप वीजली पडवानो भय छे, अने कदाग्रहरूप खराब पवननो उद्भव थयो छे, तेणे करीने ज्ञान नजरवाळानुं तो हैयुं ध्रुजे, एहवो कर्मजनित समुद्र बिहामणो छ ॥ ४४ ॥ विविधव्याधिसंबंधमत्स्यकच्छपसंकुलं ॥ चिंतयेच्च भवांभोधिं चलद्दोषाद्रिदुर्गमं ॥४५॥ तस्य संतरणोपायं सम्यक्त्वदृढबंधनं ॥ बहुशीलांगफलकं ज्ञाननिर्यामिकान्वितं ॥४६॥ अर्थ:-जे समुद्र विविध जातिना जे रोगना संबंधरूपी मच्छ अने काचबाये करी आकुल छे, तथा जेमां चंचलता, शून्यता अने गर्व ते रूप जे दोष तद्रूप महोटा पर्वत छे; एवा भवरूप समुद्रने चितवे ॥४५॥ हवे एवा समुद्रथी तरवानो उपाय, ते समकितरूप दृढबंधन छे जिहां, अने जेने अढार हजार Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलांग रथरूप पाटीयां जड्यां छे, तथा ते जहाज ज्ञानरूप चलावनार निर्यामक जे नाखुदा तेणे सहित छे ॥ ४६॥ संवरास्तावच्छिद्रं गुप्तिगुप्तसमंततः॥ आचारमंडपोद्दीप्तापवादोत्सर्गभूद्वयं ॥४७ ॥ असंख्यैर्दुर्धरैर्योधैर्दुःप्रधृष्यं सदाशयैः ॥ सद्योगकूपस्तंभाग्रन्यस्ताध्यात्मसितांशुकं ॥ ४८ ॥ ___ अर्थः-बली ते जहाजनां पाटीने विषे रह्यां जे छिद्रो तेहने संवररूपी कीचड तद्रूप तेलवडे पुर्या छे, तथा मनोगुप्तिरूप गृप्त सुकान ते मार्ग बतावे छे, तेणे करी ते वहाण समुं चाले छे, तथा आचाररूप मंडपे शोभे छे, वली ते वहाणमां उत्सर्ग अने अपवादरूप बे जातनो माल भरेलो छे ॥ ४७ ॥ जे वहाणमां शुद्ध अध्यवसायरूप घणा बलवंत सुभटो जे राग-द्वेशादि शत्रुने दुःप्रधृष्य छे तथा भलो जे योगरूप कुओ जे थंभ तेना उपर अध्यात्मरूप उज्वल सड खेंच्यो छे जिहां ॥४८॥ तपोऽनुकूलपवनोद्भुतसंवेगवेगतः ॥ वैराग्यमार्गपतितं चारित्रवहनं श्रिताः ॥४९॥ सद्भावनाख्यमञ्जूषान्यस्तसञ्चित्तरत्नतः ॥ यथाऽविघ्नेन गच्छांत निर्वाणनगरे बुधाः ॥५०॥ अर्थ-ते सढथी तपस्यारूप अनुकूळ पवन प्रगट्यो छे अने ते पवने करी संवेगगुणरूप वेग प्रगट्यो छे, तेणे करी वैराग्य मार्गमां ते वहाण चालतुं जाय छे एहवू चारित्ररूप जे वहाण तेमां बेठा थका ॥ ४९ ।। रुडी भावनारूप मंजूषामां गुप्तपणे शुभ चित्तरूपी रत्न स्थाप्युं छे जेणे एवा मुनि निर्विघ्नपणे मुक्तिरूप नगरने पामे छे ॥ ५० ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ यथा च मोहपल्लीशे लब्धव्यतिकरे सति ॥ संसारनाटकोच्छेदाशंकापंकाविले मुहुः ॥ ५१ ॥ सज्जीकृतस्वीयभटे नावं दुर्बुडिनामिकां ॥ श्रिते दुर्नीतिनौवृंदारूढशेषभटान्विते ।। ५२ ॥ अर्थ - ए वातनी खबर चोरनो राजा जे मोहरूपी पल्लीपति तेने पडी. तेवारे ते मोह जे चोरनो राजा छे तेणे विचार्य जे रखेने संसाररूप नाटकनो उच्छेद थई जाय; एवी शंकारूप जे कचरो तेमां लेपाणो थको ।। ५१ ।। ते मोहराजा पोताना सुभटोने सज्ज करीने दुर्बुद्धि नामे जे नाव तेमां पोते बेठो थको, दुष्टाचाररूप बीजा जे नाव छे तेमां वली बीजा घणा सुभटोने बेसारीने पोते भवसमुद्रमां आव्यो । ५२ ॥ आगच्छत्यथ धर्मेश भटौघे रणमंडपं ॥ तत्वचिंतादिनाराच सज्जीभूते समाश्रिते ॥ ५३ ॥ मिथो लग्ने रणावेशे सम्यग्दर्शनमंत्रिणा ॥ मिथ्यात्वमंत्रीविषमां प्राप्यते चरमां दशां ॥५४॥ अर्थ - ते वखते धर्मराजाना सुभटोना जे थोक ते मोहना सैन्यने जोईने रणमंडपभूमीमां आत्री तत्त्वचिंता प्रमुख जे वहाण लेईने सज्ज था थका ।। ५३ ।। ते पछी बेउने मांहोमांहे युद्ध चालवा लायुं. तेमां सम्यग्दृष्टि जे प्रधान तेणे मिध्यात्व प्रधानने विषम चरमदशा के० मरणदशा पमाडी, एटले मृत्युप्राय कीधो ॥ ५४ ॥ लीलयैव निरुध्यंते कषायचरटा अपि ॥ प्रशमादिमहायोधैः शीलेन स्मरतस्करः ।। ५५ ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ हास्यादिषट्कलंटाकवृंदं वैराग्यसेनया || निद्रादयश्च ताज्यंते श्रुतयोगादिभिर्भदेः ॥ ५६ ॥ अर्थ – अने उपशमादिक महासुभटे लीलाये करीने कषायरूप चोरटाने रोक्या तथा शीलसुभटे कंदर्परूप चोरने जी - त्यो ।। ५५ ।। वैराग्यनी सेनाये करीने हास्यादिक जे छ चोर तेने जीत्या अने ज्ञानयोगादिक जे सुभटो तेणे निद्रादिकने मारी काढ्या ॥ ५६ ॥ भटाभ्यां धर्मशुक्लाभ्यामार्त रौद्राभिधौ भदौ ॥ निग्रहेणेंद्रियाणां च जीयते द्रागसंयमः ॥ ५७ ॥ क्षयोपशमतश्चक्षुदर्शनावरणादयः ॥ नश्यत्यसात सैन्यं च पुण्योदयपराक्रमात् ॥ ५८ ॥ अर्थ - धर्मध्यान अने शुक्लध्यान ए वे सुभटे आर्त्त अने रौद्र ए वे सुभटने हण्या, तथा पांच इंद्रियना निग्रहरूप सुभटे उतावले करी असंयमरूप सुभटने जीत्यो ।। ५७ ।। दर्शनावरणीयना क्षयोपशम सुभटे चक्षुर्दर्शनावरणादिक योद्धाओने मार्या. वली पुण्योदयना पराक्रमथी अशातारूप सैन्य नासी गयुं ॥ ५८ ॥ सह द्वेषगजेंद्रेण रागकेशरिणा तथा ॥ सुतेन मोहभूपोऽपि धर्मभूपेन हन्यते ॥ ५९ ॥ ततः प्राप्तमहानंदा धर्मभूपप्रसादतः ॥ यथा कृतार्था जायंते साधवो व्यवहारिणः ||६०॥ अर्थ- हवे छेवटे द्वेषरूप हाथीये बेठो तथा रागरूप सिंहे सहित एहवो मोहराजा तेने पण धर्मराजाय हप्यो || ५९|| तेवार Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ पछी साधुरूपी व्यवहारिया धर्मराजानो प्रसाद जे पसाय तेथी कृतार्थ थई, आनंद पामी सुखे पोतानो व्यापार करता थया ॥ ६० ॥ विचितयेत्तथा सर्व धर्मध्याननिविष्टधीः ॥ feगन्यदपि न्यस्तमर्थजातं यदागमे ॥ ६१ ॥ मनसचेंद्रियाणां च जयाद्यो निर्विकारधीः ॥ धर्मध्यानस्य स ध्याता शांतो दांतः प्रकीर्तितः ॥ ६२ ॥ अर्थ - ए रीते सर्व धारी लेबुं. ते धर्मध्यानमां जे मुनिनी बुद्धि पेठी छे, तेणे एने तथा एना जेवा बीजा पण जे आगम- सिद्धांतमां पदार्थना समूह स्थाप्या छे तेनुं चिंतन कर ॥ ६१ ॥ जे मननो अने इंद्रियनो जय करीने निर्विकार बुद्धिवालो थयो तेने धर्मध्याननो ध्याता को छे. वली शांतदांतपणुं पण तेहनेज होय ॥ ६२ ॥ परैरपि यदिष्टं च स्थितप्रज्ञस्य लक्षणं ॥ घटते यत्र तत्सर्वं तथा चेदं व्यवस्थितं ॥ ६३ ॥ प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ ! मनोगतान् ॥ आत्मन्येवात्मसंतुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ६४ ॥ अर्थ - परदर्शनी पण स्थितप्रज्ञनुं लक्षण एम कहे छे अने ते सर्व इहां घटे छे तेमज इहां अवस्थित होय ते जाणं ॥ ६३ ॥ हे अर्जुन ! जेवारे कंदर्पने छोडे अने मनना सर्व कामने त्यागी आत्मसंतोषी थईने आत्माने विषे रहे ते प्राणीने तेवारे स्थितप्रज्ञावंत कहीए ।। ६५ ।। दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ॥ वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥। ६५ ।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभं ॥ नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ १६ ॥ ___अर्थः-जेहने दुःखमा उद्वेग नथी. अने सुखनी इच्छा नथी, तथा जेहना राग, भय अने क्रोध गया छे ते मुनिने स्थितबुद्धिवालो कहिये ॥ ६५ ॥ जेने विषय उपर स्नेह नथी, जेवं तेवु शुभ अशुभ मले तोपण रागद्वेष नथी; हे अर्जुन ! तेनी बुद्धि रुडी छे एम जाणवू ॥ ६६ ॥ यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ॥ इंद्रियाणींद्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥३७॥ शांतो दांतो भवेदीहगात्मारामतया स्थितः ।। सिद्धस्य हि स्वभावो यः सैव साधकयोग्यता ॥८॥ ____ अर्थः हे अर्जुन ! जेम काचबो अंगने संहरी-संकोची राखे तेम इंद्रिओने विषयथी पाछी वाले तेनी बुद्धि मोटी छे ॥ ६७ ॥ ते शांत गुण अने दांतगुणी होय, तेने आत्मारामवडे आत्मामा रह्यो कहिये. सिद्धिनो स्वभाव पण एवोज छे, अने एवा जे होय तेनेज साधकतापणानी योग्यता कहिये ॥ ६८ ॥ ध्यातायमेव शुक्लस्याप्रमत्तः पादयोर्द्वयोः॥ पूर्वविद् योग्ययोगी च केवली परयोस्तयोः ॥३९॥ अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा ध्यानस्योपरमेऽपि हि ॥ भावयेन्नित्यमभ्रांतःप्राणाध्यानस्य ताः खलु ७०॥ अर्थः-ए धणी शुक्लध्यानना बे पायानो अप्रमत्त थको ध्यावनार थाय, पूर्वधरपणे योगी होय अथवा अयोगी होय; पण केवलीपणे होय. ते पछी शेष बे पायाने ध्यावे ॥ ६९॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानने विरामकाले अनित्यत्वादि भावना छांडे नहीं, विभ्रम रहितपणे नित्य भावना भावे. ते ध्यानना प्राण जाणवा ॥ ७०॥ तोत्रादिभेदभाजः स्युर्लेश्यास्तिस्त्र इहोत्तराः॥ लिंगान्यत्रागमश्रद्धा विनयः सद्गुणस्तुतिः ॥७१ ॥ शीलसंयमयुक्तस्य ध्यायतो धर्ममुत्तमं ॥ स्वर्गप्राप्तिफलं प्राहुः प्रौढपुण्यानुबंधिनीं ॥९२ ।। __ अर्थ:-इहां पाली त्रण लेश्याओ छे एटले तेजो, पद्म अने शुक्ल ए त्रण लेश्या जे छे ते तीव्र, तीव्रतर तीव्रत्तम ए त्रण भेदनी भजनारी छे. तेनां ए चिन्ह छे जे आगमनी श्रद्धा, विनय, रुडा गुणनी स्तवना करवी ॥ ७१॥शील अने संयमयुक्त प्राणीने उत्तम धर्मध्यान ध्याते थके स्वर्गप्राप्तिफल कई छे. ते मोटा पुण्यानुबंधी पुण्यने पामे ॥ ७२ ॥ ध्यायेच्छुक्लमथ क्षांतिमृदुत्वार्जवमुक्तिभिः॥ छद्मस्थोऽणौ मनोधृत्वा व्यपनीय मनो जिनः॥७३॥ सवितर्क सविचारं सपृथक्त्वं तदादिमं ॥ नानानयाश्रितं तंत्र वितर्कपूर्वकश्रुतं ॥७४ ॥ ____ अर्थ:-जे समतापणे तथा निष्कपटपणे अने जीवनमुक्तपणे एवी स्थिति राखीने शुक्लध्यानने ध्यावे, अने छअस्थपणे अणुमां मन धरीने रहे तेवारे रागद्वेषने जीते ॥७३॥ सपृथक्त्वसवितर्कसविचार, ए नामे शुक्लध्याननो पहेलो पायो तेने नानाविध नये सहित विचारपूर्वक श्रुते करी ध्याववो ॥ ७४ ॥ अर्थव्यंजनयोगानां विचारोऽन्योन्यसंक्रमः॥ पृथक्त्वं द्रव्यपर्यायगुणांतरगतिः पुनः ॥७५ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रियोगयोगिनः साधोर्वितर्काद्यन्वितं यदः ॥ ईषचलत्तरंगाऽब्धेः क्षोभाभावदशानिभं ॥७६ ।। अर्थ:-अर्थ, अक्षर अने योग एना जे विचार तेनुं माहोमांहे संक्रमण तेनुं नाम पृथक्त्व कहिये; ते केवु छ ? के द्रव्य, गुण अने पर्याय तेमां गति छे जेनी एवं छे. ए पहेलो भेद ।। ७५ ॥ त्रण योगे उपरम्या जे योगी ते साधुने वितर्कादिक थोडा चंचळ तरंग छे, जेमां एहवो जे समुद्र ते क्षोभनो जे अभाव तेवी दशा सरखं छे ।। ७६ ॥ एकत्वेन वितर्केण विचारेण च संयुतं ।। निर्वातस्थप्रदीपाभं द्वितीयं त्वेकपर्ययम् ॥७७॥ सूक्ष्मक्रियानिवृत्ताख्यं तूतीयं तु जिनस्य तत् ॥ अर्धरुद्धांगयोगश्च रुडयोगे द्वयस्य च ॥७८ ॥ अर्थः-एकत्ववितर्कविचार नामे जे बीजो पायो ते पवन रहित जे दीवो ते सरखो छे. ए बीजो पायो ते एक पर्यायरूप छे ॥ ७७ ॥ सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति नामे त्रीजो पायो ते केवलीने होय. तेमां बादर जे काययोग तेने अर्द्ध संध्यो छे, अने मन तथा वचन ए वे योगने समस्त रुंघे तेवारे त्रीजो पायो ध्यावे ॥॥ ७८ ॥ तुरीयं तु समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति तत् ॥ शैलवन्निःप्रकंपस्य शैलेश्यं विश्ववेदिनः ॥ ७९ ॥ एतचतुर्विधं शुक्लध्यानमत्र द्वयोः फलं ॥ आद्ययोः सुरलोकाप्तिरंत्ययोस्तु महोदयः ॥ ८० ॥ अर्थ:-हवे चोथा पायामा क्रिया उच्छेदी छे अने Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ पोते पर्वतनी पेरे अप्रतिपाति थयो छे, एहवो विश्ववेदी, जगतुना सर्व भावनो जाण जे केवली ते निःप्रकंप पर्वतनी माफक घनीभूत थया शैलेशीकरण करे ॥ ७९ ॥ ए चार प्रकारर्नु शुक्लध्यान छे, तेनुं फल कहे छे. इहां प्रथम बे पायामां जे काल करे ते स्वर्गगति पामे अने उपरना बे पायामां काल करवाथी मोक्ष पामे ॥ ८०॥ आवापायसंसारानुभावभवसंततीः॥ अर्थे विपरिणामं वानुपश्येच्छुक्लविश्रमे ॥ ८१ ॥ द्वयोः शुक्ला तृतीये च लेश्या सा परमा मता ॥ चतुर्थः शुक्लभेदस्तु लेश्यातीतः प्रकीर्तितः ।। ८२ ॥ अर्थः-शुक्लध्यानने विश्रामे आश्रवनो नाश देखे, संसारना स्वरूपने भवनी परंपरा देखे अने अन्य पदार्थे आत्मानुं विपरिणामपणुं जुए ॥ ८१ ॥ ए शुक्लध्यानना प्रथम बे पायामां बे लेश्या तथा त्रीजे पाये तो परम उत्कृष्ट शुक्ललेश्या कही छे, अने चोथो पायो जे छे ते तो लेश्याये रहित कह्यो छे ॥८२॥ लिंगं निर्मलयोगस्य शुक्लध्यानवतोऽवधः॥ - असंमोहो विवेकश्च व्युत्सर्गश्चाभिधीयते ॥ ८३ ॥ अबंधादुपसर्गेभ्यः कंपते न बिभेति च ॥ असंमोहान्न सूक्ष्मार्थे मायास्वपि च मुह्यति ॥८४॥ अर्थः-शुक्लध्यानवालाने निर्मल योग होय, तेनां लक्षण कहे छे. अहिंसक होय, मोहरहित, विवेकी होय अने त्यागबुद्धिये युक्त होय ॥ ८३ ॥ वली अबंधी थयो माटे उपसर्ग अने Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० परिसह तेथी कंपे नही तथा बीहे पण नहीं. ए अहिंसक लक्षण होय १, तथा सूक्ष्म अर्थमां, वली मायामां मुंझाय नहीं; ए असंमोह एटले मोहरहितनुं लक्षण कह्युं २ ॥ ८४ ॥ विवेकात्सर्वसंयोगाद्भिन्नमात्मानमीक्षते ॥ देहोपकरणासंगो व्युत्सर्गाज्जायते मुनिः ॥ ८५ ॥ एतद्ध्यानक्रमं शुद्धं मत्वा भगवदाज्ञया ॥ यः कुर्यादेतदभ्यासं संपूर्णाध्यात्मविद्भवेत् ॥ ८६ ॥ अर्थ :- सर्व संयोगथी आत्माने जदो देखे, ए विवेकनुं लक्षण छे ३, देह तथा उपकरणनी त्यागबुद्धिये असंगानुष्ठान वर्ते छे, ए व्युत्सर्गनुं लक्षण छे ४. ए चार लक्षण ६६ मां श्लोकमां कां छे. तेनो ए अर्थ विवरीने कह्यो. ए लक्षणे जे मुनि होय ते ज्ञानपणुं पामे ॥ ८५ ॥ ए रीते ध्याननो जे अनुक्रम वे शुद्ध रीते जाणीने, प्रभुनी आज्ञा प्रमाणे एनो अभ्यास जे करशे ते संपूर्ण अध्यात्मज्ञानी थाशे ॥ ८६ ॥ इति ध्यानाधिकारः षोडशः ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ध्यानस्तुत्याधिकारः यत्र गच्छति परं परिपाकं पाकशासनपदं तृणकल्पं ॥ स्वप्रकाशसुखबोधमयं तद्ध्यानमेव भवनाशि भजध्वं।।१ अर्थ:-माटे उत्कृष्ट परिपक्व ध्यान पामे थके मुनिराज ते इंद्रनी पदवीने पण तृण बराबर गणे, माटे जे थकी सुखे करी आत्माने प्रकाशकारी ज्ञान प्रगटे एवं संसारनुं नाश करनारं ध्यान सेवq ॥ १॥ आतुरैरपि जडैरपि साक्षात् सुत्यजा हि विषया न नु रागः ॥ ध्यानवांस्तु परमद्युतिदर्शी तृप्तिमाप्य न तमृच्छति भूयः ॥ २॥ अर्थः—कामातुर जे प्राणी तथा जड जे प्राणी ते पण प्रगटपणे विषयसुखने सुखे छांडे, पण रागदशा छांडवी दुर्घट छ; अने ध्यानवंत मुनि तो मात्र परमात्मानो ज दर्शनी छे. ते तो ध्यानमा तृप्ति पामीने फरीथी रागद्वेषने वांछे नही ॥ २॥ या निशा सकलभूतगणानां ध्यानिनो दिनमहोत्सव एषः॥ यत्र जाग्रति च तेऽभिनिविष्टा ... ध्यानिनो भवति तत्र सुषुप्तिः ॥ ३॥ अर्थ:-सर्व प्राणीने निद्रामा जे रात्रि जाय छे ते ध्यानदशावालाने ए रात्री ते जागृत महोत्सवनो दिवस छे, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अने संसारी जीव विषयमां लीन थका जे वेलाये जागे छे ते वेला ध्यानवाला मुनिराजने शयनरूप छे ॥ ३ ॥ संप्लुतोदक इवांधुजलानां सर्वतः सकलकर्मफलानां ॥ सिद्धिरस्ति खलु यत्र तदुच्चैर्ध्यानमेव परमार्थनिदानं ॥४ अर्थ:-जेम वपराया विनाना ( अवड कुवान ) पाणी डोहोलुं रहे छे. तेम जेमां सर्वथकी सकल कर्मना फलनी सिद्धि एहवो जे ध्यानरूप घट जे जलमां रमतो होय, ( पाणी वपगतुं होय ) त्यां जल निर्मल होय; माटे सकल क्रियाफलनी सिद्धि ध्यानथी छे, ध्यान ते परम अर्थY कारण छे ॥ ४ ॥ बध्यते न हि कषायसमुत्थैर्मानसर्न ततभूपनमद्भिः॥ अत्यनिष्टविषयैरपिदुःखैानवान्निभृतमात्मनि लीनः अर्थ-जे ध्यानवान् पुरुष ते कषायजनित मने करी बंधातो नथी तेहने जो राजानी श्रेणी आवी नमस्कार करे, तो पण तेनुं चित्त डोहोलाय नहीं; अने अनिष्ट विषयनी प्राप्तिनां दुःखे करी पण निश्चलपणु छोडे नहि, तेने आत्माने विषे लीन कहिये ॥५॥ स्पष्टदृष्टसुखसंभृतमिष्टं ___ ध्यानमस्तु शिवशर्मगरिष्टं ॥ नास्तिकस्तु निहतो यदि न ॥ स्यादेवमादिनयवाङ्मयदंडात् ॥६॥ अर्थ-प्रगट दीठं अने मोक्षसुखे भर्यु एवं जे ध्यान ते इष्ट छे, एटले मोक्षसुखथी पण ध्यान मोटुं छे, पण जिहां सुधी Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ शास्त्रना दंडथकी नास्तिकभावने अतिशयपणे हण्यो नथी तिहां सुधी नथी; पण नास्तिकभावे रहित जे ज्ञान ते मोटु छे ॥ ६ ॥ यत्र नार्कविधुतारकदीपज्योतिषां प्रसरतामवकाशः ॥ ध्यानभिन्नतमसामुदितात्मज्योतिषांतदपि भाति रहस्य अर्थ-जेनी आगल सूर्यन तेज, तथा चंद्रमा अने तारार्नु तेज, वली दीपकना तेजनो प्रकाश अल्प छे, एवं जे ध्यान तेणे करीने भेदाणो छे अज्ञानरूप अंधकार जे प्राणीनो एहवा मुदित आत्मावालानुं तेज ते गुप्तपणे पण आत्माने विषे शोभे छे ॥७॥ योजयत्यमितकालवियुक्तांप्रेयसी शमरतिं त्वरितं यत् ॥ ध्यानमित्रमिदमेव मतं नः किं परैर्जगति कृत्रिममित्रैः।८।। अर्थ-शमतारतिरूप स्त्रीनी साथे प्राणीने घणा कालथी वियोग हतो ते क्षणमा वियोग भांगीने संयोग मिलावे एहवो ध्यानरूप परममित्र छे, ते ध्यानमित्र अमारे प्रमाण छे, एम ध्यान करनार प्राणी बोले छे; माटे संसारमा कृत्रिम परमित्रथी शुं थाय ? ते कृत्रिम मित्रो करतां तो ध्यानमित्र घणो श्रेष्ठ छे ॥ ८ ॥ वारितस्मरबलातपचारे शीलशीतलसुगंधिनिवेशेः॥ उच्छ्रितप्रशमतल्पनिविष्टो ध्यानधाम्नि लभते सुखमात्मा ॥ ९॥ अर्थ:-हवे ध्यानने रंगमंदिरनी उपमा आपे छे. जिहां कामरूप ताप टल्यो छे, अने शीलरूप शीतल सुगंधी पसरी रही छे तेवी बेठकने विषे शमतारूप मोटी तलाइ छे, ते उपर आत्मा बेठो थको पूर्ण आनंद पामे छे एवं ध्यानरूप मंदिर छे. ॥ ९॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ध्या शीलविष्टरदमोदकपीठं प्रातिहार्यसमतामधुपर्कैः।। ध्यानधाम्नि भवति स्फुटमात्माहूतपूतपरमातिथिपूजा अर्थ-ध्यानमंदिरमां शीलरूप सिंहासने इंद्रियदमन रूप जलनो बाजोट छे, अने शमतारूप पोलीओ ते एवा ध्यानघरमा पवित्रपणे आत्माने तेडीने तेनी मधुपर्के करी परोणागत करे छे ॥ १० ॥ आत्मानो हि परमात्मनि योऽ भूद्भेदबुद्धिकृत एव विवादः ॥ ध्यानसंधिकृदमुं व्यपनीय, द्रागभेदमनयोर्वितनोति ॥ ११ ॥ अर्थ-आत्मा अने परमात्माने विषे जे भेदबुद्धिनो विवाद हतो, एटले तेमां पंडितना विवादरूप झघडा हता तेने ध्यानरूप संधिपाले एटले ध्यानी पुरुषे ते विवादोने टाल्या अने जलदीथी ए बेउनुं अभेदपणुं करी आप्यु ॥ ११ ॥ कामृतं विषभृते फणिलोके ? ___ क क्षयिण्यपि विधौ त्रिदिवे वा ?। काप्सरो रतिमतां त्रिदशानां? ध्यान एव तदिदं बुद्धसेव्यं ॥ १२॥ . . अर्थ-विषथकी भरेलो जे नागलोक तिहां अमृतक्यांथी होय ? तेम दिन दिन क्षय पामतो जे चंद्रमा तेमां अमृत किहांथी होय ? अने देवलोकमां अप्सराना योगे राता जे देवता तेमां पण अमृत किहांथी होय ? माटे ए मात्र ध्यानरूप अमृत ज सत्य छे, तेने ज पंडिते सेवईं ॥ १२ ॥ ... .. ... Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ गोस्तनीषु न सितासु सुधायां नापि नापि वनिताधरबिंबे॥ तंरसं कमपि वेत्ति मनस्वी ध्यानसंभवधृतौ प्रथते यः।१३।। . अर्थ-गायना स्तनमा जे रस नथी, जे साकरमा रस नथी अने जे रस अमृतमां पण नथी; तेमज स्त्रीना अधर जे होठ तेमां पण जे रस नथी ते रस ध्यानथी प्रगटयो अने संतोपथी विस्तयों एहवो जे कोइक अपूर्व रस तेने तो कोइक पंडितज जाणे छे ॥ १३ ॥ इत्यवेत्य मनसा परिपकध्यानसंभवफले गरिमाणं ॥ तत्र यस्य रतिरेनमुपैति प्रौढधामभृतमाशु यश:श्रीः॥१४॥ __अर्थ-ए प्रकारे मने करीने परिपक्क जे ध्यान, तेथी प्रगटयुं जे फल तेहने मोटाइपणे जाणीने तेमां जे रति पामे ते महातेजवंत कांतिवान पुरुष छे अने तेने ज यशलक्ष्मी वरशे ॥१४॥ ॥ इति श्री ध्यानस्तुत्यधिकारः सप्तदशः समाप्तः ॥ ॥ इति श्री महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिते अध्यात्मसारप्रकरणे पंचमपरिच्छेदः ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ आत्मनिश्चयाधिकारः आत्मध्यानफलं ध्यानमात्मज्ञानं च मुक्तिदं ॥ आत्मज्ञानाय तन्नित्यं यत्नः कार्यो महात्मना ॥१॥ ज्ञाते ह्यात्मनि नो भूयो ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ अज्ञाते पुनरेतस्मिन् ज्ञानमन्यन्निरर्थकं ॥ २ ॥ अर्थ – आत्माने ध्याननुं फल ते ध्यान छे, पण आत्मज्ञान होय तेवारेज तेने मुक्ति आपे, माटे ज्ञान ते मोहुं छे; तो मोटा पुरुषे आ-मज्ञान मणी उद्यम करवो ॥ १ ॥ जेणे आत्माने जाण्यो तेने फरी बीजुं कंड जाणवानुं रं नथी; अने जिहां आत्माने जाण्यो नथी तिहां सुधी बीजुं सर्व जाण्युं ते निरर्थक छे ॥ २ ॥ नवानामपि तत्त्वानां ज्ञानमात्मप्रसिद्धये । येनाजीवादयो भावाः स्वभेदप्रतियोगिनः ॥ ३ ॥ श्रुतो ह्यात्मपराभेदोऽनुभूतः संस्तुतोऽपि च ॥ निसर्गादुपदेशाद्वा वेत्ति भेदं तु कश्चन ॥ ४ ॥ अर्थ - नवे तस्वनुं जे जाणपणुं करनुं ते पण आत्मज्ञान प्रगट करवाने अर्थे छे, कारण के अजीवादिक जे भाव ते पण आत्मज्ञानवडे शमाय छे || ३ || पोतानो अने पारको जे भेद तेने भेदरूपे सांभळ्यो, अनुभव्यो, परिचय थयो थको, सहेजे अथवा उपदेशथकी कोइक भेदने जाण्यो || ४ || तदेकत्वपृथक्त्वाभ्यामात्मध्यानं हितावहं || वृथैवाभिनिविष्टानामन्यया धीर्विडंबना ॥ ५॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ एक एव हि तत्रात्मा स्वभावसमवस्थितः ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणप्रतिपादितः ॥ ६॥ ____ अर्थ-ते माटे एकत्वपृथक्त्वे करी आत्मज्ञान हितकारी थाय, नही तो फोकटपणे मिथ्यात्वनी बुद्धिनी विटंबना छे ॥ ५ ॥ तिहां एक ज आत्मा स्वभावपणे रह्यो छे, ते आत्मा तो ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप लक्षणे कह्यो छे ।। ६ ॥ प्रभानैर्मल्यशक्तीनां यथा रत्नान्न भिन्नता ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां तथात्मनः ॥७॥ आत्मनो लक्षणानां च व्यवहारो हि भिन्नता ॥ षष्ट्यादिव्यपदेशेन मन्यते न तु निश्चयः ॥ ८ ॥ अर्थ-जेम रत्ननी कांति अने निर्मलता ए बेउनी शक्ति कांइ जुदी नथी, तेम ज्ञान, दर्शन अने चारित्रलक्षणे जे । आत्मा ते काइ जुदो नथी ॥ ७ ॥ आत्मा अने आत्मानुं लक्षण ए बे व्यवहारे जुदां छे. ते षष्टि आदे विभक्तिने व्यपदेशे करी मानिये, पण निश्चयथी नहीं ॥ ८ ॥ घटस्य रूपमित्यत्र यथा भेदो विकल्पजः ॥ आत्मनश्च गुणानां च तथा भेदो न तात्त्विकः ॥९॥ शुद्धं यदात्मनो रूपं निश्चयेनानुभूयते ॥ ___ व्यवहारो भिदाद्वारानुभावयति तत्परं ॥१०॥ - अर्थ-जेम घट अने घटनुं रूप तेनो भेद ते विकल्पमात्र छे, तेम आत्माने अने गुणने परमार्थे भेद नथी ॥९॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जे आत्मरूप शुद्ध छे ते निश्चयनये करी अनुभवाय छे अने व्यवहारवडे पर के० काया ते पण ओलखाय छे ॥ १० ॥ वस्तुतस्तु गुणानां तद्रूपं न स्वात्मनः पृथक् ॥ आत्मा स्यादन्यथाऽनात्मा ज्ञानाद्यपि जडं भवेत् ॥११ चैतन्यपरसामान्यात्सर्वेषामेकतात्मनां ॥ निश्चिता कर्मजनितो भेदः पुनरुपप्लवः ॥ १२॥ अर्थ-वस्तुभावे तो गुणर्नु अने आत्मानुरूप जुदुं नथी. जो जुदुं कहीए तो आत्मा छे ते अनात्मा थाय; ज्ञानादिक जड थाय ॥ ११ ॥ चैतन्य पर सामान्यपणे सर्व आत्मानी एकता छे अने निश्चयथी तो कर्मे प्रकट्यो जे भेद ते विटंबनारूप छे ॥१२॥ मन्यते व्यवहारस्तु भूतग्रामादिभेदतः ॥ जन्मादेश्च व्यवस्थातो मिथो नानात्वमात्मन।।१३।। न चैतनिश्चये युक्तं भूतग्रामो यतोऽखिलः ॥ नामकर्मप्रकृतिजः स्वभावो नात्मनः पुनः ॥१४॥ ___अर्थ- जीवसमूहना भेदथी तथा बाल जुवान वृद्ध ए अवस्थावडे मांहोमांहे विचित्रपणुं जणाय छे, एम व्यवहारनयवालो माने छे ॥ १३ ॥ पण ए वात निश्चयनयवालो मानतो नथी. ते एम कहे छे के, ए जीवने सर्व अवस्था नामकर्मना स्वभावथी प्रगटे छे; पण ए आत्मानो मूल स्वभाव नथी ॥ १४ ॥ जन्मादिकोऽपि नियतः परिणामो हि कर्मणां॥ न च कर्मकृतो भेदः स्यादात्मन्यविकारिणि १५॥ आरोग्य केवलं कर्मकृतां विकृतिमात्मनि ॥ भ्रमंति भ्रष्टविज्ञाना भीमे संसारसागरे ॥१६॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ अर्थ-जन्म जरादिक परिणाम कर्मने वश छे, अने आत्मा तो अविकारी छे तेथी कर्मनो भेद आत्माने संभवे नही; केमके ए आत्मस्वभाव नथी ॥ १५ ॥ जन्म जरादिक कर्मप्रकृति छे, अने कर्मजनित भावने केवल आत्माने विषे आरोपीने भ्रष्टज्ञानी भयंकर संसारसमुद्रमां भमशे ॥ १६ ॥ उपाधिभेदजं भेद वेतज्ञः स्फटिके यथा ॥ तथा कर्मकृतं भेदमात्मन्येवाभिमन्यते ॥ १७ ॥ उपाधिकर्मजो नास्ति व्यवहारास्त्वकर्मणः॥ इत्यागमवचो लुत्पमात्मवैरूप्यवादिना ॥ १८॥ __ अर्थ—स्फटिकमां उपाधि भेदे जेम मूर्ख प्राणी भेद माने छे, तेम आत्माने विष प्रगव्यो जे कर्मकृत भेद ते माने छे ॥ १७ ॥ पोताना व्यवहारथी कर्मजनित जे उपाधि ते नथी, एम मानता आत्मविरूपवादी आगमर्नु वचन लोपे छे ॥ १८ ॥ एकक्षेत्रस्थितोऽप्येति नात्मा कर्मगुणान्वयम् ॥ यथाऽभव्यस्वभावत्वाच्छुडो धर्मास्तिकायवत् ॥१९॥ यथा तैमिरिकश्चंद्रमप्येकं मन्यते द्विधा ॥ अनिश्चयकृतोन्मादस्तथात्मानमनेकधा ॥ २० ॥ अर्थ-धर्मास्तिकायनी परे एक क्षेत्रमा रह्यो छे तो पण कर्मगुणना संयोगने पामतो नथी, एवो आत्मा रुडा स्वभावथी शुद्ध छे ॥ १९ ॥ जेम तिमिर के० ग्रहणघेलो एक चंद्रने बे चंद्र माने छे तेम निश्चयनयनी जाण विनानो जे प्राणी ते उन्माद ममत्वे करी आत्माने अनेक प्रकारे माने छे ॥ २० ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथानुभूयते यकं स्वरूपास्तित्वमन्वयात् ॥ सादृश्यास्तित्वमप्येकमविरुद्धं तथात्मनां ॥ २१ ॥ सदसद्वादपिशुनात् संगोप्य व्यवहारतः ॥ दर्शयत्येकतारत्नं सतां शुद्धनयः सुहृत् ॥ २२ ॥ अर्थ-~-जेम अन्वयथी एकस्वरूपास्तिपणाने अनुभविये छीए तेम मरखापणे जे विद्यमानपणुं छे ते थकी आत्माने एक कहिये ॥ २१ ॥ व्यवहारनयथी सद्असद्वादरूप जे चाडियो तेने छुपावीने शुद्ध नयरूप जे मित्र छे, ते एकतारूप रत्नने देखाडे छे ॥ २२ ॥ नृनारकादिपर्यायैर प्युत्पन्नविनश्वरैः॥ भिन्नैर्जहाति नैकत्वमात्मद्रव्यं सदान्वयि ॥ २३ ॥ यथैकं हेमकेयूरकुंडलादिषु वर्तते ॥ नृनारकादिभावेषु तथात्मैको निरंजनः ॥ २४ ॥ ___अर्थ-नर, नारकादि पर्याय जे उपजे छे अने विणशे छे, ते भिन्न पर्याय काइ रम्य नथी; माटे ते पर्याये करीने सदा अन्वयीजे शुद्धवंशी आत्मतत्त्व ते एकत्वपणाने छांडतुं नथी ॥ २३ ॥ जेम सुवर्ण एक छे, पण बाजुबंध, कंठी, कुंडलादिक पर्याये वर्ते के, तेम आत्मा एक छे, पण नर, नारकादिकना भवे करी भिन्न छे; पण आत्मा तो एक निरंजन छ ॥ २४ ॥ कर्मणस्ते हि पर्याया नात्मनः शुद्धसाक्षिणः ॥ कर्मक्रिया स्वभावो यदात्मा तुन स्वभाववान् ॥२५॥ नाणूनां कर्मणो वासौ भवसर्गः स्वभावजः ॥ एकैकविरहो भावान्न च तस्तखरं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-जे नर, नारकादिक भव ते तो सर्व कर्मना पर्याय छे, पण शुद्ध साक्षी निश्चयनये आत्मपर्याय छे, अने कक्रियारूप जे स्वभाव ते काइ आत्मानो मूल स्वभाव नथी, आत्मा तो अज, अविनाशी स्वस्वभावी छ ॥ २५ ॥ केवल कर्मना जे परमाणुआ तेथी आ संसार सर्ग स्वाभाविक नथी; परंतु जीव अने पुद्गल ए बन्नेना मलवाथी ते उत्पन्न थयेल छे, अने ते बेना परस्पर विरहथी संसार सर्गनी उत्पत्ति नथी; तेमज बीजा कोइ तत्तथी पण संसारनी स्थिति संभवती नथी. एकेक उज्वलताने विषे भावथकी नव तत्वमा रहुं छे ॥ २६ ॥ श्वेतद्रव्यकृतं श्वैत्यं भित्तिभागे यथा द्वयोः ॥ भात्यनंतर्भवत्सत्यं प्रपंचोऽपि तथेक्षतां ॥ २७ ॥ यथा स्वप्नावबुद्धयोऽर्थो विबुद्धेन न दश्यते ॥ व्यवहारमतः सर्गो ज्ञानिना न तथेक्षते ॥ २८ ॥ अर्थ-जेम श्वेत द्रव्ये कीधेलु जे चित्रामण ते भीतना भागमां ( संबंधथी) शोभे, तेम अनंत भवसत्यताये ए प्रपंचने जाणवो, एटले जीव कर्मनो संबंध छूटी गया पछी संसार रहेतो नथी ॥ २७ ॥ जेम स्वप्नमां दीठेलो अर्थ जाग्या पछी देखाय नही, तेम व्यवहारे स्वर्गादिक मार्ग श्रेष्ट छे; पण नियत प्रमाणी ज्ञानी पुरुषने संसार न जणाय ॥ २८ ॥ मध्याह्ने मृगतृष्णायां पयः पूरो यदेक्ष्यते ॥ तथा संयोगजः सर्गो विवेकाख्यातिविप्लवे ॥ २९ ॥ गंधर्वनगरादीनामंबरे डम्बरो यथा ॥ तथा संयोगजः सर्वो विलासो वितथाकृतिः ॥३०॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ . अर्थ-जेम मध्याह्ने मृगजलवडे पृथ्वी उपर जलपूर देखाय छे, तेम संयोगे उपनी• जे सृष्टि ते विवेकनी ख्यातिये नाश देखाय छे ॥ २९ ॥ जेम गंधर्वनगरवडे आकाशे आडंबर जणाय, तेम संयोगे प्रगटया जे सर्व विलास ते जूठा छे ॥३०॥ इति शुद्धनयायत्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि ॥ ___ अंशादिकल्पनाप्यस्य नेष्टा यत्पूर्णवादिनः ॥३१ ॥ एक आत्मेति सूत्रस्याप्ययमेवाशयो मतः ॥ प्रत्यग्ज्योतिषमात्मानमाहुः शुद्धनयाः खलु ॥३२॥ _____ अर्थ-ए रीते शुद्ध नये जे एकत्वपणुं ग्रयुं ते आत्माने विषे पाम्युं अने अंशादिकनी जे कल्पना ते पूर्ण वादीने वहाली नथी ॥ ३१ ॥ सूत्रमां, " एगे आया " एवो जे पाठ छे, ते एज आशये कह्यो छे. एक प्रगट ज्योतिरूप जे आत्मा ते तेजरूप छे, एम शुद्ध नयवाला कहे छे ॥ ३२ ॥ प्रपंच संचयक्लिष्टान्मायारूपाविभेमि ते ॥ प्रसीद भगवन्नात्मन् ! शुद्धरूपं प्रकाशय ॥ ३३ ॥ देहेन सममेकत्वं मन्यते व्यवहारवित् ॥ कथंचिन्मूर्ततापत्तेर्वेदनादिसमुद्भवात् ॥ ३४ ॥ अर्थ-निश्चय नय कहे छे के, प्रपंच संचयवडे संक्लिष्ट एटले दुःखरूप एवं जे ए मायारूप छे ते थकी हे भगवन् ! हे आत्मा ! हुं बीहुँ छ; माटे प्रसन्न थाओ अने शुद्धरूप प्रकाश करो ! ॥ ३३ ॥ कोइक प्रकारे रूपीपणुं पाम्यो जे आत्मा तेने वेदनादिक उपजे छे; माटे व्यवहार नयवालो शरीर साथे आत्मानु एकत्वपणुं माने छे ॥ ३४ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्निश्चयो न सहते यदमूर्ती न मूर्ततां ॥ अंशेनाप्यवगाहेत पावकः शीततामिव ॥ ३५ ॥ उष्णस्याग्नेर्यथा योगाद् घृतमुष्णमिति भ्रमः ॥ तथा मूगिसंबंधादात्मा मूर्त इति भ्रमः ॥ ३६ ॥ अर्थ-पण ते वात निश्चयवालो सही शकतो नथी; जेम अग्नि शीतलता पामतो नथी, तेम जे अरूपी आत्मा छे ते अंशे करीने फ्ण रूपीपणाने पामतो नथी ॥ ३५ ॥ जेम बलता अग्निने संयोगे घृत उष्ण छे एवो भ्रम थाय छे, तेम रूपी शरीरने संयोगे आत्मा पण रूपी दीसे छे; ए पण भ्रमणाज देखाय छे ।।३६॥ न रूपं न रसो गंधो न च स्पर्शो न चाकृतिः॥ यस्य धर्मो न शब्दोवा तस्य का नाम मुर्तता?॥३७॥ दृशादृश्यं हृदाग्राह्य वाचामपि न गोचरः ॥ - स्वप्रकाशं हि यद्रूपं तस्य का नाम मुर्तता ? ॥३८॥ अर्थ-केमके रूप, रस, गंध, स्पर्श अने संस्थान एटलां वानां आत्माने नथी; ए तो पुद्गलने छे, तेमज बाह्य धर्म पण नथी, शब्द नथी; तेवारे आत्माने शी रीते रूपी कहेवाय ? ॥ ३७ ।। वली आत्मा नजरे देखाय एवो पण नथी, मनथी ग्रहवाय एवो पण नथी, तथा वचने पण अगोचर छे, जेनुं रूप पोताना प्रकाशे छे, पण बीजाना प्रकाशे नथी, तेने रूपी केम कहेवाय ? ३८॥ आत्मा सत्यश्चिदानंदः सूक्ष्मात्सूक्ष्मः परात्परः ॥ स्पृशत्यपि च मूर्त्तत्वं तथा चोक्तं परैरपि ॥३९॥ इंद्रियाणी पराण्याहुरिंद्रियेभ्यः परं मनः ।। मनसोऽपि परा बुद्धिर्योबुद्धेः परमस्तु सः॥४०॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अर्थ - आत्मा सत्य छे; चिदानंदमयी छे; सूक्ष्मथी पण सूक्ष्म छे; उत्कृष्टमां उत्कृष्ट छे; ते मूर्त्तपणु केम फरसे ? तेमज परदर्शनमां श्रीकृष्ण कहे छे - हे अर्जुन ! शरीरमां इंद्रियो मोटी छे, अने इंद्रियोथी मन मोहुं मन करतां बुद्धि महोटी छे अने तेथी आत्मा मोटो छे ।। ३९-४० ॥ विकले हंत लोकेऽस्मिन्नमूर्त्ते मूर्त्तताभ्रमात् ॥ पश्यत्याश्चर्यवज् ज्ञानी वदत्याश्चर्यवद्वचः ॥ ४१ ॥ वेदना येन मूर्त्तत्वं निमित्ता स्फुटमात्मनः ॥ पुद्गलानां तदापत्तेः किं त्वशुद्धस्वशक्तिजा ॥ ४२ ॥ अर्थ - हंत इति खेदे. आ विकल लोकने विषे अमूर्त आत्माने विषे मूर्त्तपणाना भ्रमथकी जे ज्ञानी पुरुष छे ते अचो देखे छे, अने वचन पण अचंबाना बोले छे ॥ ४१ ॥ जे माटे जीवात्माने मूर्त्त निमित्त वेदना प्रगटपणे छे, एम जो मानीए तो पुद्गलने वेदना थह जोइये; ते माटे ए वेदना तो आत्माने अशुद्ध शक्तिथी अनुभवाय छे ।। ४२ ।। अक्षद्वारा यथा ज्ञानं स्वयं परिणमत्ययं ॥ तथेष्टानिष्टविषयस्पर्शद्वारेण वेदनां ॥ ४३ ॥ विपाककालं प्राप्यासौ वेदनापरिणाम भाक् ॥ मूर्त्त निमित्तमात्रं नो घटे दंडवदन्वयि ॥ ४४ ॥ अर्थ - इंद्रियद्वारे करी जेम ज्ञानदिशा पोतानी मेले परिणमे छे, तेम इष्ट अनिष्ट विषय स्पर्शद्वारे करी वेदना परिणमे छे || ४३ ॥ विपाककाल पामीने आ बेदना परिणामने जेम आत्मा भजे छे, तेथी अमारे मते मूर्त्तपं ते Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ निमित्तमात्र थयु, अन्वयी के० सहचारी थयु. जेम घटने विषे दंड सहचारी छे तेनी पेठे जाणवू ॥ ४४ ।। ज्ञानाख्या चेतना बोधः कख्यि द्विष्टरक्तता ॥ जंतोः कर्मफलाख्या सा वेदना प्यपदिश्यते ॥४५॥ नात्मा तस्मादमूर्त्तत्वं चैतन्यं चातिवर्तते ॥ अतो देहेन नैकत्वं तस्य मूर्तेन कर्हिचित् ॥ ४६॥ ___ अर्थ-ज्ञान नामे चेतना ते बोध छे अने कर्म नामे द्विष्ट रक्तता छे, तेवडे जीवने कर्मफल नामे वेदना व्यपदेश पामे छे ॥ ४५ ॥ ते माटे अमूर्त आत्मा ते चैतन्यपणाने उलंधे नही अने मूर्तिमान् देह साथे आत्माने कोइ प्रकारे एकत्वपणुं छेज नही ॥ ४६ ॥ सन्निकृष्टान्मनोवाणीकर्मादेरपि पुद्गलात् ॥ विप्रकृष्टाद्धनादेश्च भाव्यैवं भिन्नात्मनः ॥ ४७ ।। पुद्गलानां गुणोमूर्तिरात्मा ज्ञानगुणः पुनः॥ पुद्गलेभ्यस्ततो भिन्नमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥ ४८ ॥ अर्थः-ए रीते कर्म वर्गणाना, मनोवर्गणाना, वचनवर्गणाना जे आत्माने समीपवर्ति, एकत्वसंगतवर्ति एवा तनधनादिक जे पुद्गल ते तो सर्व आत्माथी भिन्न के० दूर छे ॥ ४७ ॥ केमके पुद्गलनो गुण तो मूर्तिमान छे, अने आत्मा तो ज्ञानगुणमय छे; माटे पुद्गलथी आत्मद्रव्य जुदुं छे एम प्रभु कहे छ ।४८। धर्मस्य गतिहेतुत्वं गुणो ज्ञानं तथात्मनः ।। धर्मास्तिकायात्तद्भिन्नमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥४९॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधर्मे स्थितिहेतुत्वं गुणो ज्ञान गुणोऽसुमान् ॥ ततो धर्मास्तिकायान्यमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥५०॥ . अर्थः-धर्मास्तिकायनो गुण गतिहेतु छे अने आत्मानो गुण ज्ञान छे, माटे धर्मास्तिकायथी आत्मा जुदो छे एम प्रभु कहे छे ॥ ४९ ॥ अधर्मास्तिकायनो गुण स्थितिहेतु छे अने आत्मानो ज्ञान गुण छे, माटे अधर्मास्तिकायथी आत्मद्रव्य जुएं छे एम प्रभु कहे छे ॥ ५० ॥ अवगाहो गुणो व्योम्नो ज्ञानं खल्वात्मनो गुणः॥ व्योमास्तिकायात्तद्भिन्नमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥५१ आत्मज्ञानगुणः सिद्धः समयो वर्त्तनागुणः ।। तद्भिन्नं समयद्रव्यादात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥५२॥ अर्थ:--आकाशनो गुण अवगाह छे, अने आत्मानो गुण ज्ञान छे, माटे आकाशास्तिकाय श्री आत्मद्रव्य जुदुं छे एम प्रभु कहे छे ।। ५१ ॥ आत्मा ज्ञान गुणे सिद्ध छे, काल वर्तमारूप छे, माटे कालथी आत्मद्रव्य जुदुं छे, एम प्रभु कहे छे ।। ५२ ॥ आत्मनस्तदजीवेभ्यो विभिन्नत्वं व्यवस्थितं ॥ व्यक्तिभेदेनयादेशादजीवत्वमपीष्यते ॥५३ ॥ अजीवा जन्मिनः शुद्धभावप्राणव्यपेक्षया ॥ सिद्धाश्च निर्मलज्ञाना द्रव्यप्राणव्यपेक्षया ॥५४॥ ____अर्थ:-ए प्रमाणे अजीवथी आत्मानुं जुदापणुं सत्य ठयु, पण भेदे करी देशथकी अजीवपणुं पण वंछीए छीए ॥ ५३ ॥ जेम निर्मल ज्ञानवंत सिद्धने द्रव्यप्राणनी अपेक्षा रहितपणे अजीवपणुं कहिये, तेम शुद्ध भावप्राणनी अपेक्षा रहित जीवने अजीव कहिये छीए ॥ ५४॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रियाणि बलं श्वासोवासो ह्यायुस्तथा परं ॥ द्रव्यप्राणाश्चतुर्भेदाः पर्यायाः पुद्गलाश्रिताः ॥ ५५॥ भिनास्ते ह्यात्मनोऽत्यंतं तदेतैर्नास्ति जीवनं ॥ ज्ञानधैर्यसदाश्वासनित्यस्थितिविकारिभिः ॥५६॥ अर्थ:-इंद्रिय, बल, श्वासोवास अने आयुष्य ए रीते द्रव्यप्राण चार भेदे छे. एना पर्याय तो पुद्गलने आश्री रह्या छे ॥ ५५ ॥ ते आत्माथी अत्यंत जुदा छे, माटे एवडे काइ आत्माने जीवq नथी. ए पर्याय तो ज्ञान, धैर्य, तेना श्वासनी जे काइ नित्य स्थिति तेणे करी वर्जित छे ।। ५६ ॥ एतत्प्रकृतिभूताभिः शाश्वतीभिस्तु शक्तिभिः ॥ जीवत्यात्मा सदेत्येषा शुद्धद्रव्यनयस्थितिः ॥५७।। जीवो जीवति न प्राणैर्विना तैरेव जीवति ॥ इदं चित्र चरित्रं को हंत पर्यनुयुञ्जतां ॥ ५८ ॥ ___अर्थः–ए प्रकृतिरूप शाश्वती शक्ति तेणे करीने आत्मा सदैव जीवे छे, ए शुद्ध द्रव्यनयनी स्थिति जाणवी ॥ ५७ ॥ जीव काइ प्राणे करीने जीवतो नथी, ए जीव तो प्राण विना जीवे छे, ए अचंबानी वात विचित्रकारी चरित्र सांभली कोण न हो ? अने ए वात शुद्ध नये कोण न जोडे ? ॥ ५८ ॥ नात्मा पुण्यं न वा पापमेते यत्पुद्गलात्मके। आद्यबालशरीरस्योपादानत्वेन कल्प्यते ॥ ५९॥ पुण्यं कर्म शुभं प्रोक्तमशुभं पापमुच्यते ॥ तत्कथं तु शुभं जंतून् यत् पातयात जन्मनि॥६०॥ अर्थः-आत्मा पुण्य नहीं तेम पाप पण नहीं, केमके Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ पुण्य ने पाप तो पुट्टलरूप छे. प्रथम बालकाले जे शरीर तेने उपादानभावे कल्पे छे ॥ ५९ ॥ जे शुभ कर्म ते पुण्य कहीये, अने जे अशुभ कर्म ते पाप कहिये, तेवारे ते शुभ कर्म जे छे ते जीवने संसारमा केम पाडे छे ? ॥ ६० ॥ न वायसस्य बंधस्य तपनीयमयस्य च ॥ पारतंत्र्याविशेषेण फलभेदोऽस्ति कश्चन ॥ ६१ ॥ फलाभ्यां सूखदुःखाभ्यां न भेदः पुण्यपापयोः ॥ दुःखान्न भियते हंत यतः पुण्यफलं सुखं ॥ ६२॥ अर्थ:-एक लोहनी बेडी अने एक सुवर्णनी बेडी ते पण परवशपणुं छे, माटे विचारीए तो फलभेद कांइ नथी, तेम अशुभ कर्म ते लोहनी बेडी अने जे शुभ कर्म ते सुवर्णनी बेडी ॥ ६१ ॥ सुखनां फल अने दुःखनां जे फल प्रगटे छे, तेथी पुण्यपाप मध्ये कांइ भेद नथी. जे थकी पुण्य सुख विलसे ए पुण्यनुं फल छे, ते पण दुःखरूप ज छे ॥ ६२ ॥ सर्व पुण्यफलं दुःखं कर्मोदयकृतत्वतः॥ तत्र दुःखप्रतीकारे विमूढानां सुखत्वधीः ॥ ६३ ॥ परिणामाच्च तापाच्च संस्काराच बुधैर्मतं ॥ गुणवृत्तिविरोधाच दुःखं पुण्यभवं सुखं ॥ ६४ ॥ ___अर्थः-माटे सर्व पुण्यनुं फल ते दुःखरुप छे, केमके ए कर्मना उदयथी थाय छे; माटे दुःखना प्रतीकारने विषे मूर्खने सुखबुद्धि उपजे छे ।। ६३ ॥ पंडित कहे छे के, परिणामथी, तापथी अने संस्कारथी गुणवृत्ति विरोधी एहवु जे पुण्य, तेथी नीपन्यु जे सुख ते दुःखप्राय छे ॥ ६४ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहपुष्टेनरामर्त्यनायकानामपि स्फुटं । महाजपोषणस्येव परिणामोऽतिदारुणः ॥ ६५ ॥ जलूकाः सुखमानिन्यः पिबत्यो रुधिरं यथा ॥ भुंजाना विषयान् यांति दशामतेऽतिदारुणां॥६६॥ अर्थ:-नरने, राजाने तथा इंद्रादिकने पण जे सुखमां शरीरनी पुष्टि थाय छे ते मोटा बोकडानी पेठे छे, ए कथा उत्तराध्ययनसूत्रमा कही छे तिहांथी जाणवी. जे वारे वध थयो, ते वारे परिणामे अतिदुःख छे ॥ ६५ ॥ जेम जलो लोही पीतां थकां सुख माने छे तेम विषय भोगवतां थकां प्राणी सुख माने छे; पण तेथी अंते माठी दशाने पामे छे ॥ ६६॥ तीव्राग्निसंगसंशुष्यत्पयसामयसामिव ॥ यत्रौत्सुक्यात्सदाक्षाणांतप्तता तत्र किं सुखं ?॥३७॥ प्राक्पश्चाचारतिस्पर्शात्पुटपाकमुपेयुषि ॥ इंद्रियाणां गणे तापव्याप एव न निर्वृत्तिः ॥ ६८॥ __ अर्थ:-आकरी अग्निमां बलतराए करी लोह पाणी पीये छे तेम ज्यां सदा इंद्रियोनी उत्कंठाथी घणीज बलतरा रहे छे त्यां शुं सुख छे ? ॥ ६७ ॥ पहेलां अथवा पछी पण जे थकी अरति उपजे, तेने अडकवाथी विपाक पामे थके इंद्रियोना समूहमां ताप व्यापे पण सुख न थाय, एटले पहेलां बांध्यां जे कर्म ते जेवारे भोगववामां आवे तेवारे पण अरति लइनेज आवे, अने पछी ते कर्मो विपाके पण दुःख आपे ॥ ६८ ॥ सदा यत्र स्थितो द्वेषोल्लेखः स्वप्रतिपंथिषु ॥ सुखानुभवकालेऽपि तत्र तापहतं मनः ॥ ६९॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कंधात् स्कंधांतरारोपे भारस्येव न तत्त्वतः ॥ अक्षाल्हालादेऽपिदुःखस्य संस्कारोऽपि निवर्त्तते॥७॥ ___अर्थ:-जेहने सदैव शत्रु उपर द्वेष रह्यो छे ते प्राणी जो घरमां सुखे बेठो होय, तो पण तेहने सुख न होय. तेम विषयसुखमां अनुभवकाले पण विषयना तापे करी जेनुं मन हणायुं छे, तेहने सुख क्याथी होय ? ॥ ६९ ॥ जेम एक खंभा उपरथी बीजा खंभा उपर भार लीधो, पण तत्त्वथी भार उतयों नहीं एम इंद्रियोने आनंदे दुःखनो संस्कार मटतो नथी ॥ ७० ॥ सुखं दुःखं च मोहश्च तिस्रोपि गुणवृत्तयः॥ विरुद्धा अपि वर्त्तते दुःखजात्यनतिक्रमात् ॥७१॥ क्रुडनागफणाभोगोपमो भोगोद्भवोऽखिलः ॥ विलासश्चित्ररूपोऽपि भयहेतुर्विवेकिनां ॥७२॥ ___ अर्थः-सुख, दुःख अने मोह ए त्रणे जो के विरुद्ध छे, तो पण गुणवृत्तिये वर्ते छे; केमके दुःखनी जातिने उल्लंघन करी शकता नथी, माटे गुणवर्तीरूप छे ॥ ७१ ॥ क्रोधी नागनी फणना विस्तार सरखो सर्व भोगविलास छे. वली ते भोगविलास यद्यपि विचित्ररूप छे, तथापि विवेकीजनने ते भयनो हेतु छे ॥ ७२ ॥ इत्यमेकत्वमापन्नं फलतः पुण्यपापयोः ॥ मन्यते यो न मूढात्मा नांतस्तस्य भवोदधेः॥७३॥ दुःखैकरूपयोभिन्नस्तेनात्मा पुण्यपापयोः॥ शुद्धनिश्चयतः सत्यचिदानंदमयः सदा ॥७४ ॥ अर्थः-ए रीते फलनी अपेक्षाये पुण्यपापर्नु एकत्वपणुं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ ठराव्यु, पण जे मूर्ख न मानशे ते संसारमा भटकशे; अने जे मानशे ते भवसागर तरी जशे ॥ ७३ ॥ पुण्य अने पाप ए बेउ एक सरखा दुःखस्वरूप ज छे, ते थकी आत्मा भिन्न छेशुद्ध निश्चयनयथी सदा सतच्चिदानंदमय छे ॥ ७४ ॥ तत् तुरीयदशाव्यंग्गरूपमाचरणान्वयात् ॥ ___ भात्युष्णोद्योतशीलस्य धननाशाद्रवेरिव ॥ ७९ ॥ जायंते जाग्रतोऽक्षेभ्यश्चित्रार्थीसुखवृत्तयः॥ सामान्यं तु चिदानंदरूपं सर्वदशान्वयि ॥ ७६ ।। ___ अर्थ:-ए वात ते चोथी दिशाये जाणवा योग्य छे, जेम वर्षाकालमां मेघ वरसी रह्या पछी वादलनो नाश थाय छे, अने सूर्यप्रभा शोभे छे, तेम व्यंगरूप विचित्र एहवां आचरण विशेषे करी चोथी दशामां शोभे छे ।। ७५ ॥ जागता जीवने इंद्रियोनी सुखवृत्तिओ नाना प्रकारनी थाय छे, पण सामान्य जे चिदानंदस्वरूप तेने तो सर्व दशामां सरखं सुख छ. ।। ७६ ॥ स्फुलिंगनै यथा वह्निर्दीप्यते ताप्यतेऽथवा ॥ नानुभूतिपराभूती तथैताभिः किलात्मनः ॥ ७७॥ साक्षिणः सुखरूपस्य सुषुप्तौ निरहंकृतेः ॥ यथा भानं तथा शुद्धविवेके तदतिस्फुटं ॥ ७८ ॥ अर्थः-तणखे करीने जेम अग्नि दीपे नहीं, तपे नहीं, तेम अनुभव पराभवादिके करीने आत्माने कंइ नथी ॥७७ ॥ निद्रावस्थामां जेम सुखरूपनो साक्षी जे आत्मा तेने अहंकारे रहित सुखनो भास थाय छे, तेम शुद्ध विवेकने विषे तो प्रगटपणे सुख भासे छे ॥ ७८ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्चिदानंदभावस्य भोक्तात्मा शुद्धनिश्चयात् ।। अशुद्धनिश्चयात्कर्मकृतयोः सुखदुःखयोः ॥ ७९ ॥ कर्मणोऽपि च भोगस्य स्नगादेर्व्यवहारतः ॥ नैगमादिव्यवस्थापि भावनीयाऽनया दिशा ॥८०॥ अर्थ:-ते माटे शुद्ध निश्चयनयथकी आत्मा चिदानंदभावनो भोक्ता छ; अने अशुद्ध निश्चयनय थकी कमें कों जे सुखदुःख तेनो भोक्ता छ ॥ ७९ ॥ फूलनी शय्या तथा फूलनां भूषण प्रमुखने विषे भोगकर्मनी व्यवहारथी प्रवृत्ति छे, तेम नेगमादिकनयनी व्यवस्था पण आवी रीते भावीये; ते नीचे लख्या प्रमाणे छे ॥ ८० ॥ कर्त्तापि शुद्ध भावानामात्मा शुडनयाद्विभुः ॥ प्रतीत्य वृत्तिं यच्छुडक्षणानामेष मन्यते ॥ ८१ ॥ अनुपप्लवसाम्राज्ये विसभागपरीक्षये ॥ आत्मा शुद्धस्वभावानां जननाय प्रवर्त्तते ॥ ८२ ॥ ___ अर्थ:-शुद्धभावनो कर्ता आत्मा शुद्धनयथी समर्थ छे, जेवारे शुद्धपरिणामी छे, ते समर्थ वीर्यवृत्तिने आश्रयीने शुद्धभावनो कर्ता छे, एम शुद्धनयवालो माने छे ।। ८१ ॥ उपद्रव अंतरायादिके रहित साम्राज्यपणाने विषे दुष्ट भावनो नाश थये छते आत्मा शुद्धस्वभाव प्रगट करवाने प्रवर्ते छे । ८२ ॥ चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितं ॥ __तदैव तैर्विनिमुक्तं भवांत इति कथ्यते ।। ८३ ॥ यश्च चित्तक्षिणक्लिष्टो नासावात्मा विरोधतः॥ अनन्यविकृतं रूपमित्यर्थत्वं ह्यदः पदं ॥ ८४ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ:-जे रागादिक क्लेशवडे चित्त वासित होय ते संसार कहेवाय, अने रागद्वेषथी मुकावं तेनुं नाम मुक्ति छे, एम जाणQ ॥ ८३ ॥ रागद्वेष व्याप्यो जे मननो क्लिष्ट परिणाम छे ते काइ आत्मानो नथी, आत्मानुं रूप तो सत्यार्थपणे अविकारी छे ॥ ८४ ॥ श्रुत्वानुपयोगश्चेत्येतन्मिथ्या यथा वचः ॥ तथात्मा शुद्धरूपश्चेत्येवं शब्दनया जगुः ॥ ५ ॥ शुद्धपर्यायरूपस्तदात्मा शुद्धस्वभावकृत् ॥ प्रथमाप्रथमत्वादिभेदोऽप्येवं हि तात्त्विकः ॥ ८६ ॥ अर्थः-जेम आत्मानो उपयोग श्रुतवंत छे, ए खोटुं छे, तेम शब्दनयवाला कहे छे, के आत्मा शुद्धरूप नथी, ए पण खोटुं छ ।। ८५ ॥ शुद्ध पर्यायरूप आत्मा, पूर्वपश्चातपणानो जे भेद तेपणे शुद्ध स्वभावनो कर्त्ता छे, एम तात्त्विक छे ॥ ८६ ॥ ये तु दिक्पटदेशीयाः शुद्धद्रव्यतयात्मनः॥ शुद्धस्वभावकर्तृत्वं जगुस्तेऽपूर्वबुद्धयः ॥ ८७॥ द्रव्यास्तिकस्य प्रकृतिः शुद्धा संग्रहगोचरा ॥ येनोक्ता संमतौ श्रीमत्सिद्धसेनदिवाकरः ॥ ८८ ॥ ___ अर्थ:-दिगंबर एम कहे छे के, शुद्ध द्रव्याथै वली जेम उपयोग विना श्रुत भण्यो तेनुं पण शुद्ध स्वभावनुं कर्त्तापणुं जतुं नथी; केमके ते तेने स्वभावेज परिणमे छे, एम अपूर्व बुद्धिनुं कहे, छे ॥ ८७ ॥ द्रव्यास्तिक नयनी जे शुद्ध प्रकृति छे, ते २५ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ संग्रहनय उपर चाले, केमके सम्मति ग्रंथमां सिद्धसेन सरिए का छे ॥ ८८ ॥ तन्मते च न कर्तृत्वं भावानां सर्वदान्वयात् ॥ कूटस्थः केवलं तिष्ठत्यात्मा साक्षित्वमाश्रितः।।८९॥ कर्तुं व्याप्रियते नायमुदासी नइव स्थितः॥ आकाशमिव पंकेन लिप्यते न च कर्मणा ॥ ९० ॥ अर्थ:-तेने मते कर्त्तापणुं नथी, केमके सदैवभावनो अन्वय छे माटे कूटस्थ केवल निर्विक्रिय जे आत्मा ते साक्षीपणाने आश्रीने रह्यो छे ।। ८९ ॥ करवानो व्यापार करतो नथी; उदासीनी पेठे रह्यो छे. जेम कचरे आकाश लेपातुं नथी तेम कर्मे आत्मा लेपातो नथी ॥ ९० ॥ स्वरूपं तु न कर्त्तव्यं ज्ञातव्यं केवलं स्वतः ॥ दीपेन दीप्यते ज्योतिर्नित्यपूर्व विधीयते ॥११॥ अन्यथा प्रागनात्मा स्यात्स्वरूपाननुवृत्तितः॥ भव हेतुसहस्रेणाप्यात्मता स्यादनात्मनः ॥ ९२ ।। ___ अर्थः-पोताना रूपने नवीन करवू नथी, मात्र पोताना रूपने पोताथकी केवल जाणी लेवू छे. जेम दीवेथी ज्योति दीपे छे तेम नित्य शाश्वत आत्मा स्वप्रकाश होवाथी पोते पोताने प्रकाशे छे ॥ ९१ ॥ एम आत्माने स्वप्रकाश अने शाश्वत अंगीकार करीए नही अने परप्रकाश तथा कर्तृत्व सिद्ध मानीए तो, पूर्वे अनात्मपणुं अंगीकार करवू पडशे, केमके क्रियावडे उत्पन्न थएला पदार्थर्नु पूर्वनुं रूप जुदुंज होय छे, एवो नियम छे. एवी रीते आत्मानी उत्पत्तिनी पूर्वे आत्माने अनात्मा मानवो Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ पडशे अने क्रियावडे आत्मानुं रूपांतर थाय छे, एम मानीए तो आत्मानी आवृत्ति अंगीकार करवी पडशे. आवृत्ति अंगीकार करीए तो संसार विषयक हजारो कृत्यरूप हेतुवडे हजारो रूप बदलाशे. त्यारे पूर्व पूर्वनुं रूप अनात्मा अने उत्तर उत्तरक्रियाजन्य रूप आत्मा मानवो पडशे, अने एम कर्याथी छेवटे अनवस्था दोष प्राप्त थशे ॥ ९२ ॥ नये तेनेह नो कर्त्ता किं त्वात्मा शुद्धभावभृत् ॥ उपचारानु लोकेष्ठ तत्कर्तृत्वमपीष्यते ॥ ९३ ॥ उत्पत्तिमात्रं धर्माणां विशेषग्राहिणो जगुः ॥ अव्यक्तिरावृत्तेस्तेषां नाभावादिति का प्रमा? ॥१४॥ अर्थः- ते माटे आ नयने विषे कापणुं नथी, केमके आत्मा शुद्ध भावनो धरनार छे अने लोकमां उपचारथी तेनुं कर्त्तापकहे छे ॥ ९३ ॥ विशेषग्राही जे ज्ञानी पुरुषो छे ते पूर्वोक्त रीते आत्माने क्रियासिद्ध मानता नथी, किंतु आत्माना धर्मोनी उत्पत्ति माने छे. अहीं कोइने शंका थशे के, जेम आत्मा अव्यक्त छे तेम आत्माना धर्म पण अव्यक्त छे; तो ज्यारे आत्मानी उत्पत्ति मानता नथी त्यारे तेना धर्मनी उत्पत्ति पण केम मनाय ? तेनुं समाधान ए के, केटली एक अव्यक्त वस्तुओ आकाशनी पेठे जेमनी तेम रहे छे अने केटली एक रूपांतरने पामे छे. आत्मा शाश्वता व्यक्त छे अने तेना धर्म अशाश्वता व्यक्त छे, माटे तेओनी आवृत्ति थाय छे केमके जेम आत्मानी अनावृत्तिमा घणां प्रमाणो छे, तेम आत्माना धर्मनी आवृत्ति न थवामां कोइ प्रमाण नथी; तेथी आत्मानी पुनरावृत्ति थती नथी पण आत्माना धर्मोनी पुनरावृत्ति थाय छे, एवं सिद्ध थयुं ।।९४॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्वं च परसंताने नोपयुक्तं कथंचन ॥ संतानिनामनित्यत्वात्संतानोऽपि न च ध्रुवः ॥९॥ व्योमाव्युत्पत्तिमत्तत्तदवगाहात्मना ततः॥ नित्यता नात्मधर्माणां तदृष्टांतवलादपि ॥ ९६ ॥ ___अर्थ:-आत्मानुं उत्पत्तिरहितपणुं दृष्टांतवडे दृढ करे छे. जेम पिता पुत्ररूप परिवारनी उत्पत्तिमां पूर्व पूर्वपितारूप कारणथी उत्तर उत्तरपुत्ररूप कार्यनी उत्पत्ति थवाथी पितापणानो अभाव अने पुत्रपणानो भाव थाय छे, एम संकलना चालतां जेम पितानो नाश तेम पुत्रनो पण नाश थाय छे. तेम अनात्माथी आत्मानी उत्पत्तिरूप प्रवाहथी पूर्वनो अभाव अने उत्तरनो भाव थतां पूर्वनी पेठे उत्तरना नाशनो पण संभव सिद्ध थाय छे, एथी आत्मा अशाश्वत अने नाशरूप ठरशे ॥ ९५ ॥ आकाशना दृष्टांतवडे आत्मानुं अचलपणुं अने आत्माना धोनुं चलायमानपणुं सिद्ध थाय छे. जेम आकाश उत्पत्ति रहित छे तेथी तेनुं रूपांतर थतुं नथी; तेमज आत्मा पण उत्पत्ति रहित होवाथी तेनुं रूपांतर थतुं नथी. अने आत्माना धर्म उत्पित्तिवान छे तेथी तेनुं रूपांतर थाय छे. अहीं पण आकाशनुं व्यतिरेकपणे दृष्टांत लेवु. जे वस्तु आकाशनी पेठे उत्पत्ति रहित नथी होती तेनुं रूपांतर थाय छे ॥ ९६ ॥ रुजुसूत्रनयसूत्रः कर्तृतां तस्य मन्यते ॥ स्वयं परिणमत्यात्मा यं यं भावं यदा यदा ॥९७।। कर्तृत्वं परभावानामसौ नाभ्युपगच्छति ॥ क्रियाद्वयं हि नैकस्य द्रव्यस्याभिमतं जिनैः ॥१८॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ अर्थ :- ज्यारे आत्मानुं रूपांतर थतुं नथी त्यारे परिणामवादनो उच्छेद थशे, एवी आशंका करीने तेनो उत्तर कहे छे. रुजुसूत्र नयवालो, ज्यारे ज्यारे जे जे भावना परिणामने आत्मा पामे छे त्यारे त्यारे ते ते भावरूप कर्मवडे परिणामरूप उत्पत्ति माने छे, तथापि आत्माने कर्तृत्वपणे बीजा नथी; केमके एक द्रव्यमां बे क्रिया संभवे अभिमत छे ।। ९७-९८ ॥ भावनी प्राप्ति धती नही, एवं जिनने भूतिर्या हि क्रिया सैव स्यादेकद्रव्यसंततौ ॥ न साजात्यं विना च स्यात् परद्रव्यगुणेषु सा ॥ ९९ ॥ न चैवमन्यभावानां न चेत्कर्त्ताऽपरो जनः ॥ तदा हिंसादयादानहरणाय व्यवस्थितः ॥ १०० ॥ अर्थ:-भूति एटले भाव अने क्रिया ए बन्नेनो एक अर्थ छे. ते एक द्रव्य संततिने विषे सामान्य विना न थाय, अने द्रव्यना गुणने विषे पण न थाय; केमके कोइ पण द्रव्य अपरभावनो कर्त्ता होतो नथी ॥ ९९ ॥ एमज आत्माने विषे अन्य भावनुं कर्त्तापं नथी. त्यारे शिष्य पूछे छे के हिंसा, दया, दान वगेरेनी व्यवस्था केम रहेशे १ ।। १०० ॥ सत्यं पराश्रयं न स्यात् फलं कस्यापि यद्यपि ॥ तथापि स्वगतं कर्म स्वफलं नाभिवर्त्तते ।। १०१ ।। हिनस्ति न परं कोऽपि निश्चयान्न च रक्षति ॥ नचायुः कर्मणो नाशो मृतिर्जीवनमन्यथा ॥ १०२॥ अर्थ:-त्यारे गुरु कहे छे, यद्यपि ए तारुं बोलकं साचुं छे केमके कोने पण पराश्रये फल थतुं नथी. ( तथापि पोताने Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ विषे रहेलुं जे कर्म ते पोताना फलने विषे प्रवर्त्ततुं नथी ) ॥ १०१ ॥ निश्रवडे बीजा कोइने कोइ मारतो नथी तेम कोइ कोइ रक्षण करतो नथी; आयु कर्मनो नाश थाय नहीं अने मृत्यु जीवन अन्यथा थाय नहीं ॥ हिंसादयाविकल्पाभ्यां स्वमताभ्यां तु केवलं ॥ १०२ ॥ फलं विचित्रमाप्रोति परापेक्षां विना पुमान् ॥ १०३ || शरीरी म्रियतां मा वा ध्रुवं हिंसा प्रमादिनः ॥ दयैव यतमानस्य वधेऽपि प्राणिनां कचित् ॥ १०४ ॥ अर्थ: - हिंसा अने दयानी पण मात्र कल्पना छे. पोताना मते करी तो परनी अपेक्षाथी पुरुष केवल विचित्र फलने पामे छे || १०३ ॥ जीवनो घात थाय अथवा न थाय, तो पण जे प्रमादी जीव छे तेने निश्वये करी हिंसा थाय छेः अने जे दयावान प्राणी छे तेना हाथे कदाच कोइ जीवनो घात थइ जाय, तो पण तेने हिंसा लागती नथी ॥ १०४ ॥ परस्प युज्यते दानं हरणं वा न कस्यचित् ॥ न धर्मसुखयोर्यते कृतनाशादिदोषतः ॥ १०५ ॥ भिन्नाभ्यां भक्तवित्तादिपुद्गलाभ्यां च ते कुतः ? ॥ स्वत्वापत्तिर्यतो दानं हरणं सत्वनाशनं ॥ १०६ ॥ अर्थ :- कोइ बीजाने दान देतो नथी, अने बीजानी पासेथी कोइ कांइ हरण करी लेतो नथी; धर्म अने सुखने विषे पण दान तथा हरणनो संभव नथी, केमके कृतनाश अने अकृतनो प्रसंग इत्यादि दोष प्राप्त थशे. जेम दान कयुं तेनो नाश थाय तेने कृतनाश कहे छे, अने जे बीजाने आप्युं नथी तेनुं हरण Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवू ते अकृतागम प्रसंग कहेवाय. एवा दोष आत्माने विषे प्राप्त थशे ॥ १०५॥ केमके भोजन तथा धनादिक जे पुद्गल ते तो आत्माथी भिन्न छे, तो तेमां क्याथी पोतापणुं आव्यु ? माटे दान अने हरण ते पोताथी ज नाश छे ॥ १०६ ॥ कर्मोदयाच तद्दानं हरणं वा शरीरिणां ॥ पुरुषाणां प्रयासः कस्ततोपनमति स्वतः ॥ १०७ ॥ स्वागताभ्यां तु भावाभ्यां केवलं दानचौर्ययोः ॥ अनुग्रहोपघातौ स्तः परापेक्षा परस्य न ॥ १०८॥ अर्थःवली ते दान अने हरण प्राणीने कर्मना उदयथकी छे, त्यां पुरुषने शो प्रयास छे ? ते तो पोतानी मेलेज उदय पामे छे ॥ १०७ ॥ पोतामां रह्या एवा जे दान अने हरणना भाव तेणे करीने एकथी उपकार थाय; बीजाथी उपघात थाय; त्यां परनी अपेक्षा परने नहीं ॥ १०८ ॥ पराश्रितानां भावानां कर्तृत्वाद्यभिमानतः । कर्मणा बध्यतेऽज्ञानी ज्ञानवांस्तु न लिप्यते ॥१०९।। कर्तवमात्मनो पुण्यपापयोरपि कर्मणोः ।। रागद्वेषाशयानां तु कर्तेष्टानिष्टवस्तुषु ॥ ११० ॥ अर्थ:-पर आश्रित जे भाव तेनो हुं कर्ता छु, एम अभिमानथी कहेवू, एवां कर्मे अज्ञानी बंधाय छे; पण ज्ञानी तेवां कर्मे लेपाता नथी ॥ १०९ ।। माटे आत्मा ते पुण्य-पापरूप कर्मनो कर्ता छे, राग-द्वेष आशयनो कर्त्ता छे अने इष्ट अनिष्ट वस्तुने विषे पण आत्मा कर्ता छ । ११० ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० रज्यते द्वेष्टि चार्थेषु तत्तत्कार्यविकल्पतः || आत्मा यदा तदा कर्म भ्रमदात्मनि युज्यते ॥ १११ ॥ स्नेहाभ्यक्तत नोरंगं रेणुनाश्लिष्यते यथा ॥ रागद्वेषानुविद्धस्य कर्मबंधस्तथामतः ॥ ११२ ॥ अर्थ:-जेवारे ते ते कर्मना विकल्पथी आत्माने कोह पदार्थ उपर रागदशा अथवा द्वेष उपजे छे तेवारे आत्मामां कर्मनो भ्रम जोडाय छे ॥ १११ ॥ तेल लगाडेला शरीरे जेम रजनो लेप वलगे छे तेम रागी अने द्वेषी आत्माने कर्मनो बंध बलगे छे ।। ११२ ॥ आत्मा न व्यापृतस्तत्र रागद्वेषाशयं सृजन् ॥ तन्निमित्तोपनत्रेषु कर्मोपादानकर्मसु ॥ ११३ ॥ लोहं स्वक्रिययाभ्योति भ्रामकोपलसंनिधौ ॥ यथा कर्म तथा चित्रं रक्तद्विष्टात्मसंनिधौ ॥ ११४ ॥ अर्थः- तिहां आत्मा पोते कोइ क्रिया करतो नथी, पण राग द्वेष करतो थको ते निमित्ते पाम्यां जे कर्म तेना निमित्ते कर्त्ताप कर्म छे; पण तहां आत्मा तो रागद्वेष रूप कर्मनो मूकनारो छे. एटले आत्मा भावकर्मनो व्यापारवंत छे; पण द्रव्य कर्मनो व्यापारवंत नथी ॥ ११३ ॥ जेम चमक पाषाण ते लोहने आकर्षे, तेणे करी लोह पोतानी क्रियाये चमक पासे आवी मले, तेम रागद्वेषी आत्मानी पासे कर्म आकर्षणे आवी मले छे ।। ११४ ॥ वारि वर्षन् यथांभोदो धान्यवर्षी निगद्यते ॥ भावकर्म सृजन्नात्मा तथा पुद्गलकर्मकृत् ॥ ११५ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ नैगमव्यवहारौ तु ब्रूतः कर्मादिकर्तृतां ॥ व्यापारः फलपर्यंतः परिदृष्टो यदात्मनः ॥११६ ।। ___ अर्थ:-जेम पाणी वरसे छे ते लोकव्यवहारे धान्य वरसे छे एम कहीए, तेम भावकर्म करतो थको आत्मा पुद्गल कर्मनो कर्ता कहीए ॥ ११५ ।। नैगम अने व्यवहारनयवाला तो कर्मादिकनो कर्ता आत्माने माने छे, जे आत्मानो व्यापार ते फलपर्यंत देखाय छे ।। ११६ ॥ अन्योऽन्यानुगतानां का तदेतदिति वा भिदा ॥ यावचरमपर्यायं यथा पानीयदुग्धयोः ॥ ११७ ॥ नात्मनो विकृतिं दत्ते तदेषा नयकल्पना ॥ शुद्धस्य रजतस्येव शुक्तिधर्मप्रकल्पना ॥ ११८ ॥ अर्थः -परस्पर मल्या एवा जे नय तेने, ( एवो निर्णय यावत् चरमपर्याय छे) परंतु जातिभेद केम जणाय ? जेम दूध अने पाणीना संयोगनी पेठे संग्रह माने नैगमने, अने नैगम माने संग्रहने, ए बे नय मांहोमांहे भले छे एम व्यवहार पण भले छे ॥ ११७ ।। वली शुद्धनयवालो बोले छे के, आत्माने विकार नथी. विकार ए नैगम तथा व्यवहारनयनी कल्पना छे. केनी पेठे ? ते कहे छे. जेम शुद्ध रूपाने छीपनो धर्म कल्पे छे तेनी पेठे जाणवु ॥ ११८ ॥ मुषितत्वं यथा पांथ गतं पथ्युपचर्यते ॥ तथा पुद्गलकर्मस्था विक्रियात्मनि बालिशैः ॥११९।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ कृष्णः शोणोऽपि चोपाधे शुद्धः स्फटिको यथा॥ रक्तोद्विष्टस्तथैवात्मा संसर्गात्पुण्यपापयोः ॥१२०॥ अर्थ:-जेम पंथीजनने लुटतां लोक कहेशे जे मार्ग लुटाणो, ए लोक वाक्य छे तेम मूर्ख प्राणी पुद्गल कर्ममा रही जेवी क्रिया करे ते आत्माने विषे माने छे ॥ ११९ ॥ जेम कालो अथवा रातो स्फटिक छे ते उपाधिथी छे, माटे तेने अशुद्ध न कहिये; तेम पुण्य-पापना संयोगथी आत्मा रागीद्वेषी कहेवाय छे ॥ १२० ॥ सेयं नटकला तावद् यावद्विधिकल्पना ॥ __ यदूपं कल्पनातीतं न तु पश्यत्यकल्पकः ॥ १२१ ॥ कल्पनामोहितो जंतुः शुक्लं कृष्णं च पश्यति ।। तस्यां पुनर्विलीनायामशुक्लं कृष्णमीक्षते ॥ १२२ ॥ अर्थ:-जिहां सुधी विविध प्रकारनी कल्पना होय तिहां सुधी ए सर्व नटकलारूप छे, पण कल्पनाये अतीत जे रूप तेने तो जे अकल्प कह्यो होय ते देखे ॥ १२१ ॥ पण कल्पनाये मुंझाणो जे जीव ते तो धोलाने कालुं देखे अने कालाने धोलुं देखे, अने ते कल्पना जेवारे जाय तेवारे तो कालाने कालुंज देखे अने धोलाने धोलुंज देखे ॥ १२२ ॥ तड्यानं सा स्तुतिर्भक्तिः सैवोक्ता परमात्मनः ॥ पुण्यपापविहीनस्य यदपस्यानुचिंतनं ॥ १२३ ॥ शरीररूपलावण्यवप्रच्छत्रध्वजादिभिः॥ वर्णितैर्वीतरागस्य वास्तवी नोपवर्णना ॥ १२४ ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ - अर्थः-पुण्य-पाप रहित एहवा जे परमात्मा प्रभु तेना स्वरूप, चिंतवद् तेनेज ध्यान कहिये, अने स्तुति पण तेज तथा भक्ति पण तेज कहिये ॥ १२३ ॥ पण शरीरना वर्णे, रूपे करी, लावण्यताए करी, समवसरणे अने छत्रे करी, तथा इंद्रध्वजादिके करी जे परमात्माने वखाणा एहवी स्तुतिने वस्तुतः साची न कहिये ॥ १२४ ।। व्यवहारस्तुतिः सेयं वीतरागात्मवर्तिनां ॥ ज्ञानादीनां गुणानांतु वर्णना निश्चयस्तुतिः ॥१२॥ पुरादिवर्णनाद्राजा स्तुतः स्यादुपचारतः ॥ तत्त्वतः शौर्यगांभीर्यधैर्यादिगुणवर्णनात् ॥ १२६ ॥ अर्थः-केमके ए स्तुति तो व्यवहार छे, पण जेमां वीतरागना ज्ञानादिक गुण प्रशंसवा तेहने निश्चय स्तुति कहिये ॥ १२५ ॥ जेम देश नगरादिके करी राजा वखाणवो ए उपचारे स्तुति जाणवी; पण राजानुं बल, गांभीर्यता, धैर्यतानुं वर्णवg, ते निश्चयथी स्तुति कहिये ॥ १२६ ॥ मुख्योपचारधर्माणामविभागेन या स्तुतिः ॥ न सा चित्तप्रसादाय कवित्वं कुकरिव ॥१२७ ॥ अन्यशाभिनिवेशेन प्रत्युतानर्थकारिणी ॥ सुतीक्ष्णखड्गधारेव प्रमादेन करे धृता ॥ १२८ ॥ अर्थ:-जेम कुकविनी कविताथी पंडित रीझे नहीं, तेम बाह्य उपचार देखी व्हेंचण विनानी जे स्तुति करिये ते थकी चित्त प्रसन्न थाय नहीं ॥ १२७ ॥ जे पोताना हठ-कदाग्रहे करी Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ मुखउपचारे स्तुति करी गुण माने छे, पण ते ऊलटी अनर्थकारी छे; जेम प्रमादे करी हाथमा झालेली तरवार ते जो कदाच पडे, तो ऊलटी अनर्थ-विधात करे छे तेनीपरे ते स्तुति पण अन्यथा जाणवी ॥ १२८ ॥ मणिप्रभामणिज्ञानन्यायेन शुभकल्पना ॥ वस्तुस्पर्शितया न्याय्या यावन्नानञ्जनप्रथा ॥१२९॥ पुण्यपापविनिर्मुक्तं तत्त्वतस्त्वविकल्पकं ।। नित्यं ब्रह्म सदा ध्येय मेषा शुद्धनयस्थितिः॥१३०॥ ___ अर्थः-मणिरत्ननी कांति देखीने जेम मणिनुं ज्ञान के० ओलखाण थाय छे, ए दृष्टांते शुभ कल्पनाये करी आत्मानुं ज्ञान थाय छे. पछी वस्तुस्पर्शिकवडे करी योग्यता थाय छे; पण ज्यां सुधी निरंजन प्रथा नथी थइ त्यां सुधी कर्म छे ॥ १२९ ।। माटे पुण्य-पाप रहितपणे तत्तथी निर्विकल्प एवो शाश्वतो जे आत्मा ते सदाय ध्याश्वो. एवी शुद्ध नयनी स्थिति छे ॥१३०॥ आश्रवः संवरश्चापि नात्मा विज्ञानलक्षणः ॥ यत्कर्मपुद्गलादानरोधावाश्रवसंवरः ॥ १३१ ॥ आत्मादत्ते तु यैर्भावैः स्वतंत्रः कर्मपुद्गलान् । मिथ्यात्वाविरती योगाः कषायास्ते तदाश्रवा॥१३२ अर्थः-आत्मा ज्ञानरूप छे, माटे आत्माने आश्रव, संवर कांइ न कहिये; पण कर्म पुद्गलनुं ग्रहवू तथा रोधवं ते आश्रय संवर छे ।। १३१ ॥ जे भावे करी स्वाधीनपणे कर्मपुद्गलने आत्मा ग्रहे छे, ते मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगरूप आश्रवे करी जाणवू ॥ १३२ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ भावनाधर्म चारित्रपरिषहज पादयः ॥ आश्रवोच्छेदिनो धर्मा आत्मनो भावसंवराः ॥ १३३ ॥ आश्रवः संवरो न स्यात्संवरश्वाश्रवः क्वचित् ॥ भवमोक्षफलाभेदोऽन्यथा स्याडेतुसंकरात् ॥ १३४ ॥ अर्थ :- अने भावना धर्म जे चारित्र छे, जेथकी परिपहनो जय थाय ते ए आश्रवनो उच्छेदक धर्म छे. ए आत्माने भावसंवर कहिये ।। १३३ ।। जे आश्रव ते संवर न थाय, अने जे संवर ते आश्रा न थाय हेतु संकर ए बे जो कदापि एकरूप थाय, तो संसार अने मोक्ष ए बेजां फल पण एक थाय; पण मां भेद रहे नहीं एटले ज्यां आश्रवे करी संवरनुं संक्रमण थाय त्यां मोक्षफल जाणवु, अने ज्यां संवरे करी आश्रवनुं संक्रमण थाय त्यां संसारफल जाणवुं ।। १३४॥ कर्माश्रवश्व संवृवान्नात्मा भिन्नैर्निजाशयैः ॥ करोति न परापेक्षामलंभूष्णुः स्वतः सदा ॥ १३५ ॥ निमित्तमात्रभूतास्तु हिंसाऽहिंसादयोऽखिलाः ॥ ये परप्राणिपर्याया न ते स्वफलहेतवः ॥ १३६ ॥ अर्थ : - आश्रवभावने संवर करतो 'थको जे पोताना आत्माथी जुदा नथी एवा जे पोताना आशय तेणे करी पर अपेक्षा न करे, केमके ते पोताथी सदा समर्थ छे ।। १३५ || जे हिंसा अहिंसादिक सघला पर प्राणिना पर्याय ते आत्माने निमित्तभूत जे, पण पोताने फलहेतु नथी ॥ १३६ ॥ व्यवहारविमूढस्तु हेतूंस्तानेव मन्यते ॥ बाह्यक्रियारतस्वान्तस्तत्त्वं गूढं न पश्यंति ॥१३७॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ हेतुत्वं प्रतिपद्यते नैवेति नियमास्पृशः ॥ . . यावंत आश्रवाः प्रोक्तास्तावंतोहि परिश्रवा॥१३८ अर्थ:--व्यवहारमूढ जे आत्मा ते परपर्यायने पोताना फलहेतु माने छे, माटे जेनु मन बाह्यक्रियामां रक्त छे तेवा प्राणी गुप्त तत्वने देखता नथी ॥ १३७ ।। जे हिंसादिक तथा अहिंसादिक परपर्याय हेतुपणुं छे, तेने पडिवजे अथवा नथी पडिवर्जता एहवो नियम ते तो निश्चयना जे फरसनारा छे तेहने जेटला आश्रव छे तेटला संवररूप थाय ॥ १३८ ॥ तस्मादनियतं रूपं बाह्यहेतुषु सर्वथा ॥ नियतौ भाववैचित्र्यादात्मैवाश्रवसंवरौ ॥ १३९॥ अज्ञाता विषयासक्तो बध्यते विषयैस्तु नः ॥ ज्ञानाद्विदूवि मुच्यते चात्मा नतु शास्त्रादिपुद्गलात्१४० अर्थः--ते माटे सदाय बाह्य हेतुने विषे अनियतरूप छे. नियतिने विषे भावना विचित्रपणाथकी आत्मा तेज संवर आश्रवरूप छे ।। १३९ ॥ जे अज्ञानी छे अने विषयासक्त छे, तेहिज विषयमा बंधाय छे. ते विषय तो आत्माने आत्मज्ञानथकी मूकाय, पण शास्त्रादिक पुद्गलथकी न मूकाय ॥ १५० ॥ शास्त्रं गुरोश्च विनयं क्रियामावश्यकानि च ॥ संवरांगतया प्राहु र्व्यवहारविशारदाः ॥ १४१ ॥ विशिष्टा वाक्तनुस्वांत पुद्गलास्तेऽफलावहाः ॥ ये तु ज्ञानादयो भावाः संवरत्वं प्रयांति ते ॥१४२॥ अर्थः-शास्त्र भणवं, गुरुनो विनय करवो, तथा आवश्यकादिक क्रिया करवी एने व्यवहारमा विचक्षण पुरुषोए संवरनां Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ अंग कां छे ।। १४१ ॥ जे रुडा मन-वचन-कायाये करी प्रवर्तकुं तेहना जे पुल ते फलदायी छे, पण जे ज्ञानादिक भाव छे, ते संवरपणाने पामे छे ॥ १४२ ॥ • ज्ञानादिभावयुक्तेषु शुभयोगेषु तद्गतं ॥ संवरत्वं समारोप्य स्मयंते व्यवहारिणः ॥ १४३ ॥ प्रशस्तरागयुक्तेषु चारित्रादिगुणेष्वपि ॥ शुभाश्रवत्वमारोप्य फलभेदं वदंति ते ॥ १४४ ॥ अर्थ :- ज्ञानादिक भावे युक्त एवा जे शुभ योग तेने विषे तद्गत जे संवरत्व तेने आरोपीने व्यवहारे प्रवर्त्तक जे जीव ते हर्ष पामे छे ।। १४३ || रुडा रागे युक्त एवा जे चारित्रादिक गुणतेने विषे पण शुभ आश्रवपणुं आरोपीने फलभेद कड़े छे ॥ १४४ ॥ भवनिर्वाणहेतूनां वस्तुतो न विपर्ययः ॥ अज्ञानादेव तद्गानां ज्ञानी तत्र न मुह्यति ॥ १४५ ॥ तीर्थकृन्नामहेतुत्वं यत्सम्यक्त्वस्य वर्ण्यते ॥ यच्चाहारहेतुत्वं संयमस्थातिशायिनः ॥ १४६ ॥ अर्थः - संसार तथा मोक्षनो हेतु तेने वस्तुतत्त्वे कांह विपर्यास नथी, पण अज्ञानना योगथकी ते जगाये विपर्यासपणु थाय छे, पण तिहां ज्ञानी पुरुष कांइ मुंज्ञाता नथी ॥ १४५ ॥ जिननाम कर्मनो हेतु जे समकित ने वर्णवीएं छीए, ते पण उपचारे कहेवाय छे, अने आहारक शरीरनो हेतु जे अतिशय लब्धिवंत संयमी मुनि ते पण उपचारे कहेवाय छे ।। १४३ ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ तपःसंयमयोः स्वर्गहेतुत्वं यच्च पूर्वयोः ॥ उपचारेण तद्युक्तं स्याद् घृतं दहतीतिवत् ॥ १४७ ॥ येनांशेनात्मनो योगस्तेनांशेनाश्रवो मतः ॥ येनांशेनोपयोगस्तु तेनांशेनास्य संवरः ॥ १४८ ॥ अर्थः- जे पूर्वे कहेला तप अने संयम स्वर्गहेतु छे, ते पण उपचारे कहिये. सर्वपरिणामे छे, पण जेम घी बले छे ए उपचारे छे, पण अग्नि बले छे ए खरुं छे ।। १४७ ॥ जे अंशे करी आत्मा योगवर्त्ती थयो ते अंशे आश्रव कहिये अने जे अंशे आत्मा उपयोगी थयो ते अंशे संवर कहिये ॥ १४८ ॥ तेनासावंशविश्रान्तौ विश्रदाश्रव संवरौ || भ्रात्यादर्श इव स्वच्छास्वच्छ भागद्वयः सदा ।। १४९।। शुद्धैव ज्ञानधारा स्यात्सम्यक्त्व प्राप्त्यनंतरं || हेतुभेदाद्विशेषे तु योगधारा प्रवर्त्तते ॥ १५० ॥ अर्थ :- ते माटे आ अंश विश्रांतिने विषे आश्रवसंवर धरे छे, तेमां एक छे मलिन अने एक छे निर्मल; जेम आरिसाना पछवाडानो भाग मलिन छे अने आगलो भाग निर्मल छे तेहनी परे सदाय निर्मल मलिन ए वे भागे करीने आत्मा अरिसानी पेठे शोभे छे ॥ १४९ ॥ समकित पाम्या पछी जे शुद्ध ज्ञानधारा प्रगटे ते हेतुभेदकी विशेषे करी योगधारा प्रवर्त्ते छे ॥ १५० ॥ सम्यग्दृशां विशुद्धत्वं सर्वास्वपि दशास्वतः | मृदुमध्यादिभावस्तु क्रियावैचित्र्यतो भवेत् ॥ १५१ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ यदा तु सर्वतः शुद्धिर्जायते धारयोर्द्वयोः ॥ शैलेशीसंज्ञितः स्थैर्यात्तदा स्यात्सर्वसंवरः ॥१५२॥ अर्थ : - समकितीने सर्व दशामां शुद्धपशुं छे, ए माटे लघु, मध्यम, उत्तम ए भात्र जे छे ते क्रियाविचित्रताथी छे ॥ १५१ ॥ जेवारे सर्वथी मन-वचन - कायाना योग तथा उपयोग, ए वे धारानी शुद्धि थाय तेवारे शैलेशी नामे स्थिरताथी सर्व संवर होय ॥ १५२ ॥ ततोऽर्वागू यच्च यावच्च स्थिरत्वं तावदात्मनः ॥ संवरो योगचांचल्यं यावत्तावत्किलाश्रवः || १५३|| निर्जरा कर्मणोत्साडो नात्माऽसौ कर्म्मपर्यवः || येन निर्जीर्यते कर्म स्वभावस्त्वात्मलक्षणं ॥ १५४ ॥ अर्थ :- अने तेथी पेहेलां हेठला गुणठाणे तो जिहां सुधी आत्माने स्थिरतापणुं छे तिहां सुधी संवर वर्ते छे; अने जिहां सुधी योगनी चंचलता छे तिहां सुधी निश्वयथी जाणीए जे आत्माने आश्रवपणुं वर्त्ते छे, एम यावत् शैलेशीकरण सुधी समझ ।। १५३ ।। कर्मनुं जे शाडवं तेने निर्जरा कहिये, पण आत्मा पोते कर्मपर्यायरूप नथी, ते माटे कर्म निर्जरिये एवो जे स्वभाव ते आत्मानुं लक्षण छे ॥ १५४ ॥ ततपो द्वादशविधं शुद्धज्ञानसमन्वितं ॥ आत्मशक्तिसमुत्थानं चित्तवृत्तिनिरोधकृत् ।। १५५ ।। यत्र रोधः कषायाणां ब्रह्मध्यानं जिनस्य च ॥ ज्ञातव्यं तत्तपः शुद्धमवशिष्टं तु लंघनं ।। १५६ ।। २७ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अर्थ : - निर्जरानुं कारण ते शुद्ध ज्ञाने सहित प्रगट्यो अने चित्तनी चंचलवृत्ति रोकतो एहवो बार भेदे तप छे ।। १५५ ।। जिहां प्रभुना ध्यानयुक्त कषायनो रोध छे, ब्रह्मचर्यनुं धर छे ते शुद्ध तप जाणवो. ए सिवाय बीजो तप ते मात्र लांघ करवा जेवो छे ।। १५६ ॥ बुभुक्षा देहकार्य वा तपसो नास्ति लक्षणं ॥ तितिक्षाब्रह्मगुप्त्या दिस्थानं ज्ञानं तु तद्वपुः ॥ १५७ ॥ ज्ञानेन निपुणेनैक्यं प्राप्तं चंदनगंधवत् ॥ निर्जरामात्मनो दत्ते तपो नान्यादृशं कचित् ॥ १५८ ॥ अर्थः- भूखे मरखं, शरीरने दुबलुं कर ए तपनुं लक्षण नथी; पण जिहां ज्ञानयुक्तपणे ब्रह्मचर्यनी गुप्ति, तथा तितिक्षा के० शांति होय ते तपनुं स्वरूप छे ॥ १५७ ॥ ज्ञान साथै एकता भावने पाम्यो एवो जे तप तेने तप कहिये, जेम चंदन साथे गंध एकताभाव पायो छे, तेनीपरे ए तप ते ज्ञाने युक्त थको आत्माने निर्जरा फल आपे, पण बीजी रीते न आपे ॥ १५८ ॥ तपस्वी जिनभक्त्या च शासनोद्भासनोत्यया ॥ पुण्यं बध्नाति बहुलं मुच्यते तु गतस्पृहः ॥ १५९ ॥ कर्मत पतरं ज्ञानं तपस्तनैव वेत्ति यः ॥ प्राप्नोतु स हतस्वांतो विपुलां निर्जरां कथं १ ।। १६० ।। अर्थ :- निरासी भावे तपनो करनारो तपसी जिन तथा ज्ञानभक्ति करी शासनने दिपावे, घणुं पुण्य बांधे अने कर्मथी मुका ॥ १५९ ॥ कर्मने तपावे एवं ज्ञान छे, अने ते ज्ञानने Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ जे धणी तप न जाणे ते तपसी निर्बुद्धिनो धणी विपुल निर्जरा केम पामे १ ॥ १६० ॥ अज्ञानी तपसा जन्मकोटिभिः कर्म यन्नयेत् ॥ अंतं ज्ञानतपोयुक्तस्तत्क्षणेनैव संहरेत् ॥ १६१ ।। ज्ञानयोगस्तपः शुडमित्याहुर्मुनिपुंगवाः ॥ तस्मान्निकाचितस्यापि कर्मणो युज्यते क्षयः ॥ १६२॥ अर्थ :-- ज्ञान विना एक कोटि भव सुधी जेटलां तप करे, ते तपमा जेटलां कंमक्षय न थाय तेटलां कर्मोने एक क्षणमां ज्ञान सहित तपे करी खपावे ।। १६१ || माटे ज्ञानयोगे जे तप करवो ते शुद्ध छे, ए रीते प्रभु कहे छे; केमके ते तपथी निकाचित कर्मनो क्षय थाय छे ।। १६२ ॥ यदि पूर्वाकरणं श्रेणिः शुद्धा च जायते ॥ ध्रुवः स्थितिक्षयस्तत्र स्थितानां प्राच्यकर्मणां ॥ १६३ ॥ तस्माद्ज्ञानमयः शुद्धस्तपस्वी भावनिर्जरा ॥ शुडनिश्चयतस्त्वेषा शुद्धाशुद्धस्य कापि न || १६४ ।। अर्थः- जे तपथी इहां अपूर्वकरण श्रेणि शुद्ध थाय, ली थी पूर्वकर्मनी रही जे स्थिति ते स्थिति निश्वयथी क्षय थाय ॥ १६३ ॥ ते माटे ज्ञानमयी जे शुद्ध तपसी तेने निश्वयथी शुद्ध भाव निर्जरा थाय, पण अज्ञान तपसीने कांइ न थाय ॥ १६४ ॥ बंध: कर्मात्मसंश्लेषो द्रव्यतः स चतुर्विधः ॥ तत्वध्यवसायात्मा भावतस्तु प्रकीर्त्तितः ॥ १६५ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ वेष्टयत्यात्मनात्मानं यथा सर्पस्तथासुमान् ॥ तत्तद्भावैः परिणतो बध्नात्यात्मानमात्मना ॥१६६॥ ___ अर्थ:-कर्मनी साथे आत्मानुं जे मलवु तेने बंध कहिये, ते बंध चार भेदे छे. ते हेतु अध्यवसाये आत्मभावथी कह्यो छे ॥ १६५ ।। जेम सर्प पोतानी मेले पोते विटाय छे तेम आत्मा पण ते ते भावे परिणम्यो थको पोतपोतानी मेलेज कर्म साथे बंधाय छे ॥ १६६ ॥ बध्नाति स्वं यथा कोशकारकीटः स्वतंतुभिः॥ आत्मनः स्वगतैर्भावैर्बधने सोपमा स्मृता ॥ १६७॥ जंतूनां सापराधानां बंधकारी न हीश्वरः ।। तद्वंधकानवस्थानादबंधस्याप्रवृत्तितः ॥ १६८ ॥ अर्थ:--जेम रेशमनो कीडो पोतानी लाळे करी पोतेज बंधाय छे तेम आत्मा पोताना रागादि परिणामे करी पोतेज बंधाय छे, ए उपमा कही ॥ १६७ ॥ पण जे ईश्वर कर्ता कहे छे ते वात निषेध छे, अपराधी जीवने काइ ईश्वर बंधकर्ता नथी, ते ईश्वर बंधकर्तापणाना निषेधवा थकी अबंधनीय आत्माने विषे अप्रवृति छे. एटले स्वभावेज बंधनिवृत्ति आत्माने छे पण ईश्वर कर्ता नथी ॥ १६८॥ तत्त्वज्ञानप्रवृत्यर्थे ज्ञानवन्नोदना ध्रुवा ॥ अबुद्धिपूर्वकार्येषु स्वप्नादौ तददर्शनात् ॥१६९ ॥ तथाभव्यतया जंतुनोंदितश्च प्रवर्तते ॥ बध्नन् पुण्यं च पापं च परिणामानुसारतः ॥१७०॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ अर्थः-ज्ञानवतनी जे प्रेरणा छे ते तत्वज्ञाननी प्रवृत्तिने अर्थे ध्रुव छे केमके स्वमादिक जे अबुद्धिपूर्वक कार्य छे तेने विषे ए ज्ञाननी प्रेरणा कांइ देखाती नथी; ते माटे ।। १६९ ॥ तेमज प्राणी भव्यताये प्रेयों थको परिणामने अनुमारे करी पुण्य, पापने बांधतो थको प्रवर्ने छ । १७० ।। शुद्धनिश्चयतः स्वात्मा न बद्धो बंधशंकया ॥ ___ भयकंपादिकं किंतु रजावहिपतेरिव । १७१ ॥ रोगस्थित्यनुसारेण प्रवृत्ती रोगिणो यथा ॥ भवस्थित्यनुसारेण तथा बंधोऽपि वर्ण्यते॥ १७२ ॥ अर्थः-शुद्ध निश्चयनयथकी तो आत्मा अबंधक छे, पण भयकंरादिके करी बंधनी शंका रहे छे, जेम दोरडु देखी सर्पनी शंका उपजे छे तेनीपरे जाणवू ॥ १७१ ॥ रोगनी स्थितिने अनुसारे रोग छे, एटले जे दिवसे शरीर उपनु, तेज दिवसथी सर्व रोगनी स्थितिओ शरीरमां उत्पन्न थयेली छे अर्थात् शरीर केवल रोगनी स्थितिरूपन छे; पण ते रोग जेबारे रोगी कुपथ्य सेवे तेवारे प्रगट थाय छे. तेवारे रोगी पुरुष जेम रोगनी प्रवृत्ति गणे छे तेमज भवस्थितिने अनुसारे आत्माने बंध कहिये छीए ॥ १७२॥ दृढाज्ञानमयीशंका मनोमपनिनीषतः ॥ ___ अध्यात्मशास्त्रमिच्छति श्रोतुं वैराग्यकांक्षिणः॥१७३ दिशाप्रदर्शकं शाखा चंद्रन्यायेन तत्पुनः ॥ प्रत्यक्षविषयां शंकां न हि हंति परोक्षधीः ॥१७४॥ अर्थः--दृढ अज्ञानमय एहवी जे शंका तेहने टालवाने Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ इच्छतो, वैराग्यनो अभिलाषी थको, अध्यात्मशास्त्र सांभलवाने इच्छे छे ॥ १७३ ॥ जेम निर्मल चक्षु छतां ग्रहणघेला जेवी नजर थइ जाय तो तेणे करी एक चंद्रनी पासे बीजो चंद्र देखे ए न्याये करी जे अध्यात्मशास्त्र छे ते पण दिशिनुं देखाडनार छे, पण परोक्ष बुद्धि कांइ प्रत्यक्ष विषयनी आशंकाने टाळी न शके. एटले अध्यासनो विषय प्रत्यक्षपणे नथी, परोक्षपणे छे; माटे स्वभावे जे अध्यात्मशास्त्र छे ते परोक्षबुद्धि छे, पण अनुभव ते साक्षात् प्रत्यक्षपणाने हणी न शके; एटले आत्मानुभवी पुरुषो पोताना अनुभवे करी आत्मानो प्रत्यक्ष अनुभव करे छे ॥१७४॥ शंखे श्वैत्यानुमानेऽपि दोषात्पीतत्वार्यथा ॥ . शास्त्रज्ञानेऽपि मिथ्याधीः संस्काराबंधस्तिथा१७५ श्रुत्वा मत्वा मुहुः स्मृत्वा साक्षादनुभवंति ये ॥ तत्त्वं न बंधधीस्तेषामात्माबंद्धःप्रकाशते ॥ १७६ ॥ अर्थः-जेम मधुरानो रोगवंत पुरुष ते यद्यपि शंखने उज्वल तो जाणे छे, पण रोगे करी तेने पीला वर्णनी बुद्धि थाय छे, तेम शास्त्रे करी आत्माने निर्मल तो जाणे छे पण मिथ्यात्व बुद्धिना संस्कारथकी बंधरूप बुद्धि छे. एटले आत्माने रागी द्वेषी बंधरूप जे देखे छे, ते अनुभव विना देखे छे. ए भावार्थ छ । १७५ ॥ गुरुना मुखथी अध्यात्मशास्त्रनुं सांभलवू तेने श्रवण कहे छे, ते सांभळेला विषयनो अनुक्रमे पुनः पुनः अंत:करणमा विचार करवो तेने मनन कहे छे, अने सांभळीने विचार करी संशय तथा विपर्ययभाव रहित थइने उक्त आध्यात्मिक विषयरूप स्वात्मतत्त्व अंतर्वृत्ति करीने जे साक्षात् अनुभव करवो तेने निदिध्यासन कहे छे. एवा स्वात्म तत्वज्ञात पुरुषने बंधबुद्धि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ होती थी; केम बंधने प्रकाश करनार तो आत्मा पोतेज छे ते अनुभव थया पछी अज्ञानरूपबंधनो आश्रय केम करे ? ज्यां सुधी आत्मा अनुभव अथवा ज्ञानवडे प्रकाशने पाम्यो न हतो त्यां सुधी तमरूप अज्ञान अने बंधवान् थयो हतो; पण अनुभव था पछी आत्मा विषे बंध नथी ॥ १७६ ॥ द्रव्यमोक्षः क्षयः कर्मद्रव्याणां नात्मलक्षणं ॥ भावमोक्षस्तु तद्धेतुरात्मा रत्नत्रयान्वय ।। १७७ ।। ज्ञानदर्शनचारित्रैरात्मैक्यं लभते यदा ॥ कर्माणि कुपितानीव भवत्याशु तदा पृथक् ॥ १७८ ॥ अर्थ :- जे द्रव्यकर्मनो क्षय ते द्रव्यमोक्ष छे, पण ते कांह आत्मानुं लक्षण नथी, मात्र ते द्रव्य कर्मनो क्षय ते मोक्षनो हेतु थाय छे, पण आत्मा तो रत्नत्रय परिणतिरूप छे, तेने द्रव्यकर्मनो क्षय तो उपचारथी मोक्षहेतु कहिये, पण वस्तुथी तत्वबुद्धिये कहेवाय नहीं ॥ १७७ ॥ ज्ञान - दर्शन - चारित्र ए रत्नत्रयीवडे करीने जेवारे आत्मा एकभावपणाने पामे, तेवारे जे कर्म हतां, ते कोइक संसारी जीव जेम रीसाइने घरमाथी जुदो निकळे तेम जीवथी जुदां नीकली जाय ।। १७८ ।। अतो रत्नत्रयं मोक्ष स्तदभावे कृतार्थता ॥ पाखंडिगणलिंगैश्च गृहलिंगैश्व कापि न ॥ १७९ ॥ पाखंडिगणलिंगेषु गृहलिंगेषु ये रताः ॥ न ते समयसारस्य ज्ञातारो बालबुद्धयः ॥ १८० ॥ अर्थ :- ए माटे जे रत्नत्रयी तेथीज मोक्ष छे, पण ते रत्नत्रयीने अभावे पाखंडी साधुना समूहने तथा पाखंडी ग्रही Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ लिंगीने कृतार्थपणु कांइ नथी ॥ १७९ । माटे पाखंडी साधुना समूहमा तथा पाखंडीग्रही लिंगीमा जे प्राणी रक्त छ तेहने बालमतिवाला समजवा; पण ते सिद्धांतना सार एटले रहस्यना जाण नथी ॥ १८०॥ भावलिंगरता येषु सर्वसारविदो हि ते ॥ लिंगस्था वा गृहस्था वा सिध्यंति धुतकल्मषाः॥१८१।। भावलिंगं हि मोक्षांगं द्रव्यलिंगमकारणं ॥ द्रव्यं नात्यंतिकं यस्मानाप्यैकांतिकमिष्यते॥१८२॥ __ अर्थ:-अने जे प्राणी भावलिंगे राता छ तेहने सर्व सारना जाण कहिये. ते वेषधारी साधुलिंगे होय अथवा गृहस्थलिंगे होय; तोपण पापकर्म धोइने मोक्ष पामे ॥ १८१ ॥ केमके जे भावलिंग ते मोक्षनुं अंग छे, अने द्रव्यलिंग तो अकारण छे, द्रव्यलिंग ते काइ आत्यंतिक नथी, माटे जे भावलिंगी छे ते द्रव्यलिंगने एकांते नथी इच्छता ॥ १८२ ॥ यथाजातदशालिंगमर्थादव्यभिचारि चेत् ॥ विपक्षाबाधकाभावात् तद्धेतुत्वेतु का प्रमा॥१८॥ वस्त्रादिधारणेच्छा चेद्वाधिका तस्य तां विना ॥ धृतस्य न किमस्थाने करादेरिव बाधकं ॥ १८४ ॥ अर्थः-इहां कोइक कहेशे जे नग्नपणे मोक्ष छे तेनो उत्तर कहे छे. जो ए अर्थथी वात खरी छे तो आत्माने मोहबाधक छे, ते मोहनो अभाव थाशे अने जो नग्नपणे मोक्ष होय तो मोह टालवानुं शुं प्रमाण ? तेवारे तो मोह टालवानी कांइ जरूर न रहे ॥ १८३ ॥ वस्त्र रक्षणे एटले इच्छा विना पण Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ जो वस्त्र राखतां मोक्षनी बाधकता छे तो इच्छा विना जे करादिक एटले हाथ प्रमुख अंग धर्या छे ते पण मोक्षना बाधक थाशे, एटले दिगंबर लोक कहे छे के वस्त्र राखवाथी मोक्षनी बाधकता छ तेहने निरुत्तर कर्या ॥ १८४ ॥ स्वरूपेण च वस्त्रं चे केवलज्ञानबाधकं ॥ तदा दिक्पटनीत्यैव तत्तदावरणं भवेत् ॥१८॥ इत्थं केवलिनस्तेन मूर्ध्नि क्षिप्तेन केनचित् ॥ केवलित्वं पलायंते त्यहो किमसमंजसं ॥१८६॥ अर्थ:-जो परमार्थथी जे वस्त्र छ तेहिज केवलज्ञानने बाधकपणे होय तो दिगंबरनी रीते केवलज्ञानावरणीयने ठेकाणे वस्त्रावरणीय एम थq जोइये, ते वस्त्रावरणीय कर्म दिगंबरीयो कहेता नथी एटली एनी चुक छे ॥ १८५ ॥ ए रीते तो केवलीने माथे कोइक वस्त्र ओढाडे तेवारे केवलज्ञाने नासी जदूं जोइये, पण केवलीने वस्त्र ओढाडतां केवलज्ञान नासी जाय छे एम तो थतुं नथी; माटे अहो इति आश्चर्ये शुं जुटुं असमंजस बोलो छो ? ॥ १८६॥ भावलिंगात्ततो मोक्षो भिन्नलिंगेष्वपि ध्रुवः ॥ कदाग्रहं विमुच्यैतद्भावनीयं मनस्विना ॥ १८७ ॥ अशुद्धनयतो ह्यात्मा बंधो मुक्त इति स्थितिः॥ न शुद्धनयतस्त्वेष बध्यते नापि मुच्यते ॥ १८८ ॥ ___ अर्थ:-ते माटे भावलिंगथी मोक्ष छे, वेषनो काइ नियम नथी, कदापि द्रव्यथी अन्यलिंगीनो वेष होय, तो पण निश्चये मोक्ष छे. माटे कदाग्रह छांडीने बुद्धिवंत पुरुषे ए रीते Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ विचार || १८७ ॥ अशुद्ध नयथी आत्मा बंधाय छे अने मुंझाय पण छे, पण शुद्ध नये तो ए आत्मा बंधातो पण नथी अने मुंझातो पण नथी ॥ १८८ ॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यामात्मतत्त्वविनिश्चयं ॥ नवभ्योऽपि हि तत्त्वेभ्यः कुर्यादेवं विचक्षणः ॥ १८९ ॥ इदं हि परमध्यात्मममृतं यद एव च ॥ इदं हि परमं ज्ञानं योगोऽयं परमः स्मृतः ॥ १९० ॥ अर्थः — अन्वय व्यतिरेके करीने जे छते ते छतुं, तेहने - अन्य कहिये अने जे अछते ते अछतुं तेहने व्यतिरेक कहिये. ॥ तद्भावे तद्भावो अन्वयः तदभावे तदभावो व्यतिरेकः दंडघटदृष्टांतेन भाव्यं ॥ विचक्षण पुरुषे ए रीते आत्मतत्त्वनो निश्चय नव तत्त्वे करीने करो || १८९ ॥ एहिज उत्कृष्ट अध्यात्म छे; एहि ज अमृतोपम छे; वली एहिज परमज्ञान छे अने एहिज परमयोग कह्यो छे ॥ १९० ॥ गुह्याद्गुह्यतरं तत्त्वमेतत्सूक्ष्मनयाश्रितं ॥ न देयं स्वल्पबुद्धीनां ते ह्येतस्य विडंबिकाः || १९१ ॥ जनानामल्पबुद्धीनां नैतत्तत्त्वं हितावहं ॥ निर्बलानां क्षुधार्त्तानां भोजनं चक्रिणो यथा ॥ १९२॥ अर्थ :- छानामां छानुं ए तत्त्व छे; माटे सूक्ष्मनय आश्रीने एतच अल्पबुद्धिने न संभलाव; शामाटे के जे अल्पमतिवाला ते एतचना विडंबक छे ॥ १९९ ॥ माटे अल्पबुद्धिवंत प्राणीने एतच्च हित करे नही, जेम चक्रवर्त्तीनुं खीरनुं भोजन Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ निबल जे क्षुधाये पीड्या प्राणी होय तेने पचे नही तेनीपरे जाणवू ॥ १९२ ॥ ज्ञानांशदुर्विदग्धानां तत्त्वमेतदनर्थकृत् ।। अशुद्धमंत्रपाठस्य फणिरत्नग्रहो यथा ॥ १९३ ॥ व्यवहाराविनिष्णातो यो ज्ञीप्सति विनिश्चयं ॥ कासारतरणाशक्तः सागरं स तितीर्षति ॥ १९४ ॥ अर्थ:-तेम खंड खंड पंडिताइये करीने अर्धबल्या एहवा जे प्राणी तेने ए तत्व अनर्थकारी छे जेम अशुद्ध मंत्रना पाठवालो पुरुष सर्पनो मणि लेवा जाय, ते तेने अनर्थकारी थाय तेनीपरे जाणवू ॥ १९३ ॥ जे प्राणी व्यवहारनयमां कुशल नथी अने निश्चयनयने समजवा जाय, ते प्राणी तलावने तरवामां असमर्थ छतां समुद्र तरवा वांछे छे ॥ १९४ ॥ व्यवहारं विनिश्चित्य ततः शुद्धनयाश्रितः॥ आत्मज्ञानरतो भूत्वा परमं साम्यमाश्रयेत् ॥१९५॥ अर्थः-व्यवहार अने निश्चये करी शुद्धनयने आश्रीने आत्मज्ञाने रत थइ जे प्रवर्ते ते प्राणी परमपदने पामे ।। १९५ ॥ इति आत्मनिश्चयाधिकार अष्टादश समाप्तः ।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनमतस्तुत्याधिकारः उत्सर्पदव्यवहारनिश्चयकथाकल्लोलकोलाहल त्रस्यदुर्नयवादिकच्छपकुलं भ्रश्यत्कुपक्षाचलं ॥ उद्ययुक्तिनदीप्रवेशसुभगं स्याद्वादमर्यादया युक्तं श्रीजिनशासनं जलनिधि मुक्त्वा परं नाश्रये ॥१॥ ____ अर्थ:-हवे जिनशासनरूप रत्नाकरनी स्तुति करे छे तेमां प्रथम जिनशासनने समुद्रनी उपमा आपे छे, ते जिनशासनरूप समुद्र केवो छे ? ते कहे छे. प्रसरती एहवी व्यवहार तथा निश्चयनयनी जे कथा, तेरूप जे कल्लोल तेनो जे कोलाहल, तेणे करीने दुष्टजन नयवादिरूपी काचबानो कुल जेने विषे त्रास पामे छे. वली जेमांथी कुमतिरूपी पर्वत तूटी गया छे, भांग्या छे; वली जेमां मोटी उक्तियुक्तिरूपिणी नदीओनो प्रवेश छे तेणे करी जे सुभग एटले मनोहर छे; वली स्याद्वादशैलीरूप मर्यादाये जे युक्त छे एवो श्रीजिनशासनरूप रत्नाकर जे समुद्र तेने तजीने परदर्शनने कोण सेवे ? ॥ १॥ पूर्णपुण्यनयप्रमाणरचनापुष्पैः सदास्थारसै स्तत्त्वज्ञानफलैः सदा विजयते स्याद्वादकल्पद्रुमः ॥ एतस्मात् पतितैः प्रवादकुसुमैः षड्दर्शनारामभूयः सौरभमुद्रमत्यभिमतैरध्यात्मवार्तालवैः ॥२॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ अर्थ:-हवे ए जिनमतने कल्पवृक्ष करी देखाडे छे. जेमां पूर्ण पवित्र जे सात नय अने चार प्रमाण तेहनी जे रचना तेरूपी फूलमांहेथी सदैव श्रद्धारूप रसे करीने तत्त्वज्ञानरूप फल नीपन्यां छे, एवो स्याद्वाद नामा जे कलावृक्ष ते सदा जयवतो वर्तों ! ए कल्पवृक्षथी खरी पड्यां जे प्रवाहरूपी फूल तेणे करीने षड्दर्शनरूप वाडीनी जे धरती ते नवनवी अध्यात्मनी जे वार्ताओ तेना जे लव तेणे करीने भूयः कहेतां फरी फरीने सुगंधपणाने प्रगट करे छे ॥ २॥ चित्रोत्सर्गशुभापवादरचनासानुश्रियालंकृतः । श्रद्धानंदनचंदनद्रुमनिभप्रज्ञोल्लसत्सौरभः ॥ भ्राम्यद्भिः परदर्शनग्रहगणैरासेव्यमानः सदा तर्कस्वर्णशिलोच्छितो विजयते जैनागमो मंदरः । ३॥ अर्थ:-हवे जिनशासनने मेरुपर्वतनी उपमा आपे छे. नाना प्रकारनो उत्सर्ग मार्ग अने रुडो जे अपवाद मार्ग तेनी रचनारूप शिखर तेनी शोभाए शोभित छे. वली श्रद्धारूप नंदनवनमां चंदननां वृक्ष तेरूप जे बुद्धि ते थकी प्रकटी छे सुगंध जिहां एवो मेरुतुल्य छे. वली ए मेरुपर्वतनी पछवाडे भमता जे परदर्शनरूपी ग्रहना समूह तेणे करीने सदा सेवित छे, तथा तर्क जे शुद्ध विचार ते रूपिणी सुवर्णशिला तेणे करीने उंचो छे, एवो जैनागमरूप जे मेरु ते जयवंतो वत्तॊ ! ॥ ३ ॥ स्थाद्दोषापगमस्तमांसि जगति क्षीयंत एव क्षणा . दध्वानो विशदीभवंति निबिडा निद्रा दृशोर्गच्छति ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ यस्मिन्नभ्युदिते प्रमाणदिवसप्रारंभकल्याणिनी प्रौढत्वं नयगीर्दधाति स रवि नागमो नंदतात् ॥४॥ . अर्थ:- हवे जिनशासनने सूर्यनी उपमा आपी वखाणे छे. जैनागमरूप सूर्यना उदयथकी चोरी जारी इत्यादि दोष टले, वली जे थकी क्षणैकमां जगतने विषे अज्ञानरूप अंधार क्षय थाय, जे थकी मार्ग निर्मल थाय छे, वली चक्षुमांथी प्रमादरूप निद्रा जाय छे, तथा जेम सूर्योदयथी दिवस उग्यो एम सिद्ध थाय छे तेम जैनागमना उदयथी प्रमाणनी सिद्धतारूप दिवसनी सिद्धता थाय छे ते जाणे दिवसने प्रारंभे लोक प्रभाते मंगलिक बोले छे. जेम सूर्य उदये लोक न्यायमार्गे चाले, न्यायनां वचन बोले, तेम जैनसूर्य उदये नय तथा आगमनी वाणी ते घणी रुडी रीते प्रौढता पामे छे. एवो ए जिनशासनरूपी सूर्य ते जयवंतो वर्तो ! ॥ ४ ॥ अध्यात्मामृतवर्षिभिः कुवलयोल्लासं विलासैर्गवां तापव्यापविनाशिभिर्वितनुते लब्धोदयोयः सदा ॥ तर्कस्थाणुशिरःस्थितः परिवृतः स्फारैर्न यस्तारकैः सोऽयं श्रीजिनशासनामृतरुचिः कस्यति नोरुच्यतां।। अर्थ:-हवे जिनशासनने चंद्रनी उपमा आपी वखाणे छे. अध्यात्मरूप अमृतनो जे वरसाद तेणे करीने कुवलय जे पृथ्वीरूप कमल तेने विकस्वर करे छे एवो, वली गवां के० वाणीरूप किरण तेना विलासे करीने संसारना तापनो जे समूह तेनो नाश करे छे एवो, वली ए चंद्रमा केवो छे? जे तर्कविचाररूपी जे महादेव तेना मस्तके रह्यो थको उदय पाम्यो छे एवो, Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ वली दीप्त जे नय तेरूप जे तारामंडल तेणे परिवर्यो थको फिरे छे एवो जिनागमरूपी चंद्र ते कोने रुचिपणाने न उपजावे ? अपितु सर्व उपजावे ॥ ५ ॥ बौडानामृजुसूत्रतो मतमभूद्वेदांतिनां संग्रहात् सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् योगश्च वैशेषिकः ॥ शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैर्नयैर्गुफिता जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्वीक्षते ॥ ६ ॥ अर्थ:- जेना अनेक नयमांथी एकेका नय ग्रहण करीने एटले रुजुनथी बौद्धनो मत प्रगट्यो, अने संग्रहनयथी वेदांतिकनो मत प्रगट्यो, तथा सांख्यमत पण संग्रहनयथीज उपनो अने नैगमनयथी योगमत अने वैशेषिकमत प्रगट्यो, शब्दनयथकी मीमांसक दशर्न उपनुं अने जैनशासन तो सर्व नये करीने गुंफित छे; ते माटे आ जिनशासनमां सारमां सारपणुं प्रत्यक्षपणे रुडी ते देखीए छीए ॥ ६॥ ऊष्मा नार्कमपाकरोति दहनं नैव स्फुलिंगावली नाब्धि सिंधुजल प्लवः सुरगिरिं ग्रावा न वाभ्यापतन् ॥ एवं सर्वनयैकभावगरिमस्थानं जिनेंद्रागमं तत्तद्दर्शनसंकथांशरचनारूपं न हंतुं क्षमा ॥ ७ ॥ अर्थ :- उकलाट जे बाफ तेनो जे ताप ते सूर्यने जीती शके नहीं, अने अग्निना कणिया ते दावानलने जीती न शके, तथा सिंधुनदीनुं जल तेनो जे वेग ते लवणसमुद्रने शके, पत्थरना जे खंड ते मेरुपर्वतने दाबी न शके, ठेली न एम सर्व Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરક नयना एकता भावनी मोटाइनुं स्थानक एहवं तीर्थकरनुं जे आगम तेहने ते परदर्शनीओ हणवाने समर्थ नथी, शा माटे जे ए जैन ते सर्वदर्शनी छे, अने ते दर्शनीयो जैनना एकेक अंशी छे ॥ ७॥ दुःसाध्यं परवादिनां परमतक्षेपं विना स्वं मतं तत्क्षेपे च कषायपंककलुषं चेतः समापद्यते ॥ सोऽयं निःस्वानिधिग्रहव्यवसितो वेतालकोपक्रमो नायं सर्वहितावहो जिनमते तत्त्वप्रसिद्धयर्थिनां ॥ ८॥ - अर्थः-परदर्शनी जेटला छे ते एक एकना मतने खंड्या विना पोताना मतने थापी शकता नथी. ए मतमतनो जे कदाग्रह तेनो प्रक्षेप करतां कषायरूप कादवे करीने मन मलिन थाय छे. ए कदाग्रहनो व्यापार ते तो दरिद्रीना घरनो निधान हस्वाने वेताल गयो ते प्राय जाणवो. ए उपक्रम सर्व जिनमतने विष हितकारी नथी, माटे अर्थी जीवने ए जिनमत ते तत्त्वरूपे प्रसिद्ध छे ॥ ८॥ वार्ताः संति सहस्रशः प्रतिमतं ज्ञानांशबद्धक्रमा श्वेतस्नासु ततः प्रयाति न तु मां लीनं जिनेंद्रागमे ॥ नोत्सर्पति लताः कति प्रतिदिशं पुष्पैः पवित्रा मधौ ताभ्यो नैति रतिं रसालकलिकारक्तस्तु पुस्कोकिलः।९। अर्थ:-जेनो अनुकम ज्ञानने मात्र अंशे करीने बंधायो छे एवी परदर्शनीओनी वार्ता छे, तेवा मतममत्व हजारो गमे वर्ने छे, पण ते वातोने विषे माहरु चित्त जातुं नथी. शा माटे ? Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ जे सिद्धांतोने विषे महारं मन लीन छे, माटे चैत्रमासे दिशोदिशे जे फूल तेणे करीने पवित्र एहवी जे लता ते केटलीक विकस्वर थाय, फले; पण पुस्कोकिल जे कोयल ते आंबानी मंजरीथी रक्त एवी थकी ते लताओने विषे रति न पामे, तेनी परे महारं चित्त पण सिद्धांतरूप आंबानी मंजरिये रक्त थयुं थकुं अन्य दर्शनरूप लताओमां जातुं नथी ॥ ९॥ . शब्दो वा मतिरर्थ एव वसु वा जातिः क्रिया वा गुणः। शब्दार्थः किमिति स्थितिः प्रतिमतं संदेहशंकुर्यथा ॥ जैनेंद्रे तु मते न सा प्रतिपदं जात्यंतरार्थस्थितिः । सामान्यं च विशेषमेव च यथा तात्पर्यमन्विच्छति॥१०॥ ___ अर्थः-आ शब्द छे, किंवा मति छे, के अर्थ छे, के गुण छे, के वस्तु के० द्रव्य छे, के जाति छे के क्रिया छ ? वली एनो शब्दार्थ केम हशे ? एवो संदेहरूपी खीलो मत मत प्रत्ये रह्यो छे पण जिनमतमां नथी. ते पद पद प्रत्ये जात्यंतर अर्थनी स्थिति छ, माटे सामान्य अने विशेष जेवा पदार्थनो यथार्थ निश्चय तात्पर्य-अर्थ तेने भजे छे; माटे जिनमतमां संदेहरूप खीलो नथी ॥ १० ॥ यत्रानर्पितमादधाति गुणतां मुख्यं तु वस्त्वर्पितं । . तात्पर्यानवलंबनेन तु भवेदूबोधः स्फुटं लौकिकः॥ संपूर्ण त्ववभासते कृतधियां कृत्स्नाद्विवक्षाक्रमात् । तां लोकोत्तरभंगपद्धतिपदं स्याद्वादमुद्रां स्तुमः ॥११॥ अर्थ:--स्याद्वादरूप जैन मुद्रामां केवो गुण छ ? के Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जेमां वस्तुने अनर्पण करी छतां पण ते वस्तु गौणताने प्राप्त थाय छे अने वस्तु अर्पण करी छतां ते मुख्यताभावने पामे छे, अने जेना तात्पर्य अर्थने अवलंबने करीने तो प्रगटपणे लौकिक बोध थाय छ; अने संपूर्ण बोध तो समग्र विवक्षाना अनुक्रमथकी महानिपुण बुद्धिवालाने प्रकाश थाय छे ते माटे ए लोकोत्तर भंगजालनुं ठेका' एवी जे स्याद्वादशैलीरूप मुद्रा तेने अमे स्तवीए छीए ॥ ११ ॥ आत्मीयानुभवाश्रयार्थविषयोऽप्युच्चैर्यदीयः क्रमो । म्लेच्छानामिव संस्कृतं तनुधियामाश्चर्यमोहावहः ॥ व्युत्पत्तिप्रतिपत्तिहेतुविततस्याद्वादवाग्गुंफितं । ' तं जैनागममाकलय्य न वयं व्याक्षेपभाज: कचित्।