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आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेति चतुर्विधाः ॥ उपासकास्त्रयस्तत्र धन्या वस्तुविशेषतः ॥ ७७ ॥ ज्ञानी तु शांतविक्षेपो नित्यभक्तिर्विशिष्यते ॥ अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरंतरात्मा सदाशयः ॥ ७८ ॥
अर्थ – एक दुःखी, बीजो जाणवानी इच्छावालो, त्रीजो धननो अर्थी अने चोथो ज्ञानी - ए चार प्रकारना हे अर्जुन ! मारा सेवको छे; पण ते मध्ये एक धनार्थी विना जे बीजा त्रण जाना सेवक ते वस्तुतत्वना जाण छे माटे धन्य छे - वखाणवा योग्य छे ॥ ७७ ॥ ए त्रणने धन्य कह्या तेमां पण जेनो विक्षेप शम्यो छे, अने नित्य भक्तिवंत एहवो ज्ञानी पुरुष जे चोथो ते मोटो जाणवो. ते ज्ञानी अमारी पासे अत्यंत नजीक रहे छे माटे श्रेष्ठ छे, केमके अंतरात्माए वर्त्ते छे, अने तेना आशय निर्मल छे; ते माटे ॥ ७८ ॥
कर्मयोगविशुद्धस्तद्ज्ञाने युंजीत मानसं ॥
अनश्चाश्रद्दधानश्च संशयानो विनश्यति ॥ ७९ ॥ निर्भयः स्थिरनासाग्रदत्तदृष्टिर्वते स्थितः ।
सुखासनः प्रसन्नास्यो दिशश्चानवलोकयन् ॥ ८० ॥
अर्थ – हे अर्जुन ! कर्मयोगे विशुद्ध थको ते प्राणी ज्ञानमां पोतानुं मन जोडे छे, अने हे अर्जुन ! एक मूर्ख, बीजो श्रद्धा रहित अने बीजो संशयभरेलो माणस ए त्रणे विनाश पामे छे ।। ७९ ।। निर्भय, नासिकाना अग्रभागने विषे दृष्टि राखीने स्थिर रहेनार, तथा निरंतर व्रतमां रहेनार, एहवो सुखासने बेठो, वली प्रसन्न मुख छे जेहनुं अने एकदृष्टि राखनार, अब नही जोनार ॥ ८० ॥