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________________ २४० दोषोल्लेखविषः खलानन बिलादुच्याय कोपाज्ज्वलन् जिह्वाहिर्ननु किं गुणान्न गुणिनां वासक्षयं प्रापयेत् ॥ तस्माच्चेत्प्रबलप्रभावभवनं दिव्यौषधी सन्निधौ शास्त्रार्थप्रतिपद्विदां शुभहृदां कारुण्यपुण्यप्रथा ॥ ३ ॥ अर्थ :- दोषना विस्ताररूप विषे सहित एहवं खल प्राणीना मुखरूप जे सर्पनुं घर तेथी उठीने कोपे बलतो थको एवो दुर्जननी जीभरूप जे सर्प ते गुणीना गुणने ननु के० निश्रेथी क्षयपणाने न पमाडे शुं ? अपितु पमाडेज. ते माटे महाप्रभावनुं घर वो जे शास्त्रो अर्थ छे तेनी प्राप्तिना जाण जे सज्जन तेनी जे करुणा ते पुण्य वार्त्तारूपनी बुटी एटले जडी ते दिव्य औषधि कहिये, तेनी पासे रहता थका तेने शेर चढे नहीं ॥ ३ ॥ उत्तानार्थगिरां स्वतोऽप्यवगमान्निःसारतां मेनिरे गंभीरार्थसमर्थने बत खलाः काठिन्यदोषं ददुः ॥ तत्को नाम गुणोsस्तु कश्च सुकविः किं काव्यमित्यादिकां स्थित्युच्छेदमतिं हरंति नियतां दृष्टा व्यवस्थाः सतां ॥४॥ अर्थ :- जेवारे पोतानी मेळे पद वांचतां अर्थ सुझे एवा अल्पार्थ ने सुगम पद जो अमे जोडीये तो खल माणस एम कदेशे जे, आ ग्रंथमां कांइ सार नथी, वली जो अमे गंभीर अर्थ सहित पद बांधीए तो खल माणस कहंशे के, कठण पद बांध्यां छे, एनो शुं अर्थ करीए ? ए तो मुंगानी पारसी छे. एवे ग्रंथे काइने गुण न थाय; जे आगलबुद्धि विचारे एवा आजे कोण रुडा कवि छे ? वली सर्वने भोग पडे एवां काव्य क्यों छे ! एवं दुर्जन बोले माटे ए ग्रन्थ मर्यादानी स्थितिने उच्छेद करवानी
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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