१२। अर्थः–ते जैनागम केवु छे ? जेमा पोताना आत्मानो अनुभव करवाना आश्रयनो विषय छे, एवो उच्चपणे करीने जेनो क्रम छ एटले परिपाटी छे, अने म्लेच्छने जेम संस्कृत भाषा आश्चर्य करनारी अने मोह उपजावनारी छे तेनी परे अल्पबुद्धिवाळाने अचंचो पामी मुंझावानुं स्थानक छे; माटे जैनागम ते व्युत्पत्तिनुं निरूपण करनारा जे हेतु तेणे करी विस्तीर्ण एहवो जे स्याद्वाद मार्ग तेणे करी रचेलं छे. तेने पामीने महारा चित्तमां बीजु कोइपण व्याक्षेपपणुं क्यारे पण थतुं नथी ॥ १२ ॥ मूलं सर्ववचोगतस्य विदितं जैनेश्वरं शासनं । तस्मादेव समुच्छितैर्नयमतैस्तस्यैव यत्खंडनं ॥ एतकिचन कौशलं कलिमलच्छन्नात्मनः स्वाश्रितां । शाखां छेत्तुमिवोद्यतस्य कटुकोदाय तार्थिनः॥१३॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ अर्थः- माटे सर्ववचनगत समूहनुं जे मूल एवं ए जिनशासन कहाँ छे, ए जिनशासनथकीज प्रगट्या एहवा जे नयनयना मत तेवा मते करीनेज दुष्ट प्राणी तेज जिनआगमनुं खंडन करे छे, ते पापिष्ट आत्माओनो आत्मा पापरूप मेले करी ढंकाणो छे, एवा दुष्टोनुं जे कांइ किंचितमात्र डहापणपर्णु छे, ते जेम कोइ मूर्ख जे वृक्षनी डाले बेठो थको तेज डाल कापवाने उजमाल थाय तेथी कडवा विपाक पामे, तेम ते कुविचारवालाने आगल कडवां फल प्रगटे छे ॥ १३ ॥ त्यक्त्वोन्मादं विभज्य वादरचनामाकर्ण्य कर्णामृतं । सिद्धांतार्थरहस्यवित्क लभतामन्यत्र शास्त्रे रतिं ॥ यस्यां सर्वनया वसंति न पुनर्व्यस्तेषु तेष्वेव या । मालायां मणयो लुठंति न पुनर्व्यस्तेषु तेष्वेव सा । १४ । अर्थः- विवेचना लक्षण जे नयनोवाद तेनो उन्माद तजीने, मोमां झगडो तजीने, वली काने अमृतरूप वाणी सांभलीने, सिद्धांतना अर्थरहस्यनो जे जाण पुरुष ते बीजां शास्त्रने विषे रति केम पामे ? अर्थात् नज पामे, जे जैनवाणीने विषे सघला नय प्रवेश करे छे, पण ते जुदा जुदा मतवालाना मतमां सर्वनय नथी. तेथी जैन वाणी कांइ तेमां रहेती नथी. शा माटे जे ते सर्वे व्यग्र चित्तवाला छे माटे जैनमां सर्वे नय छे. जेम मालाने विषे सर्व मणका रमे छे, पण छूटा मणका पड्या होय तेने माला न कहिये, अने एक मणके सर्वे मणका समाणा एम पण न कहीए, माटे ते माला सरखो जैनमत छे ॥ १४ ॥ अन्योऽन्यप्रतिपक्षभाववितथान् स्वस्वार्थसत्यान्नयानपेक्षाविषयग्रहैर्विभजते माध्यस्थमास्थाय यः ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ स्याद्वादे सुपथे निवेश्य हरते तेषां तु दिङ्मूढतां । कुंदेंदुप्रतिम यशोविजयिनस्तस्यैव संवर्धते ॥ १५ ।। अर्थः-एम एकबीजाने वैरभावे करी जूठा जूठा जे पोतपोताना अर्थ तेने साचा करता एवा मतवाला जे दर्शनी ते पोताना नयनो विषय ग्रहण करी, माध्यस्थपणाने स्वीकारी, सारा माठानो विभाग करीने, स्याद्वादरूप उत्तम मार्गने विषे लोकनुं चित्त स्थापन करावीने अने माध्यस्थपणु ग्रहण करी तेमनी दिग्मूढतानो नाश करे, ते विजयवंत प्राणी कुंदनुं फूल तथा चंद्रमा सरखो उजवलो जे जश तेणे करी वृद्धिवन्तो थशे. अहीं कविये पोतानुं नाम पण सूचव्युं छे ॥ १५ ॥ । इतिश्री जैनमतस्तुत्यधिकार एकोनविंशति समाप्तः ॥ ॥ इतिश्री महोपाध्याय श्री यशोविजयगणिना विरचिताध्यात्मसारप्रकरणे षष्टप्रबंधः ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभवाधिकार शास्त्रोपदर्शितदशा गलितासग्रहकषायकलुषाणां . प्रियमनुभवैकवेद्यं रहस्यमाविर्भवति किमपि ॥१॥ प्रथमाभ्यासविलासा दालि गीव यत्क्षणाल्लीनं ॥ चंचलतरुणीविभ्रमसमं सुतरलमनः कुरुते ॥ २ ॥ अर्थः-शास्त्रे बतावी जे दिशा तेणे करीने गली गइ छे सारी नरसी असद्ग्रहरूप कषायनी कलुषता जेनी, तेने प्रिय एहवो जे एक अनुभव तेथी जणातुं एवं जे रहस्य ते कांइक प्रगट थाय छे ॥ १॥ प्रथम अभ्यासरूपी विलासना योगे करीने ते प्राणी पूर्वोक्त कांइक रहस्यनां लीन थाय छे अने फरी चंचलपणे रहे छे, जेम चंचल स्त्री पोताना विलासना योगे करी काइक सुखमां लीन याय छे अने पछी जेवी ने तेवी चंचल रहे छे, तथा जेम कीडाने भमरी ज्यारे चटको भरावे छे त्यारे तेना ध्याने करीने ते तल्लीन थइ जाय छे अने पछी जेवारे भमरी पोताना. चटकानो उद्योग मुकी दे छे, तेवारे ते सर्व भूली जइ पोतानो मूलनो स्वभाव धारण करे छे तेनी परे जाणी लेवू ॥ २॥ सुविदितयोगैरिष्ठं क्षिप्तं मूढं तथैव विक्षिप्तं ॥ एकाग्रं च निरुद्धं चेतः पंचप्रकारमिति ॥ ३ ॥ विषयेषु कल्पितेषु च पुरःस्थितेषु च निवेशितं रजसा ॥ सुखदुःखयुग्बहिर्मुखमायातं क्षिप्तमिह चित्तं ॥१॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अर्थः-योगज्ञानिये पांच भेदे मन कयुं छे. १ क्षिप्तमन, २ मूढ मन, ३ विक्षिप्तमन, ४ एकाग्रमन, ५ निरुद्धमन. ए पांच प्रकार मनना छे ॥ ३ ॥ तेमां क्षिप्तनुं लक्षण कहे छे. पोताना चित्तने सन्मुख कल्प्या जे विषय तेने विषे रजोगुणे करीने थाप्यु तेमज सुख तथा दुःखयुक्त, अने बहिर्मुख थयेलं चित्त तेने क्षिप्त मन कर्तुं छे ॥ ४ ॥ क्रोधादिभिर्नियमितविरुद्धकृत्येषु यत्तमो द्राग् ॥ कृत्याकृत्यविभागासंगतमेतन्मो मूढं ॥५॥ सत्त्वोद्रेकापरिहृतदुःखनिदानेषु सुखनिदानेषु ॥ शब्दादिषु प्रवृत्तं तदेव चित्तं तु विक्षिप्तं ॥ ६ ॥ . अर्थ:-जेमा बहुलताये तमोगुण होय, एटले क्रोध सहित विरुद्ध कामने विषे जे तत्पर होय अने विवेकरहितपणे कृत्याकृत्यनी क्हेंचण विना जे मन, तेने मूढ मन कहिये ॥५॥ जे धैर्यना बलथी दुःखनां कारण गणतुं नथी, शब्दादिक विषयमां रूपरसादिकनां कारण जाणी कठोरपणे प्रवर्ते एq जे चित्त तेने विक्षिप्त मन कहिये ॥ ६॥ अद्वेषादिगुणवतां नित्यं खेदादिषट्कपरिहारात् । - सदृशप्रत्ययसंगतमेकाग्रं चित्तमाम्नातं ॥७॥ उपरतविकल्पवृत्तिकमवग्रहादिक्रमच्युतं शुद्धं ॥ आत्माराममुनीनां भवति निरुद्धं सदा चेतः॥ ८॥ अर्थ:-रागद्वेषादिके रहित जे गुणवंत पुरुष छे अने सदा खेदादिकनो परिहार करनार जे पुरुष छे, जेनुं मन सदैव रागद्वेष टलवाथी सर्व कार्यमां सर मल्युं छे तेने एकाग्र मन कहिये Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ ॥ ७॥ जेनी विकल्पवृत्ति शांत थइ छे, वली अवग्रहादि क्रमथी पार्छ ओसयुं छे एहवू शुद्ध मन, आत्माराममुनिनुं जे अंतःकरण तेने निरुद्ध मन कहिये ॥ ८ ॥ न समाधावुपयोगं तिस्रश्चेतोदशा इह लभंते ॥ सत्त्वोत्कर्षात् स्थैर्यादुभे समाधिसुखातिशयात् ॥९॥ योगारंभस्तु भवेद्विक्षिप्ते मनसि जातुसानंदे ।। क्षिप्ते मूढे चास्मिन् व्युत्थानं भवति नियमेन ॥१०॥ अर्थः-चित्तनी त्रण दशा ते आ समाधिमां कांइ उपयोग पामती नथी, तेवारे पण तेमां बे दशा तो सर्वोत्कर्षथकी तथा स्थिरताथकी अने समाधिसुखना अतिशयथी उपयोग पामे छे ।। ९॥ कदाचित् विक्षिप्त चित्तने विषे योगसमाधिमां आनंदित होय तो योगारंभ संभवे; क्षिप्त मूढ मने तो योगनो विशेष विषयरूप उदय होय ।। १० ॥ विषयकषायनिवृत्तं योगेषु च संचरिष्णु विविधेषु ॥ गृहखेलबालोपममपि चलमिष्टं मनोऽभ्यासे॥११॥ वचनानुष्ठानगतं यातायातं च सातिचारमपि । चेतोऽभ्यासदशायां गजांकुशन्यायतोऽनुष्टं ॥ १२॥ अर्थः-विविध प्रकारना योगने विषे फरतुं अने विषयकषाये भर्यु एवं घरमा रमता बालकनी पेरे चपल जे मन ते अभ्यासे करी रुडं जाणवू ।। ११॥ वचनानुष्ठानमा रह्यं एवं जातुं आवतुं अतिचार सहित मन होय तो पण जो अभ्यासदशामां वर्ततुं होय तो, जेम हस्ति ते अंकुशे करी रुडो थाय ते दृष्टांते ते मन पण रुडु थाय ॥ १२ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ज्ञानविचाराभिमुखे यथा यथा भवति किमपि सानंदं । अर्थः प्रलोभ्य बाबैरनुगृहणीयात्तथा चेतः॥ १३ ॥ अभिरूपजिनप्रतिमां विशिष्टपदवाक्यवर्णरचनां च॥ पुरुषविशेषादिकमप्यत एवालंबनं ब्रुवते ॥ १४ ॥ अर्थ:-ज्ञानविचारणाना सुखथी जेम काइक आनंद थाय एहवे बाह्य अर्थे करी लोभावीने तेभां चित्तने थोभावी राखीने ज्ञानना विचारने सन्मुख करीये ॥ १३ ॥ रुडी जिनप्रतिमा, रुडां सिद्धांतनां पद, वचन, अक्षर, ते पुरुषविशेष जे बहुश्रुत गीतार्थ मुनि होय तेहने ए त्रण आलंबन प्रभुए कहां छे ॥ १४ ॥ आलंबनैः प्रशस्तैः प्रायो भावः प्रशस्त एव यतः॥ इति सालंबनयोगी मनः शुभालंबन दध्यात् ॥१५॥ सालंबनं क्षणमपि क्षणमपि कुर्यान्मनो निरालंबं ॥ इत्यनुभवपरिपाकादाकालं स्यान्निरालंबनः ॥१६॥ अर्थ:-रुडे आलंबने करीने प्राये रूडो भाव होय, माटे सालंबन योगी जे रुडा जीव होय तेणे शुद्ध आलंबन धरवू ॥१५॥ अने क्षणिकमां सालंबन मन करे, अने क्षणिकमां निरालंबन मन करे, ए रीते अनुभवना परिपाकथी ते प्राणी सदा निरालंबन थाय ॥ १६ ॥ आलंब्यैकपदार्थ यदा न किंचिद्विचिंतयेदन्यत् ॥ . अनुपनतेंधनवन्हिवदुपशांतं स्यात्तदा चेतः ॥१७॥ शोकमदमदनमत्सरकलहकदाग्रहविषादवैराणि ॥ क्षीयंते शांतहृदामनुभव एवात्र साक्षात्तः ॥१८॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ अर्थ:-पछी एक पदार्थने अवलंबीने जे वारे बीजु काइ चिंतवे नही तेवारे जेम काष्ठ विनानो अग्नि उपशमे छे, तेनी परे मन उपशांतपणुं पामे ॥ १७ ॥ माटे शोक, गर्व, काम, मत्सर, क्लेश, हठ, विषाद अने वैर एटलां वानां शमतावंत प्राणीने न होय, ए वातनो साक्षी इहां अनुभव छे ॥ १८ ॥ शांते मनसि ज्योतिः प्रकाशते शांतमात्मनः सहजं ॥ भस्मीभवत्यविद्या मोहध्वांतं विलयमति ॥ १९ ॥ बाह्यात्मनोऽधिकारः शांतहृदामंतरात्मनां न स्यात् । परमात्मानुध्येयः सन्निहितो ध्यानतो भवति ॥२०॥ अर्थ:-शांत मनने विषे रहेता थका आत्मानुं शांत, स्वाभाविक, सहजानंदरूप जे तेज छे ते प्रगट थाय, तेवारे जे कुविद्या ते राख थइ जाय अने मोहांधकार नाश पामे ॥ १९ ॥ बाह्यथकी मननो जे अधिकार ते शांत परिणामी अंतरआत्मावाला प्राणीने न होय, केमके तेने ध्येयरूपी जे परमात्मा ते ध्यानथी ढुकडो छे ॥ २० ॥ कायादिबहिरात्मा तदधिष्ठातांतरात्मतामेति ॥ गतनि:शेषोपाधिः परमात्मा कीर्तितस्तज्ज्ञैः ॥२१॥ विषयकषायावेशस्तत्त्वाश्रद्धा गुणेषु च द्वेषः ॥ आत्माज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ॥२२॥ अर्थः-काया अधिष्ठित जे बहिरात्मा तेनुं अधिष्ठान जे अंतरात्मा छे ते प्रते पामे अने गइ छे समस्त उपाधि जेने तेने ज्ञानिये परमात्मा कह्यो छे ॥ २१ ॥ जेने विषयकषायनो आवेश Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરૂક हीय, तत्वनी अश्रद्धा होय, गुणी उपर द्वेष होय, अने जेने आत्मानी ओलखाण नथी तेने प्रगटपणे बहिरात्मा कहिये ॥२२॥ तत्त्वश्रद्धा ज्ञानं महाव्रतान्यप्रमादपरता च ॥ मोहजयश्च यदा स्यात् तदांतरात्मा भवेदूव्यक्तः ॥२३॥ ज्ञानं केवलसंज्ञं योगनिरोधः समग्रकमहतिः ॥ सिद्धिनिवासश्च यदा परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः॥२४॥ __. अर्थ:-जेने तत्त्वनी श्रद्धा होय, ज्ञानपणुं होय, महात्रतीपणुं होय, तथा अप्रमादीपणुं होय, एम करतां जेवारे मोहने जीते तेवारे तेने प्रगटपणे अंतरात्मा कहिये ॥ २३॥ जिहां केवलज्ञान होय अने मन-वचन-कायाना योगनिरोधी आठ कर्भ क्षय करी सिद्धमां बसे तेवारे तेने प्रगटपणे परमात्मा कहिये ॥ २४ ॥ आत्मानंतो गुणवृत्तिर्विविच्य यःप्रतिपदं विजानाति॥ कुशलानुबंधयुक्तः प्राप्नोति ब्रह्मभूयमसौ ॥ २५ ॥ ब्रह्मस्थो ब्रह्मज्ञो ब्रह्म प्राप्नोति तत्र किं चित्रं ॥ ब्रह्मविदां वचसाऽपि ब्रह्मविलासाननुभवामः ॥ २६ ॥ अर्थः-जे प्राणि आत्माने अने गुणवृत्तिने माहोमांहे वहेचण करीने ठेकाणे जोडे ते प्राणि कुशलानुबंधी पुण्य सहित मोक्षपदने पामे ॥ २५ ॥ जे ब्रह्ममा रह्यो ब्रह्मनो जाण ते ब्रह्मने पामे, एमां शो अचंबो छे ? माटे ब्रह्मवेत्ता पुरुष जे ज्ञानी तेना वचने करी ब्रह्म जे मोक्षविलासी सुख, तेने अमे अनुभवीए छीए ॥२६॥ ब्रह्माध्ययनेषु मतं ब्रह्माष्टादशसहस्रपदभावैः॥ - येनाप्तं तत् पूर्ण योगी स ब्रह्मणः परमः ॥ २७ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ ध्येयोऽयं सेव्योऽयं कार्या भक्तिः सुकृतधिया सैव ॥ अस्मिन्गुरुत्वबुद्धया सुतरः संसारसिंधुरपि ॥२८॥ अर्थः ब्रह्मअध्ययनने विषे कर्तुं छे के, अढार हजार शीलांगरथे करी जे ब्रह्मचर्यने पाम्यो, तेने पूर्ण योगी अने परम ब्रह्म कहिये ॥ २७ ॥ माटे एनेज ध्यावो, एनीज पुण्यवंते भक्ति करवी, अने एने विषे मोटापणानी बुद्धि धरीये, तो संसारसमुद्र तरवो सहेल छे ॥ २८ ॥ अवलंब्येच्छायोगं पूर्णाचारासहिष्णवश्च वयं ॥ भक्त्या परममुनीनां तदीयपदवीमनुसरामः ॥२९॥ अल्पापि यत्र यतना निर्दभा सा शुभानुबंधकरी ॥ अज्ञानविषयं यत्तद्विवेचनं चात्मभावानां ॥ ३०॥ अर्थः-इच्छायोग तो अमारे निर्बल छे, पुरो आचार पण अमे पाली शकता नथी; पण मोटा मुनिनी भक्तिए करीने तेहनी पदवीने पामशुं ॥ २९ ॥ थोडी पण जयणा कपट रहित थशे तो ते शुभ अनुबंधकारी छे, पण आत्मभावनी जे वहेंचण ते अज्ञानने टालनार छे ॥ ३० ॥ सिद्धांततदंगानां शास्त्राणां यः सुपरिचयः शक्त्या ॥ परमालंबनभूतो दर्शनपक्षोऽयमस्माकं ॥३१॥ विधिकथनं विधिरागो विधिमार्गस्थापनं विधेरिच्छा ॥ अविधिनिषेधश्चेति प्रवचनभक्तिः प्रसिद्धांतः॥३२॥ अर्थः-सिद्धांतना अमे पक्षी छीये, तेनां अंग जे शास्त्र तेनो शक्ति प्रमाणे अमारे परिचय छे, माटे परम आलंबनभूत एवो जे समकितपक्ष ते अमारे रूडो छे ॥ ३१ ॥ शुद्ध भाषर्बु, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ विधिशास्त्रनो राग करवो, शुद्ध मार्गनुं स्थापन करवू, विधिमार्गनी इच्छा राखवी, अविधि टालवी अने सिद्धांतनी भक्ति करवी ए अमारो सिद्धांत छे ॥ ३२॥ अध्यात्मभावनोज्ज्वलचेतोवृत्तोचितं हितं कृत्यं ॥ .. पूर्णक्रियाभिलाषश्चेति द्वयमात्मशुद्धिकरम् ॥ ३३ ॥ द्वयमिद शुभानुबंधः शक्यारंभश्च शुद्धपक्षश्च ॥ अहितो विपर्ययः पुनरित्यनुभवसंगतः पंथाः॥३४॥ अर्थः-अध्यात्मनी भावनाए करी उज्ज्वल एहवी जे चित्तवृत्ति तेणे करीने उचित कार्य करवू, तथा हितकारी करणी करवी, पूर्ण क्रियाना विलासनो अभिलाष धरवो, ए अमारे आत्मानी शुद्धिकारक छे, एटले एक अंतःकरणनी उज्ज्वलता जे शुद्धि करवी ते, अने बीजुं आधथी मांडी अंतपर्यंत पूर्ण शुभ क्रिया करवानी अभिलाषा ए बे वानां आत्मानी शुद्धि करनारां छे ॥ ३३ ॥ तथा एक करवा योग्य आरंभ ते शक्य आरंभ अने बीजो शुद्ध पक्ष ए बे वानां शुभानुबंधी छे, ए बे जेने प्रारंभ काले समर्थ छे, एमां जेनी शक्ति, उद्यम अने शुद्ध प्ररूपकपणुं छे तेने हितकारी माने अने एथी विपर्यास जे छे, तेने अहितकारी माने, एवी रीते अनुभवज्ञानने मलवानो पंथ छे. एथी मिथ्यात्व टले ॥३४। ये त्यनुभवाविनिश्चितमार्गाश्चारित्रपरिणतिभ्रष्टाः॥ बाह्यक्रियया चरणाभिमानिनो ज्ञानिनोऽपि न ते॥३५॥ लोकेषु बहिर्बुद्धिषु विपणिकानां बहिःक्रियासु रतिः ॥ श्रद्धां विना न चैताः सतांप्रमाणं यतोऽभिहितं ॥ ३६ ।। अर्थः-जेने अनुभवनो निश्चय नथी, अने निश्चय मार्गना चारित्रथी भ्रष्ट छे, तथा बाह्य क्रियानी आचरणा छे अने लोकमां Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ उग्र विहारी थइ आचारनो गर्व धरे छे, तेने ज्ञानी न कहीए ॥ ३५ ॥ बाह्य दृष्टिवाला जे मुख लोक ते तेने बाह्यक्रियावंत देखी प्रीति धरे, ते तो जेम कोइक वाणियो बाह्य करियाणानो व्यापार करतो देखिये तेनी परे जाणवी, माटे श्रद्धा विनानुं कशुंये प्रमाण नथी ॥ ३६॥ बालः पश्यति लिङ्गं मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तं ॥ आगमतत्वं तु बुधः परोक्षते सर्वयत्नेन ॥ ३७॥ निंद्यो न कोऽपि लोके पापिष्टेष्वपि भवस्थितिश्चिन्त्या। पूज्या गुणगरिमाढ्या धार्यो रागो गुणलवेऽपि ॥३८॥ अर्थ:-जे बाल जीव होय ते वेष जोइने परीक्षा करे, तथा मध्यम जीव ते आचरणा जोइ परीक्षा करे; अने पंडित तो ज्ञानतत्व देखी परीक्षा करे ॥ ३७ ॥ लोकने विषे कोइनी निंदा करिये नहीं. पापीने विषे महोटी संसारनी स्थिति चिंतविये, जे गुणयुक्त पुरुष होय तेनी पूजा करीये; वडाइ करीये; तथा जे अल्पगुणी होय तेना उपर पण राग धरीये ॥ ३८ ॥ निश्चित्यागमतत्त्वं तस्मादुम्मृज्य लोकसंज्ञां च॥ श्रद्धाविवेकसारं यतितव्यं योगिना नित्यं ॥३९॥ ग्राह्यं हितमपि बालादालापैर्दुर्जनस्य न द्वेष्यं ॥ सत्या याचः पराशापाशा इव संगमा ज्ञेयाः ॥४०॥ अर्थ:-आगमनो निश्चय करी लोकसंज्ञा छोडीने विवेकनो सार जे श्रद्धा तेने विषे योगीश्वरे सदा उद्यम करवो ॥३९॥ बालकथकी पण आलापे करीने हितनी वात लेवी; दुर्जन उपर द्वेष न करवो सत्य बोलवू अने पारकी आशा पास सरखी जाणवी ॥ ४०॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुत्या स्मयोन कार्यः कोपोआपच निंदया जनैः कृतया ॥ सेव्या धर्माचार्यास्तत्वं जिज्ञासनीयं च ॥४१॥ शौचं स्थैर्यमदंभो वैराग्यं चात्मनिग्रहः कार्यः॥ दृश्या भगवतदोषाश्चित्यं देहादिवरूप्यं ॥४२॥ ___अर्थः–कोइ वखाणे तो गर्व न करवो, कोइ निंदे तो कोप न करवो, धर्माचार्यनी सेवा करवी; तत्त्रने जाणवानी इच्छा राखवी ॥ ४१ ॥ पवित्रपणुं, स्थिरतापणुं अने निष्कपटपणुं आद तथा वैराग धरवो अने मनने वश करी राखवू, तथा संसारना दोष देखवा, वली देहने विनाशीपणे चिंतववो ॥ ४२ ॥ भक्तिभंगवति धार्या सेव्यो देशः सदा विविक्तश्च ॥ स्थातव्यं सम्यक्त्वे विश्वास्यो न प्रमादरिपुः ॥४३॥ ध्येयात्मबोधनिष्ठा सर्वत्रैवागमः पुरस्कार्यः॥ त्यक्तव्याः कुविकल्पाः स्थेयं वृद्धानुवृत्त्या च ॥४४॥ अर्थः-प्रभु उपर भक्ति धरवी; पशुपंडकादि दोष रहित देश जे स्थानक ते सेवQ, समकितदशामां स्थिर रहेQ, प्रमादरूप शत्रुनो विश्वास न करवो ॥ ४३ ॥ ध्येयस्वरूप जे आत्मबोध तेमां रहे, सघले स्थले आगमसिद्धांतने आगल करवं, कुविकल्प छांडवा, जे मार्गे वृद्ध चाले ते मार्गे चालवू ॥ ४४ ॥ साक्षात्कार्यतत्त्वं चिद्रूपानंदमेदुरैर्भाव्यं ॥ हितकारी ज्ञानवतामनुभववेद्यः प्रक्तारोऽयम् ॥४॥ अर्थ:-तत्त्वने प्रगट करवू, ज्ञानरूप आनंदभर रहे, ज्ञानवंतने हितकारी थइने रहे, ए अनुभववंत जीवोना प्रकार छे ॥ ४५॥ ॥ इति अनुभवाधिकारः समाप्तः ॥ २० ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्तिः येषां कैरवकुंदवृंदशशभृत्कर्पूरशुभ्रा गुणा॥ ___ मालिन्यं व्यपनीय चेतसि नृणां वैशद्यमातन्वते ॥ संतऽसंतु मयि प्रसन्नमनसस्ते केपि गौणीकृत-॥ स्वार्थोमुख्यपरोपकारविधयोऽत्युच्छंखलैःकिंखलैः॥१॥ अर्थः- चंद्रविकासी कमलना फूलनो समूह, चंद्रमा, कपूर, ए सरखा उज्ज्वला जेना गुण छे, तथा जे मनुष्यना चित्तने विषे मलिनता टालीने निर्मलता-उज्ज्वलताने विस्तारे छे एवा जे सज्जन पुरुषो ते, मारा उपर प्रसन्न मने सदैव रहेजो ! जेणे पोतानो अर्थ गौण कर्यो छे, अने जेनी मुख्यपणे परउपकारनी बुद्धि छे, एवा सज्जन जो मारा उपर प्रसन्न छे तो, उन्मत्त एवा खल जे दुर्जन लोक तेनी अप्रसन्नताए शुं थवानुं छे १ ॥१॥ 'ग्रंथार्थान् प्रगुणीकरोति सुकविर्यत्नेन तेषां प्रथा"मातन्वांत कृपाकटाक्षलहरीलावण्यतः सज्जनाः ॥ माकंदद्रुममंजरी वितनुते चित्रवा मधुश्रीस्ततः सौभाग्यं प्रथयंति पंचमचमत्कारेण पुंस्कोकिलाः॥२॥ अर्थ:-रुडा जे कवि छे, ते अर्थानुपत्तिए नवा ग्रंथ रचे; पण कृपानजरनी लेहरो तेनुं घर एवा जे सज्जन ते ग्रन्थने वखाणीने विस्तार करे छे. ते उपर दृष्टांत कहे छेजेम वसंतलक्ष्मी आंबानी मंजरीना मनोहरपणाने प्रगट करे छे, पण पोताना पंचम रागना चमत्कारे करी एटले रागनो टहुको तेणे करीने कोयल मंजरीनुं सौभाग्यपणं जगमा विस्तारे छे ॥२॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० दोषोल्लेखविषः खलानन बिलादुच्याय कोपाज्ज्वलन् जिह्वाहिर्ननु किं गुणान्न गुणिनां वासक्षयं प्रापयेत् ॥ तस्माच्चेत्प्रबलप्रभावभवनं दिव्यौषधी सन्निधौ शास्त्रार्थप्रतिपद्विदां शुभहृदां कारुण्यपुण्यप्रथा ॥ ३ ॥ अर्थ :- दोषना विस्ताररूप विषे सहित एहवं खल प्राणीना मुखरूप जे सर्पनुं घर तेथी उठीने कोपे बलतो थको एवो दुर्जननी जीभरूप जे सर्प ते गुणीना गुणने ननु के० निश्रेथी क्षयपणाने न पमाडे शुं ? अपितु पमाडेज. ते माटे महाप्रभावनुं घर वो जे शास्त्रो अर्थ छे तेनी प्राप्तिना जाण जे सज्जन तेनी जे करुणा ते पुण्य वार्त्तारूपनी बुटी एटले जडी ते दिव्य औषधि कहिये, तेनी पासे रहता थका तेने शेर चढे नहीं ॥ ३ ॥ उत्तानार्थगिरां स्वतोऽप्यवगमान्निःसारतां मेनिरे गंभीरार्थसमर्थने बत खलाः काठिन्यदोषं ददुः ॥ तत्को नाम गुणोsस्तु कश्च सुकविः किं काव्यमित्यादिकां स्थित्युच्छेदमतिं हरंति नियतां दृष्टा व्यवस्थाः सतां ॥४॥ अर्थ :- जेवारे पोतानी मेळे पद वांचतां अर्थ सुझे एवा अल्पार्थ ने सुगम पद जो अमे जोडीये तो खल माणस एम कदेशे जे, आ ग्रंथमां कांइ सार नथी, वली जो अमे गंभीर अर्थ सहित पद बांधीए तो खल माणस कहंशे के, कठण पद बांध्यां छे, एनो शुं अर्थ करीए ? ए तो मुंगानी पारसी छे. एवे ग्रंथे काइने गुण न थाय; जे आगलबुद्धि विचारे एवा आजे कोण रुडा कवि छे ? वली सर्वने भोग पडे एवां काव्य क्यों छे ! एवं दुर्जन बोले माटे ए ग्रन्थ मर्यादानी स्थितिने उच्छेद करवानी Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ मति छे; तेने जे टाले, कविना गुणने जाणे एवा जे सज्जन पुरुष तेनी व्यवस्था रूडी दीठी ॥ ४ ॥ अध्यात्मामृतवर्षिणीमपि कथामापीय संतः सुखं गाहंते विषमुद्गिरंति तु खला वैषम्यमेतत्कुतः ॥ नेदं वाद्भुतमिदुदीधितिपिबा : प्रीताश्चकोरा भृशं किं न स्युर्बत चक्रवाकतरुणास्त्वत्यंतखेदातुराः ॥ ५ ॥ अर्थ :- अध्यात्मरूप अमृतवृष्टि एवी वार्त्ता, तेनुं पान करीने सज्जन पुरुष सुख माने छे, अने जे खल लोक छे ते एवी वाणीने विषमपद कहने विषरूप प्रगट करे छे, एमां शुं आश्चर्य छे! ते उपर दृष्टांत कहे छे, जुओ चंद्रकिरणनां दर्शनथी अमृत पीने चकोर घणुं रीझ पामे छे, तो शुं चंद्र देखीने चकवो चकवी घणो खेद नथी पामतां १ अपितु पामेज छे ।। ५॥ किंचित्साम्यमवेक्ष्य ये विदधते काचेंद्रनिलाभिदां तेषां न प्रमदावहा तनुधिया गूढा कवीनां कृतिः ॥ ये जानंति विशेषमप्यविषमे रेखापरेखांशतो वस्तुन्यस्तु सतामितः कृतधियां तेषां महानुत्सवः ॥६॥ अर्थ : — जेम कांइक सरखापणुं देखीने काचमां अने इंद्रनीलमणिमां अभेदरूप ते एकपणुं जाणे, तेवा अल्प बुद्धिवालाने मोटा कविनी गूढ अर्थनी रचना ते हर्षभणी न थाय. जे प्राणी अविषम वस्तुने विषे एक रेखा, उपरेखा, अर्धरेखा इत्यादिक अंशे थकी वस्तु विशेषपणे जाणे छे, एवा कुशल बुद्धिवाला सामने ए ग्रन्थना जे भाव छे, ते महा ओच्छवरूप छे. ॥ ६ ॥ ३१ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રકર पूर्णाध्यात्मपदार्थसार्थघटना चतश्चमत्कारिणी मोहच्छन्नदृशां भवेत्तनुधियां नो पंडितानामिव ।। काकुव्याकुलकामगर्वगहनप्रोदाम वाक्चातुरी कामिन्याःप्रसभं प्रमोदयति न ग्राम्यान् विदग्धानिवाजा अर्थ:-जेमा पूर्ण अध्यात्म पदार्थ ते सहित घटना छे, पण जेनी दशा अज्ञाने करीने अवराणी छे एवा अल्पबुद्धिवालाना चित्तमां तो जे रीते पंडित लोक आवा ग्रंथथी रीझ पामे ते रीतनो चमत्कार न उपजावे. तेहनो दृष्टांत-जेम कामे व्यापी थकी, अंतरंगमां विषयसुखने इच्छती थकी, तथा बाह्यथी भय शोक धरती थकी, पुरुषने वल्लभ, हुं रूपवती एम गर्वे भरी थकी, रुडी वचननी चतुराइ करनार एवी जे चतुर स्त्री होय ते पण गामडीआ मूर्खने रीझवी न शके, पण पंडितने तो आनंद पमाडे तेनी पेरे जाणवू ॥७॥ स्नात्वा सिद्धांतकुंडे विधुकरविशदाध्यात्मपानीयपूरैस्तापं संसारदुःखं कलिकलुषमलं लोभतृष्णां च हित्वा॥ जाता ये शुद्धरूपाः शमदमशुचिताचंदनालिप्तगात्राः शीलालंकारसाराः सकलगुणनिधीन्सज्जनांस्तान्नमामः८ अर्थः-सिद्धांतरूप कुंडमां चंद्र सरखा निर्मल अध्यात्म रूप पाणीना पूरमां स्नान करीने, भवदुःखरूप जे ताप अने पापरूप जे मल तथा लोभ, ने तृष्णाने छांडीने, यथा शुद्धरूपे करी, वली समतारूप इंद्रियदमन जे पवित्र ते रूप चंदने करी शरीर विलेपित छ जेनु, वली शीलरूप घराणे करी शोभता, सर्वगुणना निधान एवा जे सज्जन तेने अमे नमीए छीए. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ पाथोदः पद्यबंधैर्विपुलरसभरं वर्षति ग्रंथकर्ता प्रमेणां पुरैस्तु चेतःसर इह सुहृदां प्लाव्यते वेगवद्भिः॥ त्रुट्यंति स्वांतबंधाः पुनरसमगुणद्वेषिणां दुर्जनानां चित्रं भावज्ञनेत्रात् प्रणयरसवशानिःसरत्यश्रुनीरम्॥९॥ अर्थः-जे ग्रंथकर्ता मेघ सरखा छे ते पद्यबंधे करीने, बहु रसभरे, वरसता थका ते प्रेमरूप पूर ते सज्जनना चित्तरूप सरोवरमां वेगे करीने भराय छे, वली असाधारण गुणना द्वेषी जे दुर्जन, तेना तो अंतःकरणना बंध तूटे छे, अने एवा विचित्रकारी जे ग्रंथ तेना भावना जाण जे पुरुष छे ते विनयेप्रणीत रसे उज्ज्वला छे तेना नेत्रथी स्नेहरूप आंसु झरे छे ॥९॥ उद्दामग्रंथभावप्रथनभवयशः संचयः सत्कवीनां क्षीराब्धिर्मथ्यये यः सहृदयविबुधैर्मेरुणा वर्णनेन ॥ एतडिंडीरपिंडी भवति विधुरुचेमडलं विप्लुषस्ता स्ताराः कैलासशैलादय इह दधते वीचिविक्षोभलीला॥१०॥ अर्थ:-रुडा कविनी उद्दामके० प्रौढ एहवी जे प्रथना भावनी रचना तेणे करीने उपनो जे यशनो समूह ते रूप क्षीर समुद्र ते सजन पंडिते वर्णनरूपी मेरुए करीने मथ्यो तेथी प्रगट्यूं जे फीण, तेनो उज्ज्वलो चन्द्रमा थयो; वली तेने वलोवता जे छांटा उड्या तेनां तारामंडल थयां; तथा कैलासादिक पर्वत थया, ए रीते ग्रंथनो जश लीलाए करी प्रसों ॥ १० ॥ काव्यं दृष्ट्वा कवीनां हृतममृतमिति स्वः सदां पानशंकी खेदं धत्ते तु मूर्ना मृदुतरहृदयः सजनो व्याधुतेन ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ज्ञात्वा सर्वोपभोग्यं प्रसृमरमय तत्कीर्तिपीयूषपूरं नित्यं रक्षाविधानानियतमतितरां मोदते च स्मितेन ॥११॥ ___अर्थः-कविनां काव्य देखीने अमृत हरायु, एम विचारीने देवताओ सदा अमृत पीवानी शंका धरता थका खेद घरे छे. शामाटे जे मृदु सुकोमल छे हृदय जेनुं एवा जे सज्जन ते मस्तक धूणावीने जे सर्वने उपभोग्यपणे प्रसरतुं एवं, कविनी कीर्तिरूप अमृतनुं पूर तथा जेने निरंतर रक्षारूप ढांकणुं अत्यन्तपणे दीधुं छे तेने जाणीने, देखीने हर्ष पामे छे ॥ ११॥ निष्पाद्य श्लोककुंभं निपुणनयमृदा कुंभकाराः कर्वीद्रा दाढ्यं चारोप्यस्मिन् किमपि परिचयात्सत्परीक्षार्कभासाम् पक्कं कुर्वति बादं गुणहरणमतिप्रज्वलदोषदृष्टिज्वालामालाकराले खलजनवचनज्वालजिहे निवेश्य॥१२॥ ___ अर्थः-रुडा नयरूप माटीवडे कवीश्वररूपी जे कुंभकार ते श्लोकरूप घडो निपजावे, पछी जेम कुंभकार ते घटने परिचयथी हाथे झाली, टपणे समारी तडके मूके तेम श्लोक घटने परिचय विचारीने पद अक्षर आघापाछा होय तेने समारे एवी रीते तडके मुके; पछी पंडितने देखाडी परिपक्क करे, ते जाणे नीभाडो देखाडे छे. हवे दुर्जन जाणे जे ए पंडित छे, तेथी माहरा गुण हरण थशे, एम बलतो थको पंडितनी जोडेली कलामां दोष काढवानी दृष्टिरूप आगमनी ज्वालानी श्रेणि तेणे करी विकराल एवी पोतानी नजररूप अग्नि, वली ते दुर्जननां जे वचन ते जाणे निंदारूप अग्निनी ज्वाला तेणे करी घडेली जीम ते Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेहु अग्निना वचमां ग्रंथरूप घडो मूकीने पाको करे छे, अने नीभाडानी राख थाय, घटमूल पोसाय छे ॥ १२ ॥ इक्षुद्राक्षारसौघः कविजनवचनं दुर्जनस्याग्नियंत्रानानार्थद्रव्ययोगात्समुपचितगुणे मद्यतां याति सद्यः॥ संतः पित्वा यदुचैर्दधति हृदि मुदं घूर्णयंत्यक्षियुग्मं स्वैरं हर्षप्रकर्षादपि च विदधते नृत्यगानप्रबंधं ॥१३॥ ... अर्थः-शेलडी अने द्राक्षना रसना समूह सरखं कविर्नु वचन छे; पण दुर्जनरूपी अमिनुं जे यंत्र छे ते मध्ये नाना प्रकारना द्रव्यना योगथकी रुडी रीते गुणपुष्टिने पामतुं एहवू कवितुं जे वचन ते, ताजा मदिरापणाने पामे छे ते मदिराने हर्षे करी सज्जन पुरुष पान करीने हृदयमां हर्ष धरे छे तेथी में आंखों घुर्णायमान थाय छेः स्वइच्छाये हर्षना कल्लोलथी पण श्लोकनो भावार्थ पामीने नाचे छे गाय छे ॥ १३ ॥ . . नव्योऽस्माकं प्रबंधोऽप्यनणुगुणभृतांसज्जनानांप्रभावात् विख्यातः स्यादिति सुहितकरणविधौ प्रार्थनीया न किं नः॥ निष्णाताश्च स्वतस्ते रविरुचयइवांभोरहाणां गुणानामुल्लासेऽपेक्षणीयो न खलु पररुचा कापि तेषां स्वभावः॥१४ ..... अर्थ:-अमारो ग्रंथ नवो छे, तोपण महागुणवंत जे सज्जन तेना प्रभावथकी विख्यात थजो ! ए रीते रुडा हितने अर्थे अमारे ए सज्जनने प्रार्थना करवा योग्य नथी शुं १ अपितु छे ज. जेम कमलना गुणने उल्लास करवाने सूर्यनां किरण छे एम पोताथकी जे प्रविण छे एवा ते सजनना जे स्वभाव ते क्याये पररुचिभणी निश्चे उवेखवा योग्य नथी ।। १४ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૧૬ यत्कीर्त्तिस्फूर्तिगानावहितसुरवधूवृंद कोलाहलेन प्रक्षुब्धस्वर्ग सेतोः पतितजलभरैः क्षालितः शैत्यमेति ॥ अश्रांतभ्रांतकांत ग्रहगणकिरणैस्तापवान् स्वर्णशैलो भ्राजते ते मुनींद्रा नयविजयबुधाः सज्जनत्रातधुर्या: । १५ । अर्थ : - हवे पोताना गुरुनो वर्णन करे छे. जेनी प्रसरती जे कीर्त्ति तेने गावाने सावधान एटले स्वर्गमां देवतानी अप्स - राओ जे छे ते श्रीनय विजयजीना गुण गाय छे, तेना गीत शब्दना कोलाहले करीने क्षोभना पामी एवी जे स्वर्ग नदी तेनी पाज मांगी, तेथी पड्यं जे जल तेना समूहे करी पखाल्यो जे मेरु पर्वत, तेणे करी मेरुपर्वत पण शीतलताने पाम्यो छे. नहि तो अहर्निश प्रदक्षिणाये भमता जे ग्रहमंडल तेना किरणे करी तापवत मेरु हतो, ते हमणां शीतल थयो थको शोभे छे. एवा मुनींद्र श्रीनय विजयनामा पंडित जे सज्जन पुरुषोना समूहमां वडेरा हता ॥ १५ ॥ चक्रे प्रकरणमेतत्तस्पद सेवापरो यशोविजयः ॥ अध्यात्मधृतरुचीनामिदमानंदावहं भवतु ॥ १६ ॥ अर्थः -- तेना चरणना सेवक उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ए प्रकरण करता हवा. ते अध्यात्मने विषे जेणे रुचि घरी छे, एवा प्राणीने रुचि सहित ए प्रकरण आनंद सुखनुं आपनार होजो ॥ १६ ॥ ॥ इति सज्जन स्तुतिअधिकार एकविंशतितमः समाप्तः ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ ॥ इति महोपाध्याय श्रीकल्याणविजयजीगणि शिष्यमुख्य पंडित श्री लाभविजयगणि शिष्य मुख्य पंडित श्रीजित विजयगणि तच्छिष्पमुख्य पंडित श्रीनयविजयगणी चरणकमलचंचरीकेण पंडित श्रीपद्मविजयगणिसहोदरेण पंडित श्री यशोविजयेन विरचिते अध्यात्मसारप्रकरणे. सप्तमबंधः समाप्तः ॥ ॥ इति श्रीमत्तपागच्छे भट्टारक श्रीविजयसिंहसूरीश्वरं शिष्य पंडित श्रीसत्यविजयणि शिष्य पंडित श्री कर्पूर विजयगणि शिष्य पंडित श्रीक्षमा विजयगणि शिष्य पंडित श्रीयशोविजयगणि शिष्य पंडित श्रीशुभ विजयगणि शिष्य पंडित श्रीवीरविजयगणिभिरध्यात्मसार ग्रंथस्य वार्त्तिकरूपो मुनि कीर्त्तिविजयस्यानुग्रहाया यंटबार्थः कृतः संवत् १८८१ चैत्र शुक्लपक्षे पूर्णिमायामितिश्रेयः ॥ Page #253 --------------------------------------------------------------------------  Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SU