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छे, एवं केवली कहे छे || ३७ ॥ जिनशासनने विषे तो ए सर्व घटमान छे, शरीरथी प्रगटपणे नित्य छे, वळी अनित्य पण छे; तेमज भिन्नाभिन्नपणुं छे; तथा एकपणुं छे अने अनेकपणं पण छे; वली आत्माने विषे पण तेमज कहेतुं ॥ ३८ ॥ आत्मा द्रव्यार्थतो नित्यः पर्यायार्थाद्विनश्वरः ॥ हिनस्ति हन्यते तत्तत्फलान्यप्यधिगच्छति ॥ ३९ ॥ इह चानुभव: साक्षी व्यावृत्यान्वयगोचरः ॥ एकांतपक्षपातिन्यो युक्तयस्तु मियो हताः ॥ ४० ॥
अर्थ — आत्मा द्रव्यार्थिकन ये नित्य छे अने पर्यायार्थिकनये अनित्य छे; ए जीव कोइने हणे छे, अथवा कोइ ए जीवने हणे छे, तेनां फल परभवमां आत्मा भोगवे छे ॥ ३९ ॥ ए जैननी शैलीये अन्वय अने व्यतिरेक ए बे गुणे सहित एवो जे अनुभव ते साक्षी करतां थकां एकांत मतवालानी युक्तियो मामा हाइ जाय छे ॥ ४० ॥
पीडाकर्तृत्वतो देहव्यापस्या दुष्टभावतः ॥
त्रिधा हिंसागमे प्रोक्ता न हीत्थमपहेतुका ॥४१॥ हंतुजप्रति को दोषो हिंसनीयस्य कर्म्मणि ॥ प्रसक्तिस्तदभावे चान्यत्रापति मुधा वचः ॥४२॥
अर्थ - पीडा करवाथी, देहपीडाथी, दुष्टभावथी, एवा त्रण प्रकारनी हिंसा सिद्धांतमां कही छे, ते कांइ जूठी नथी ॥ ४१ ॥ जे प्राणीनुं स्वकृत कर्मनो उदय थये थके मृत्यु थयुं तो तेना हणनारने शो दोष छे ? एटले हिंसा न थइ; अने जे हणाणो तेनां कर्म उदय आव्यां, ते तेणे भोगव्यां तो तेमां शी