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पुण्य ने पाप तो पुट्टलरूप छे. प्रथम बालकाले जे शरीर तेने उपादानभावे कल्पे छे ॥ ५९ ॥ जे शुभ कर्म ते पुण्य कहीये, अने जे अशुभ कर्म ते पाप कहिये, तेवारे ते शुभ कर्म जे छे ते जीवने संसारमा केम पाडे छे ? ॥ ६० ॥ न वायसस्य बंधस्य तपनीयमयस्य च ॥
पारतंत्र्याविशेषेण फलभेदोऽस्ति कश्चन ॥ ६१ ॥ फलाभ्यां सूखदुःखाभ्यां न भेदः पुण्यपापयोः ॥ दुःखान्न भियते हंत यतः पुण्यफलं सुखं ॥ ६२॥
अर्थ:-एक लोहनी बेडी अने एक सुवर्णनी बेडी ते पण परवशपणुं छे, माटे विचारीए तो फलभेद कांइ नथी, तेम अशुभ कर्म ते लोहनी बेडी अने जे शुभ कर्म ते सुवर्णनी बेडी ॥ ६१ ॥ सुखनां फल अने दुःखनां जे फल प्रगटे छे, तेथी पुण्यपाप मध्ये कांइ भेद नथी. जे थकी पुण्य सुख विलसे ए पुण्यनुं फल छे, ते पण दुःखरूप ज छे ॥ ६२ ॥ सर्व पुण्यफलं दुःखं कर्मोदयकृतत्वतः॥
तत्र दुःखप्रतीकारे विमूढानां सुखत्वधीः ॥ ६३ ॥ परिणामाच्च तापाच्च संस्काराच बुधैर्मतं ॥
गुणवृत्तिविरोधाच दुःखं पुण्यभवं सुखं ॥ ६४ ॥ ___अर्थः-माटे सर्व पुण्यनुं फल ते दुःखरुप छे, केमके ए कर्मना उदयथी थाय छे; माटे दुःखना प्रतीकारने विषे मूर्खने सुखबुद्धि उपजे छे ।। ६३ ॥ पंडित कहे छे के, परिणामथी, तापथी अने संस्कारथी गुणवृत्ति विरोधी एहवु जे पुण्य, तेथी नीपन्यु जे सुख ते दुःखप्राय छे ॥ ६४ ॥