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________________ अथ ध्यानाधिकारः स्थिरमध्यवसानं यत्तद्धयानं चित्तमस्थिरं ॥ भावना चाप्यनुप्रेक्षा चिंता वा तत्रिधा मतं ॥१॥ मुहूर्तातर्भवेड्यानमेकार्थे मनसः स्थितिः ॥ बह्वर्थसंक्रमे दीर्घाप्यच्छिन्ना ध्यानसंततिः ॥ २॥ अर्थ-चित्त चपल छे, पण ते चित्तने जे स्थिरपणे चित्तना अध्यवसायने प्रगट करे तेवारे तेने ध्यानयोगी कहिये.. एक भावना, बीजी अनुप्रेक्षा, अने त्रीजुं चिंतानुं ध्यान-ए त्रण प्रकारे चित्त चपल थाय छे ॥ १ ॥ अंतर्मुहूर्ते ध्यान होय, पण जिहां एक ठामे एक अर्थने विषे घणा अर्थ- संक्रमण थाय, एवी मननी स्थिति होय तिहां ध्याननी अविच्छिन्न दीर्घपणे परंपरा थाय. तिहां कोई अंतर्मुहूर्त्तनो नियम नथी ।। २ ॥ आर्त रौद्रं च धर्म च शुक्लं चेति चतुर्विधं ॥ तत्स्या दाविह द्वौ द्वौ कारणं भवमोक्षयोः ॥३॥ शब्दादीनामनिष्टानां वियोगासंप्रयोगयोः॥ चिंतनं वेदनायाश्च व्याकुलत्वमुपेयुषः ॥४॥ ___अर्थ-आर्त, रौद्र, धर्म ने शुक्ल-ए चार ध्यानना भेद छे. ते मध्ये प्रथमनां बे ध्यान ते संसारनां कारणिक छे, अने पाछलां बे ध्यान ते मुक्तिनां कारणवाची छे ॥ ३ ॥ तेमां प्रथम आर्तध्यानना चार भेद कहे छे. प्रथम अनिष्ट जे शब्दादिक, तेनो वियोग वांछे के रखे अनिष्टनो संयोग बने तेम अनिष्ट मले जे पीडा थाय तेनुं चिंतन करे तेथी व्याकुल थाय ॥ ४ ॥
SR No.023433
Book TitleAdhyatmasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay, Veervijay
PublisherAdhyatmagyan Prasarak Mandal
Publication Year1938
Total Pages254
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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