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________________ रमणीमृदुपाणिकंकणकणनाकर्णनपूर्णघूर्णनाः॥ अनुभूतनटीस्फुटीकृतप्रियसंगीतरता न योगिनः॥४॥ अर्थ-स्त्रीना सुकोमल हाथमा रह्यां जे कंकण तेनो शब्द सांभलीने पूर्णपणे घुम्यां छे लोचन तेनी अनुभवन दिशारूप नाटक करनारी स्त्रीये प्रियकारी संगीतबध नाटक कीयां तो पण तेमां योगीश्वरनुं मन रंगाय नही, एटले लोभाय नहीं ॥ ४ ॥ स्खलनाय न शुद्धचेतसां ललनापंचमचारुघोलना ॥ यदियं समतापदावलीमधुरालापरतेन रोचते ॥५॥ अर्थः-स्त्रीनी पंचमरागनी घोलना ते समतापदनी श्रेणिना मधुर आलापनी रतिवाला शुद्ध चेतनावंत योगीने रुपे नहीं, एटले शुद्ध चेतनावंतने खलनाकारी न थाय ॥ ५॥ सततं क्षयि शुक्रशोणितप्रभवं रूपमपि प्रियं न हि ॥ अविनाशिनिसर्गनिर्मलप्रथमानस्वकरूपदर्शिनः ॥६॥ अर्थ:-अविनाशी सहज निर्मल अने विस्तार पामतुं एहवू जे पोतानुं स्वरूप तेहना जोनार योगीश्वर तेने तो जेनुं निरंतर शील क्षय थाय छे अने वीर्यरुधिरथी उपनुं एवं जे स्त्री आदिकनुं रूप ते प्रियकारी लागतुं नथी ॥ ६ ॥ परदृश्यमपायसंकुलं विषयो यत्खलु चर्मचक्षुषः॥ न हि रूपमिदं मुदे यथा निरपायानुभवैकगोचरः॥७॥ अर्थः-जेवो निरपाय के० जेहनो नाश नथी एहवो अनुभवदिशाने जोवानो रस छे तेवो रूप ते परपदार्थ के० बीजाने जोवा योग्य छ, तथा नाशवंत छ; अने चर्मचक्षुनो विषय
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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