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________________ १८५ निमित्तमात्र थयु, अन्वयी के० सहचारी थयु. जेम घटने विषे दंड सहचारी छे तेनी पेठे जाणवू ॥ ४४ ।। ज्ञानाख्या चेतना बोधः कख्यि द्विष्टरक्तता ॥ जंतोः कर्मफलाख्या सा वेदना प्यपदिश्यते ॥४५॥ नात्मा तस्मादमूर्त्तत्वं चैतन्यं चातिवर्तते ॥ अतो देहेन नैकत्वं तस्य मूर्तेन कर्हिचित् ॥ ४६॥ ___ अर्थ-ज्ञान नामे चेतना ते बोध छे अने कर्म नामे द्विष्ट रक्तता छे, तेवडे जीवने कर्मफल नामे वेदना व्यपदेश पामे छे ॥ ४५ ॥ ते माटे अमूर्त आत्मा ते चैतन्यपणाने उलंधे नही अने मूर्तिमान् देह साथे आत्माने कोइ प्रकारे एकत्वपणुं छेज नही ॥ ४६ ॥ सन्निकृष्टान्मनोवाणीकर्मादेरपि पुद्गलात् ॥ विप्रकृष्टाद्धनादेश्च भाव्यैवं भिन्नात्मनः ॥ ४७ ।। पुद्गलानां गुणोमूर्तिरात्मा ज्ञानगुणः पुनः॥ पुद्गलेभ्यस्ततो भिन्नमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥ ४८ ॥ अर्थः-ए रीते कर्म वर्गणाना, मनोवर्गणाना, वचनवर्गणाना जे आत्माने समीपवर्ति, एकत्वसंगतवर्ति एवा तनधनादिक जे पुद्गल ते तो सर्व आत्माथी भिन्न के० दूर छे ॥ ४७ ॥ केमके पुद्गलनो गुण तो मूर्तिमान छे, अने आत्मा तो ज्ञानगुणमय छे; माटे पुद्गलथी आत्मद्रव्य जुदुं छे एम प्रभु कहे छ ।४८। धर्मस्य गतिहेतुत्वं गुणो ज्ञानं तथात्मनः ।। धर्मास्तिकायात्तद्भिन्नमात्मद्रव्यं जगुर्जिनाः ॥४९॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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