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योगसार टीका । दुष्कर्ममल नाश होजाता है, अक्षरमय वाणी नहीं होती हैं, मेयकी गजनाके समान निरक्षरी ध्वनि निकलती है। भूख, प्यास, भय, पसीना नहीं होता है। हरएक प्राणीको समझानेकी क्रिया नहीं होती है । साधारण श्वनि निकलती है | भूमिका स्पर्श नहीं होता है ! इन्द्रियजनित सुख भी नहीं रहता है । अतीन्द्रिय स्वाधीन सुख होता है। शरीरकी छाया नहीं पड़ती है ! इन्दियोंकी प्रभा नहीं रहती है। आतापकारी मूर्यकी भी प्रभा नहीं होती है। वहाँ अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं, तब स्फटिक समान तेजस्वी शरीरकी मूर्ति होजाती है । सात धातुएं नहीं रहती हैं। दोपोंका क्षय हो जाता है। १ भूस्त्र,
प्यास, ३ भय, ४ राग, ५ द्वेष, ६ मोह, चिन्ता, ८ जरा. ९ रोग, १० मरण, ११ पसीना, १२ रनेद, १३ मद. १४ रति, १५ आश्चर्य, २६ जन्म, १५ निद्रा, ५.८ विषाद ये अठारह दोष तीन जगतके प्राणियों में साधारण पाए जाते हैं। जिनमें ये दोष होते हैं. उनको संसारी प्राणी कहते हैं । जो इन दोसि रहित हैं वही निरञ्जन आप्त अरईत होता है।
समवसरण स्तोत्रमें उक्तं च गाथा है
पुवढे मज्झते, अवरहे मज्झिमाय रत्तीए । व्हायडियाणिगायदिवझुण्णी कहइ सुतस्थे ॥१॥
भावार्थ-समवसरणमें श्री तीर्थकर भगवानकी दिव्यवाणी सबेरे, दोपहर, सांझ, मध्यरात्रि इसतरह चार दफे छः छः घड़ी तक सूनार्थको प्रगट करती हुई निकलती है।
तेरहये गुणस्थानको सर्वांग इसलिये कहते है कि वहाँ योगशक्तिका परिणमन होता है जिससे कर्म नोकर्मवर्गणाओका ग्रहण होता है, आत्माके प्रदेश चश्चल होते हैं । इस चञ्चलताके निमित्त