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अर्थ-देवलोकनां सुख तो दूर छे. वली मोक्ष पदवी ते तो मोटी छे, अने भवस्थितिने हाथ छे, तेवारे मननी पासे प्रगटपणे देखीयें एवी समतानुं सुख ते शुं खोटुं छे ? ॥ १३ ॥ समतारूप अमृतकुंडमां स्नान करवाना प्रभावथी आंखथकी कंदपरूप दर्पनुं विष सोषाइ जाय छे क्रोधरूप ताप नाश पामे छे उद्धताइ रूपी मेल ते पण दूर थाय छे. ॥ १४ ॥ जरामरणदावाग्निज्वलिते भवकानने ॥
सुखाय समतैकैव पीयुषघनवृष्टिवत् ॥१५॥ आश्रित्य समतामेका निर्वृता भरतादयः॥ न हि कष्ट मनुष्ठानमभूत्तेषां तु किंचन ॥ १६ ॥
अर्थ-जन्म, जरा, मरणरूप दावानलें करी बलतुं एवं संसाररूप वन तेमां समतानुं जे सुख छे ते अमृतना वर. साद सरखं जाणवु ॥ १५ ॥ चित्रशाली मध्ये एकज समताने अवलंबता भरतराजा आदि आठ पाट केवल पामीने सिद्ध थया पण तेमने कष्टक्रिया कांइ पण करवी पडी नही, एहवी ए समता छे ॥ १६॥ अर्गला नरकद्वारे मोक्षमार्गस्य दीपिका ॥
समता गुणरत्नानां संग्रहे रोहणावनिः ॥ १७ ।। मोहाच्छादितनेत्राणामात्मरूपमपश्यतां॥ दिव्यांजनशलाकेव समता दोषनाशकृत् ॥ १८ ॥
अर्थ-वली समता ते नरकने बारणे भोगल जेवी छे, अने मोक्षमार्गनी दीवि छे. वली गुणरूप रत्ननो संग्रह करवाने रोहणाचल पर्वतनी भूमिका सरिखी छे ॥ १७ ॥ जेनां नेत्र