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१८२ . अर्थ-जेम मध्याह्ने मृगजलवडे पृथ्वी उपर जलपूर देखाय छे, तेम संयोगे उपनी• जे सृष्टि ते विवेकनी ख्यातिये नाश देखाय छे ॥ २९ ॥ जेम गंधर्वनगरवडे आकाशे आडंबर जणाय, तेम संयोगे प्रगटया जे सर्व विलास ते जूठा छे ॥३०॥ इति शुद्धनयायत्तमेकत्वं प्राप्तमात्मनि ॥ ___ अंशादिकल्पनाप्यस्य नेष्टा यत्पूर्णवादिनः ॥३१ ॥ एक आत्मेति सूत्रस्याप्ययमेवाशयो मतः ॥
प्रत्यग्ज्योतिषमात्मानमाहुः शुद्धनयाः खलु ॥३२॥ _____ अर्थ-ए रीते शुद्ध नये जे एकत्वपणुं ग्रयुं ते आत्माने विषे पाम्युं अने अंशादिकनी जे कल्पना ते पूर्ण वादीने वहाली नथी ॥ ३१ ॥ सूत्रमां, " एगे आया " एवो जे पाठ छे, ते एज आशये कह्यो छे. एक प्रगट ज्योतिरूप जे आत्मा ते तेजरूप छे, एम शुद्ध नयवाला कहे छे ॥ ३२ ॥ प्रपंच संचयक्लिष्टान्मायारूपाविभेमि ते ॥
प्रसीद भगवन्नात्मन् ! शुद्धरूपं प्रकाशय ॥ ३३ ॥ देहेन सममेकत्वं मन्यते व्यवहारवित् ॥ कथंचिन्मूर्ततापत्तेर्वेदनादिसमुद्भवात् ॥ ३४ ॥
अर्थ-निश्चय नय कहे छे के, प्रपंच संचयवडे संक्लिष्ट एटले दुःखरूप एवं जे ए मायारूप छे ते थकी हे भगवन् ! हे आत्मा ! हुं बीहुँ छ; माटे प्रसन्न थाओ अने शुद्धरूप प्रकाश करो ! ॥ ३३ ॥ कोइक प्रकारे रूपीपणुं पाम्यो जे आत्मा तेने वेदनादिक उपजे छे; माटे व्यवहार नयवालो शरीर साथे आत्मानु एकत्वपणुं माने छे ॥ ३४ ॥