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________________ २४१ मति छे; तेने जे टाले, कविना गुणने जाणे एवा जे सज्जन पुरुष तेनी व्यवस्था रूडी दीठी ॥ ४ ॥ अध्यात्मामृतवर्षिणीमपि कथामापीय संतः सुखं गाहंते विषमुद्गिरंति तु खला वैषम्यमेतत्कुतः ॥ नेदं वाद्भुतमिदुदीधितिपिबा : प्रीताश्चकोरा भृशं किं न स्युर्बत चक्रवाकतरुणास्त्वत्यंतखेदातुराः ॥ ५ ॥ अर्थ :- अध्यात्मरूप अमृतवृष्टि एवी वार्त्ता, तेनुं पान करीने सज्जन पुरुष सुख माने छे, अने जे खल लोक छे ते एवी वाणीने विषमपद कहने विषरूप प्रगट करे छे, एमां शुं आश्चर्य छे! ते उपर दृष्टांत कहे छे, जुओ चंद्रकिरणनां दर्शनथी अमृत पीने चकोर घणुं रीझ पामे छे, तो शुं चंद्र देखीने चकवो चकवी घणो खेद नथी पामतां १ अपितु पामेज छे ।। ५॥ किंचित्साम्यमवेक्ष्य ये विदधते काचेंद्रनिलाभिदां तेषां न प्रमदावहा तनुधिया गूढा कवीनां कृतिः ॥ ये जानंति विशेषमप्यविषमे रेखापरेखांशतो वस्तुन्यस्तु सतामितः कृतधियां तेषां महानुत्सवः ॥६॥ अर्थ : — जेम कांइक सरखापणुं देखीने काचमां अने इंद्रनीलमणिमां अभेदरूप ते एकपणुं जाणे, तेवा अल्प बुद्धिवालाने मोटा कविनी गूढ अर्थनी रचना ते हर्षभणी न थाय. जे प्राणी अविषम वस्तुने विषे एक रेखा, उपरेखा, अर्धरेखा इत्यादिक अंशे थकी वस्तु विशेषपणे जाणे छे, एवा कुशल बुद्धिवाला सामने ए ग्रन्थना जे भाव छे, ते महा ओच्छवरूप छे. ॥ ६ ॥ ३१
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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