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अंग कां छे ।। १४१ ॥ जे रुडा मन-वचन-कायाये करी प्रवर्तकुं तेहना जे पुल ते फलदायी छे, पण जे ज्ञानादिक भाव छे, ते संवरपणाने पामे छे ॥ १४२ ॥
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ज्ञानादिभावयुक्तेषु शुभयोगेषु तद्गतं ॥
संवरत्वं समारोप्य स्मयंते व्यवहारिणः ॥ १४३ ॥
प्रशस्तरागयुक्तेषु चारित्रादिगुणेष्वपि ॥ शुभाश्रवत्वमारोप्य फलभेदं वदंति ते ॥ १४४ ॥
अर्थ :- ज्ञानादिक भावे युक्त एवा जे शुभ योग तेने विषे तद्गत जे संवरत्व तेने आरोपीने व्यवहारे प्रवर्त्तक जे जीव ते हर्ष पामे छे ।। १४३ || रुडा रागे युक्त एवा जे चारित्रादिक गुणतेने विषे पण शुभ आश्रवपणुं आरोपीने फलभेद कड़े छे ॥ १४४ ॥
भवनिर्वाणहेतूनां वस्तुतो न विपर्ययः ॥
अज्ञानादेव तद्गानां ज्ञानी तत्र न मुह्यति ॥ १४५ ॥ तीर्थकृन्नामहेतुत्वं यत्सम्यक्त्वस्य वर्ण्यते ॥ यच्चाहारहेतुत्वं संयमस्थातिशायिनः
॥ १४६ ॥
अर्थः - संसार तथा मोक्षनो हेतु तेने वस्तुतत्त्वे कांह विपर्यास नथी, पण अज्ञानना योगथकी ते जगाये विपर्यासपणु थाय छे, पण तिहां ज्ञानी पुरुष कांइ मुंज्ञाता नथी ॥ १४५ ॥ जिननाम कर्मनो हेतु जे समकित ने वर्णवीएं छीए, ते पण उपचारे कहेवाय छे, अने आहारक शरीरनो हेतु जे अतिशय लब्धिवंत संयमी मुनि ते पण उपचारे कहेवाय छे ।। १४३ ॥