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कर्तृबुद्धिगते दुःखसुखे पुंस्युपचारतः॥
नरनाथे यथा भृत्यगतौ जयपराजयौ ॥५३॥ . का भोक्ता च नो तस्मादात्मा नित्यो निरंजनः । अध्यात्मादन्यथाबुद्धिस्तदा चोक्तं महात्मना ॥५४॥
अर्थ:-आत्माने विषे दुःख-सुख पामशुं, एहवी कर्तापणानी बुद्धि जे थाय छे ते उपचारथी छे. जेम सेवकनो जय अथवा पराजय ते राजा होवाथी जणाय छे ॥ ५३ ॥ इत्यादिक माटे आत्मा कर्ता भोक्ता नथी पण नित्य निरंजन छे, अने जे बुद्धि छे ते तो अध्यात्मथी जुदी छे एवं महात्मा कपिल मुनिए कहेलुं छे ॥ ५४॥ प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वथा ॥
अहंकारविमूढात्मा कर्ताह मिति मन्यते ॥ ५५॥ विचार्यमाणं नो चारु तदेतदपि दर्शनं ॥
प्रकृतिचैतन्ययोर्व्यक्तं सामानाधिकरण्यतः॥५६॥ ___ अर्थः-प्रकृतिना गुणे करी क्रियमाण जे कर्म तेनो हुँ कर्ता छ, एम सर्व प्रकारे अहंकारे मूढ आत्मा माने छे ॥ ५५ ॥ एवो विचार करेथी ए दर्शन पण रुडुं नथी; केमके प्रगट बुद्धि प्रकृति अने चैतन्यनो सामानाधिकरणे विचार करतां रुडु नथी जणातुं ॥ ५६ ॥ बुद्धिः की च भोक्री च नित्या चेन्नास्ति निर्वृत्तिः॥
अनित्या चेन्न संसारः प्रागधर्मादेरयोगतः ॥७॥ प्रकृतावेव धर्मादिस्वीकारे बुद्धिरेव का ॥
सुवचश्च घटादौ स्यादीग्धान्वयस्तथा ॥ ५८॥
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