Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 24
________________ समयसारः । केऽप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यांतर्मग्नानंतस्वधर्मचक्रचुंबिनोपि परस्परमचुंबतोत्यंतप्रत्ययासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतंतः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानंतव्यक्तित्वादृंकोत्कीर्ण इव तिष्ठ॑तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णतो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौंदर्यमापद्यंते । प्रकारांतरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः । एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति जीवाह्वयस्य समयस्य बंधकथाया एव विसंवादत्वापत्तिः । कुतस्तन्मूलपुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वमूलपरसमयोत्पादितमेतस्य द्वैविध्यं । अतः समयस्यैकत्वमेवावतिष्ठते ॥ ३ ॥ तथैतदसुलभत्वेन विभाव्यते; ११ सुपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥ ४ ॥ नादिपर्यायाः । एयन्ते एकत्वे तन्मयत्वे या बंधकथा प्रवर्तते तेण तेन पूर्वोक्तजीवपदार्थेन सहसा विसंवादिणी विसंवादी कोर्थः ? विसंवादिनीकथा । प्राकृतलक्षणबलात् पुल्लिंगे स्त्रीलिंगनिर्देशः । विसंवादिनी असत्या होदि भवति । शुद्धनिश्वयनयेन शुद्धजीवस्वरूपं न भवतीत्यर्थः । ततः स्थितं स्वसमय एवात्मनः स्वरूपमिति ॥ ३ ॥ अथैकत्वपरिणतं शुद्धात्मवाली [ भवति ] है । टीका - यहां समयशब्द से सामान्यकर सभी पदार्थ कहे जाते हैं क्योंकि समय शब्दका अक्षरार्थ ऐसा है कि 'समयते' अर्थात् एकीभावकर अपने गुणपर्यायोंको प्राप्त हुआ जो परिणमन करे वह समय है । इसलिये सब ही धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, जीव द्रव्यस्वरूप लोकमें जो कुछ पदार्थ हैं वे सभी अपने द्रव्यमें अंतर्मग्न हुए अपने अनंत धर्मोंको चुंबते - स्पर्शते हैं तौभी आपस में एक दूसरेको नहीं स्पर्श करते । और अत्यंत निकट एकक्षेत्रावगाहरूप तिष्ठ रहे हैं तौभी सदाकाल निश्वयकर अपने स्वरूपसे नहीं चिगते, इसीलिये विरुद्धकार्य-स्वभावसे विपरीत कार्य और अविरुद्धकार्य-स्वभावरूपकार्य इन दोनों हेतुओंसे हमेशा सब आपस में उपकार करते हैं । परंतु निश्चयकर एकत्वनिश्चयपनेको प्राप्तहुए ही सुंदरता पाते हैं । क्योंकि जो अन्य प्रकार होजायें तो संकर व्यतिकर आदि सभी दोष उसमें आजावें । इसतरह सब पदाथके भिन्न २ एकपना सिद्ध होनेपर जीव नामा समयको बंधकी कथासे विसंवादकी आपत्ति होती है । क्योंकि बंधकथाका मूलकारण जो पुद्गलकर्मके प्रदेशों में तिष्ठनेरूप परसमयपना उससे उत्पन्न हुआ जीव में परसमय स्वसमयरूप द्विविधपना आता है । इसलिये समयका एकपना होना ही सिद्ध होता है और ये ही प्रशंसा करने योग्य है | भावार्थ — निश्चयसे सब पदार्थ अपने २ स्वभाव में ठहरते हुए शोभा पाते हैं । परंतु जीव नामा पदार्थ की अनादिकाल से पुद्गलकर्मके साथ निमित्तरूप बंधअवस्था है उससे जीव विसंवाद खड़ा होता है, इसलिये शोभा नहीं पाता । इसकारण वास्तवमें विचारा जाय तो एकपना होना ही अच्छा है उसीसे यह जीव शोभा पासकता है || ३ || आगे

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