________________
૨૦૮
तपःसंयमयोः स्वर्गहेतुत्वं यच्च पूर्वयोः ॥
उपचारेण तद्युक्तं स्याद् घृतं दहतीतिवत् ॥ १४७ ॥ येनांशेनात्मनो योगस्तेनांशेनाश्रवो मतः ॥ येनांशेनोपयोगस्तु तेनांशेनास्य संवरः ॥ १४८ ॥
अर्थः- जे पूर्वे कहेला तप अने संयम स्वर्गहेतु छे, ते पण उपचारे कहिये. सर्वपरिणामे छे, पण जेम घी बले छे ए उपचारे छे, पण अग्नि बले छे ए खरुं छे ।। १४७ ॥ जे अंशे करी आत्मा योगवर्त्ती थयो ते अंशे आश्रव कहिये अने जे अंशे आत्मा उपयोगी थयो ते अंशे संवर कहिये ॥ १४८ ॥ तेनासावंशविश्रान्तौ विश्रदाश्रव संवरौ ||
भ्रात्यादर्श इव स्वच्छास्वच्छ भागद्वयः सदा ।। १४९।। शुद्धैव ज्ञानधारा स्यात्सम्यक्त्व प्राप्त्यनंतरं || हेतुभेदाद्विशेषे तु योगधारा प्रवर्त्तते ॥ १५० ॥
अर्थ :- ते माटे आ अंश विश्रांतिने विषे आश्रवसंवर धरे छे, तेमां एक छे मलिन अने एक छे निर्मल; जेम आरिसाना पछवाडानो भाग मलिन छे अने आगलो भाग निर्मल छे तेहनी परे सदाय निर्मल मलिन ए वे भागे करीने आत्मा अरिसानी पेठे शोभे छे ॥ १४९ ॥ समकित पाम्या पछी जे शुद्ध ज्ञानधारा प्रगटे ते हेतुभेदकी विशेषे करी योगधारा प्रवर्त्ते छे ॥ १५० ॥
सम्यग्दृशां विशुद्धत्वं सर्वास्वपि दशास्वतः | मृदुमध्यादिभावस्तु क्रियावैचित्र्यतो भवेत् ॥ १५१ ॥